'मूल्य संक्रमण के दौर में' सदाशिव श्रोत्रिय के निबंधों का संग्रह है। ये सन् उन्नीस सौ नब्बे से दो हजार के बीच लिखे गए आलेख हैं। आज की इस चकाचैंध भरी दुनिया में मुद्दे पैदा किये जाते हैं। ऐसे में उन्हीं समस्यों पर विचार किया जाता है जिनसे बाज़ार या व्यवस्था को फायदा मिलता हो। ऐसे में सामान्य सी बाते कितनी महत्वपूर्ण है वह इस पुस्तक में देखा जा सकता है। अपने आसपास की दुनिया जिसको हम अक्सर नजरअंदाज कर जाते हैं- अपने गली मोहल्ले की गंदगी हो, अपने घर आंगन की गंदगी हो, स्कूल कालेज की समस्या हो, या अपने आसपास का बदलता माहौल हो। किस तरह हमारी जीवन शैली ही हमारा मूल्य बनता चलता है और हमें खबर ही नहीं रहती, हम उपरी समाज को देखते रहते हैं और अंदर की दुनिया से बेखबर रह जाते हैं । जिसे साधन और साध्य की पवित्रता कहा जाता है उसकी और आज की सामाजिक दृष्टि नहीं मिलती। आज का दौर अजीब सी गति का दौर है, वहां आपको महत्व इस वजह से दिया जाएगा कि आप किसी भी काम को कर सकते कि नहीं, आप कैसे करते हैं उसका कोई मतलब नहीं। लेखक की चिंता यहीं से प्रारंभ होती है। वे मूल्य जो कभी हमारे समाज में आदर्श होते थे आज पूरी तरह से विस्थापित हैं।
आज चालाकी, बेईमानी, रिश्वतखोरी, धोखा, अपने काम को किसी भी तरह से निकालना,झूठ बोलना जैसे असामाजिक और अमानवीय मूल्य समाज में लगातार स्वीकृत हो रहे हैं। किसी में कितने ही दुर्गुण हो वे उसके एक काम से नजरअंदाज हो जाते हैं। वह पैसा कमाता है! वे लिखते हैं 'विकास की इस अंधी दौड़ में किसी के पास समय नहीं है। हर काई सरपट भाग रहा है। मनुष्य बहुत एकांगी हो गया है उसे अपने अलावा कुछ नहीं दिखता! शिक्षा जिससे मनुष्य का सम्पूर्ण विकास होता है वह मूल्य आधारित नहीं रही, वह दौड़ में बदल गयी है। वह महज आंकड़ों का खेल बना दी गई है। शिक्षित होने का अर्थ अब बेहतर इन्सान बनना न होकर अधिक पैसा कमाने में समर्थ होना रह गया था।'
यही आज का मूल्य है। जिस तरह विकास के नाम पर कितने ही आदिवासी और कमजोर लोग अपनी ही धरती से बेदखल किये जा रहे हैं वही मानवीय मूल्यों के साथ भी हो रहा है। शिक्षा की सबसे ज्यादा दुर्दशा की है इस विकास ने! 'उत्सव और विशिष्ट अवसरों को अतिमहत्त्व देने वाले हमारे इस दर्शन से प्रभावित हम शायद यह भूल ही जाते हैं कि शिक्षा की सार्थकता उसे पाने वाले औसत व्यक्ति की सर्वांगीण प्रगति में है न कि गलाकाट प्रतियोगिता के इस युग में किसी एक शिक्षण संस्था के औरों से बाज़ी मार ले जाने वाले छात्रों की संख्या में। इसके प्रभाव में हम यह भी भूल जाते हैं कि किसी भी प्रगति में उसका हर चरण समान रूप से महत्त्व का होता है। यदि हम शिक्षा की तुलना किसी भवन के निर्माण से करें तो इस दर्शन के तहत हम जीवन की श्रेष्ठता में जैसे हर ईंट की मज़बूती के महत्त्व को नकार रहे होते हैं। '
आज का समाज अपने इतिहास,परम्पराबोध, सामाजिकबोध से बेखबर हैं। वह अपने में मस्त हैं। उसे न 1857 की महान् क्रांति की कोई खबर है न आजादी के संघर्ष की! उसे केवल येनकेन प्रकारेण सुविधा के तमाम संसाधन जुटाने की फिक्र है। वह उसके लिए किसी की परवाह नहीं करता। ऐसे में समस्या यह है कि उसे अपने समाज की क्या फिक्र होगी! वह कैसे अपने आसपास को बेहतर बनाने का प्रयास करेगा!, वह कैसे समतामूलक समाज की कल्पना करेगा। जाति धर्म सम्प्रदाय के नाम पर समाज में विद्वेष फैलानेवालों से कैसे लड़ेगा।
