अप्रैल 2013 अंक
(1 )
मुझे परदे बहुत पसंद हैं
मुझे ....
परदे बहुत पसंद हैं
कम से कम
मेरी औकात
मेरी असलियत तो छुपा लेते हैं
मुझे ....
परदे बहुत पसंद हैं
सच दिखाना हो
तो झूठ परदा
और झूठ छुपाना हो
तो सच पर परदा
मुझे ....
परदे बहुत पसंद हैं
क्योंकि यही तो
हमारे तुम्हारे बीच है
(2)
लौट आया
दिल्ली साहित्य कुम्भ से
हिंदी के कुछ मलंगों
नागाओं , साधुओं के बीच
गुजरे कुछ क्षणों को सहेजे हुए
गिनती के अपने कुछ प्रशंसकों
और अनगिनत उनके दर्शन कर
जिनका मैं प्रशंसक
इस आभासी दुनिया में
जिनके शक्लों , कुछ के शब्दों से
थी दोस्ती
अच्छी लगी नदारत हेमंत पर
"अंततः " भावना , सुधा से
अकस्मात मुलाक़ात
कुछ मिले दिल खोल कर
गदगद हो
कुछ मिले नज़रें चुराते
फिर मिलता हूँ कह कर
मित्र नहीं तो " काहे का मैं "
का ताल ठोंकता केशव और मलंग शम्भु
बस गये ह्रदय में
और , और भीतर तक
और भी मिले कुछ
हिंदी का चना-चबैना बेचते हिन्दी के व्यापारी तो
कुछ मठों की खोखली , जर्जर ढहती दीवारों से विचलित
नये मठों के मठाधीश बनने की व्यूह रचना में व्यस्त
लौट आया
दिल्ली साहित्य कुम्भ से
-- के . रवीन्द्र
[हेमंत- हेमंत शेष जी , सुधा -सुधा सिंह जी , भावना - मिश्रा जी , केशव - केशव तिवारी , शम्भु - शम्भु यादव ]
(3
आदमी में सब कुछ है
सिर्फ
आदमियत नहीं है
और चिड़िया !
सिर्फ चिड़िया है
उसमें और कुछ भी नहीं है
आदमी
चिड़िया बनना चाहता है
चिड़िया
आदमी नहीं बनना चाहती
चिड़िया आदमी से कहती है
तुम आदमी हो आदमी बने रहो
आदमी मुस्कुरा देता है
चिड़िया नहीं जानती
कि आदमी क्यों मुस्कुरा रहा है
क्योकि वह चिड़िया है
वह नहीं जानती
कि आदमी
अवसर की तलाश में है
अवसर मिलते ही
नोच डालेगा
उसके सारे पंख
और भून कर
खा जायेगा
क्योकि आदमी में
गिद्ध है , बाज़ है
कौआ और उल्लू भी है
है नहीं तो सिर्फ आदमियत नहीं है
(4)
मैं कविता नहीं लिख सकता
न ही तमीज है कविता पढ़ने की
जब भी पढ़नी होती कविता
पढता हूँ मैं
लम्बी-चौड़ी सड़कें बनाते
मजदूरों के हाथ के फफोलों को
पढ़ता हूँ
हवेलियों के लिए
चार जून की रोटी की व्यवस्था में लिप्त
किसानों के चेहरे
जब भी पढ़नी होती है कविता
पढता हूँ
गंदगी के ढेर पर
प्लास्टिक बिनते बच्चों की उम्र
और तब मेरी
कविता पढ़ने लिखने की इच्छा ख़त्म हो जाती है
(यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)
कुँअर रवीन्द्र |
एक विलक्षण चित्रकार कुँअर रवीन्द्र जो कवि भी है।
आज हमारे बीच एक बड़े पहचाने हुए नाम की तरह हुआ जाता है।
पुस्तकों,पत्रिकाओं के कवर चित्रांकन के ज़रिये वे हमारे मन में बैठ गए हैं।
उनकी कल्पना और स्वभाव आकर्षक है।
रेखाचित्र और कविता पोस्टर्स की प्रदर्शनियों के मार्फ़त वे हमारे बीच हैं।
वे सदैव अपनी उपस्थिति सार्थक दर्शाते रहे हैं।
नौकरी के तौर पर छत्तीसगढ़ विधानसभा में कार्यरत हैं।
मूल रूप से भोपाल के हैं फिलहाल रायपुर में ठिकाना है।
ई-मेल-k.ravindrasingh@yahoo.com,
मोबाईल-09425522569
उनके चित्र
उनकी कुछ कवितायेँ जो बीत दिनों फ़ेस बुक पर छप चुकी है।यहाँ हमारे गैर फेसबुकी पाठक साथियों को ध्यान में रखकर छाप रहे हैं।
(1 )
मुझे परदे बहुत पसंद हैं
मुझे ....
परदे बहुत पसंद हैं
कम से कम
मेरी औकात
मेरी असलियत तो छुपा लेते हैं
मुझे ....
