कुरजां संदेश पत्रिका का प्रवेशांक शताब्दी के महानायक के रुप में आया है। प्रेमचंद गांधी के संपादन में निकलनेवाली यह छःमाही पत्रिका है। प्रेम का संदेश लानेवाला यह पक्षी हमें यही संदेश दे रहा कि प्रेम को परोसो! हिन्दीवाले अपने रचनाकारों का शताब्दी वर्ष बहुत धूमधाम से मना रहे हैं। सरकारी खर्चों पर भी और संस्थाओं के खर्चों पर भी! यह बहुत ही सराहनी और स्वागत योग्य कदम है। कईं पत्रिकाओं के स्वतंत्र विशेषांक भी निकले। विज्ञापन का प्रोग्राम बहुत ही अजीब है यह अलग ही बहस की मांग करता है। सभी ने अपनी डपली अपना राग अलापा! जिसे हिन्दी में समग्रता कहते हैं, जिसे साहित्य की संवादधर्मिता कहा जाता है वह शायद कहीं खो गई हैं। कुरजां का यह प्रवेशांक इसलिए भी हमें टटोलता है कि इसने हिन्दी की समग्रधर्मिता का निर्वाह किया है। यह वर्ष सिर्फ शमशेर केदार नागार्जुन और अज्ञेय का नहीं हैं। है और भी सुखन वर उनका भी हैं। जिसे विश्व साहित्य कहा जाता है उसमें ऐसे कईं महानायक है जिनको याद करने का भी समय है।
हिन्दी के हिमालय ;-हिन्दी के हिमालय स्तभ में हिन्दी के जिन रचनाकारों का शताब्दी वर्ष है उनको याद किया है। बाबा नागार्जुन को माधव हाड़ा सत्यनारायण ओमेंद्र ओमप्रकाश वाल्मीकि और केदारनाथ अग्रवाल ने याद किया है। बाबा की यात्राएं ही उनका जीवन थी वे अपने बेटे से कहते हैं ‘जब भी बीमार पड़ंू तो किसी नगर के लिए टिकिट लेकर टेªन में बैठा देना,स्वस्थ हो जाऊंगा‘ यह बाबा की ललक है वर्ना बीमार होने पर यात्राएं कौन करेगा यहां तो यात्राएं स्थगित होती है। बाबा की यह यायावरी ही उनको कहां-कहां ले गयी। सत्यनारायण कहते है कि वह ऐसे फकीर है जो सबकी खैर मांगते हमसफर थे। बाबा आभिजात्य को हर कदम पर चुनौती देते हैं। यह उनका स्वभाव था। बाबा की हरिजन गाथा के आलोक में वाल्मीकि जी ने बाबा की काव्य द्रष्टि पर विचार किया है। बाबा की इस कविता में दलितों को मनु पुत्र कहा है। दलित साहित्य मनु स्मृति को ही सारे शोषण की जड़ मानता है और बाबासाब ने उसे जलाया भी इसी कारण था। फिर दलित चेतना प्रतिहिंसा की चेतना नहीं है। वहां तो बुद्ध की करुणा है। वहीं केदार जी बाबा को मित्र भाव से याद करते हैं और अपने नगर आने और अपने को जन मन का सजग चितेरा कहने की खुशी जाहिर करते हैं।
अज्ञेय जिनको कवि नायक कहा जाता है उनको याद करते हुए प्रो. नन्दकिशोर आचार्य उनको स्वतंत्रता का अन्वेषी कहते हैं। यहां उनका लम्बा साक्षात्कार है जिसे नन्द भारद्वाज, प्रेमचंद गांधी, ईशमधु तलवार और फारुक अफरीदी ने लिया है। इसमें अज्ञेय की हर रचना विधा पर बात की है। कविता में विचारधारा का प्रभाव और उसके कारण कविता का प्रभाव क्षीण होना, कला की दुनिया, अज्ञेय की कम बोलना मौन भी उनके यहां अभिव्यजंना है। एक लय के साथ जीनेवाले अज्ञेय जितने लय में रहते थे उतनी ही लय वे जीवन में भी बरतते थे। शब्दों का उपयोग वे बहुत ही सलीके से करते। नफासत के साथ। यह साक्षात्कार बहुत ही उपयोगी है। रमेशचंद्र शाह ने अज्ञेय की पत्रकारिता पर बहुत ही विस्तार से विचार किया है। लियाकत अली भट्टी ने अज्ञेय के साथ अपने फोटोग्राफी के अनुभव सांझा किये हैं। मैं जब अज्ञेय की तस्वीरे ले रहा था तो उन्होंने तुझे कहा,‘आज तो आपने मुझे देवानंद बना दिया।