आलेख:'धूमिल की कविताओं की शक्ति' / शैलेन्द्र चौहान

मई -2013 अंक 
                             (यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)


धूमिल
सन 1960 के बाद की हिंदी कविता में जिस मोहभंग की शुरूआत हुई थी, धूमिल उसकी अभिव्यक्ति करने वाले अंत्यत प्रभावशाली कवि हैं | उनकी कविता में परंपरा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता का विरोध है, क्योंकि इन सबकी आड् मे जो आक्रोश पलता है, उसे धूमिल पहचानते हैं| इस विरोध के कारण उनकी कविता में एक प्रकार की आक्रामकता मिलती है| किंतु उससे उनकी उनकी कविता की प्रभावशीलता बढती है|  धूमिल अपनी कविता के माध्यम से एक ऐसी काव्य भाषा विकसित करते है जो नई कविता के दौर की काव्य- भाषा की रुमानियत, अतिशय कल्पनाशीलता और जटिल बिंबधर्मिता से मुक्त है। धूमिल  साठोत्तरी कविता व अकविता आन्दोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। यद्दपि तत्कालीन परिवेश में अनेक काव्यान्दोलनों का दौर सक्रिय था पर उनकी कविता में समकालीन युगबोध की सच्ची, मार्मिक और तीखी अभिव्यक्ति हुई है। वे किसी के सुर में सुर मिलाने के कायल न थे। उन्होंने तमाम ठगे हुए लोगों को जुबान दी। 'संसद से सड़क तक' उनका प्रथम काव्य-संग्रह है, जो 1972 में प्रकाशित हुआ। उनका दूसरा काव्य-संग्रह 'कल सुनना मुझे' मरणोपरांत सन् 1977 में प्रकाशित हुआ है। उन्हें मरणोपरांत १९७९ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।  धूमिल की कुछ सबसे उल्लखनीय कवितायेँ हैं- मोचीराम, बीस साल बाद आदि ।  उनका तीसरा काव्य-संग्रह 'सुदामा पांडे का जनतंत्र' भी मरणोपरांत ही प्रकाशित हुआ।



धूमिल का जन्म १९३६ में वाराणसी के पास खेवली गांव में हुआ था| इनके पिता का नाम पंडित शिवनायक और माता का नाम रसवंती देवी था। गांव से हाईस्कूल  पास करने के बाद ये विज्ञान से इंटर करने के लिए बनारस आए लेकिन शहर में पढ़ाई के खर्चे वहन न कर पाने के कारण पढ़ाई का क्रम यहीं से टूट गया। रोजगार के लिए धूमिल कलकत्ता चले आए। यहां पर लोहा और लकड़ी ढोने का काम किया पर मालिक से नहीं बन पाने के कारण वापस भी लौट आए। नौकरी से बचे पैसों से   सन् 1958 मे आई टी आई (वाराणसी) से विद्युत डिप्लोमा लेकर वे वहीं विदयुत अनुदेशक बन गये| लेकिन उनकी कार्यकुशलता और क्षमता के बावजूद

आधिकारियों से नहीं बनी। इसी कारण, सीतापुर,बलिया,सहारनपुर में ट्रान्सफर होता रहा। जीवन संघर्षों से जूझते हुए, ये काव्य-रचना में लगातार योगदान देते रहे।  दुखद पहलू यह रहा कि  ३८ वर्ष की कम उम्र मे ही ब्रेन ट्यूमर से उनकी मृत्यु हो गई|


कुछ लोगों का निर्माण परिस्थितियां करती हैं लेकिन कुछ विरले ऐसे भी होते हैं,जो इन परिस्थितियों के जाल में न फंसकर खुद अपना अलग व्यक्तित्व निर्माण करते हैं। सुदामा पांडे धूमिल ऐसे ही लोगों में से हैं जिन्होंने परिस्थिति के साथ समझौता न कर के उनसे संघर्ष किया और अपनी अलग पहचान बनायी। 

