'धूणी तपे तीर':हरिराम मीणा की भूमिका

 (यहाँ इस भूमिका में कहीं कहीं 'श' और 'ष'  की अशुद्धियाँ मिलेगी,मुआफी सहित-सम्पादक )


 यह बात है आज से कोई पन्द्रह बरस पहले की। पथिक बाबा (वी.पी.वर्मा) के द्वारा संपादित आदिवासी पत्रिका ‘अरावली उद्घोष’ में मैंने मानगढ पर हुए आदिवासी बलिदान के बारे में पढ़ा और मैं दंग रह गया कि राजस्थान का वासी होने के बावजूद मुझे ऐसी घटना की जानकारी नहीं थी। जानकारी होती भी कहाँ से? मैं दक्षिणी राजस्थान के उस अँचल में इससे पहले कभी गया नहीं न वहां के किसी परिचित व्यक्ति ने मुझे ऐसी किसी घटना के बारे में बताया और न ही कहीं इतिहास की पुस्तकों में मैंने ऐसी शहादत के बारे में पढ़ा। बाद में उदयपुर कई बार जाना हुआ। जब भी वहाँ जाता पथिक बाबा से अवश्य मिलने का प्रयास करता। ऐसे अवसरों के दौरान आंचलिक बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, एन.जी.ओज से जुड़े कार्यकर्ताओं व जागरूक आदिवासियों से मिलता। मानगढ़-बलिदान के विषय में प्रमुखता से बातचीत करता। कुछ सूचना एवं संदर्भ एकत्रित करने का प्रयास करता रहा। इतिहास के स्तरीय अध्ययन से कभी जुड़ा नहीं और न ही शोधार्थी रहा। 

पुलिस-कर्म से सम्बन्ध रखते हुए एक खोजी दृष्टि अवश्य विकसित हुई। अतः घटना की पुष्टि में प्रमाण जुटाता गया। व्यस्तताएं अपनी जगह थी, प्रश्न था प्राथमिकताओं का, जो तय कर ली और अंतत 2001 में जयपुर से मानगढ़ तक का सफर पूरा किया। घटना के बारे में इतनी सामग्री, संदर्भ व सूचनाएं एकत्रित हो चुकी थी कि अब कुछ लिखा जा सकता था। और लिखा ‘मानगढ़ - आदिवासी बलिदान के तहखानों तक’ यात्रा वृत्तांत जिसे ‘पहल’-71 (2002) में ज्ञानरंजन जी ने मन से छापा। मुझे सुखद अनुभूति हुई। मानगढ़ की वह घटना इधर-उधर चर्चा में आयी। मैं पढता रहा अन्य के साथ ब्रह्मदेव शर्मा, कुमार सुरेश सिंह, रामशरण जोशी और महाश्वेता जी को। ‘जंगल के दावेदार‘ - नायक बिरसा मुण्डा। टक्कर के ही थे झाबुआ का टंट्या मामा, गुजरात का जोरजी भगत (दोनों को 1880 के दशक में अंग्रेजों ने फांसी दी) और मानगढ-बलिदान का नायक गोविन्द गुरू। आदिवासी दुनिया का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना मानव की उत्पत्ति का। उनके नैसर्गिक व शांत जीवन में पहला त्रासद हस्तक्षेप हुआ आर्य-अनार्य संघर्ष-श्रंखला के युग में जब उन्हें मैदानी क्षेत्रों से विस्थापित होकर जंगलों की शरण लेनी पड़ी। 

वे जंगल पर आधारित जीवन को सहज रूप में जीना सीख गये। घर व परिवार की संस्था के बावजूद व्यक्ति व निजी सम्पति की अवधारणा उन अर्थो में विकसित नहीं हुई जिन अर्थो में इसे समझा जाता है। समाज संस्कृति सामूहिकता पर आधारित रहती आयी। विशेष रूप से दसवीं से बारहवीं और पश्चातवर्ती  कालखण्ड में फिर उथल-पुथल हुई और तत्कालीन राजस्थान के आदिवासियों की स्वायत्तता को बाहर से आये राजपूतों ने छीन लिया। विजेता कौमें हारी हुई मानवता को हेयद्ष्टि से देखती रही है। यही यहाँ हुआ। इसके बावजूद समाज व संस्कृति के स्तर पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ सका । जिस मात्रा में स्वतंत्रता छिनती है उसी मात्रा में शोषण व विपन्नता पैर फैलाती है। राज की बेगार, महाजनी सूदखोरी व मनुष्य के स्तर पर दोयम दर्जा सौगात में मिले, फिर भी जंगल से बेदखली की नौबत नहीं आयी। फिर आयी ईस्ट इंडिया कम्पनी। राजपूताना कहे जाने वाले अंचल के दक्षिणी भू-भाग की बड़ी रियासत मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में सन् 1818 में कुपदार्पण हुआ कम्पनी सरकार के प्रतिनिधि कर्नल जेम्स टाड का। उसकी रणनीति के तहत दक्षिण राजपूताना की प्रमुख रियासत मेवाड़ सहित वागड़ अंचल की डूगंरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ, कुशलगढ व सीमावर्ती गुजरात की संतरामपुर व ईडर रियासतों के साथ सन्धियां की गयी जिनके प्रमुख प्रावधान थे वनोपज पर अधिकार, खनिज सम्पदा का दोहन और इसके बदले सम्भावित आदिवासी विद्रोहों को कुचलने के लिए सैन्य बल। 

हरिराम मीणासेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी,
विश्वविद्यालयों में 
विजिटिंग प्रोफ़ेसर 
और राजस्थान विश्वविद्यालय
में शिक्षा दीक्षा
ब्लॉग-http://harirammeena.blogspot.in
31, शिवशक्ति नगर,
किंग्स रोड़, अजमेर हाई-वे,
जयपुर-302019
दूरभाष- 94141-24101
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टाड के उत्तराधिकारियों का सिलसिला जारी रहा और रियासती व्यवस्था में कम्पनी का हस्तक्षेप भी। स्वाभाविक था कि आदिवासी अपने हक की लड़ाई लड़ते। सन् 1820 के दशक में विद्रोह आरंभ हो गये और यह क्रम चलता रहा । विद्रोह से निपटने के लिए कम्पनी व रियासत की फौजें असफल रहीं। विकल्प तलाशा गया कि आदिवासियों को नियन्त्रित करने के लिए उसी समाज के युवकों की फौजें तैयार की जावे। सन् 1840 के दशक में खैरवाड़ा, कोटड़ा, एरिनपुरा, देवली, नीमच आदि स्थलों पर छावनियों की स्थापना की गई। आदिवासी सैनिक और नियन्त्रक अधिकारी दूसरे तथा कमाण्डेंट कम्पनी के अंग्रेज अधिकारी । फिर भी विद्रोह नहीं थमें। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आदिवासी भी पीछे नहीं रहे।उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाडा, कुशलगढ़ रियासती क्षेत्रों में भीलों की बहुलता और दूसरी बड़ी संख्या मीणा आदिवासियों की। प्रतापगढ़ रियासत में  मुख्यतः मीणा आदिवासियों की आबादी। मानगढ़ के चारों ओर पसरा यह अंचल राजपूताना का दक्षिणाचल था और इस दक्षिणाचल  की पूर्वी दिशा में सीमावर्ती रतलाम, सैलाना व झाबुआ रियासतें तथा पश्चिम में झालोद, सूँथ व ईडर की रियासतें। 

