साहित्य संवेदनात्मक सत्याग्रह है। कवि अपने संवेदन जगत को जितना साधता है वह उतना ही प्रभावोत्पादक काव्य रचता है। नन्दकिशोर आचार्य किसी साधक की तरह काव्य को साधते हुए गहरी लय के साथ कविता रचते हैं। उनकी कविता की ताकत कविता की संगीतातमक लय है। चॉद आकाश गाता है। ‘गाना‘ वह लय के बगेर असंभव है। यह कवि शब्दों को लय में ढालता हुआ शब्द-विधान करता है। वह जीवन केे गीत को गहरी लय में गाते हैं। जैसे वे कहते हैं
गाते-गाते उसे
चुप हो गया जंगल
स्पन्दित है सन्नाटा,
उस के मौन के रव से
यह मौन की अभिव्यंजना है मौन का संगीत है। जिसे अज्ञेय कहते हैं। मौन भी अभिव्यंजना है जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो। यह बाबा की अनकही सी कुछ कहनी है। मलयज का हॅसता हुआ अकेलापन है। यह प्रकृति के संगीत को पकड़ने का साहस है। आज की भीड़भाड की जिंदगी में कहां है मौन का रव। माथा फटने लगता है। जीवन का संगीत आधुनिक जीवन शैली में अपनी लय कहीं खोता जा रहा है। वह खोखला होता जा रहा है। ऐसे में जंगल की लय को पकड़े की कोशिश है। वे भी कहां बचे हैं। उनकी लय भी खत्म की जा रही है।
नन्द किशोर जी |
आचार्य जी की कविताओ में गहरा दार्शनिकबोध है जिसमें जीवन की रागात्मकता की संगीतात्मकता है। उनके यहां कहीं रेत का राग है तो कहीं जंगल का रव है। यह राग जीवन का राग है जिसको मृत्यु का बोध है। वह उसको जानते हुए जीवन के राग में संगीत घोल रहा है। यहां मृत्यु के साथ भी जीवन का राग है। कवि के लिए शब्द ही ईश्वर है। आचार्य शुक्ल कविता को शब्द-विधान कहते हैं। हर कवि जीवन को अलग तरह से देखने का प्रयास करता है। वह प्रकृति के साथ जीवन के राग को तराशता है। वह कभी रेत राग तो कभी चॉद से आकाश का गीत गुनगुनाता है। यह आकाश का गीत मनुष्य की लय का गीत है। प्रकृति के साथ मनुष्य के रिश्ते बहुत प्रचीन है। केदारनाथ अग्रवाल कहते हैं ‘पेड़ नहीं पृथ्वी के वंशज है.
फल लिए फूल लिए मानव के अग्रज है‘
प्रकृति मनुष्य को जितना भौतिक समृद्ध करती है उतनी ही जीवन की लय भी देती है। समृद्धि के साथ लय का होना आवश्यक होता है नही तो जीवन अपनी गति खोता जाता है। मनुष्य अत्यधिक भौतिकवादी होने पर उपभोक्ता होता जाता है। वह अपने जीवन की स्वाभाविक लय से बहिष्कृत होता हुआ पराभव का शिकार होता है।
मृत्यु से की होती
इतनी मैं ने प्रार्थना
वह भी बख्श देती मुझे
तुम्हें तो बस मुझ को
आवाज देनी है
मेरे जिलाने के लिए। पृसं-62
केवल एक शब्द है-ईश्वर
कोरा भ्रम
कैसे कवि हो तुम-
शब्द से बड़ा सच क्या है?
वही तो है
कवि का ईश्वर!
पृ.सं-114
कवि शब्दों की ओट में ही बोलता है। वह जितना वहां जाएगा उतना ही लाएगा। आचार्य जी का अभी एक और संग्रह आया है पतझड़ गाना चाहता है। कवि जीवन के हर संघर्ष में लय खोजता है। वह कभी रेत में लय खोजता है कभी प्रकृति में कभी पतझड़ में। यह रेत ‘रेत मैं हूं जमुन जल तुम तुमने मुझे हृदय तल से ढ़क लिया है और अपना कर लिया है‘ केदारनाथ अग्रवाल की रेत से अलग रेगिस्थान की रेत है। यह रेत रेत ही है। पानी नहीं हवा का प्रवाह उसे गति देता है और वह हवा के साथ अपना राग गाती है। इसलिए वहां संघर्ष का संगीत है। प्रेम का रसराग नहीं। यह विरानी का संगीत है। पतझड़ का राग विराग नहीं है। वह रव लिए हुए है। यह सूखी रेत का राग है। कवि के यहां राग ही जीवन है राग के बगेर जीवन दुश्वार है! वह कहता है
‘आना
जैसे आती है सॉस
जाना
जैसे वह जाती है
पर रुक जाना
कभी
कभी जैसे वह
रुक जाती है।‘ पृसं-40
लेकिन हम जो जिन्दा कहलाते हैं
दफन वे भी हो जाते हैं
शव के साथ ज्यों ताबूत
अतीत को अपने में
शव-सा सॅजों रखना
खुद का हो जाना है ताबूत
उम्र को कब्र करना है पृसं-27
मनुष्य के जीवन की लय गतिशीलता में होती है। वह अतीत को गाता है न की ढोता! परम्परा की कोख से ही आधुनिकता पैदा होती है। ऐसे कोई भी जीवनद्रष्टि अधूरी होती है जिसमें जीवन की संभावना का राग न हो। यह आना जाना और रुक जाना! फिर जीवन को गति देना! अपने को प्रकृति की लय के साथ गाना!
‘अंधकार में नदी
किनारे
जाने किस की यादों में
डूबा है
बूढ़ा चॉद।‘ पृसं-95
यह यादों का सफर, नदी का संगीत उम्र का ढलान! जीवन कहां है। यादो में या यादों के संगीत में। मनुष्य अपने को अपने आसपास के जीवन संगीत में खोजते हुए लय को पाता है। वहां से कटकर नहीं। कवि जीवन की समृद्धि अकेले में सबके साथ देखता है।
समीक्षक:-
कालुलाल कुलमी
९५९५६१४३१५,
महात्मागांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा,
पंचटीला गांधी हिल महाराष्ट्र 422001
'चॉद आकाश गाता है':- नन्द किशोर आचार्य वाग्देवी प्रकाशन बीकानेर,प्रसं- 2008 मूल्य-150
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