धूमिल की कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है । आजादी के पहले भारतीय जनता को जो सुनहरे स्वप्न दिखाये गये थे, वे आजादी मिलने के कुछ ही वर्षो में टूटकर बिखरने लगे।समस्याओं का समाधान जुटाने की बजाय जनता का ध्यान दूसरी ओर खींचने तथा झूठे वादे देकर जनता को गुमराह करने वाले नेता-वर्ग पर कवि का यह आक्रोश बिल्कुल वाजिब है-



उसी लोकनायक को

बार-बार चुनता रहा

जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का एक ही जवाब था
यानी की कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशांति और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा।



अवसरवादी नेताओं ने सत्ता हासिल कर ऐसी धांधली मचायी कि आम जनता हतप्रभ हो देखती रह गयी। देश की और सामान्य जन-जीवन की दशा-दिशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आया। नेताओं की स्वार्थवृत्ति, मुखौटेबाजी, अवसरवादिता, नारेबाजी, भ्रष्टाचार जैसी विसंगतियों ने धूमिल के दिलो-दिमाग को झकझोर दिया। कवि के मन का आक्रोश और झुंझलाहट कविता में तीखी और धारदार अभिव्यक्ति बनकर उभर आयी है। इस लोकतंत्र से धूमिल उकता गए से लगते हैं। 

वो लिखते हैं-



मैंने इंतजार किया-
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नही छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह जमीन अपनी है
आसमान अपना है




जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता...
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता...
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
खुशफहम इरादे थे



आज़ादी के छः दशकों बाद भी ग्रामीण गरीबों और मेहनतकश लोगों के जीवन में कुछ विशेष परिवर्तन दृष्टिगत नहीं होता बल्कि स्थितियां और बदतर हुईं हैं। हाँ मध्यवर्ग की सम्पन्नता और सुख-सुविधाओं में अवश्य बढ़ोत्तरी हुई है। आज भी भारतीय जनता अपनी प्राथमिक आवश्यकताएं जुटाने में असफल रही है। इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हमारे देश के सूत्रधार हैं। उनकी नरभक्षीजीभ पसीने का स्वाद चख गयी है। इसलिए वे जनता की रोटी के साथ खिलवाड़ करते रहते हैं। यदि कबीर ने तत्कालीन समाज व्यवस्था एवं धर्म के आडंबर को चुनौती दी तो धूमिल लोकतंत्र से मोहभंग पर कविता करते हुए सीधे संसद से प्रश्न करते रहे,  धूमिल ने इस तथ्य का वास्तविक चित्र खींचा है -



एक आदमी

रोटी बेलता है

एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं -
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।



स्वार्थ और सत्तालोलुप नेता वर्ग जनता को देश के नागरिक न मानकर उसे सिर्फ वोट के रूप में देखता है। धूमिल ने नेताओं के  इस पाखंड को बेनकाब कर दिया है -



हां यह सही है कि इन दिनों

मंत्री जब प्रजा के सामने आता है

तो पहले से
कुछ ज्यादा मुस्कुराता है
नये-नये वादे करता है




आजादी के बाद की कविता में देश, लोकतंत्र और आम आदमी की पीड़ा को संसद के गलियारों तक मुखर करने वाले धूमिल ने भुखमरी, महंगाई और बेरोजगारी पर किसी भविष्यद्रष्टा की तरह कलम चलाई। बारीकी से देखें तो धूमिल की कल की पंक्तियां आज का सच उकेरती मिलती हैं। कविता के बारे में धूमिल का विचार है:-



एक सही कविता

पहले

एक सार्थक वक्तव्य होती है।



जीवन में कविता की क्या अहमियत है-




कविता

भाष़ा में

आदमी होने की
तमीज है।



भय, भूख, अकाल, सत्तालोलुपता, अकर्मण्यता और अन्तहीन भटकाव को रेखांकित करती, आक्रामकता से भरपूर इस संग्रह की सभी कविताएं अपने में बेजोड हैं। पच्चीस कविताओं के इस संग्रह में लगभग सभी रचनाएं तत्कालीन सामाजिक,राजनैतिक परिदृश्य का भी गहराई से परिचय कराती हैं। इस संदर्भ में कवि की