यह सारा अंचल आदिवासियों से आबाद था। लेकिन इस सारे भू-क्षेत्र के षासक गैर आदिवासी अर्थात् राजपूतों के विभिन्न वंषों के महाराणा, महाराजा, महारावल, जागीरदार, ठिकानेदार, भौमिया व उनके अधीन कार्यरत हाकिम-हुक्मरान थे और इन सब के ऊपर ब्रिटिष सत्ता थी, जिनके पोलिटिकल एजेण्ट, विभिन्न फौजी छावनियों के कमाण्डेंट, रेजीडेंट और अन्य अफसर ब्रिटिश  क्राउन के प्रमुख प्रतिनिधि गवर्नर जनरल व वायसराय के अधीन रहकर रियासतों के सारे निर्णय लेते थे। राजा-महाराजा अंग्रेज हुकूमत की कठपुतली थे। कर्नल टाड के जमाने की ईस्ट इण्डिया कम्पनी और रियासतों के मध्य हुईं सन्धियों के सिलसिले से लेकर सन् 1857 के संग्राम के बाद भारत पर ब्रिटिश राज की सीधी दखलन्दाजी तक की प्रक्रिया में ये हालात पैदा हुए थे। रियासती सत्ता द्वारा किए जाने वाले अत्याचार, ब्रिटिश राज का हस्तक्षेप और शोषण-दलन-दमन और अभाव -भुखमरी-महामारी के अघाये-सताये और अनेकानेक आशंकाओं, अनिश्चयों, अविश्वासों से घिरे हुए भयभीत आदिवासी। 19वीं सदी के अंतिम चरण में जो कुछ बुरी घटनाएँ घटित हुईं, सत्ता के स्तर पर जो कुछ राजनीतिक परिवर्तन हुए, ब्रिटिष-शोषण  के जो नये-नये तौर तरीके और रणनीतिक दाँव पेंच अपनाये गये और इन सबके विरूद्ध नाना प्रकार के दुःख-दर्दों को झेलते रहने के साथ-साथ हालात के विरूद्ध विद्रोह की जो आग अंचल के आदिवासियों के भीतर सुलगती रही- इस सबको मूक साक्षी मानगढ़ ने अपनी अदिश्य आँखों से देखा। 

मानगढ़ पर धूणी जमाये संपसभा के आदिवासी नायक और प्रमुख नायक गोविंद गुरू इस सारे माहौल से वाकिफ थे। आदिवासियों के दुःख-दर्दों का उनको प्रत्यक्ष अनुभव था। ब्रिटिश सत्ता के गलियारों और देशी  रियासतों के दरबारों के आसपास काफी आदिवासी लोग थे। वे ब्रिटिश फ़ौजी छावनियों में फौजियों के रूप में भर्तीषुदा थे। छावनियों के अफसर में लाँगरी व अर्दलियों के रूप में थे। रियासती दरबारों में आदिवासी लोग सेवादारों के रूप में थे। आदिवासियों के समूह के समूह दुर्गों, महलों, बगीचों और अन्य निर्माण-कार्यों में बेगार करने के लिए जबरन ले जाये जाते थे। अंग्रेजों और रियासती शासकों  द्वारा आदिवासियों के विरूद्ध क्या नीतियां बनायी जाती थी और क्या-क्या निर्णय लिए जाते थे - यह सब बातें उन सेवकों और बेगारियों तक छन छन कर आ ही जाती थी। अंग्रेज चालाक, धूर्त, ठग और स्वार्थी थे। साथ ही वे शिक्षित, बुद्धिमान और दूरगामी सोच रखने वाले थे। अधिकांश देसी रियासती सत्ताधीश और उनके नुमाइंदे अत्याचारी, अय्याश और अहंकारी थे। ब्रिटिश धिकारियों से निकटता को परम सम्मान मानते थे। खास तौर पर आयोजित दावतों के दौरान उनमें से कुछ शराब के नशे में डींग मारने लगते थे। सेवकों के सामने गोपनीय बातों को बक देते थे। उन्हें यह होश नहीं रहता था कि किस के सामने या किस की उपस्थिति में क्या बात कहनी चाहिए और क्या नहीं। कुछ राजा-महाराजा चाहे गम्भीर हों, लेकिन जागीरदार तो अक्सर ऐसा कर ही देते थे। उनमें दम्भ और शेखी बघारने की प्रवृत्ति अधिक दिखायी देती थी। अंग्रेज अफसरों की सोच वैज्ञानिक, विवेक व तर्क सम्मत और आधुनिक थी जबकि देसी राजा-महाराजाओं एवं जागीरदारों का दृष्टिकोण सामंती परम्पराओं में जकड़ा हुआ रहता था। छावनियों के आदिवासी फौजी, अर्दली, सईस और रियासती आदिवासी सेवक एवं बेगारी चाहे अनपढ़ थे, मगर जीवन का क्रूर यथार्थ और व्यापक अनुभव उनके पास था। वे अगले के चेहरे के भावों को भाँप सकने की क्षमता रखते थे। 