‘ हिन्दी के महत्वपूर्ण लेखक मनोहर श्याम जोशी ने अज्ञेय को याद करते हुए अपनी प्रभावी भाषा में बहुत कुछ कह दिया। अज्ञेय किस तरह कि अंतरराष्ट्रीय शक्सियत थी। ‘‘अगर जैनेन्द्र‘गांधी स्मारक निधि है तो सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन‘अज्ञेय‘‘नेहरु अभिनंदन ग्रंथ है‘‘केदार को हिमांशु पंड्या ने अलग तरह से याद किया है। छायावाद के बाद का समय और उसके कारण जिस नये भावबोध का आविष्कार हुआ वह समाज के यथार्थ को कई तरह से प्रभावित करता है। डालर का आंतक हो या फिर केदार की चिंता काटो काटो करबी काटो। लोक के आस्वाद की कविता! हवा हूं हवा मैं बसंती हवा! शमशेर की निगाह से केदार बुनियादी तौर पर एक नॉर्मल रोमानी कवि है,छायावादी रोमानी नहीं। यही वजह है कि केदार का प्रकृति और प्रेम का संसार बहुत ही व्यापक है।
उपेन्द्र नाथ अश्क। अपने समय में बहुत विवादों में रहे। हेतु भारद्वाज उनकी बहुमुखी प्रतिभा के बारे में कहते हैं कि वे गिरती दीवारें से लेकर बांधो न नाव इस ठांव जैसे उपन्यासों के माध्यम से स्वतंत्र भारत का इतिहास लिखने का प्रयास कर रहे थे। हेतु जी अपने अनुभवों का सांझा करते हुए कहानी आंदोलनों के पक्षों को बताते हुए कहते कि साहित्य में यह होता है ऐसे में आपकोे तय करना होता है कि आप कहां है! कमलेश्वर और अश्क के विरोधाभास को बताया, इससे हिन्दी कहानी की पहचान आसान होती है।
नंद चतुर्वेदी संस्मरण के माध्यम से उनको याद करते हैं और उनकी मुखरता को उजागर करते हैं। नीलाभ अश्क को पिता की तरह नहीं एक लेखक के रुप में याद करते हैं। इसी वजह से वे निषपक्ष बात कहते हैं।शमशेर का साहित्य और कला की दुनियां में अलग ही नाम है। उनके काव्य को समझना इतना आसान नहीं होता है। रामकुमार कृषक शमशेर को याद करते हुए उनकी गजल की दुनिया की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। शमशेर ऐसे कवि है जिन्होंने गजल, कविता, कला को अपनी सीमा से बाहर निकाला और जीवन की संघर्षधर्मिता का अंग बनाया। शमशेर की कविता चित्रकारी है और वे रंगों के बादशाह हैं। विजेन्द्र श्मशेर के साथ अपनी मुलाकात को बयान करते हैं और कहते हैं कि वे श्मशेर ही थे जिन्होंने कहा कि आपकी कविता में भरतपुर के आसपास की प्रकृति सुंदरता है। मलयज श्मशेर की बात बोलने के साथ ही भेद के खुलने की और इशारा करते हैं। शमशेर कहते हैं कि मैंने कविता के माध्यम से प्यार करना ,अधिक से अधिक चीजों से प्यार करना सीखा है। वे अपने भीतर को हमेशा बचाये रखते हैं। मंगलेश डबराल साबुत आईन में देखते हैं शमशेर को। यह शमशेर की कलात्मक काव्यात्मकता ही है जिसके कारण वे साहित्य के अखाड़े में डटे रहे। उन्हें कोई ऐसे ही खारिज नहीं कर सकता। अज्ञेय उनको कवियों के कवि कहते हैं वहीं शमशेर को कीमियागर की छवि भी दी गयी। शमशेर कहते हैं कि तीन चीजें बेहद जरुरी है - प्राणवायु, मार्क्जिज्म और अपनी वह शक्ल जो हम अवाम में देखना चाहते हैं।
