सरोकार और सृजन
(कविता-संग्रह)
डॉं. महेन्द्र भटनागर,
शांति प्रकाशन
1780, सेक्टर-1,
दिल्ली बाई पास,
रोहतक- 124001
|
मई-2013 अंक (यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)
महेन्द्रभटनागर-रचित काव्य-संकलन — ‘सरोकार और सृजन’ सामाजिक यथार्थ पर आधारित है । इस संग्रह में कुल एक-सौ तैंतालीस कविताएँ हैं, जो जीवन की संवेदनाओं को न केवल यथार्थ के धरातल पर उतारती हैं, बल्कि आस्थावादी दृष्टि से भविष्य का पथ भी विस्तारित करती हैं । इन कविताओं में व्यक्ति, समाज, स्त्री, श्रमिक, सर्वहारा अथवा अन्य किसी प्रकार का वैचारिक आग्रह से संपृक्त वर्ग-विभाजन न होकर मूल्य आधारित सामाजिक संरचना के मापन का प्रयास है। यह प्रयास कवि के भाव-बोध में व्याप्त सूक्ष्म संस्कार, मूल्य के प्रति सशक्त आस्था, आत्मनिष्ठ-दृष्टि से अन्तः समर्पण एवं उनकी भावना में बौद्धिकता का संस्पर्श है ।
महेन्द्रभटनागर-रचित काव्य-संकलन — ‘सरोकार और सृजन’ सामाजिक यथार्थ पर आधारित है । इस संग्रह में कुल एक-सौ तैंतालीस कविताएँ हैं, जो जीवन की संवेदनाओं को न केवल यथार्थ के धरातल पर उतारती हैं, बल्कि आस्थावादी दृष्टि से भविष्य का पथ भी विस्तारित करती हैं । इन कविताओं में व्यक्ति, समाज, स्त्री, श्रमिक, सर्वहारा अथवा अन्य किसी प्रकार का वैचारिक आग्रह से संपृक्त वर्ग-विभाजन न होकर मूल्य आधारित सामाजिक संरचना के मापन का प्रयास है। यह प्रयास कवि के भाव-बोध में व्याप्त सूक्ष्म संस्कार, मूल्य के प्रति सशक्त आस्था, आत्मनिष्ठ-दृष्टि से अन्तः समर्पण एवं उनकी भावना में बौद्धिकता का संस्पर्श है ।
डॉ.
रामविलास शर्मा ने डॉ. महेन्द्रभटनागर की कविताओं पर टिप्पणी देते हुए लिखा है
— “महेन्द्रभटनागर की रचनाओं में तरुण और उत्साही युवकों का आशावाद है,
उनमें नौजवानों का असमंजस और परिस्थितियों से कुचले हुए हृदय का
अवसाद भी है । इसीलिए कविताओं की सच्चाई इतनी आकर्षक है । यह कवि एक समूची पीढ़ी का
प्रतिनिधि है जो बाधाओं और विपत्तियों से लड़कर भविष्य की ओर जाने वाले राजमार्ग का
निर्माण कर रहा है ।”
उक्त
रचना-संकलन में संकलित कविताएँ किसी समय-विशेष को प्रतिबिम्बित नहीं करती,
वरन् प्रत्येक कालखंड में मानवता का दिग्दर्शन करने का सामर्थ्य
रखती हैं । प्रस्तुत काव्य-संकलन की समस्त कविताएँ जीवन की सार्थकता को भावमयी
वाणी से झंकृत कर रही हैं ।
प्रथम
कविता ‘कला-साधना’ जीवन की सार्थकता को रससिक्त दृष्टि से
देखती है, जिसके लिए कवि ने कला की साधना को अनिवार्य माना
है । कवि की मान्यता है कि कला हर हृदय में स्नेह की बूँदें भरती हैं, मोम को पाषाण में बदलती हैं, मृत्यु की सुनसान घाटी
में भी नये जीवन का घोष करती है । प्यार के अनमोल स्वर जब विश्व रूपी तार पर झंकृत
होते हैं तो मनुष्य का सौन्दर्य-बोध जाग्रत हो जाता है, इसी
कारण कवि कहता है —
गीत
गाओ
विश्व-व्यापी
तार पर झंकार कर,
प्रत्येक
मानस डोल जाए प्यार के अनमोल स्वर पर!
