मई -2013 अंक
कुँवर रवींद्र के चित्रों का प्रत्यक्ष और परोक्ष
दोनों ही रूपों में पक्षियों से उनके चित्रों का बड़ा गहरा रिश्ता है। उनकी रचनाएं
पृथ्वी और चंद्रमा के मध्य पक्षियों की उपस्थिति दर्ज करती है। दूसरे शब्दों में
कहूँ तो प्रकृतिजीविता उनके चित्रों की प्रारंभिक शर्त है। और शायद हमारे जीवन की
भी। इसीलिए उनके चित्र बड़ी ही संजीदगी से हमारे समय की सामाजिक-उठापठक को हमारे सामने लाने में सफल हो पाए है। कुँवर
रवींद्र के चित्रों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता कलाओँ का अंतर्गुंफन और उनकी
परस्पर अंतर्निर्भरता है। वैसे भी एक कलाकार के लिए प्रेम पाने और उड़ेलने और
बाँटने का सबसे सशक्त माध्यम उसकी कला ही होती है और इस मायने में कुँवर रवींद्र की
चित्र-साधना कला में
मनुष्यता की खोज
के लिए जुझती रही है। यानी धुंधियाती पृथ्वी और खत्म होती मनुष्यता को बचाने का एक
कलाकार का प्रयास। उनकी चित्रकला का प्रकृति प्रेम आकृष्ट करता है। यानी प्रकृति
और मनुष्य का सहज साहचर्य उनकी कला को अधिक प्रभावी बनाता है। कुलमिलाकर कुँवर
रवींद्र की कलाकृतियाँ प्रायः समानांतर रूप से दो विरोधी धाराओं को जोड़ने और अपनी
अर्थबहुलता के लिए जानी जाती है।
सन् 1975-76 से लगातार सृजनरत कुँअर रवींद्र
मूलतः यथार्थवादी शैली के चित्रकार है। 15 जून 1959 को मध्यप्रदेश के रीवा में
जन्मे कुँअर रवींद्र का प्रारंभिक जीवन छतीसगढ़ के ठेठ ग्रामीण इलाकों में तथा शेष जीवन भोपाल में बीता। वे 1975-76 से लगातार सृजनरत कुँअर रवींद्र
के चित्रों की पहली प्रदर्शनी सन् 1979 में
रायपुर (छत्तीसगढ) में हुई। इसके बाद 1983 में मध्यप्रदेश के ब्योहारी और
शहडोल शहरों में उनके चित्रों की प्रदर्शनियों हुई। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल
में अब तक क्रमशः उनकी तीन चित्र-प्रदर्शनियों
विधानसभा सभागार (1975), मध्यप्रदेश
कला परिषद् (1976) व दंगा
और दंगे के बाद विषय पर हिंदी भवन (1993) का
आयोजन हो चुका है। इसके अतिरिक्त बेतुल (विवेकानंद सभागार, 1995) में भी
में उनके चित्रो का प्रदर्शन चुका है। साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ-साथ देशभर की कई
व्यावसायिक-अव्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों और कविताओं के मुख पृष्ठों पर
उनके अब तक लगभग चौदह हजार रेखांकन/चित्र प्रकाशित हो चुके है। अपनी नायाब कला-साधना के लिए उन्हें मध्यप्रदेश का ‘सृजन सम्मान’ (1995), बिहार का ‘कलात्न सम्मान’ (1998) और छत्तीसगढ का ‘सृजन सम्मान’ (2003) आदि प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके
है।
कुँवर रवींद्र के रेखाचित्र कुछ इस कदर जीवन से भरे
है कि लगता है कि जीवन और रेखाएं एक दूसरे के पर्याय से बन गए हो। इन रेखाओं का
मूलधर्म किसी भी तरह की अमानवीयता का, गैरबराबरी
का प्रतिकार है, उसका
प्रतिरोध है। इस प्रतिरोध से हमें ऊर्जा मिलती है क्योंकि प्रतिरोध का सीधा संबंध
मनुष्य की चेतना से होता है और मानवीय चेतना का मूल समतामूलक समाज के निर्माण में
निहित है। उनकी एक कृति जिसमें तार पर अगल-बगल बैठी कुछ चिड़ियाएं जैसे समतामूलक समाज के निर्माण के लिए चिंतनरत है इस