शेलेन्द्र चौहान शमशेर की कविता की कई परते खोलते हुए विस्तार से विचार करते हैं। सुल्तान अहमद शमशेर की प्रसिद्ध कविता अमन का राग की व्याख्या करते हैं। आज अमन का राग ही सबसे ज्यादा खतरे में हैं। तब शमशेर को कैसे समझा जाए यह शमशेर के काव्य से ही समझा जा सकता है।जैसा कि पहले ही कहा कि यहां कुछ ऐसे गुमनाम रचनाकारों की खोज हुई है जिनसे हिन्दी के पाठक साधारणतया परिचित नहीं है। राधाकृष्ण ऐसे ही रचनाकार है। रांची में जन्में राधाकृष्ण का भी यह शताब्दी वर्ष है कम ही लोग जानते हैं। प्रेमचंद के साथ काम करनेवाला यह साहित्यकार कहां याद किया जाता है। बस कंडक्टरी करनेवाला कब साहित्यकार बन गया ये खुद उनको भी खबर न थी। यह साहित्य की खेमेवादिता ही है जिसके कारण महत्वपूर्ण रचनाकार भी नकार दिये जाते हैं।
भुवनेश्वर ऐसे साहित्यकार है जिनकी मृत्यु की तारीख की खबर नहीं है। यह बहुत आश्चर्य की बात है कि आमतौर पर तो साहित्यकारो या महान ् लोगों के जन्म की तारीखे नहीं मिलती पर यहां तो मरण की तारीख नहीं है। वैसे यह मध्ययुग का बोध है जब रचनाकारों का जन्म मरण गल्प हुआ करता था। जिस तरह समाज में वर्चस्वशाली तबका होता है वही यहां भी है इसी कारण कईं साहित्यकार इसके शिकार होते हैं। भेड़िये जैसी कहानी का लेखक कहां ला पता हुआ किसी को खबर ही नहीं। प्रभात रंजन ने इनको बहुत ही सम्मान के साथ याद किया है। यह बोहेमियन कलाकार जीते जी किंवदती बन गया।
भगवत शरण उपाध्याय विचारक के रुप में जाने जाते हैं। रजनीकांत पंत इनको आम आदमी का इतिहासकार के रुप में याद करते हैं। भारतीय समाज के कईं पक्षों का बहुत गहरे से अध्ययन करनेवाले उपाध्याय जी की लेखनी ने बहुत कुछ दिया, खासकर प्राचीन साहित्य पर वे गहरे से विचार करते हैं। ऋग्वेद और कालिदास के संदर्भ को गहरे से समझाते हैं। शैलेन्द्र चौहान उनको बौद्धिक जगत के शिखर पुरुष कहते हैं।गोपाल सिंह नेपाली,बहुत कम उम्र में बहुत कुछ रच गये। गीत, कविता से लेकर फिल्मी गीत तक। आजादी के पहले के संघर्ष के सहभागी और बाद के बिखरते स्वप्न के रचयिता नेपाली की गीतात्मकता में गहरी लय और रागात्मकता है। निराला उनको काव्य आकाश का देदीप्यमान सितारा कहते हैं। नेपाली जी पर शैलेन्द्र चौहान का आलेख बहुत उपयोगी है।
