संस्मरण:डॉ. रमेश यादव

अप्रैल -2013 अंक (यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)
                       

एक शाम,कवियों के धाम
कवियों की वाह-वाह,श्रोताओं की आह-आह

मार्च 2012 के अंतिम दिन की शाम दिल्ली में आयोजित एक काव्य गोष्ठी के नाम रही.एक उभरता हुआ कवि (जेंडर मत पूछिए), धक्का मारते हुए,मुझे संगोष्ठी स्थल तक ले जाने में कामयाब रहा.जीवन में पहली बार मुल्क की राजधानी के किसी काव्यपाठ में दूसरे के वीजा पर श्रोता बनने का अवसर मिला.नए लोग.नयी किस्म की कविताओं का स्वाद और नया अनुभव.इसके पहले बनारस और उसके आस-पास के क्षेत्रों में कभी-कभार काव्य गोष्ठियों में जाना हुआ था.मैं कभी साहित्य के अनुशासन का छात्र नहीं रहा,लेकिन साहित्य को हमेशा अपनी मुरतारी रखता रहा.बिस्तर पर सोते समय भी पुस्तकें ही मेरे आगोश की साथी रहीं.

पाशको पढ़ा,तो लगाबीच का कोई रास्ता नहीं होताऔरसपने हर किसी को नहीं आते’,सपनों के लिए जरुरी है,‘झेलने वाले दिलों का होना.’जब जर्मन कवि ब्रेख्त को पढ़ा,तो महसूस हुआ,अँधेरे में भी,अँधेरे के खिलाफ,उजाले के गीत गाये जा सकते हैं.मुक्तिबोध को पढ़ा तो अपने ही जीवन पर तरस खाने लगाअब तक क्या किया.जीवन क्या जिया.लिया बहुत-बहुत ज्यादा.दिया बहुतबहुत कम.मर गया मेरा देश और ज़िंदा रह गए हम…’कितने नाम गिनाऊँ,फेहरिश्त बहुत लंबी है.मूल बात पर आते हैं.
      
जहाँ तक हम समझते हैं,कविता का वास्तविक सौंदर्यबोध संघर्ष है.संघर्ष का सौंदर्य समूह है.समूह का सौंदर्य समाज है.समाज का सौंदर्य राष्ट्र है.राष्ट्र का सौंदर्य सीमाओं से परे पूरी दुनिया है.इस दुनिया में आम-अवाम है.जहाँ बराबरी,आत्मनिर्भरता,आज़ादी और सामूहिक बोध का सौंदर्य है.समूह बोध का लक्ष्य ही कविता का सर्वोपरी लक्ष्य होना चाहिए.इसके इतर जब मैं इस काव्यपाठ का बतौर श्रोता पड़ताल करता हूँ तो मेरे मन में एक नई पीड़ा उभरती है.यह टीस कविता से गायब होते सौंदर्यबोध,श्रृंगार,रूपक, विम्ब, लक्षणा, भावपक्ष,रस और छंद को लेकर है.यदि मैं इसेएक शाम,निर्जीव कवियों के धामकी संज्ञा दूँ, तो संभवतः गलत होगा,जिन कवियों को सुना,उनका यहाँ नाम बताउंगा तो समझिए मेरी खैरियत नहीं.
     
आज के कवियों में कविता के प्रति सौंदर्य का कला पक्ष कमजोर हुआ है,लेकिन स्वयं में सजने-संवरने का सौंदर्य बोध बढ़ा है.सच कहूँ तो अब कविता में वह ओज,जोश और ऊर्जा का संचार नहीं होता है,जो अतीत में होता था.लगता है,अब की कवितायेँ सिर्फ शब्दों की तुकबंदियों में सिमट रही है.उसमें सन्निहित भाव, रस,छंद और अलंकार सिरे से गायब है.आज की कविता को कुछ लोग लिखते हैं.कुछ सुनते हैं और कुछ ही हैं जो पढ़ते हैं.ये लोग सिर्फ एक ही क्रिया के आदि बनते जा रहे हैं.एकबारगी ऐसा एहसास होता है,जैसे कविता कुछ कह रही हो-

मैं
कविता हूँ
मुझे लिखो
पढ़ो
और
क्षण में भूल जाओ.

आज की प्रेम कविताओं में प्रेम की वह चाहत,ललक,कसक,सिहरन,विचलन,संवेदना,बेचैनी,मिलन और तड़प का भावपक्ष कम,अभाव पक्ष अधिक दिखता है.पहले का प्रेम कोयला की तरह था और अब का प्रेम गैस के सामान है.कोयले की आग को सुलगायिये.धीरे धीरे फूंक मारिये,जब धधक जायेगा देर तक जलेगा.उसकी सबसे बड़ी खासियत होती है कि वह धीरे-धीरे बुझता है.अब का प्रेम तो गैस की तरह झट से जलता है और भक से बुझता है.कमोवेश यही स्थिति इस वक्त की कविताओं की है. क्रांतिकारी कविताओं का भी एक सुनहरा दौर रहा.अब लगता है,लोग इस तरह की कविताओं को लिखना-पढ़ना बंद कर दिए हैं या फिर जो लिखा जा रहा है,वह मुख्यधारा तक नहीं पहुँच पा रहा है.आज की कविताओं में वह वियोग भी नहीं दिखता जो अतीत में देखने और पढ़ने को मिलता था.अब तो ऐसा लगता है कि कवियों ने भी वियोग करना छोड़ दिया है.शायद इसीलिए यह पक्ष कमजोर हुआ है.