फिरंगी हुक्मरानों और राजा-महाराजाओं के बीच होने वाली वार्ता सफल हुई या असफल- यह उनके आसपास सेवा कार्य में लगे रहने वाले आदिवासी-जन उनकी मुख-मुद्राओं को पढ़कर जान जाते थे। ब्रिटिश सत्ता-केंद्रों और रियासती दरबारों से निकली बातें मानगढ़ तक पहँचती थी और मानगढ से संपसभा के कार्यकर्ताओं के माध्यम से दूर-दराज के आदिवासी अंचलों तक। यह प्रक्रिया लंबी, धीमी और बात के असल रूप को थोड़ा बहुत तोड़ने-मरोड़ने वाली अवश्य थी, लेकिन बात का अर्थ काफी कुछ बचा रहता था। यह सब गोविंद गुरू, संपसभा के अन्य नायकों व कार्यकर्ताओं और समूची आदिवासी कौम के लिए अत्याचारों के विरूद्ध जागृति व संघर्ष की भावी रणनीति बनाने के लिए काफी सार्थक और अनिवार्य था। तो इसी तरह गोविंद गुरू व साथियों को यह पता चला कि बांसवाड़ा के महारावल लक्षमणसिंह द्वारा अंग्रेज सरकार का खिराज समय पर नहीं दिया जाता है। ब्रिटिश सरकार ने राज्य को ऋण ग्रस्त तथा चढ़ा हुआ खिराज चुकाने में असमर्थ और दुर्भिक्ष पीड़ित देखा। तब शासन सम्बन्धी अधिकार महारावल से लेकर सहायक पोलिटिकल ऐजेंट के सुपुर्द कर दिए। एजेंट की सहायता के लिए पाँच सदस्यों की एक कौंसिल का गठन कर दिया गया। इसका महारावल ने विरोध करना चाहा लेकिन उसमें साहस की कमी थी और उसके सलाहकार भी ढीले-ढाले थे। दूसरे, वह लार्ड कर्जन के गवर्नर जनरल व वायसराय होने का समय था। उस काल में देसी रियासतों में ब्रिटिश हस्तक्षेप काफी बढ़ता जा रहा था। कौंसिल के शासनकाल में बांसवाड़ा राज्य की अर्थ व्यवस्था में काफी परिवर्तन किए गये। बजट बनाने की प्रणाली का आरम्भ किया गया ताकि आय-व्यय का व्यवस्थित लेखा-जोखा तैयार किया जा सके। कहाँ कमी है, उसे ठीक किया जा सके। पुलिस महकमें का पुनर्गठन किया गया। 

आदिवासी विद्रोहों को नियन्त्रित करने और विद्रोहियों को पकड़ने के लिए महत्वपूर्ण स्थलों पर पुलिस की चैकियां स्थापित की गयी। खुफिया तंत्र को मजबूत करने के प्रयास किए गये। न्याय-प्रशासन  में भी काफी फेरबदल किया गया। नये साक्ष्य अधिनियम, दण्ड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दण्ड संहिता के कुछ प्रावधानों के आधार पर रियासती विधि-व्यवस्था में संशोधन  किए गये। सायर की शुल्क दरों को नियत किया गया। किसानों से पैदा हुई फसल के हिस्से को राजकोष में लेने की प्रणाली को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर जमीन की पैमाईश  के द्वारा पैदावार के अनुसार सावधिक ठेका प्रथा की शुरूआत की गयी। पुलिस व वसूली के काम के लिए अलग-अलग हाकिम नियुक्त किए गये। जंगलात का नया महकमा खोला गया। स्वास्थ्य व सफाई के लिए राज्य की राजधानी में म्यूनिसिपल कमेटी का गठन किया गया। सारे राज्य में सालिमषाही सिक्के के प्रचलन को बंद कर उसकी जगह कलदार सिक्के का प्रचलन आरम्भ किया गया। प्रभु-वर्ग के बच्चों को शिक्षित करने के लिए स्कूलों की व्यवस्था शुरू की गयी। सम्प्रेषण-सुविधाएँ बढ़ाने के लिए डाक व तार के माध्यम को अपनाया गया। 

अंग्रेजों ने बांसवाड़ा राज की अंगुली पकड़ते-पकड़ते कलाई को पकड़ा था। कुछ अर्सा पूर्व महारावल लक्ष्मणंसिंह और कुशलगढ़ के राव के मध्य तनातनी पैदा हो गयी थी। राजा के रूप में महारावल लक्ष्मणंसिंह  की  कमजोरियों के चलते कुशल गढ़ के राव ने स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और महारावल के आदेशों को मानने से इन्कार कर दिया था। ब्रिटिश सरकार की दखल से कुषलगढ़ के राव और महारावल बांसवाड़ा के बीच समझौता हुआ। बांसवाड़ा को कमजोर बनाने के लिए अंग्रेजों ने समझौते में  तय करवाया कि भविष्य में कुषलगढ के आंतरिक मामलों में महारावल का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। व्यापार-शुल्क व खिराज सम्बन्धी मामले भी दोनों रियासतों के स्वतंत्र मान लिए गये। यूं कर महारावल बांसवाड़ा के अधिकारों में कटौती प्रारम्भ हुई और ब्रिटिष पोलिटिकल एजेंट की सर्वोच्चता स्थापित होती गयी। पहले बांसवाड़ा रियासत के मामलों को मेवाड़ का पोलिटिकल एजेंट देखता था। बाद में पृथक से सहायक पोलिटिकल एजेंट बांसवाड़ा के लिए हो गया। वही कुषलगढ का नियन्त्रक बन गया। राजपूताना के अन्य राज्यों की तरह बांसवाड़ा रियासत के क्षेत्र में भी अधिकांष भूमि पर जागीरदारों का कब्जा था। खालसा क्षेत्र की भूमि बहुत कम थी। महारावल लक्ष्मणसिंह और ठिकानेदारों के बीच अक्सर विवाद पैदा होते रहते थे। सन् 1871 में गुढा के जागीरदार हिम्मतंिसंह और गढी के ठाकुर का महारावल से विवाद हो गया। इसी दौरान औरीवाड़ा के ठिकाने से मतभेद पैदा हो गया। अंग्रेज अधिकारियों ने पहले तो विवादों को बढ़ावा देने में अप्रत्यक्ष भूमिका निभाई और अंत में सहायक पोलिटिकल एजेंट की दखल से विवादों का निबटारा करवाया ताकि उनकी पंचायती चलती रहे। दल्ला रावत सोदलपुर इलाके के भीलों का मुखिया था। उसने महारावल के विरूद्ध बगावत कर दी। यह विवाद बोलाई व रखवाली करों को लेकर हुआ था। सहायक पोलिटिकल एजेंट के हस्तक्षेप से ही इस विवाद का निबटारा हुआ। इसी क्रम में बांसवाड़ा राज्य और निकटवर्ती डूंगरपुर , उदयपुर , प्रतापगढ़, रतलाम, सैलाना, झाबुआ, झालौद और सूँथ रियासतों के बीच सीमा विवाद चलते रहते थे। इन विवादों का निबटारा भी अंग्रेजों की दखल से होने लगा। 