समूची राजनैतिक समझ प्रखरता से उभरती है क्योंकि उनकी कविताओं में देहात और शहर, कविकर्म और राजनीति, आस्था और अनास्था, सामाजिकता और असामाजिकता, अहिंसा-हिंसा, ईमानदारी और बेईमानी, जिजीविषा और निराशा आदि प्राय: सभी मानव जीवन से सभ्य-असभ्य अंगों का चित्रण हुआ है। ये सभी चित्रण ठोस सामाजिक यथार्थ के दुर्लभ दस्तावेज हैं। इन कविताओं को पढते हुए ऐसा अनुभव होता है कि मानो कवि हाथ पकडकर कह रहा है- लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा, यह जुलूस के पीछे गिर पडा था।


जिन पंक्तियों को धूमिल ने आज से 40 वर्ष पहले ही लिख दिया था, आज वही पंक्तियां पूरे समाज के लिए कही ज्वलंत प्रश्न के रूप में हैं, तो कहीं पूरी राजनीतिक व्यवस्था की विद्रूपता का आईना हैं। यदि रुककर और गंभीरता से सोचें तो कहना होगा कि लोकतंत्र की विसंगतियों और विडंबनाओं का पूरा दस्तावेज ही हैं धूमिल की कविताएं।  बेकारी, गरीबी, बढ़ती जनसंख्या के बारे में लिखते हुये वे कहते हैं-



मैंने उसका हाथ पकड़ते हुये कहा-

‘बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं’

इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिये
रसद देते हैं।



अपराधी तत्वों के मजे हैं आज की व्यवस्था में इस बात को धूमिल जानते थे। तभी तो कहते हैं-



….और जो चरित्रहीन है

उसकी रसोई में पकने वाला चावल

कितना महीन है।

'हाथी के दांत खाने को और दिखाने के और' कहावत को सिद्ध करने वाले नेता आजादी मिलने पर समाजवाद की दुहाई देते थे, लेकिन वही लोग उसका रास्ता रोके हुये थे। समाजवाद के नाम पर उन दिनों काफी शोरगुल हुआ, लेकिन आखिरकार समाजवाद को दफना दिया गया। इन स्थिति को धूमिल ने व्यंग्य-बाण की तीक्ष्ण नोंक से अनावृत कर दिया है -



समाजवाद

उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का

एक आधुनिक मुहावरा है
मगर मैं जानता हूं कि मेरे देश का समाजवाद
माल गोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर आग लिखा है।
और उनमें बालू और पानी भरा है।



महात्मा गांधी के सिद्धांतों और आदर्शो को जीवन में उतारने की बजाय पाखंडी नेता उनका प्रयोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए करते हैं। समारोहों में भाषण देने के लिए जाना होता है, तब गांधीजी के सिद्धांतों की शाल ओढ़कर अपने कालेपन को छिपाने की भरसक कोशिश करने वाले नेताओं की धूमिल ने धज्जियाँ उड़ा दी हैं -



और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के

सामने खड़ा हूं और

उस मुहावरे को समझ गया हूं
जो आजादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।



भारत विश्व का सबसे बड़ा जनतांत्रिक देश है। लेकिन हमारे स्वार्थी नेताओं ने ऐसी धांधली मचायी है कि अब धीरे-धीरे जनता का विश्वास जनतंत्र से उठता जा रहा है। जनता के विकास के नाम पर नेता-वर्ग अपना ही विकास कर रहा है। इस अराजकता पर धूमिल ने भरपूर फटकार लगाई है -