उर्दू के उस्ताद ;-हिन्दी के हिमालय के बाद उर्दू के उस्ताद पर आते है। उर्दू के जिन रचनाकारों का शताब्दी वर्ष है उनमें- फैज अहमद फैज, असरार-उल-हक मजाज और नून मीम राशिद है। फैज साब को बहुत याद किया गया और किया भी जाना चाहिए। फैज की शायरी जिंदगी के नये क्षितिज खोलती शायरी है। आग लगाने के लिये इनको माचिस की तीली की जरुरत नहीं होती थी वे गुलाब के फूल से ही यह काम कर लेते थे। फैज पर इन्द्र कुमार गुजराल का आलेख है। प्रेम और परिवर्तन का यह महान् शायर एशिया में ही नहीं पूरी दुनिया में जाना जाता है और पहचाना जाता है। फैज की गजल में वह ताप है, जिसकी आंच को आप महसूस कर सकते हैं। लाजिम है हम भी देखेंगे। फैज वो शायर है ‘लाओ तो कत्लनामा मेरा मैं भी देख लूं‘
इरशाद कामिल ने फैज को फिल्मी गीतों पर असरात के साथ याद किया है। इलियट का वह कथन कि आप परम्परा में ही होते हैं। यहां कामिल जी के लेख में साफ है। वे फैज की गजल का प्रभाव तलाशते हुए कहते हैं कि गुलजार पर गालिब का प्रभाव साफर देखा जा सकता है वहीं हिन्दी के गीतकरों पर फैजसाब का। पाकिस्तान के पत्रकार शिराज हसन ने फैज की पुत्री सलीमा हाशमी का साक्षात्कार लिया है सलीमा चित्रकार है और कहती है कि मेरे रंगों में फैज झलकते हैं। असल में रंगकर्मी शब्दों को रंगों में उतारता है। उसकी भाषा रंग ही होते हैं। यहां ऐसा ही है। मुज्तबा हुसैन का व्याख्यान बहुत ही सारगर्भित है। मुश्ताक अहमद यूसुफ,अब्दुल कदीर रश्क अनवर मकसूद और कृष्ण कल्पित के अनुभव आलेख बहुत उपयोगी है।मजाजसाब की शायरी के कारण उनको भारत का कीट्स कहा गया। प्रेम और क्रांति का शायर मजाज अपने चमन का बुलबुल है। कृष्ण कल्पिक उनके शेर से कहते हैं कि हम पी भी गए, छलका भी गए। मजाज को जितनी भी उम्र मिली उसी में वह कमाल कर गये।
तेरे माथे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।निदा फाजली उनको सदियों से पिसते आदमी का शायर कहते हैं। जां निसार अख्तर अली सरदार जाफरी हमीदा सालिम के यादगार लम्हें बहुत ही संवाद परख और उपयोगी है।नून मीम राशिद बहुत ही विद्रोही शायर थे। अपनी अंतिम इच्छा के रुप में मृत्यु के बाद दफनाने के बजाये जलाने की इच्छा जतायी। लंदन में उनका दाह संस्कार किया गया। नून पर प्रेमचंद गांधी का आलेख ‘उर्दू शायरी को आजाद करने वाले राशिद‘ बहुत ही महत्वपूर्ण है। राशिद ने उर्दू शायरी को तमाम तरह की जड़ताओं से मुक्त किया और सामाजिक हस्तक्षेप का माध्यम बनाया।
अहमद अली को अब तक दिल्ली पर लिखे गये सबसे महान् उपन्यास के लेखक के रुप में जाना जाता है। ट्विलाइट इन देहली। दिल्ली का धुंधलका। प्रभात रंजन उनके इस उपन्यास को बहुत ही महत्वपूर्ण बताते हैं। वे मुल्कराज आंनद के बाद पहले भारती है जो अंग्रेजी के लेखक है। वे चीन में थे और 1948 में भारत आना चाहते थे पर उनको यहां आने की इजाजत नहीं दी, तब वे करॉची में जा कर बस गये फिर वहीं के हो गये।मरुधरा का मान में डॉ. कन्हैया लाल सहल हिन्दी और राजस्थनी के लेखक। हेतुजी उनको व्यक्ति नहीं संस्था के रुप में याद करते हैं।