प्रतापगढ़ रियासत में अधिकांष जनसंख्या मीणा व उसके बाद भील आदिवासियों की थी। उन्नीसवीं व बीसवीं सदियों के संधिकाल से पूर्व प्रतापगढ का शासक महारावल उदयंिसंह था जो अय्याष किस्म का व्यक्ति था। ब्रिटिष सरकार ने मेवाड़ के पोलिटिकल एजेंट के माध्यम से रियासती मामलों में दखल देना आरम्भ कर दिया था। महारावल के व्यक्तित्व की कमजोरियों का फायदा उठाते हुए यह दखलंदाजी और बढ़ती गयी। प्रतापगढ़ व बांसवाड़ा के बीच होने वाले सीमा विवादों को ब्रिटिष अधिकारियों की मध्यस्थता से सुलझाया जाने लगा। ब्रिटिष अधिकारियों के हस्तक्षेप की वजह से प्रतापगढ़ राज्य में जनगणना, स्वास्थ्य केन्द्र , पाठषाला, स्टाम्प, कोर्ट-फीस आदि की व्यवस्था आरम्भ की गयी। पुलिस व सेना का पुनर्गठन किया गया। बांसवाड़ा की तर्ज पर आपराधिक कानूनों में संषोधन किया गया। सन् 1890 के दषक में बांसवाड़ा के महारावल लक्ष्मणंिसंह और प्रतापगढ़ के महारावल रघुनाथंिसंह के मध्य सीमावर्ती धार्मिक स्थल सीतामाता को लेकर विवाद पैदा हो गया था। ब्रिटिष अधिकारियों ने हस्तक्षेप कर इस विवाद को निबटाया। बांसवाड़ा राज्य से कुषलगढ़ निकल जाने के बाद बांसवाड़ा छोटी रियासत बन गयी थी। अब प्रतापगढ़ उसके टक्कर की रियासत थी। सीतामाता स्थान को सहायक पोलिटिकल एजेंट ने प्रतापगढ राज्य को दिलवा दिया। इस निर्णय से दोनों राज्यों में  भीतर ही भीतर अनबन आरम्भ हो गयी। इस अनबन का अंग्रेजों ने खूब फायदा उठाया। ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का यह एक उदाहरण था। 

ब्रिटिष अधिकारियों की दखल से मथुरा निवासी पं. मोहनलाल पंड्या को प्रतापगढ़ रियासत का कामदार और अजमेर के रायबहादुर सेठ सौभागमल डढ्ढा को खजांची नियुक्त कर दिया। इन नियुक्तियों का महारावल रघुनाथ सिंह विरोध नहीं कर सका। प्रतापगढ में अन्य कार्यों  के साथ साथ म्यूनिसिपल कमेटी की स्थापना की गयी। पूरी रियासत में  सायर शुल्क की एक सी प्रणाली लागू की गयी। प्रषासनिक सुविधा की दृष्टि से राज्य को पाँच जिलों में विभाजित किया गया। ठिकानेदारों को कुछ सीमा तक फोजदारी व दीवानी अधिकार दिये गये। खालसा गांवों  की पैमाइष और भूमि-कर की व्यवस्था करवायी गयी। ‘एक निगरानी ’सिद्धांत के आधार पर प्रतापगढ राज्य में  डाक व तार की व्यवस्था आरम्भ कर दी गयी। सालिमषाही सिक्के के स्थान पर कलदार सिक्का चालू कर दिया गया। डूँगरपुर रियासत में  भी जो हालात थे, कमोबेष वे सब वैसे ही थे जैसे बांसवाड़ा व प्रतापगढ़ में । यहाँ-वहाँ आदिवासी विद्रोहों का सिलसिला डूंगरपुर रियासत में  कुछ अधिक था। इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि रियासत के ठिकानेदारों द्वारा किये जाने वाले दीवानी व फौजदारी मामलात के फैसलों की पृष्ठभूमि में  भ्रष्टाचार खूब व्याप्त था। इस कदर भ्रष्टाचार को रोकने के लिये महारावल उदयसिंह ने ठिकानेदारों  के दीवानी व फौजदारी अधिकार समाप्त कर दिये। ठिकानेदार इस निर्णय से खिन्न हो गये और उन्होंने महारावल के विरूद्ध तिहत्तर मुद्दांे की एक लम्बी षिकायत मेवाड़ के रेजीडेंट को प्रेषित कर दी। 

मेवाड़ का रेजीडेंट कर्नल माइल्स स्वयं मेवाड़ भील कोर खैरवाड़ा गया और वहीं महारावल डूंगरपुर व प्रमुख ठिकानेदारों  को बुलाया। दोनों  पक्षों को सुनकर रेजीडेंट ने निर्णय दिया कि ठिकानेदारों  की षिकायत निराधार है और उसने यह भी फैसला दिया कि ठिकानेदार की मृत्यु हो जाने पर उसका उत्तराधिकारी डूंगरपुर दरबार मंे नजराना भेंट करेगा। अंग्रेज रेजीडेन्ट ने इस विवाद का पटाक्षेप तो कर दिया लेकिन डूंगरपुर के महारावल और ठिकानेदारों  के पक्षों  को पृथक पृथक मानते हुए और दोनों से अलग-अलग व आमने-सामने वातार्लाप कर अप्रत्यक्ष रूप से यह संदेष दिया कि महारावल उसके लिए ठिकानेदारों  की तरह ही एक पक्ष है और यह भी कि ब्रिटिष प्रतिनिधि दोनों पक्षों सर्वोपरी है और वह जो निर्णय लेगा, वह सभी को मान्य होगा। इस घटना के तुरन्त बाद महारावल का देहांत हो गया। 