ऐसा जनतंत्र है जिसमें

जिंदा रहने के लिए

घोड़े और घास को
एक जैसी छूट है



संसद, विधानसभाओं, अदालतों और बड़े-बडे सरकारी दफ्तरों में जनतंत्र की रोज सैकड़ों बार हत्या हो रही है। धूमिल की आंखों ने बार-बार यह हत्या होते देखी है  इसलिए उनकी पीड़ा, झुंझलाहट और आक्रोश कविता में तेजाब का रूप धारण कर लेते हैं लोकतंत्र की विसंगतियों का इतना बड़ा शब्दचित्र खींचना बिना गहरे चिंतन एवं यथार्थानुभव के असंभव था। वाराणसी शहर से 20 किलोमीटर दूर ‘खेवली’ गांव में जन्मे कवि ‘धूमिल’ का अभाव एवं संघर्षं से सीधा जुड़ाव था। खेवली में धूमिल का मकान जहां लालटेन की रोशनी में वे अपनी कविताओं के लिए शब्द रोपा करते वह घर जमींदोज हो चुका है। एक ऐसा घर जहां से धूमिल ने हिन्दी साहित्य का गागर भरा वह जीर्णशीर्ण और उपेक्षित दशा में पड़ा है। इस पर किसी की नजर नहीं है। साल में एकाध बार धूमिल को चाहने वाले खेवली पहुंचते हैं और उन्हें याद कर लौट आते हैं। कुछ समय सन्नाटे से बाहर रहने वाली खेवली फिर सन्नाटे में डूब जाती है। अपनी कविता की रक्षा के लिए इन्हें मजदूरी करना पसंद था लेकिन किसी की चाटुकारिता अथवा उपकार के तले दबकर रहना धूमिल जैसे व्यक्ति की प्रवृत्ति नहीं थी।



उन्होंने जनता और जरायमपेशा

औरतों के बीच की

सरल रेखा को काटकर
स्वस्तिक चिह्न बना लिया है
और हवा में एक चमकदार गोल शब्द
फेंक दिया है-'जनतंत्र'
और हर बार
वह भेड़ियों की जबान पर जिंदा है।



व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने एक जगह लिखा है कि 'इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।' इस देश के बुद्धिजीवी लोग भी इस कदर भ्रष्ट और स्वार्थी हो गये हैं कि अपने लाभ केलिए वे अपना मान-सम्मान, ईमानदारी, जमीर सब कुछ दांव पर लगा देते हैं।भ्रष्ट और लंपट नेताओं की चापलूसी करने वाले और ऊपर की आमदनी की फिराक में रहने वाले टुच्चे बुद्धिजीवियों की धूमिल ने बखिया उधेड़ दी हैं -



वे सब के सब तिजौरियों के

दुभाषिये हैं

वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता है। दार्शनिक हैं।
लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।



स्वराज्य मिलने के कई वर्षो के बाद भी देश की समस्याओं, प्रश्नों और स्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं आया है। विदेशी शासकों और स्वदेशी शासकों के शासन में कोई खास फर्क महसूस नहीं होता। हरिशंकर परसाई ने इसे'ट्रांसफर ऑफ पावर नहीं, ट्रांसफर आफ डिश' कहा है। इस विद्रूप स्थिति से आहत कवि अपने आप से प्रश्न करता है कि क्या किसी आदमी के लिए सैकड़ों लोगों ने बलिदान दिये थे? स्वराज्य का क्या यही मतलब होता है? कवि के शब्दों में -




बीस साल बाद

मैं अपने आप से एक सवाल करता हूं

जानवर बनने के लिए कितने सब्र की जरूरत होती है?



क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुये रंगों का नाम है

जिन्हें एक पहिया ढोता है

या इसका कोई खास मतलब होता है?


धूमिल भावनाओं के स्थान पर गहरे विचार के कवि हैं। यथार्थ की गहराई से टटोल के कारण उनकी कविताएं अर्थ-गुम्फित और कहीं-कहीं वक्र भी हो गयी हैं जिस पर पाठकों को गहन पैठ बनाने के लिये समय-सापेक्ष उनके मन में  व्यवस्था के प्रति हिंलोरें लेती अराजकता, उनके जीवन के संघर्ष की जटिलता और उनकी रचना-प्रक्रिया को बारीकी से समझना पड़ेगा और उनकी रचना को कई बार, और मन देकर पढ़ना होगा। धूमिल मानते हैं कि जिन्दा रहने के लिए तर्क  जरूरी है-