गुजराती के गौरव ;- गुजराती के गौरव में उमाशंकर जोशी, कृष्णलाल श्रीधरणी और भोगी लाल गांधी को याद किया है। उमाशंकर जोशी को भोलाभई पटेल याद कर रहे हैं। साहित्य के गंभीर अध्येता और कई पदों पर रहे जोशी जी का नाम गुजराती साहित्य में बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। ये गांधी जी और टैगोर से बहुत प्रभावित थे। कृष्णलाल श्रीधरणी को याद करते हुए तुषार भट्ट उनको आइसबर्ग कहते हैं। जिस तरह समुद्री बर्फ की चट्टान का बहुत कम भाग दिखता है वही इनके साथ हुआ। वे ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने अंग्रेजी में पहली बार गांधी जी को दुनियां से परिचित कराया। इनकी जीवन शैली गांधी जी से कहीं भी मेल नहीं खाती लेकिन ये गांधीजी के अनुयायी थे। प्रफुल्ल रावल ने उनकी कविताओं पर विस्तार से विचार किया है। भोगीलाल गांधी गांधी जी के अनुयायी और आजादी के संग्राम में सक्रिय भागीदारी करनेवाले गुजराती के महत्वपूर्ण रचनाकार थे। रमणलाल सोनी उनके साथी उनको याद करते हुए कहते हैं भोगी भाई ने आजादी के आंदोलन में भागीदारी की और आजीवन साधारण जीवन जीया।
तिलकित भाल ;-तेलुगू का तिलकित भाल में श्री रंगम् श्री निवास राव ‘श्री श्री‘ को याद करते हुए डा.ॅ किशोरी लाल व्यास उनको कं्राति चेतना का कवि कहते हैं। मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित श्री श्री का मानना था कि गरीबी ही प्रमुख समस्या है। बाकी सब मिथ्या है। वे कहते हैं .
‘किसी भी देश का इतिहास/उठा लीजिए
क्या है उसमें गर्व करने जैसा/मानव जाति का सम्पूर्ण इतिहास
परपीड़न-शोषक-अत्याचार/रक्तपात से भरा है‘
बांग्ला साहित्य में रवीन्द्रनाथ की एक सौ पचासवीं वर्षगांठ मनायी जा रही है। यहां शताब्दी स्मरण में टैगोर का प्रसद्धि उपन्यास गोरा के सौ बरस पर उसको समझने का प्रयास है। यह हिन्द-स्वराज के बाद किसी किताब को याद करने का पहला प्रयास है। माधव हाड़ा गोरा को संकीर्ण हिंदुत्व का प्रत्याख्यान कहते हैं। गोरा का भ्रम का किला उस समय भरभरा कर गिर गया जब उसे पता चला कि वह हिन्दू नहीं किसी अंग्रेज की औलाद है तब उसके मन में मानवता के प्रति प्रेम पैदा होता है। उसकी दुनियां ही बदल गई।दूसरा गोलार्द्ध में पोलिश कवि जेस्लो मिलोज को दुष्यंत याद करते हैं। 1990 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार विजेता जेस्लो मिलेजा का साहित्य अंधेरे में झांकने का हौसला देता है।सरगम के सरताज में संगीत की हस्तियों पर विचार किया गया है। विष्णु नारायण भातखण्डे को याद करते हुए प्रियंकर पालीवाल उनको संगीत के गांधी कहते हैं। ये आधुनिक भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रणेता है। पालीवाल जी का यह आलेख बहुत ही प्रभावोत्पद और पठनीय है। मल्लिकार्जुन मंसूर जयपुर-अतरोली घराने के भारतीय शास्त्रीय खयाल गायक थे। अजित वडनेरकर उनको यादकरते हुए उनकी संगीत के प्रति रुचि की कईं परते खोलते हैं।उस्ताद अब्दुल राशिद खान हिन्दुस्तानी संगीत की ऐसी आवाज है जो आज भी गुंज रही है। सौ साल से ज्यादा उम्र पार कर चुके हैं पर आज भी उनकी वही दिन चर्या है। तानसेन की परम्परा के इस गायक के पास आज भी वही सुर है सौ के पार भी।
