सम्पादकीय:हाशिये से बाहर होती संस्कृति / अशोक जमनानी

अप्रैल 2013 अंक
साथियो 
             नमस्कार
कुँअर रविन्द्र का बनाया  पोस्टर 

मुझसे कई बार प्रश्न पूछा गया है कि जब देश में अभी भी करोड़ो लोग ठीक से दो वक़्त का खाना नहीं खा पाते तब संस्कृति की बात करना कितना ज़रूरी है ? और अगर ज़रूरी है भी तो संस्कृति असल में है क्या ? सच कहूँ तो दृष्टि विहीनता की स्थिति में  हाथी के  अपने-अपने ढंग से बखान की तरह संस्कृति की अनेक परिभाषाओं में संस्कृति को ठीक-ठीक समझा सके ऐसी कोई परिभाषा मुझे तो नहीं मिली। कुछ भरोसा 'सम्यक सु कृति स: संस्कृति ' पर जमा लेकिन फिर भी कई सवाल अब भी जवाब दूंढ रहे हैं। 

चलिए इसे यहीं छोड़ देते हैं और मूल सवाल पर आ जाते हैं कि इस दौर में संस्कृति पर विमर्श कितना ज़रूरी है ? विद्वानों के वाम-दक्षिण अपना-अपना राग अलापेंगे पर हम उन दोनों को उनके अपने-अपने कुएँ में छोड़कर अपनी बात करें। अपनी मतलब हम भारतीयों की।  मुझे जब भी हम हिन्दुस्तानियों की बात करनी होती है तो मैं गाँधी-दर्शन की ओर देखता हूँ क्योंकि गाँधी ही हैं जो सही अर्थ में किसी भारतीय का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। वैसे भी मेरे लिए भारतीय केवल वो लोग नहीं हैं जो भारत में रहते हैं बल्कि मेरे लिए पूर्ण अर्थ में भारतीय होने के लिए बहुत ज़रूरी है सांस्कृतिक रूप से भारतीय होना। संभवत: यही कारण  है कि मैं हर हाल में संस्कृति की बात करना ज़रूरी समझता हूँ। तब भी ज़रूरी समझता हूँ जब कुछ पेट फटने की स्थिति में आ गए हों और कुछ पेट पीठ से एकाकार हो चुके हों। शायद  इस स्थिति में तो मेरे लिए संस्कृति पर बात करना और अधिक ज़रूरी है क्योंकि इस स्थिति को बदलने की ताकत भी संस्कृति के पास ही है। 

हजारों वर्षों तक आश्रमों की ऋषि परंपरा और लोक की प्रकृति पोषक परंपरा के ताने-बाने में संस्कृति बनती रही और काल के प्रवाह में कई बार रंग-कुरंग में भीगी-डूबी भी लेकिन उसका अपना मूल रंग कभी नहीं बदला और वो रंग था मानवता का।  संस्कृति के समस्त  वैविध्य में अद्भुत एकरूपता रही और मूल मंत्र के रूप में भी एक ही निर्देश मिला- 'मनुष्य बनो '। मुझसे कोई पूछे कि भारतीय होने का अर्थ क्या है तो मैं तुरंत कहूँगा 'मनुष्य होना'। और संस्कृति का यही संदेश है जिसने इस देश को दुनिया को रास्ता दिखने का अधिकार दिया है । यही वो मन्त्र है जिसमे न केवल हमारी समस्याओं का  समाधान हैं वरन सारी दुनिया की समस्याओं का समाधान है। शास्त्र और लोक की अन्योन्याश्रय भावना को गाँधी जी ने बिल्कुल सही अर्थों में पहचाना और उस  बहुत बड़ी ताकत को जन-जन में भर दिया। ऋषि परंपरा से मिले शास्त्र को गाँधी ने अपढ़ जन-जन में महसूस किया और शास्त्र में जन कल्याण का मार्ग देखा। भरोसा न हो तो अष्टांग योग के यम-नियम देखिए और गाँधी-दर्शन को सामने रखिये। सत्य,अहिंसा,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य आदि सब शास्त्र सौंपता है और इसे  जीने का तरीका कभी-कभी बिल्कुल अपढ़ भारतीय सिखा देता है। 