आजकल चर्चित लोग कविताओं की टोकरी लेकर घूम रहे हैं,मौसमी फल की तरह.सीजन गया नहीं कि फल खत्म.ऐसे लोगों की टोकारियों में सभी तरह की कवितायेँ होती हैं.लोगों को अपनी पसंद की नहीं कवि के पसंद की कविताओं के चयन की आजादी है.बस छांटते रहियेआज की कवितायेँ अपने समय से मुठभेड़ नहीं करती.बल्कि खुद घायल दिखती हैं.जाहिर है,अब की कविताओं में वह ओज नहीं रहा,जो सत्ता से मुठभेड़ और समझौताहीन संघर्ष कर सके.अब के कवि खुद से मुठभेड़ करते नज़र राहे हैं.हमने महसूस किया कि आज के काव्य गोष्ठियों में श्रोता किसी

कविता
को सुनकर
वाह-वाह
कहते हैं
लेकिन
यह पता नहीं क्यों
हमें
आह-आह
सुनाई देता है.

यह संकट सौंदर्य बोध का है.आज की लिखी कविताओं की उस तरह उम्र नहीं होती है,जैसे होती है,एक कवि की उम्र.ऐसी कवितायेँ,कवि से पहले अप्रासंगिक होती जा रही हैं. इस काव्य गोष्ठी में हमने महसूस किया कि महफ़िल एक आदमी से सजती है और एक आदमी से उजड़ भी जाती है.यह कवि की विशिष्टता और ख्याति पर निर्भर करता है.हम जिस काव्य गोष्ठी में थे,उस स्थान पर काफी घना पेड़ था.जहाँ मोर भी देखे जा सकते थे.हाल में जैसे ही किसी कवि को कविता पाठ के लिए मंच पर आमंत्रित किया जाता.

ठीक उसी समय हाल के बाहर से मोर की आवाज आती,कवि की तुलना में मोर की आवाज अधिक ओजस्वी,मधुर चेतनाशील और प्रिय लगती.कवि ठहर जाता.श्रोता जैसे ही उसके ताकत का असाहस करते कवि शुरू हो जाता.मतलब साफ है.आज की कविता चेतना को झकझोरती नहीं.चेतना का विकास नहीं करती.दिल में जगह नहीं बनाती.दिल-दिमाग कोहैंग-ओवरनहीं करती है.आज की कविता में विचार और वैचारिकी नहीं दिखती है.वह तो बस बेजान अलाप बन के रह गई है.ऐसा प्रतीत होता है,फिर भी कवि होने का दावा करने में क्या जाता है.आज की कविता से खेत-खलिहान भी गायब हैं.

अब कोई कविता आन्दोलन के आगे मशाल लेकर चलने की ताकत नहीं रखती,अपवाद छोड़करआज के कविता की यात्रा कवि के कलम से शुरू होती है.गणित करती हुई प्रकाशक तक पहुंचती है.संग्रह की रूप लेती है.विमोचन की बेला तलाशती है.सभागार तक पहुंचती है.सभागार से बहार निकलने की जद्दोजहद में चौखट तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देती है.आज की नारीवादी कविता पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का भाव नहीं पैदा करती और पुरुषवादी कविता स्त्री को बराबरी पर नहीं,हाशिए पर रखती है.कविताओं को इन दोनों सीमाओं और रेखाओं को चीरकर आगे बढ़ना होगा.तभी कविता खुद को बचा पायेगी और कवि अपनी प्रासंगिकता सिद्ध कर पायेगा.

और अंत में कहूँगाकविता का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा,
यदि वह ओस की बूंद को बचा सके…”    पाब्लो नेरुदा

डॉ. रमेश यादव

(इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, मैदान गढ़ी,
नई दिल्ली स्थित पत्रकारिता एवं 
नवीन मीडिया अध्ययन विद्यापीठ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं 
समसामियक विषयों पर निरंतर लिखते आ रहे हैं। 
अक्सर यथार्थपरक कविता करते हैं। 
संपर्क: E-Mail:dryindia@gmail.com 
Cell 9999446)


            

2 टिप्पणियाँ

  1. 'अपनी माटी' का प्रवेशांक बेहतर लगा.ई-पत्रिका की पहल सराहनीय कदम है.उम्मीद है यह पत्रिका तमाम झंझावतों के बावजूद अपने उद्देश्यों की पूर्ति करेगी...
    शुभकामनाओं सहित..!

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  2. बहुत ही बढ़िया लेख है|
    सचमुच कविता अपनी चमक खोती जा रही है|

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