संभव है उसने ठिकानेदारों  के समक्ष ब्रिटिष अधिकारी के आचरण से अपना अनादर महसूस किया हो और उसे इस बात का गहरा सदमा लगा हो। महारावल उदयसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र विजय सिंह गद्दीनसीन हुआ। उसकी उम्र तब मात्र सोलह बरस की थी। डूंगरपुर का राज्य-कार्य संचालित करने के लिए मेवाड़ के सहायक रेजीडेंट की अध्यक्षता में  चार सदस्यीय एक कैंसिल  का गठन कर दिया गया। कौंसिल के शासन काल में  डूंगरपुर रियासत में  वे सारी व्यवस्थाएँ लागू कर दी गयी जो बांसवाड़ा व प्रतापगढ में आरंभ की गयी थी। सन् 1858 में गोविन्द गुरू का जन्म एक बनजारा परिवार में हुआ। गाँव बासिया, रियासत डूंगरपुर। बाप का नाम बेसर व मां का नाम लाटकी। पुश्तैनी धंधा वस्तु -विनिमय पर आधारित व्यवसाय था लेकिन जीवन शैली भील व मीणा आदिवासियों जैसी, उन्हीं के बीच संस्कारित हुआ था गोविन्द जो बाद में गोविन्द गुरू कहलाया। संपसभा का गठन किया व जागृति आंदोलन फैलाया। हर किश्म की बुराई के खिलाफ लड़ना सिखाया आदिवासी समाज को चाहे वह बुराई अपने भीतर की थी या बाहरी तत्वों द्वारा थोपी हुई। सन् 1857 के संग्राम के बाद कम्पनी राज की जगह ब्रिटिश राज कायम हो गया था। 

आदिवासी विद्रोहों के दबाव में महाराणा मेवाड़ को 19 अप्रेल 1981 के दिन ऋषभदेव समझौता करना पड़ा जिसके मुख्य प्रावधान इस प्रकार थे -आदिवासी व उनके घरों की गणना भविष्य में नहीं की जायेगी। आदिवासी स्त्री व पुरूषों का वजन नहीं तोला जायेगा। ऋषबदेव में मुसलमानों के आवास पर प्रतिबन्ध होगा। बारापाल व पड़ोना में थानेदार व अन्य की हत्या को जघन्य अपराध माना, लेकिन आदिवासियों की मांग पर अपराधियों को क्षमादान दे दिया जायेगा। शर्त यह रखी गयी कि भविष्य में ऐसी घटना हुई तो कठोर सजा दी जायेगी।आदिवासियों की ज़मीन की पैमायश नहीं की जायेगी। तिसाला कर की आधी रकम वसूल की जायेगी और आधी माफ कर दी जायेगी। फसल की कूंत  (उपज का आकलन) के वक्त कामदारों द्वारा आदिवासियों को परेशान नहीं किया जायेगा। लेकिन उचित राशि का राजस्व के रुप में भुगतान किया जायेगा। जब कभी किसी खास वजह से कोई आदिवासी कूँत या करधान के अंश के भुगतान से मना करेगा तो उस पर वसूली के लिये दबाव नहीं डाला जायेगा।

महुआ व आम की पत्तियां एकत्रित करने पर कोई कर देय नहीं होगा। आदिवासियों द्वारा घरेलू उपयोग के लिये महुआ के फूल-फल पर कोई प्रतिबंध नहीं रहेगा।ऽ पूनम की चैकी के लिए पातिया सवार गांव के आदिवासियों से जो बारह आना की राशि वसूलते रहे थे, उसे बन्द कर दिया जायेगा।  उदयपुर व खैरवाड़ा के आदिवासी अंचल में कोई नया थाना नहीं खोला जायेगा। संबंधित पालों के आदिवासियों से बिना पूछे और बिना कीमत अदा किये घास व लकड़ी बाहर नहीं ले जायी जायेगी। बिलुक व पीपली की पालों द्वारा ऋषबदेव मन्दिर कोष से जो राषि ली गयी वह उन्हीं के पास रहेगी।  अफीम, तम्बाकू व नमक का ठेका नहीं दिया जायेगा। रियासत के अधिकार-क्षेत्र की पहाड़ियों की घास व लकड़ी भी ठेके पर नहीं दी जायेगी। गत तीन वर्षों से जो आदिवासी किसी भी अपराध की सजा भुगत रहे थे, उन्हें  हैसियत के मुताबिक अर्थ-दण्ड के बदले मुक्त कर दिया जायेगा। जिन पालों पर डाक हरकारों के मार्फत डाक की आवा-जाई होती थी उन डाकियों को वहाँ से हटा दिया जायेगा। ऐसा करने के लिये मेवाड़ रियासत ब्रिटिश सरकार को निवेदन करेगी। वर्ष 1866 में बनायी गयी उदयपुर-खैरवाड़ा सड़क की हिफ़ाजत के लिये जो घुड़सवार तैनात किये गये थे उन घुड़सवारों को हटा लिया जायेगा। सड़क सुरक्षा का दायित्व अब स्थानीय आदिवासियों का होगा। ऽ ऋषबदेव एवं श्रीनाथजी धर्म स्थलों पर आने वाले श्रृद्धालुओं से पुरानी आदिवासी परम्परा के अनुसार ’बोलाई’ वसूली बहाल कर दी जायेगी।

आदिवासी गांवों में रहने वाले धोबी एवं जोगियों से कृषि-कर नहीं लिया जायेगा। मगर पुरानी प्रथानुसार वे रियासत की सेवा करते रहेंगे।गोविन्द गुरू उक्त समझौते से और अधिक प्रेरित व उत्साहित हुए। संपसभा के माध्यम से आंदोलन का काम गति पकड़ने लगा। करीब तीन दशकों तक आंदोलन को साधते हुए पालपट्टा के जागीरदार को आदिवासियों के पक्ष में 20 फरवरी 1910 के दिन समझौता करने को विवश किया। समझौते की रूप रेखा निम्न प्रकार रही-  मैं उनालू व चैमासे की कुल पैदावार का चैथा हिस्सा लेता रहा हूँ। इसमें आपने आपत्ति की है। इसलिये में ये रियायत देता हूँ कि अब से आगे चैमासे की कुल उपज का पाँचवां हिस्सा ही लेवी ली जावेगी। और उनालू की पैदावार का छठा हिस्सा ही लेवी के रूप में लिया जायेगा। प्रति हल पौने चार रूपये की जगह अब साढे़ तीन रूपये की लागत ली जावेगी। कन्या-चैरी का कर बारह आने की बजाय प्रति कन्या छः आना ही लिया जायेगा।