हर
मनुज में बोध हो सौंदर्य का जाग्रत —
कला
की कामना है इसलिए!
(‘कला-साधना)
कवि केवल
सौन्दर्य-बोध जाग्रत करने के लिए ही सर्जना के क्षण तलाश नहीं करता,
वरन् चारों ओर के वेदनामय वातावरण एवं पीड़ा के स्वरों को भी
अभिव्यक्ति देना चाहता है, जिससे कि वह अभिव्यक्ति भी जीवन
का गीत बन जाए । कवि यह कदापि नहीं चाहता कि संकटों का मूक साया उम्र भर बना रहे,
इसीलिए विजय के उल्लसित क्षणों की कामना लिए कहता है —
हर
तरफ छाया अँधेरा है घना,
हर
हृदय हत, वेदना से है सना,
संकटों
का मूक साया उम्र भर,
क्या
रहेगा शीश पर यों ही बना?
गाओ,
पराजय — गीत बन जाए ।
(‘गाओ’)
मनुष्य
जन्म से सृजनधर्मी होता है । वह आपदाओं से, झंझावातों
से विचलित हुए बगैर आस्थावादी दृष्टि से जीवन की गति को बनाये रखता है । उसका यह
प्रयास ही प्रकृति पर विजय प्राप्त करने को प्रोत्साहित करता है, फलतः अपने पथ की दिशा भी तय कर लेता है । कवि की अपेक्षा है कि मनुष्यता
का यह अदम्य साहस विद्यमान रहना चाहिए, यथा —
ज्वालामुखियों
ने जब-जब
उगली
आग भयावह,
फैले
लावे पर
घर
अपना बेखौफ़ बनाते हैं हम!
.
भूकम्पों
ने जब-जब
नगरों-गाँवों
को नष्ट किया,
पत्थर
के ढेरों पर
बस्तियाँ
नयी हर बार बसाते हैं हम!
(‘अदम्य’)
कवि सृजन
का बिम्ब होता है, उसमें युग की
चुनौतियों को झेलने का साहस और सामर्थ्य होता है । विश्व के सुख-दुःख बाँटने में
वह मदद कर सकता है और स्नेह की सृष्टि भी । मानवता की स्थापना में कवि से अनंत
अपेक्षाएँ समाज करता है । इसीलिए कवि
महेंद्रभटनागर भी कहते हैं —
कवि
उठो ! रचना करो!
तुम
एक ऐसे विश्व की
जिसमें
कि सुख-दुख बँट सकें,
निर्बन्ध
जीवन की लहरियाँ बह चलें,
निर्द्वन्द्व
वासर
स्नेह
से परिपूर्ण रातें कट सकें,
सबकी,
श्रमात्मा की, गरीबों की,
न
हो व्यवधान कोई भी ।
(‘युग
और कवि’)
आदिकाल से
समाज में दो पक्ष विद्यमान रहे हैं- एक सबल और दूसरा निर्बल । संपूर्ण मानव-समुदाय
इन दो ध्रुवों में विभाजित नज़र आता है । कवि की दृष्टि में यह मानवता के लिए कलंक है
। दोनों पक्षों की जीवन-शैली का यथार्थ अंकन करती उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
स्पष्ट
विभाजित है जन समुदाय —
समर्थ
/ असहाय ।
.
हैं
एक ओर — भ्रष्ट राजनीतिक दल
उनके
अनुयायी खल,
सुख-सुविधा,
साधन-संपन्न, प्रसन्न ।
...
