मई -2013 अंक
साथियो,
नमस्कार
भवानी प्रसाद मिश्र |
कुछ और वक़्त बीता और मेरे कॉलेज के दिन ख़त्म हो गए। तब तक आर्थिक उदारवाद के पैर पूरी तरह फ़ैल चुके थे और पूरे देश की तरह मेरा छोटा-सा कस्बानुमा शहर अपनी ही माटी के सपूत हरि शंकर परसाई की बात को सत्य सिद्ध करने में जुटा था। उन्होंने कहा था " जो महानगरों के पैरों से उतरता है वो कस्बों की पिंडलियों पर चढ़ जाता है।" महानगरों के पैरों की उतरन मेरे कस्बे की पिंडलियों पर चढ़ चुकी थी और सतपुड़ा के घने जंगल जिन पहाड़ों पर थे वो पहाड़ धीरे-धीरे नग्न होने लगे थे। कभी नर्मदा तट से जो पहाड़ पूरी तरह पेड़ों से ढके नज़र आते थे वहां अंधाधुंध कटाई के घाव नज़र आने लगे थे । मेरा छोटा-सा शहर प्रकृति से रिश्ता तोड़कर कांक्रीट और फैलते हुए बाज़ार से रिश्ता जोड़ रहा था और पुराने लोग भी काल के प्रवाह में गुम होते जा रहे थे और फिर धीरे-धीरे वो लोग मिलना ही मुश्किल हो गए जो मन्ना की बातें किया करते थे और जिन्हें सन्नाटा और सतपुड़ा के घने जंगल सुनाने में सुख मिलता था। नर्मदा तट का वो किला खंडहर से भी अधिक बुरी स्थिति में तब्दील होने लगा और शेष बची नर्मदा तो वो भी नदी नहीं रह गयी। बांधों की एक लम्बी श्रंखला ने उसके प्रवाह की गति रोक दी और नर्मदा ने नदी के स्थान पर बांधों के मध्य लगभग ठहरे हुए जलाशय का रूप धर लिया।
नर्मदा ठहर गयी लेकिन वक़्त नहीं ठहरा। ये वर्ष नर्मदा के लाड़ले सपूत भवानी प्रसाद मिश्र का शताब्दी वर्ष बनकर आया। लेकिन ये शहर जो मन्ना का अपना है अब सब कुछ भूल चुका है।वो लोग जिन्हें मन्ना याद थे जिन्हें मन्ना की कविताएँ याद थीं वो लोग अब यहाँ नहीं मिलते। शायद इसीलिए मन्ना को याद करने के लिए यहाँ कोई बड़ा आयोजन नहीं हुआ। होता भी तो क्या फर्क पड़ता? इस बदले हुए माहौल में कुछ भी मन्ना का मनभाता कहाँ शेष बचा है? यहाँ तक कि मन्ना के वो घने सतपुड़ा के जंगल भी नहीं बचे जिनके लिए उन्होंने लिखा था -
धँसो इनमें डर नहीं है
मौत का यह घर नहीं है
उतर कर बहते अनेकों
कल-कथा कहते अनेकों
नदी - निर्झर और नाले
इन वनों ने गोद पाले
लाख पंछी सौ हिरन-दल
चाँद के कितने किरण-दल
झूमते बन-फूल फलियाँ
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ
हरित दूर्वा रक्त किसलय
पूत पावन पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल
लताओं के बने जंगल
अब देश ने बहुत तरक्की की है। क्या हुआ जो घने जंगलों वाले पहाड़ अब नग्न हो गए ? क्या हुआ अगर नर्मदा अब नदी नहीं रही ? क्या हुआ अगर घर दुकानों में तब्दील हो गए ? क्या हुआ अगर क़स्बे महानगरों की जूठन चाट रहे हैं ? क्या हुआ अगर लोगों का प्रकृति से रिश्ता टूट गया ? क्या हुआ अगर लोगों को अब कविताएँ याद नहीं ? क्या हुआ अगर मन्ना के अपने ही शहर में लोग मन्ना को भूल गए ..... इतनी कीमत तो चुकानी ही पड़ती है। मन्ना ने जो सन्नाटा में लिखा था वो अब सच हो गया है। उनके ही तो शब्द हैं ...