प्रति घर माल व मक्का की उपज का दस पौंड लेने के ‘बाचका’ अधिकार को समाप्त किया जाता है। प्रति घर से मक्का के सौ भुट्टे देने होते हैं। अगर उन्हें कोई नहीं देता है तो उसे एवज में एक माणा (दस सेर)मक्का देनी होगी।ऽ प्रति घर से पके हुए हरे चने का जो बंडल दिया जाता है, अगर उसे कोई नहीं देता है तो उसके एवज में एक माणा चना देना होगा। जिस किसी व्यक्ति को मेरे अनुग्रह से जमीन दी जाती है, उसे या जब तक उसका वंश चले तब तक उन्हीं के पास रहेगी। लेकिन शर्त यह है कि उसका मेरे साथ मित्रवत व्यवहार बना रहे।ऽ मुखिया के घर अनाज देने की प्रथा वैसी ही रहेगी, जैसी जमादार गुलाब खान के समय में प्रचलित थी।ऽ फसल के अनुमान के कारण मजदूरी अनाज के रूप में प्राप्त करने और वेरी कर व बकरों की वसूली तथा मुरवी से नजराना की बजाय एक रूपया लेने की व्यवस्था जारी रहेगी। जो लोग दरबार में वाजे ले जाते हैं, उन्हें घूघरी देने की प्रथा जैसी गुलाब खान के समय प्रचलित थी, वह यथावत् चलती रहेगी। बकाया राशि की वसूली करने के बारे में लोगों को तंग नहीं किया जायेगा। वसूली की जिम्मेदारी गाँव के मुखियाओं की होगी।  फसलों का अनुमान कूंत मुरवी व गाँव के मतेदार की उपस्थिति में लगाया जायेगा और उनके ऊपर कोई अनावश्यक दबाव नहीं डाला जायेगा। अगर अनुमानों के बारे में कोई मतभेद हो तो एक पर्यवेक्षक की नियुक्ति की जायगी, जिसका खर्चा जो पक्ष असहमत है, उसे वहन करना पड़ेगा। अगर ठिकाने द्वारा नियुक्त कलतरू सही अनुमान लगाने में असफल होते हैं तो उसका खर्चा ठिकाना उठायेगा और अगर मुखिया या मतेदार सही अनुमान नहीं लगाते हैं तो उसकी जिम्मेदारी खातेदारों की होगी। जहाँ दोनों पक्ष सही अनुमान नहीं लगाते हैं तो दोनों पक्षों को बराबर खर्चा देना होगा। अनुमान लगाने के लिए प्रति खलिहान दो से अधिक पर्यवेक्षक नियुक्त नहीं किए जायेंगे।  

रघुवीरसिंह व नवलसिंह सिसोदिया बंधुओं को राजस्व मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने दिया जायेगा। जिन लोगों के घरों के परिसरों और खेतों में आम और महुआ के पेड़ हैं, उन पर लगाये जाने वाले सालाना कर को समाप्त किया जाता है। महुआ के जो पेड़ सूख जायेंगे, उनकी लकड़ी पर ठिकाने का अधिकार होगा। ‘वाजे’ अनाज की कीमत की दर ठिकाने द्वारा तय की जायेगी। मजबूरी होने पर भी वाजे को नकद में लेने के लिए ठिकाना बाध्य नहीं होगा। जिन मजदूरों को विशेष काम के लिए बुलाया जायेगा उन्हें प्रतिदिन दो आने की दर से मेहनताना दिया जायेगा। बच्चों के मामले में फर्क होगा। मजदूरी नकद चुकायी जायेगी और किसी को उसके बदले में अनाज लेने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा।  उपले व निचले पट्टे में ‘सुखड़ी’ लेने का अधिकार यथावत् रहेगा और विशेष अनुग्रह के रूप में आगदरा, मोहबतपुरा, लक्ष्मणपुरा, डाडवन व सामैया के आदिवासियों से छः सेर के बजाय चार सेर ‘सुखड़ी’ ली जायेगी।  चैकीदारी करने व बारी से संदेश देने की सेवा लेने का अधिकार यथावत् रहेगा। डाडवन के डामोरों से बैठ-बेगार लेने का जागीर का अधिकार यथावत् रहेगा। पूर्व में इसके लिए उन्हें कोई भुगतान नहीं किया जाता था। 

अब से आगे इसके एवज में प्रत्येक घर को एक खेत निशुल्क दिया जायेगा। इस भूमि का क्षेत्रफल उतना होगा जिसमें कि दस सेर मक्का का बीज बोया जा सके। ऽ लक्ष्मणपुरा के आदिवासियों ने दड़वाह के जंगल का तीन-चैथाई हिस्सा साफ कर जो जमीन खेती के लिए तैयार की थी उसे उन्हीं आदिवासियों को दे दी जायेगी। अब की सामूहिक खेती के लिए नहीं, बल्कि परिवार के हिसाब से दी जायेगी और दी जाने वाली जमीन का क्षेत्रफल परिवार के सदस्यों की संख्या के आधार पर तय किया जायेगा। उसी हिसाब से पट्टे जारी होंगे। लेकिन शर्त यह रहेगी कि आषाढ के लगने से पहले जंगल के शेष बचे एक चैथाई हिस्से के पेड़-पौधों को काट कर खेती के लायक जमीन वे ही आदिवासी तैयार करेंगे  और यह तैयार की गयी नयी भूमि ठिकाना के पेटे रहेगी।अब जबकि यह समझौता आपसी सहमति और राजी-खुशी से हो ही गया तो एक और अंतिम ऐलान किया जाता है। वह यह कि आपके गोविंद गुरू को संबोधित करते हुए आने से पहले जिन अगुवाओं ने मेरे खिलाफ ईडर जाकर महारावल साहब को ज्ञापन दिया था मैं उन सभी को माफी देता हूँ। वे हैं ननामा कोदर, सोमा पांडोर, काला देवजी, जीवा खराड़ी, संकला धूला और काला धूला। आंदोलन अंतिम चरण में पहुँच गया था । 

दक्षिण राजपूताना की पाँचों  रियासतों व गुजरात की दोनों रियासतों के देशी शासक भयभीत थे कि गोविन्द गुरू का आंदोलन सफल हुआ तो इन सभी सातों रियासतों में आदिवासी-राज कायम हो जायेगा। यह सारा इलाका आदिवासी बाहुल्य था। राजपूत शासक किस पर राज करेंगे ? सभी रियासतें अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश नियंत्रण में थी। ब्रिटिश हस्तक्षेप व शोषण समाप्त हो जायेगा। यह भांपते हुए देशी व फिरंगी एकजुट हुए। संयुक्त फौजों ने मानगढ़ पर हो रही आदिवासी पंचायत के जमावडे़ पर अचानक धावा बोल दिया। मुझ पर दवाब बढता गया कि मानगढ के बलिदान की कथा लिखी जाय। प्रख्यात कथाकार गिरिराज किशोर जी ने मुझे प्रेरित किया। मैंने उनसे आग्रह किया कि ‘‘मेरे पास जो सामग्री है उसे आपके पास भेज देता हूँ। आप इस विषय पर अच्छा लिख पायेंगे।’’ उनकी आत्मीय प्रतिक्रिया थी कि ‘‘लिखना आपको ही है और आप लिखकर रहेंगे।’’ सर्वप्रथम इस बलिदान के विषय में मैंने उन्हें सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान सूरीनाम में बताया था। उसके बाद हमारा निरंतर सम्पर्क बना रहा। मेरी जानकारी के हिसाब से पूरे भारत में मानगढ़ का मेला एक मात्र अवसर है जहाँ आदिवासीजन क्रान्ति के गीत गाते हैं। 