दूसरी
तरफ़ — जन हैं
भूखे-प्यासे
दुर्बल, अभावग्रस्त ..... त्रस्त,
अनपढ़
/ दलित, असंगठित
खेतों-गाँवों
/ बाजारों-नगरों में
श्रमरत
/ शोषित / वंचित / शंकित!
(‘दो
ध्रुव’)
कवि की
दृष्टि में, जब मानव पशुता पर उतरता है तो
चारों ओर की हवाओं व दिशाओं में आतंक की भयाक्रांत ध्वनि व्याप्त हो जाती है,
जो केवल संत्रास को जन्म देती है । ऐसा वातावरण मनुष्यता के प्रति
घोर अपराध है, जिसे बदलना ज़रूरी है । कवि की क्षुब्ध और
क्रुद्ध वाणी इन शब्दों में प्रकट होती है —
घुटन,
बेहद घुटन है!
होंठ
..../ हाथ... / पैर निष्क्रिय ... बद्ध,
जन-जन
क्षुब्ध .../ क्रुद्ध ।
प्राण-हर
/ आतंक-ही-आतंक / है परिव्याप्त
दिशाओं
में / हवाओं में!
इस
असह वातावरण को बदलना ज़रूरी है ।
(‘संधर्ष’)
समय के साथ,
पीड़ित वर्ग ने अपने अधिकारों की जंग जीत ली है । अब समाज में विषमता
का स्थान समता ने ले लिया है । समता के बीज अब समरसता रूपी वृक्ष में विकसित हो
रहे हैं । भविष्य की स्वर्णिम समतामूलक समाज की संकल्पना मात्र से कवि भाव-विभोर
होकर कह उठता है —
शोषित-पीड़ित
जन-जन जागा
नवयुग
का छविकार बना!
साम्य
भाव के नारों से
नभमंडल
दहल गया!
मौसम
/ कितना बदल गया!
(‘परिवर्तन’)
जातिगत
द्वेष,
प्रांत-भाषा भेद सामाजिक जीवन में दानव-वेश हैं । जहाँ इंसानियत,
मर जाती है और जीवन में विष घुल जाता है । धर्म, जाति, मानव-भेद युक्त वातावरण में सभ्य-जीवन की
साँसें घुटती हैं । कवि इसे असह्य मानकर चीत्कार भरे स्वर में कह उठता है —
घुट
रही साँसें / प्रदूषित वायु,
विष
घुला जल / छटपटाती आयु!
(‘अमानुषिक’)
परन्तु,
कवि ऐसे विषैले वातावरण पर गलदश्रु रूदन न कर, चुनौती देता है । वह लोगों को हिंसा और क्रूरता के दौर को मिटाने हेतु
प्रेरित करता है । इस स्थिति से उबरने का रास्ता यही है कि हर आदमी दृढ़ संकल्प के
साथ इस स्थिति से विद्रोह करे । कठिन संघर्ष से कवि का विश्वास है कि हिंसा व
क्रूरता का वातावरण नहीं रह पाएगा —
लेकिन,
नहीं अब और स्थिर रह सकेगा
आदमी
का आदमी के प्रति
हिंसा-क्रूरता
का दौर!
दृढ़-संकल्प
करते हैं
कठिन
संघर्ष करने के लिए,
इस
स्थिति से उबरने के लिए
(‘इतिहास
का एक पृष्ठ’)
मध्यवर्गीय
जीवन की त्रासदी यह है कि न तो वह अमीर बन पाता है और न ही ग़रीबी में रह सकता है ।
वह ज़िन्दगी को मरने नहीं देता । अपने मन में, अन्तर्भूत
पीड़ा को सहन कर वह नयी सृष्टि की ओर अग्रसर होता है। कवि की दृष्टि में यह प्रेरक
तत्त्व है और जीवन का यथार्थ भी । पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं —
पर,
टपकती छत तले
सद्यः
प्रसव से एक माता आह भरती है।
मगर
यह ज़िंदगी इंसान की
मरती
नहीं, / रह-रह उभरती है !