गाँधी ने दोनों की ताकत को पहचाना और दुनिया की सबसे बड़ी ताकत को परास्त कर दिया। लेकिन कितने आश्चर्य की बात है कि आज़ादी के बाद जिस संस्कृति को नव-निर्माण का आधार होना था वो  संस्कृति धीरे-धीरे हाशिये की ओर  सरकती रही और फिर हाशिये से भी हटा दी गयी। वैसे भी लम्बे समय से शास्त्र को धर्म से जोड़ दिया गया है और चेतना प्रधान हिस्से  के स्थान पर शास्त्र के जड़तावादी हिस्से को कुप्रचार के माध्यम से सामने रखा गया है । शेष बचा  भारतीय। तो वो तो सदियों की ग़ुलामी में बहुत कुछ खो ही चुका था और गाँधी के बाद तो आज़ादी जो नए-नए रंग दिखाती रही उसने  भारतीय मनुष्य को  मनुष्य होने के सम्पूर्ण गौरव से ही वंचित कर दिया।  आज़ादी के बाद क्या ज़रूरी नहीं था कि गाँधी के प्रयोग को ज़ारी रखा जाता और भारतीय ज्ञान को जीवन शैली बनाने वाली संस्कृति से जोड़ा जाता क्योंकि भारतीय ज्ञान  असल में धर्म का नहीं वरन संस्कृति का है और सम्पूर्ण मानवता की धरोहर है। भारतीय मनुष्य को उसकी जड़ो से काटकर प्रकृति की लूट में शामिल दस्यु दल का हिस्सा बनाने, मानवीय संभावनाओं के विकास के बदले केवल मशीन-आश्रित-पोषक हो जाने और पशुता को आदर्श मान लेने की प्रवृति के पोषक के स्थान पर उसे  संस्कृति का वो आदेश मानने की और बढ़ाया जाना क्या ज़रूरी नहीं था जो कहता है मनुष्य बनो। दुर्भाग्य है कि हम ऐसा नहीं कर सके लेकिन क्या अब इसकी बात करने पर भी सवाल खड़े किये जाएंगे ??

                  विकट से विकट स्थिति में भी संस्कृति की बात इसलिए ज़रूरी है क्योंकि मशीन और पशु बन चुके सम्पूर्ण विश्व  के जन-जन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती मानवता को बचाने की है। आज प्रगति के इतने ऊँचे स्तर पर पहुँचने के बावज़ूद भी सबसे अधिक संकट में मनुष्य ही है और उसका कारण है संस्कृति का संकट में होना उस संस्कृति का संकट में होना जो असल में समाधान है।
          
                  

6 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही संयमित तरीके से बहुत ही ज्वलंत प्रश्न उठाया है आपने|
    अक्सर संस्कृति की बात करने वालों को दक्षिणपंथी घोषित कर दिए जाते हैं| मूढों को ये नहीं समझ आता कि सिर्फ गलत का विरोध करें| विरोध के नाम पर भारतीयता का ही विरोध शुरू हो जाता है|

    लेख के लिये आभार प्रकट करता हूँ

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  2. अशोक जमनानी जी, समकालीन समस्याओं को चिह्नता अपनी माटी का प्रवेशांकीय सम्पादकीय अच्छा बना है। असल में इस समय जिन अवधारणाओं के माने बहुत तेजी से बदले है उनसे संस्कृति सबसे आगे है। आप संस्कृतिकर्मी हो सकते है लेकिन ऐसा होने पर बाजार में आप सन्देह की दृष्टि से देखे जाएँगे क्योंकि आप तमाम उन चीजों का विरोध करेंगे जो संस्कृतिविरोधी है और यही बाजार की ताकतें नहीं चाहती...

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  3. जरूरत नहीं है, ये जरूर है कि हरेक भाषा, मानव-समुदाय, क्षेत्र और सामाजिक समूह की अपनी अलग जीवन-शैली होती है, उनका रहने-जीने का ढंग, उनकी अपनी जीवन-परंपरा और मूल्‍यबोध ही मिलकर उनकी संस्‍कृति का निर्माण करते हैं, इसी से उनका सौन्‍दर्यबोध निर्मित होता है, हम किसी इन्‍सान के भौतिक स्‍वरूप, उनके खान-पान, रहने-जीने के तरीके और जीवन के बारे में उसके दृष्टिकोण को जानकर उसकी सांस्‍कृतिक सोच का अनुमान कर पाते हैं - एक इन्‍सान के रूप में वह अन्‍य मानव-समुदायों और समूची सृष्टि के साथ कैसे व्‍यवहार करता है, उसी में उसकी संस्‍कृति के तत्‍व छिपे होते हैं, इस अर्थ में संस्‍कृति एक गतिशील प्रक्रिया भी है। ऐसी बहत सी बातें हैं, जो संस्‍कृति की व्‍याख्‍या को विस्‍तार देती हैं। आपने सोचने के लिए अच्‍छा विषय उठाया है। इस प्रवेशांक की बाकी सामग्री भी अच्‍छी है। आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

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  4. मेरी प्रतिक्रिया में आरंभ का वाक्‍य इस प्रकार है - "आपका संपादकीय संस्‍कृति जैसे संश्लिष्‍ट विषय पर सम्‍यक सोच प्रस्‍तुत करता है, लेकिन संस्‍कृति जैसे विषय को इतना अमूर्त रूप से समझने की जरूरत नहीं है - "

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  5. आदरणीय भारद्वाज जी
    अपनी माटी के सम्पादकीय के माध्यम से मैंने संस्कृति पर जिस विमर्श की शुरुआत की है उसे आपके अनुभवों और चिंतन से विस्तार और दिशा मिलेगी. मैं आशा करता हूँ कि आगामी अंकों में आप अवश्य इस विमर्श को आगे बढ़ाएंगे।

    - अशोक जम्नानी

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