लूस इरीगरी ने स्त्री विमर्श के नये आयाम खोले। यह इटालियन विचारक थी। अपने समय के तमाम ज्ञानानुशासनों का अध्ययन कर इसने फ्रायड़ और लाकां को चुनौती दी। हमारे आसपास जिस तरह की कईं स्त्री-विमर्शकारों की तरह नहीं कि अपने फायदे के लिए ज्ञान का उपयोग करो और उसके बाद वही करो जो अपने लिए है। ये वही विमर्शकार है जो चिखते ज्यादा है और काम कम करते हैं। इनकी जिंदगी और विचारों में गहरा मतभेद है। खैर यह अलग विचार का विषय है। लूस इरीगरी ने अपने अध्ययन में इस तह की खोज की कि समाज की मूल संरचना में स्त्री कहां है। समाज उसको कैसे देखता है! उसके साथ भाषा,विचार और जीवन स्तर पर क्या घटित होता है। समाज उसको रचता है या वह अपने को स्वयं ही रचती है! समाज में स्त्री लींग का क्या आशय है? पावर में वह कहां है? या समाज की नींव में वह कहां है! पुंसवादी विमर्श ने उसको कहां जगह दी? और वह जगह क्यों दी! इसी पर सवाल हैं। वह कहती है कि भाषा में स्त्री कहीं नहींे हैै। पश्चिम की प्रत्येक सभ्यता मां की मौत पर टिकी हुई है। ऐसा क्यों है ?ऐसे में स्त्री अपने को कहां तलाशे! जिस समाज में स्त्री अपनी अस्मिता को कहां तलाशे! भाषा के पुंसवादी चरित्र को लूस इरीगरी ने पहली बार पहचाना।
भाषा किसी भी समाज का प्रवेश द्वार होती है। ऐसे में यदि उस भाषा में ही विभेद है जिस तरह से वर्ण या वर्ग! तब समानता की कल्पना कैसे की जा सकती है! जहां स्त्री महज एक उत्पाद है वहां आप कैसे उसकी स्वतंत्र पहचान की कल्पना कर सकते हैं। मार्क्स कहते हैं कि वस्तुएं अपने उत्पादनकर्ता,विनिमयकर्ता और उपभोककर्ता की भाषा ही बोल सकती है। इसके विस्तार में क्या-क्या है! स्त्री के साथ यही है कि उसके पास अपनी भाषा नहीं है। वह उधार की भाषा से काम चलाती आयी है! उसकी चेतना का विकास न भाषा में हे न व्यवहार में। वह महज सेक्स सिम्बोल ही होती है। लूस पर गहरा प्रतिवाद करती है और भाषा के शास्त्र को ही खारिज करती है। उसकेे मूल चरित्र के हर पहलू को खोलती है खासकर उसके वर्चस्व को!
लूस की पुस्कत ‘स्पेकुलम‘ 1974 में आयी। इसमें फ्रायड और लाकां की जबरदस्त आलोचना की। लूसी को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। हर तरह की समस्या की सामना करते हुए उसने अपने विचारों को व्यक्त करना जारी रखा। स्पेकुलम एक तरह का शीशा होता है जिससे डाक्टर शरीर के भीतरी भाग में किसी छिद्र को देखने में उपयोग में लाते हैं। इरीगरी के अनुसार लाकां और फ्रायड स्त्री के शरीर को केवल एक गड्डे के रुप में देखते हैं।इरीगरी ने दर्शन की अपेक्षा इतिहास को खंगालने का काम किया। दर्शन और इतिहास के अंतर को समझा जा सकता है। इतिहास तथ्योें के साथ अपने को दर्ज करता है। दर्शन के पास देखने का नजरिया होता है। दर्शन कल्पना के साथ अपने को गतिशील रखता है।
इतिहास अपने तथ्यों से बाहर नहीं जा सकता। यह तथ्य है कि स्त्री इतिहास में नहीं थी तो इसको नकारा नहीं जा सकता। इसी तथ्य के सहारे स्त्री जीवन को गहरे से समझा जा सकता है। किसी भी समाज की वस्तु स्थिति से वहां के हालात को गहरे से समझा जा सकता है। लूस ने मिथकों को गहरे से विशलेषित किया। उनके मनोलोक से समाज के मनोलोक को परखने की कोशिश की। उनका मानना है कि मिथक समाज के मनोविज्ञान को गहरे से प्रभावित करते हैं। वह स्त्रियों की जिस तरह की छवि का निर्माण करते हैं वह समाज के मनोलोक की कार्यप्रणाली को समझाती है। कौन किस तरह से कटघरे में खड़ा होाता है। और उसके क्या कारण होते हैं! स्त्री के मनोलोक में गहरा अधूरापन पनपाना हो या फिर उसे पुंसवादी धारणा में रखकर बांज या फिर नकारा घोषित करना आम धारणा होती है। ऐसे में स्त्री को अपनी भाषा के साथ-साथ अपने लिये जमीन भी खोजनी होगी! उसे समानांतर संसार का सृजन करना होगा! वह यह उसी हालात में कर सकती है जब वह अपनी द्रष्टि इजाद करले अपनी नजर से जमाने को देखे! वह हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करे। वह हां हां में नही ंना कहना सीखे और साहस के साथ कहे। खण्ड़न करते हए ही मंडन कर सकती है! उसे अपने को विश्वास में रखते हुए आगे का रास्ता बनाना है।
इतिहास के इस मोड पर आजादी से सबको खतरा है। वह पुंसवादी समाज राज्य बाजार,सभी तरह की शोषणकारी ताकते आजादी से डरती है। एक में स्त्री के लिए जरुरी है कि वह अपने अनुकूल जीवन-ज्ञान-व्यवस्था का इजाद करें नहीं तो उसका हश्र वही होना जो बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार का हुआ। सत्ता के दंभ में रहे और उसी ने डुबों दिया। यह इतिहास की अनिवार्यता ही है कि वह अवसर देता है और अवसर छीनता भी है। वह जिसको स्थापित करता है उसको उखाड़ता भी है। लूस का विशलेषण सत्ता के गणित के अभेद किले में सेंध मारता है।
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