यह घाट नदी का जो अब टूट गया है
यह घाट नदी का जो अब फूट गया है
वह यहाँ बैठकर रोज़-रोज़ गाता था
अब यहाँ बैठना उसका छूट गया है
कई बार मैं अतीत में जीने लगता हूँ लेकिन फिर वर्तमान को स्वीकार कर लेता हूँ इस उम्मीद के साथ कि शायद भविष्य अच्छा होगा लेकिन जब मैं इस देश के कर्णधारों की यह बात सुनता हूँ कि अभी तो विकास अधूरा है; पूरा विकास होना तो अभी बाकी है तो सच मानिये मैं न जाने क्यों बहुत-बहुत-बहुत डर जाता हूँ ...
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अशोक जी का यह लेख पढ़ कर मैं उन दिनों की यादों में खो गया जब मैं भवानी प़साद मिश्र जी के सम्पर्क में आया । उन्हें एक सरल निश््छल इन्सान और सहज कवि के रूप में देखा । बच्चन के बाद वे मेरे कवि के आदर्श बन गये । वे जैसा लिखते थे , वैसे ही दिखते थे और यह दिखना बनावटी नहीं था । उन की स्मृति को नमन करता हूँ ।
जवाब देंहटाएंअशोक जमनानी जी, आपने स्मृतियों के बहाने शहर और कविता के रिश्ते पर अच्छी बहस छेड़ी है। आज भी 'सन्नाटा' कविता में बसे सतपुड़ा के जंगल और नर्मदा किनारे बसे खण्डहरों को उसी शिद्दत से महसुसा जा सकता है तिस पर भवानीप्रसाद मिश्र की कविताएँ तो एक चलते-फिरते ज्ञानकोश के रूप में पठारी सौन्दर्य को पीढी-दर-पीढी संचरित करने का काम करती रही है। यह आज इसलिए भी याद आती है क्योंकि उन कविताओं में समाहित सौन्दर्य को हम असल जीवन में देख ही नहीं पा रहे। जहाँ देखों वहाँ मुर्दनी छाई है। उदारीकरण और निजीकरण की कोख से पैदा हुई छद्म आधुनिकता के फेर में हमने जंगलों में समाए रस को, नदियों की कल-कल और उन सबमें समाए जीवन के सोते को ही खो दिया। वैसे भी अब तो हमारी आदत ही जूठन खाने की हो गयी है। जो कहीं नहीं चलता, वो भारत में दौड़ता है... टूटे-फूटे और पीछे छूट चुके साजो-सामानों को आपने जिस शिद्दत से फिर से संजाने का काम किया है वह बेहज जरूरी है। कृपया इसे अनवरत जारी रखें।
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया और 'अपनी माटी' की निरन्तरता के लिए असीम शुभकामनाएँ...
भाई अशोक जी,
जवाब देंहटाएंपत्रिका अभी नहीं पढ़ी है,केवल सम्पादकीय पढ़ा है और उसी से मुग्ध हूँ। जो व्यक्ति इतना अच्छा सम्पादकीय लिख सकता है, उसका सम्पादन कैसा होगा, इसका अनुमान मुझे हो गया है। हमारे यहाँ कहा जाता है न कि चावल का एक दाना देखकर चावल की पूरी पतीली का अन्दाज़ मिल जाता है। अब मैं इतमीनान से आख़िर तक पूरी पत्रिका पढूँगा, उसके बाद फिर से आपको पत्र लिखूँगा। अभी तो बस, यही कामना है कि आप इस रास्ते पर बरसों चलें। मंगलकामनाओं के साथ।
अनिल जनविजय, मास्को, रूस ।
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