मुद्दे पर कि कैसे खत्म होते मानवीय संसार को, नष्ट होती उसकी प्राकृतिक विरासत को
बचाया जाए। इस तरह यह कृति अपनी अर्थबहुलता में बहुत कुछ कह जाती है। इसी तरह संवादरत
पक्षियों के ऊपर की ओर आकाश में उड़ रहा पैर-विहिन पक्षी ऐसा लगता है जैसे वह अपनी मुक्त जमीन की तलाश में लंबे समय से
इधर-उधर भटक रहा हो लेकिन कहीं भी
उपयुक्त जगह की थाह न मिल पाने से निराश है। इस कृति में आसमान के दो छोर जिसमें
एक धरती को तो दूसरा आसमान में विलिन हो रहा के अंतर को स्पष्ट रूप से महसुसा सकता
है। पहले में गहराता कालापन इंसान की काली करतूतों का नतीजा है दूसरा प्रकृति के
अनुपम सौंदर्य का प्रतीक है जो धीरे-धीरे
पहले के संपर्क में आकर नष्ट होता जा रहा है। किनारे की हरीतिमा आशा की एक किरण है
और उसके वजूद के बीच पक्षियों का अस्तित्त्व थाह पाता है जो अब भी अपने अस्तित्त्व
के लिए संघर्षरत है। जैसे वह रेखा खुशहाली से बदहाली के बीच की सीमारेखा तय करती
हो। उनकी रचनाएं स्त्री की कई छवियों को रूपायित करती है।
पुखराज जाँगिड़
युवा आलोचक हैं।
राष्ट्रीय मासिक ‘संवेद’ और
‘सबलोग’ के सहायक संपादक,
ई-पत्रिका ‘अपनीमाटी’
व ‘मूक आवाज’ के
संपादकीय सहयोगी है।
दिल्ली विश्वविद्यालय से
‘लोकप्रिय साहित्य की अवधारणा और
वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास’
पर एम.फिल. के बाद
फिलहाल
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
के भारतीय भाषा केन्द्र से
साहित्य और सिनेमा के
अंतर्संबंधों पर पीएच.डी. कर रहे है।
संपर्क:
204-E,
ब्रह्मपुत्र छात्रावास,
पूर्वांचल,
जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली-67
|
कुँवर रवींद्र के चित्रों में चुल्हे-चौके में झोंकी घरेलू स्त्री तथा खदानों और खेतों
में खपाई गई कामगारी स्त्री, दोनों
के क्रियाकलापों का विविधआयामी चित्रण है। इसमें एक ओर तन ढकने के कपड़े तक को
मोहताज स्त्री है तो दूसरी ओर अपने आप में सिमटी-सकुचाई सी अबोध-बालिका
भी है। इस तरह यथार्थ के कई रूप उनके चित्रों में देखे जा सकते है। यथार्थ का एक
रूप जादुई यथार्थ भी है जो पहले-पहल
पहले चित्रकला में आया और उसके प्रभावस्वरूप वह साहित्य में आया। कुँवर रवींद्र उस अर्थ में रहस्यवादी चित्रकार
है भी नहीं जिस अर्थ में वे यथार्थवादी चित्रकार है। वास्तव में उनके चित्र
मानव–मन के, प्रकृति और मनुष्य के अनसुलझे
रहस्यों पर टिप्पणी है। उनकी कला-साधना
में दिशाहीनता और दिशाओं की तलाश दोनों के भाव निहित है और वह सत्ता के केंद्रीकरण
और उसके एकलमार्गी रवैये पर कटु व्यंग्य भी है। उनकी कृतियों हर संवेदनशील व्यक्ति से संवाद करती है, बतियाती है। हमारे सुख-दुख को महसुस
करती है। उनकी रेखाओं की विशिष्टता इसमें है कि वह यह सब बड़ी संवेदनशीलता से कर
पाती है। इस संदर्भ में स्वयं उनकी कविता की पंक्तियाँ 'मैं दरवाजों-खिडकियों पर पर्दे नहीं लटकाता' इसलिए इसलिए भी याद आती कि इसमें उन्होंने तमाम सीमाओं से परे
कल्पनाओं के स्वतंत्र आसमां में विचरने की चाह जताई है।
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