परदे बहुत पसंद हैं
सच दिखाना हो
तो झूठ परदा
और झूठ छुपाना हो
तो सच पर परदा
मुझे ....
परदे बहुत पसंद हैं
क्योंकि यही तो
हमारे तुम्हारे बीच है
(2)
लौट आया
दिल्ली साहित्य कुम्भ से
हिंदी के कुछ मलंगों
नागाओं , साधुओं के बीच
गुजरे कुछ क्षणों को सहेजे हुए
गिनती के अपने कुछ प्रशंसकों
और अनगिनत उनके दर्शन कर
जिनका मैं प्रशंसक
इस आभासी दुनिया में
जिनके शक्लों , कुछ के शब्दों से
थी दोस्ती
अच्छी लगी नदारत हेमंत पर
"अंततः " भावना , सुधा से
अकस्मात मुलाक़ात
कुछ मिले दिल खोल कर
गदगद हो
कुछ मिले नज़रें चुराते
फिर मिलता हूँ कह कर
मित्र नहीं तो " काहे का मैं "
का ताल ठोंकता केशव और मलंग शम्भु
बस गये ह्रदय में
और , और भीतर तक
और भी मिले कुछ
हिंदी का चना-चबैना बेचते हिन्दी के व्यापारी तो
कुछ मठों की खोखली , जर्जर ढहती दीवारों से विचलित
नये मठों के मठाधीश बनने की व्यूह रचना में व्यस्त
लौट आया
दिल्ली साहित्य कुम्भ से
-- के . रवीन्द्र
[हेमंत- हेमंत शेष जी , सुधा -सुधा सिंह जी , भावना - मिश्रा जी , केशव - केशव तिवारी , शम्भु - शम्भु यादव ]
(3
आदमी में सब कुछ है
सिर्फ
आदमियत नहीं है
और चिड़िया !
सिर्फ चिड़िया है
उसमें और कुछ भी नहीं है
आदमी
चिड़िया बनना चाहता है
चिड़िया
आदमी नहीं बनना चाहती
चिड़िया आदमी से कहती है
तुम आदमी हो आदमी बने रहो
आदमी मुस्कुरा देता है
चिड़िया नहीं जानती
कि आदमी क्यों मुस्कुरा रहा है
क्योकि वह चिड़िया है
वह नहीं जानती
कि आदमी
अवसर की तलाश में है
अवसर मिलते ही
नोच डालेगा
उसके सारे पंख
और भून कर
खा जायेगा
क्योकि आदमी में
गिद्ध है , बाज़ है
कौआ और उल्लू भी है
है नहीं तो सिर्फ आदमियत नहीं है
(4)
मैं कविता नहीं लिख सकता
न ही तमीज है कविता पढ़ने की
जब भी पढ़नी होती कविता
पढता हूँ मैं
लम्बी-चौड़ी सड़कें बनाते
मजदूरों के हाथ के फफोलों को
पढ़ता हूँ
हवेलियों के लिए
चार जून की रोटी की व्यवस्था में लिप्त
किसानों के चेहरे
जब भी पढ़नी होती है कविता
पढता हूँ
गंदगी के ढेर पर
प्लास्टिक बिनते बच्चों की उम्र
और तब मेरी
कविता पढ़ने लिखने की इच्छा ख़त्म हो जाती है
(यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)
अरे भाई यह सब कहाँ से इकठठा कर लिया , धन्यवाद
जवाब देंहटाएंकुँअर रवीन्द्र जी जनसरोकारी कला भी कभी कलारसिकों से अछूती रह सकी है भला....
जवाब देंहटाएंअच्छा तो आप हैं पुखराज भाई , धन्यवाद बहुत-बहुत आभार
जवाब देंहटाएंआप शर्मिन्दा कर रहे है कुँअर रवीन्द्र जी। समय खुद हमें इसकी महत्ता से परिचित करवाएगा...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंमुझे परदे बहुत पसंद है कविता अच्छी कविता है बधाई
जवाब देंहटाएंहमे फख्र है...कि हम कुंवर रवीन्द्र को जानते हैं...सच हमारे लिए बड़े गौरव की बात है कि हम मौजूदा दौर की आत्म-प्रकाशन प्रवृत्ते से परे कुंवर रवीन्द्र चुपचाप लघुपत्रिकाओं को अपनी सृजनात्मकता की ऊर्जा से ओत-प्रोत किये हुए हैं...कई बार उनके चित्रों से सज्जित अंक/कृतियाँ खुद उन तक नही पहुँच पाती हैं. आज के दौर में बेशक कलाकारी एक थैंक-लेस जॉब है...लेकिन फिर भी कुंवर रविन्द्र अपनी धुन में लगे...समय, धन, चिंतन और परिवार/आराम का समय कलाकारी को देकर अपने में मगन/ खुश रहे आते हैं....हमारी शुभकामनाएं उनके साथ हैं...अपनी माटी ने उनपर पेज बनाकर हम सब पर एहसान किया है...
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