सांस्कृतिक उत्सव से अधिक संघर्ष का आह्वान- ‘‘नी मानु रे भुरेटिया नी मानु....................’’यह गोविन्द गुरू द्वारा रचित गीत है। बलिदान दिवस अर्थात् मगशीर्ष की पून्यों को प्र्रित वर्ष भरने वाला मानगढ धाम का मेला और इस दौरान प्रमुखता से गाया जाने वाला गोविन्द गुरू का उक्त गीत।मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी कि हताहतों की संख्या का अनुमान कैसे लगाया जाय? मानगढ़ पर्वत तत्कालीन बांसवाडा-डूंगरपुर व गुजरात की संतरामपुर रियासतों की सरहद पर है। इस क्षेत्र के दर्जनों  गाँवों में मैंने भ्रमण किया, लोगों से मिला, बुजुर्गो से बातचीत की । पूर्व विधायक एवं मानगढ धाम विकास समिति के अध्यक्ष श्री नाथूराम ने मेरी बहुत मदद की। खैरवाड़ा छावनी के पुराने रिकार्ड को खंगाला, राजस्थान आभिलेखागार में संदर्भो की खोजबीन की , उदयपुर स्थित आदिवासी शोध संस्थान के पुस्तकालय में काफी वक्त गुजारा। 

लाइब्रेरियन शर्मा जी ने काफी सहयोग दिया। महाराणा मेवाड़ के पोथीखाना में गया। इतिहास की उपलब्ध पुस्तकों का अध्ययन किया। मुझे यह देखकर अचरज हुआ कि महान कहे जाने वाले राजस्थान के इतिहासकार गोरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी इतिहास की पुस्तक में केवल इतना लिखा कि ‘मानगढ पर एकत्रित भीलों ने उत्पात मचा रखा था। फौज को गोलियां चलानी पड़ी। कुछ भील मारे गये।‘ जब मैं पहली बार मानगढ गया था तो आनन्दपुरी(भूखिया) गाँव में नाथूराम जी के घर में वह साफा देखा जो उसके नाना का था और जिसमें खून के दाग व गोलियों के निशान थे। जब मैं मानगढ मेला में आखिरी बार दिसम्बर, सन् 2006 में गया तब उस साफा के बारे में पूछा तो नाथूराम जी ने बताया कि ‘कोई बड़ा आदमी दिल्ली से आया था और यह कहकर ले गया कि मानगढ के बलिदान को उजागर करूंगा।’ अब तक तो ऐसी बात सामने नहीं आयी। हो सकता है भविष्य में वह शख्स उस ऐतिहासिक साफा का व्यावसायिक उपयोग करे। ऐसे ही तो ठगे जाते रहे भोले आदिवासी। मृतकों के आकलन को लेकर मैंने सबसे आधिकारिक प्रमाण यह माना कि जिन अंग्रेज छावनियों से फौजें रवाना हुई थी वे कितना गोला-बारूद लेकर ‘मानगढ आॅपरेशन‘ के लिए चली और वापसी में कितना जमा कराया। हथियारबंद सात कम्पनियां थी। रियासती फौजें अलग। 

अंग्रेजी फौजों ने करीब चालीस प्रतिशत गोला-बारूद वापस जमा कराया। जो साठ प्रतिशत खर्च हुआ वह आदिवासियांे के विरूद्ध इस्तेमाल किया जिससे कई हजार मनुष्य हताहत किए जा सकते थे। एक और तथ्य यह कि मानगढ पर जितने व्यक्ति मारे गये, उतने ही करीब घायल हुए थे। उनमें से काफी बाद में घावों के सड़ जाने से मौत के मुँह में चले गये। जब फौजें गेाविन्द गुरू सहित करीब 900 आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर नीचे उतर रही थी तब भी पालों पर इकट्ठे आदिवासी समूहों से उनकी मुठभेड़ हुई। उस दौरान भी सैकड़ों लोग मारे गये थे। निष्कर्षतः कुल मृतकों की संख्या करीब डेढ हजार बैठती है। मानगढ की घटना से जुड़े सभी तथ्यों व प्रमाणांे को सत्यापित करने के बाद राजस्थान सरकार ने भारत सरकार को मानगढ धाम विकास के लिए प्रस्ताव भेजे। भारत सरकार ने जांच पड़ताल करने के पश्चात् 2 अगस्त 2002 को 2 करोड़ 23 लाख रूपये की राशि स्वीकृत की और सैद्धान्तिक स्तर पर स्वीकार किया कि देश का पहला ‘जलियांवाला काण्ड‘ अमृतसर (1919) से छः वर्ष पूर्व दक्षिणी राजस्थान के बांसवाड़ा जिला के मानगढ पर्वत पर घटित हो चुका था जिसमें जलियांवाला से चार गुणा शहादत हुई । 

अब छः सौ फीट की ऊँचाई के पहाड़ पर 54 फीट ऊँचा शहीद-स्मारक बना दिया गया है। गोविन्द गुरू की प्रतिमा भी है, फिर भी उस स्थल पर और ध्यान देना अपेक्षित है। जैसा कि मैंने ऊपर उल्लेख किया है, घटना के बाद मानगढ स्थल से गोविन्द गुरू सहित नौ सौ क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार किया था। 38 व्यक्तियों पर डकैती, हत्या व राजद्रोह के मुकदमें चलाये गये। गोविन्द गुरू को आजीवन कारावास की सजा दी जिसे बाद में दस वर्ष और अंततः आदिवासीजन के संभावित विद्रोहों की आषंका को भांपते हुए सत्ता ने उस सजा को देश निकाला में परिवर्तित किया। इन सब के बावजूद वह संग्रामी चुप रहने वाला नहीं था। जीवन-पर्यन्त आदिवासियों के हक और हिस्से की लड़ाई लड़ता रहा । ‘डी.डी. एक’ चैनल पर प्रसारित होने वाले सीरियल ‘रूबरू’ की टीम में शोधकर्ता की हैसियत से मैं भी शामिल रहा हूँ। 