परदे के परदादा;-सिनेमा में परदे के परदादा स्तम्भ में दादा मुनि अशोक कुमार और अकीरा कुरोसावा को याद किया है। अशोक कुमार को याद करते हुए जयप्रकाश चौकसे उनकी लोकप्रियता के बारे में कहते हैं कि राजकपूर के विवाह के अवसर पर खबर लगी कि अशोक कुमार आये हैं। फिर क्या था दुल्हन ने रीवा जैसे शहर में अपना घूंघट उठा लिया। दादामुनि हिन्दी फिल्मों के साथ बड़े होते हैं। अकीरा कुरोसावा जापानी फिल्मकार थे। 57साल के फिल्मी सफर में तीस फिल्मों का निर्देशन किया। रामकुमार सिंह कहते है कि अकीरा कुरोसावा ने सिनेमा को नया मुहावरा दिया। वे कहते थे कि हर अआदमी वही पाता है जिसे वह प्यार करता है। आप पहले तय करे कि आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या है फिर उसको पाने के लिए जी जान से जुट जाये।
अंतिम में महिला दिवस के सौ बरस पर मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपयोगी आलेख है। आज जिस दौर से हमारा समाज गुजर रहा है वहां विमर्श का बोलबाला है और ऐसे में यह जरुरी है कि इसको बहुत गंभीरता से समझा जाए। आधी आबादी के हित कागजों पर नहीं व्यवहार में मिले उसके लिए समाज का मनोविज्ञान बदले, न कि केवल पोथी-पत्रा पर बदलाव होते रहे।कुरजां का यह अंक कईं मायने में सराहनीय, संग्रहणिय और उपयोगी है। शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में एक साथ इतनी सामग्री का एक साथ होना ही अपने आप में आश्चर्य है। जहां तक हिन्दी की दुनियां की बात हैं वहां संवाद के लिये यह अंक बहुत ही उपयोगी है। कलाएं सामाजिक परिवर्तन में अपनी भूमिका किस तरह निभाती है,हर भाषा का अपना परम्पराबोध होता है ,इसको समझने के लिए दुनियां की तमाम भाषाओं के साहित्य का अध्ययन आवश्यक होता है। रचनाकार और रचना को अलग करना जरा कठिन होता है। लेकिन कभी-कभी रचना बहुत महान् होती है और वह खुद ही अपने समय की सीमाओं का अतिक्रमण करती हुई अपनी जगह बनाती है। मार्क्स,गांधी और टैगोर ने आधुनिक समाज को जितने गहरे से प्रभावित किया उतना शायद किसी ने नहीं किया। हिन्दी में यह पहली पत्रिका है जिसने इतने विस्तार से शताब्दी वर्ष के रचनाकारों को एक साथ याद किया। साहित्य, कला, संगीत,फिल्म और महिला आंदोलन पर एक साथ विचार करने की पहल के लिए इस पत्रिका के अवदान को सराहा जाना चाहिए। अपने कलेवर में पत्रिका का आकार बड़ा है लेकिन सुंदर है। आलेखों के साथ खूबसूरत पैंटिंग भी है। जिसके चलते पत्रिका आकर्षक बन पड़ी है।
प्रवेशांकः मार्च-अगस्त 2011
कुरजां संदेश समय समाज और साहित्य की पत्रिका
संपादक- प्रेमचंद गांधी
ई-10 गांधी नगर जयपुर-302015
समीक्षक:-
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