इस पुस्तक में राष्ट्र भाषा के सवाल पर बहुत विस्तार से विचार किया है। शिक्षा- जिससे कोई भी समाज अपने को गतिशील बनाता है; अपने युगबोध को अर्जित करता है उस पर बहुत गहरे से विचार किया है। वह स्कूली शिक्षा हो या कालेज की उसमें गुणवता को बनाये बगैर कोई समाधान नहीं है।' वस्तुतः ट्यूशन करने वाले अध्यापक के मन में एक सूदखोर शाइलाक आ बैठता है जो अपने छात्र से ट्यूशन की फीस वसूल किए बिना उसे अपनी विद्या देने को तैयार नहीं होता। उसका हृदय उन तमाम छात्रों के प्रति कठोर हो जाता है जो उसकी फीस देने में असमर्थ हैं।'
आज कापी पेस्ट की समस्या शोध में ही हो ऐसा नहीं है। सदाशिव श्रोत्रिय लिखते हैं 'स्कूल कालेज जो में पासबुक और टयुशन की दुकानदारी चलती है। वहां अध्यापक बनिये की भूमिका में होता है। वह अध्यापक नहीं होता! वहां किस मूल्य की कल्पना की जा सकती है। वहां एक ही मूल्य है। पैसा कमाना और छात्र का उद्धेश्य भी सालभर मस्ती करना अंत में पासबुक से रटकर पास होना! वहां ज्ञान का स्वतंत्र अन्वेषण क्या होगा! ज्ञानान्वेषी विद्वान की तुलना वस्तुतः किसी ऐसे पर्वतारोही से की जानी चाहिए, जिसका स्वयं की जान जोखिम में डाल कर किन्हीं अविजित व दुर्गम पर्वत शिखरों पर चढ़ने का प्रयास भले ही किसी को मूर्खतापूर्ण व आत्मघाती लगे, पर्वतारोहण की दृष्टि से उसे जीवन की अन्यतम उपलब्धि ही कहा जाएगा.'
लेखक अपने शहर नाथद्वारा पर बेबाक लिखता है। वहां की हर समस्या पर वह चिंतित है। वह शहर की गंदगी हो या फिर जमीन की खरीद! यह हालात हमारे शहरों नगरो और महानगरों में और भी बदतर है। लेकिन इन छोटी समस्याओं पर विचार करने का समय किसी के पास नहीं है। डॉ. श्रोत्रिय इस मायने में नयी पीढी के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि अपने शहर से प्रेम किये बिना राष्ट्र और अन्तत:दुनिया से प्रेम कैसे किया जा सकता है.प्रकृति को वे इसी कड़ी में जोड़ते हुए लिखते हैं 'ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के समय के प्रसिद्ध कवि वडर्सवर्थ ने जब अपनी एक कविता में यह कहा कि हम केवल कमाने और खर्च करने में अपनी शक्तियों को नष्ट कर रहे हैं और प्रकृति में उसे नहीं देख पा रहे हैं जो कि हमारा अपना है, तब उसने संभवतः जीवन में फुर्सत के अभाव से उत्पन्न दारिद्रय को महसूस किया था।'
यह किताब कई मायने में पठनीय है। अपने आसपास के जीवन को देखने के लिए तथाकथित आधुनिकता के नाम पर बाजार अपने समाज को जिस तरह की जीवन शैली दे रहा है वह कितनी तेज (? है कि उसमें कहीं विराम ही नहीं। ऐसे में यह पुस्तक अपने जीवन और समाज को देखने की अन्वेषी द्रष्टि प्रदान करती है और जरा ठहर कर सोचने को विवश करती है!
कालुलाल कुलमी
(केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर शोधरत कालूलाल
मूलत:कानोड़,उदयपुर के रेवासी है.)
वर्तमान पता:-
महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,
पंचटीला,वर्धा-442001,मो. 09595614315
पुस्तक - मूल्य संक्रमण के दौर में ,लेखक-सदाशिव श्रोत्रिय ,बोधि प्रकाशन, एफ-77 ,से. 9,
रोड न. 11 , करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया,बाइस गोदाम, जयपुर-302006,फोन 0141-2503989
प्रसं- 2011
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