और बाबूजी। असल बात तो यह है कि जिन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोजी कमाने में
कोई फर्क नहीं है



कवि धूमिल का शिल्प-विधान और भाषा अपने समकालीन सरोकारों, गंवई सुगंध, ईमानदार व्यक्ति की बगैर लपछप की एक अनूठी झलक है। इस दृष्टि से उनकी काव्यभाषा सामाजिक संरचना के औचित्य को चुनौती देती है। उनकी नजर में कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है। वे मानते हैं- एक सही कविता पहले एक सार्थक व्यक्तव्य होती है। यह भी सच है, कि वे भाषा का भ्रम तोडना चाहते हैं। वे जनता की यातना और दुख से उभरी तेजस्वी भाषा में कविताई करना पसंद करते हैं। वे कहते हैं- आज महत्व शिल्प का नहीं, कथ्य का है, सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है। धूमिल अपनी कविताओं के जरिए आकाश की बुलंदियां छूते हुए भी अपनी माटी का दर्द नहीं भूलते। अपने खेवली को नहीं भूलते। उन्हें संसद के साथ अपने खेतों की मेंड़, हदबंदी, नीम का पेड़, कौए की कर्कश आवाज, तीरथ पर निकलीमां का चेहरा, बेटी की आंखें और जवान बछड़े की मौत भी याद रहती है। धूमिल ने जिस व्यवस्था पर 70 के दशक में सवाल उठाया था वो आज भी जस का तस है। इस व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए धूमिल कहते हैं-




वह कौन-सी प्रजातांत्रिक नुस्खा है
कि जिसमें मेरी मां का चेहरा
झुर्रियों का झोला है
और ठीक उसी उम्र की
मेरे पड़ोस की महिला के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।



उनके काव्य बिंब अपने परवर्ती कवियों से पृथक हैं। समाज के संपन्न वर्ग के बारे में कवि कहता हैं-



जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए,सबसे भद्दी
गाली है।



धूमिल की कविता आम आदमी की कथा-व्यथा से जुड़ी कविता है। उन्होंने समाज की विसंगत, विकृत एवं विद्रूप स्थितियों का बारीक निरीक्षण कर उन पर भरपूर व्यंग्य-बाण छोड़े हैं। कविता लिखते समय उनकी दृष्टि कलापक्ष की बजाय अनुभूति की सच्ची, मार्मिक और सचोट अभिव्यक्ति पर रही है। उन्होंने आम आदमी की भाषा के शब्दों में विस्फोट की ताकत भरकर उन्हें कविता में स्थान दिया है। देश में व्याप्त अराजकता से व्यथित कवि-मन के आक्रोश ने कविता में विकट व्यंग्य का रूप धारण कर लिया है।धूमिल मानते हैं कि सबके प्रतिरोध का अपना अलग तरीका है-


जबकि मैं जानता हूं कि इनकार से भरी हुई एक चीख
और एक समझदार चुप दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,चुप और चीख
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फर्ज अदा करते है।



उनकी पत्नी मूरत देवी आज भी खेवली में उनकी स्मृतियों के सहारे जिन्दगी का तनहां सफर काट रही हैं। उन्हें कुछ भी नहीं भूला। बढती उम्र के बावजूद उनके भीतर धूमिल से जुड़ी यादों का अमृत कोष भरा हुआ है। कवि धूमिल के शब्दों में-




अन्त में कहूंगा
सिर्फ इतना कहूँगा
हां हां मैं कवि हूं,
कवि-याने भाषा में
भदेस हूँ
इस कदर कायर हूँ
कि उत्तरप्रदेश हूँ।



यदि किसी साहित्यकार के अवदान को विस्मृत कर दिया जाए तो उसकी कृतियों की पुनर्समीक्षा करनी होगी। लेकिन ‘धूमिल’ जैसा कवि जिनकी रचनाएं पूरे देशभर के पाठयक्रम में पढ़ाई जाती हैं, तथा जिनके ऊपर 100 से भी ज्यादा शोध-कार्य हो चुके हों और जिनकी पंक्तियों पर स्वनामधन्य ‘बड़े साहित्यकार’ एवं ‘दिग्गज आलोचक’ अपनी दुकान चला रहें हों, ऐसे लोग भी गाहे-बगाहे धूमिल-जयंती मनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हों तो इसे क्या कहेंगे?