(‘मध्यम-वर्ग,
चित्र-1)
मानवीय
दृष्टि समय के साथ संकुचित होती जा रही है । उसकी चेतना में स्वार्थपरता बढ़ती जा
रही है । प्रत्येक इंसान सबसे पहले अपने व अपने घर-परिवार के बारे में सोचता है,
परहित का भाव उसके मन में बाद में आता है । यह मानवता की परिधि को
संकुचित करने वाला है । कवि की पीड़ा इन पंक्तियों में उजागर होती है —
पहले
- सोचते हैं हम
अपने
घर-परिवार के लिए
फिर
- अपने धर्म, अपनी जाति, अपने प्रांत,
अपनी
भाषा और अपनी लिपि के लिए!
आस्थाएँ
: संकुचित
निष्ठाएँ
: सीमित परिधि में कै़द !
(‘नये
इंसानों से —‘)
हम
इक्कीसवीं सदी में विचरण का दावा करते हैं । युग आधुनिक है,
किंतु हमारी मानसिकता प्रागैतिहासिक है । हमारे दकियानूसी चेहरे पर
आधुनिकता का मुखौटा है । वैज्ञानिक उपलब्धियाँ अवश्य हैं, पर
दृष्टि वैज्ञानिक नहीं । यही वृत्ति हमें पीछे धकेलती है । कवि ने इस सामयिक
यथार्थ पर करारा व्यंग्य किया है —
हमारा
पुराण पंथी चिन्तन,
हमारा
भाग्यवादी दर्शन
धकेलता
है हमें पीछे .... पीछे .... पीछे ।
.
लकीर
के फ़कीर हम
आँख
मूँद कर चलते हैं
अपने
को आधुनिक कह
अपने
को ही छलते हैं ।
(‘विसंगति’)
कवि की दृढ़
मान्यता है कि कविता केवल व्यक्तिगत भावों का प्रस्फुटन मात्र नहीं है,
वह जीवन के किसी विशेष पक्ष का उद्घाटन करने वाली कला भी नहीं है,
वरन् कविता आदमी से आदमी को जोड़ने वाली कड़ी है । यह क्रूर हिंसक
भावनाओं को प्यार की गहराई में बदलने का सामर्थ्य रखती है । इसीलिए कवि ने उसे ऋचा
या इबादत की संज्ञा दी है —
आदमी
को आदमी से जोड़ने वाली,
क्रूर-हिंसक
भावनाओं की
उमड़ती
आँधियों को मोड़ने वाली
उनके
प्रखर अंधे वेग को — आवेग को
बढ़
तोड़ने वाली
सबल
कविता — ऋचा है, इबादत
है।
(‘कविता-प्रार्थना)
कवि अपने
स्वर में विश्वास के, विजय के, आस्था के चिह्न जीवित रखना चाहता है । वह शोषण-मुक्त समाज की संकल्पना के
साथ-साथ न्याय-आधारित व्यवस्था चाहता है । सच्चे अर्थ में मानवता की प्रतिष्ठा
करना चाहता है, वह कहता है-
हम
मूक कंठों में भरेंगे स्वर
चुनौती
के,
सुखमय
भविष्य प्रकाश के,
नव
आश के ।
(‘प्रतिबद्ध’)
मानवता की
सृष्टि ही, नवीन युग में चेतना की संवाहिका
बन सकती है, जिसमें मात्र कल्पना का दिव्य-लोक मिथक ही होगा,
क्योंकि विवेक-शून्य अंध-रूढ़ियाँ जीवन को पंगु बनाती हैं । मज़हबी उसूलों को वैज्ञानिकता की
सामयिक कसौटी पर कसने का समय आ गया है, जहाँ ‘मनुजता का अमर सत्य’ ही जीवन का उद्देश्य है । कविता
की पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं —
डॉ.राजेन्द्र कुमार सिंघवी
युवा समीक्षक
महाराणा प्रताप राजकीय
स्नातकोत्तर महाविद्यालय
चित्तौड़गढ़ में हिन्दी
प्राध्यापक हैं।
आचार्य तुलसी के कृतित्व
और व्यक्तित्व
पर शोध भी किया है।
स्पिक मैके ,चित्तौड़गढ़ के
उपाध्यक्ष हैं।
अपनी माटी डॉट कॉम में
नियमित रूप से छपते हैं।
शैक्षिक अनुसंधानों और समीक्षा
आदि में विशेष रूचि रही है।
ब्लॉग -
http://drrajendrasinghvi.blogspot.in/
मो.नं. +91-9828608270
डाक का पता:-सी-79,प्रताप नगर,
चित्तौड़गढ़
|
कल्पित
दिव्य शक्ति के स्थान पर
मनुजता
अमर सत्य’ कहना होगा!