सीरियल के डायरेक्टर अनुराग शर्मा ने मुझे कहा की ‘‘आपने मानगढ़ पर काम किया है। ‘रूबरू’ का एक एपीसोड हम उस घटना पर क्यों नहीं तैयार करें।’’ हमने मानगढ़ मेला के अवसर पर वहाँ जाने का तय किया और एपीसोड तैयार कर लिया जो प्रसारित हुआ। दर्षकों की मांग पर दूसरी बार भी उसे प्रसारित किया गया। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की डेढ सौ वीं साल गिरह के आयोजन-क्रम के तहत जयपुर दूरदर्षन ने भी एक एपीसोड तैयार कर प्रसारित किया। कुछ इतिहासकारों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की कि ऐसी घटना के ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं। ये ऐसे महानुभाव हैं जिन्होंने ‘मानगढ़’ की घटना को लेकर कोई खोजबीन नहीं की। मैं इनकी शंका का समाधान दो अन्य धटनाओं के जिक्र से करना चाहता हूँ। राजस्थान के महान क्रांतिकारी मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में भूला-बिलोरिया (जिला सिरोही, राजस्थान) (गुजरात) में सन् 1922 में अंग्रेजी व रियासती फौजों के साथ आदिवासियों का संघर्ष हुआ था। क्रमषः 800 व 1200 आदिवासी शहीद हुए थे। 

मानगढ़ की तरह इन दोनों घटनाओं को भी मैंने यात्रा वृतांत वाली शैली में लिखा। पहला वृतांत ‘कथादेश ’ में प्रकाषित हुआ और दूसरा अभी ‘पाइप लाइन’ में है, चूंकी उसे वर्ष 2006 में ही तैयार किया है। भूला-बिलोरिया मेरे साथ सिरोही निवासी साहित्यकार सोहन लाल पटनी भी गये थे। वे पहले भी वहाँ जाकर आये थे। दरअसल उस घटना की जानकारी मुझे उन्होंने ही दी थी। घटना के चष्मदीद गवाह गोपी गरासिया से उन्होंने आँखों देखा हाल सुना था। यात्रा के दौरान वे गोपी से मुझे मिलाना चाहते थे, लेकिन हमारे वहाँ जाने के चार माह पूर्व गोपी का देहान्त हो चुका था। बड़ी निराषा हुई हमें। संयोग से भूला व बिलोरिया जुड़वां गांवों में घूमते हुये अतिवृद्ध नानजी भील व सुरत्या गरासिया मिल गये। दोनों ने घटना का आँखों देखा हाल हमें सुनाया। गोपी, नानजी व सुरत्या तीनों ही घटना के समय समझदार किशोरवय के थे।वापसी में मैंने पटनी जी से पूछा की ‘आपने गौरीशंकर हीराचन्द ओझा जैसे धुरंधर इतिहासकार का व्यक्तित्व व कृतित्व लिखा है। उन्होंने इस घटना का जिक्र अपनी लेखनी से क्यों नहीं किया?’ पटनी जी मुझे संतुष्ट नहीं कर पाये। घटना स्थल से सिरोही के रास्ते में रोहिड़ा कस्बा आता है। यही ओझा जी का जन्म-स्थान है। रोहिड़ा से मात्र सात कि.मी. भूला-बिलोरिया गाँव हैं-आदिवासी बलिदान का घटना स्थल। पटनी जी ने ओझा जी पर जो पुस्तक लिखी वह मैंने पढ़ ली थी। उस पुस्तक में स्वयं पटनी जी ने ओझा द्वारा ठाकुर रघुनाथ सिंह (सामंत) को लिखा  एक पत्र का उल्लेख किया है जिसमें स्पष्ट लिखा है कि ‘एक इतिहासकार को अपने समय के शासकों के हितों का ध्यान रखना चाहिए, नहीं तो उसका सारा कार्य व्यर्थ चला जायेगा।’ स्पष्ट है कि मनुष्य के हक की लड़ाई के इतिहास को मनुष्य विरोधी शोषक-षासकों ने दबाया है और उनके आश्रय में पलने वाले इतिहासकारों ने उनका साथ दिया है। 

मानगढ के आदिवासी-बलिदान पर अन्यथा प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले इतिहासकार बंधुओं से मेरा विनम्र निवेदन है कि चक्षुदृष्टा साक्षी और उक्त पत्र से झलकने वाली इतिहासकार की मानसिकता के आगे आपको और प्रमाण चाहिए तो ईमानदारी से खोज कीजिये इतिहास की और वर्चस्वकारी वर्ग के पक्षधर तथ्यान्वेषी महानुभावों से मेरा आग्रह है कि राजाओं की बिरदावली गाने से महान् नहीं बना जाता, महान् बनने के लिये लिखना पड़ेगा आम आदमी के दुख-सुखों का इतिहास। जहाँ तक मानगढ़ का संदर्भ है, उक्त दोनों घटनाओं की तरह मैं तो इतना ही खोज पाया हूँ जितने को केन्द्र में रखकर किसी प्रकार से यह कृति पूरी कर सकूँ। मैं इतिहासकार नहीं हूँ, इसलिए इतिहासकारों को चाहिए कि वे मानगढ़ का इतिहास लिखें। उनसे ही यह नैष्ठिक अपेक्षा की जा सकती है।इस कृति की पांडुलिपि को लेखक मित्र डा सत्यनारायण व शंकरलाल मीणा जी ने पढा और महत्वपूर्ण सुझाव दिये । कृति के प्रेरक श्रद्धेय गिरिराज किशोर जी ने पांडुलिपि पढने के लिए अपनी व्यस्तता में से समय निकाला और सार्थक सुझाव दिये। तदनुसार मैंने इसमें आंशिक संशोधन किये। मैं इन सभी का हृदय से आभारी हँू। यह संतोष की बात है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की डेढ सौ वीं सालगिरह के अवसर पर इसे छप जाने की मेरी इच्छा को प्रकाशक महोदय ने पूरा किया। प्रकाशक परिवार साधुवाद का पात्र है। अब यह सुधी पाठकों के हाथ में है कि वे इसे किस रूप में  लेते हैं। आशा करता हूँ कि सुझावनुमा महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएँ मुझ तक पहुंचेंगी। जोहार ! - हरिराम मीणा

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