उनके मित्र काशी नाथ सिंह ने लिखा है --


"रचना में चली आ रही वायवी,

काल्पनिक और व्यक्तिगत भावभूमि को छोड़कर उसने कविता को समसामयिक यथार्थ

से जोडा।
उसने कविता को बिंबों की घटाओं से निकाला।
उसने कविता को अमूर्तन के अंधेरे से उबारा।

वह कहता था-

"भाषा अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही है। कुछ हैं जो भाषा को
खा रहे हैं।" उसने भाषा को उसकी जिम्मेदारी की जगह तैनात किया। उसने
कविता को एक खास तरह की मुंहफट और खुर्राट ज़बान दी।
उसने कहा कि "पहले लोग कहते थे, कविता करेंगे। आज हम कहते हैं, कविता हो
या न हो, हम आदमी करेंगे। "

अगर धूमिल के स्वभावगत आग्रहों को दृष्टि  में रखते हुए हम उनकी कविता-लोक से गुजरेंगे तो यथार्थवादी साहित्य का सच्चा और खरा दर्शन कर पायेंगे।




कविता

घेराव में

किसी बौखलाये हुये
आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।




शैलेन्द्र चौहान
आलोचक और वरिष्ठ कवि है 
संस्मरणात्मक  
उपन्यास कथा रिपोर्ताज 
बोधि प्रकाशन जयपुर से 
प्रकाशित हुआ है

संपर्क 
पी-1703, 
जयपुरिया सनराइज ग्रीन्स, 
प्लाट नंबर 14 ए, अहिंसा खण्ड, 
इंदिरापुरम, 
गाजियाबाद -201014, (उ.प्र.)
ई-मेल 
shailendrachauhan@hotmail.com,
मो-07838897877
संपर्क 
34/242, सेक्टर- 3, प्रतापनगर
जयपुर- 302033
कवि तमाम तरह की विद्रूपताओं को खुलकर कहता और लिखता है। इसीलिए उन पर आरोप है कि विशेष रूप से नारी के प्रति वितृष्णा से भरा है। ध्यान रहे- यह उनकी सभी कविताओं के साथ जोडकर न देखें तो न्याय होगा। मां और पत्नी के प्रति उनका आत्मीय संबंध लाजवाब है। वे अपनी प्रकृति और प्रस्तुति में अद्भुत हैं- धूप मां की गोद सी गर्म थी। कहकर कवि मां की महिमा को सिर माथे स्वीकारता है।सच तो यह है कि अतिशय यथार्थ सामने रखकर उन बातों से अश्लीलता के प्रति वितृष्णा पैदा करने की कोशिश भर की है। आज के स्वछन्द समय में प्यार के बारे में लिखते हुये धूमिल कहते हैं:-

एक सम्पूर्ण स्त्री होने के

पहले ही गर्भाधान की क्रिया से गुज़रते हुये

उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है।



उनकी कविता और जीवन में जो अराजकता झलकती है वह दरअसल इस व्यवस्था और उसके दलालों के प्रति गहरे आक्रोश का ही परिणाम है। धूमिल इस दुनिया को खास तौर से इस देश को सम्पन्न, खुशहाल और शोषण मुक्त    देखना चाहते हैं इसीलिए उनका आक्रोश अत्यधिक आक्रामक हो उठता है। कहा जा सकता है कि उनकी यह आक्रामक अराजकता ही उनकी कविता की शक्ति है। दरअसल उनकी कविता नये विम्ब विधान व नये संदर्भो में जनता के संघर्ष के स्वर में स्वर मिलाती है। हिंदी कविता को नए तेवर देने वाले इस जनकवि का योगदान चिरस्मरणीय है।

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