सम्पूर्ण
विश्व को
परिवार
एक जानकर, मानकर
परस्पर
मेल-मिलाप से रहना होगा ।
(‘पहल’)
इसी लक्ष्य
को प्राप्त करने एवं मनुजता को अमर सत्य के रूप में स्थापित करने के लिए कवि डॉ.
महेन्द्रभटनागर अंध-रूढ़ियों को बदलने का आह्वान कर रहे हैं । इस हेतु नवीन
परम्पराओं की स्थापना के लिए संदेश दे रहे हैं कि-
नवीन
ग्रंथ और एक ‘ईश’ चाहिए
कि
जो युगीन जोड़ दे नया, नया, नया!
व
लहलहा उठे
मनुज-महान्
धर्म की सड़ी-गली लता!
सुधार
मान्यता / नवीन मान्यता / सशक्त मान्यता !
न
व्यर्थ मोह में पड़ो,
न
कुछ यहाँ धरा !
बदल
परम्परा, परम्परा, परम्परा
!
(‘परम्परा’)
समग्रतः,
कवि की सहज अभिव्यक्ति में एक ओर जीवन की वास्तविकताओं और अपने समय
की बेचैनी का यथार्थ वर्णित है, वहीं दूसरी ओर परिवेश के
अन्तर्विरोधों में जड़-स्थापनाओं का विरोध भी उग्र रूप में प्रकट हुआ है । यह
आक्रोश जब चरम पर पहुँचता है तो दिशा-निर्धारण के रूप में ‘मनुजता
और सत्य’ कहकर भविष्य की रूपरेखा भी निर्धारित कर देता है ।
डॉ.
रविरंजन की टिप्पणी है — “उनकी कविता में एक संवेदनशील कवि की वैचारिकता एवं विचारक की संवेदनशीलता
के बीच उत्पन्न सर्जनात्मक तनाव विद्यमान है ।”
भाषायी
संरचना की दृष्टि से कवि के पास भावों के अनुकूल भाषा है,
शब्दों का विन्यास है, गेयता है और अलंकारों
का स्वाभाविक प्रस्फुटन है । इसीलिए डॉ. महेंद्रभटनागर की काव्य-भाषा भावों का
अनुगमन करती प्रतीत होती है । प्रयाण-गीतों व नयी कविता के मुक्त-छंदों में
आन्तरिक लयता मनोमुग्धकारी दृश्य उत्पन्न करती है । अनुभूति की व्यापकता से भाषा
भावों की संवाहक बन गई है, जो अनुकरणीय है । अंत में यह कहना
समीचीन होगा कि डॉ. महेन्द्रभटनागर की कविता में आस्थावादी दृष्टि है, जीवन का गान है, मानवता की प्रतिष्ठा है, चेतना की सृष्टि है और मनुजता को अमर सत्य के रूप में स्थापित करने की चाह
है । यह भाव-संवेदना ही कवि के व्यक्तित्व को युग-धारा में सार्थक पथ-गंतव्य प्रदान कर रही है ।
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