मई -2013 अंक
(हमारे इस बदलते हुए समाज में जहां टोंकाटोकी की संस्कृति ही लगभग ख़त्म होती जा रही है वहाँ व्यंग्य की बात करना बहुत दूर का मसला होगा। हमने अपनी सफाई पर ध्यान देना ही बंद कर दिया है जिस सफाई के माध्यम से हम अपने अन्दर के मेल को साफ़ कर सकते थे अफ़सोस इस काम के सारे अवसर अब तो हम खो ही चुके हैं।साफगोई का ज़माना बीत गया है शायद।अब लोग कड़वा बोलने मात्र से ही कन्नी काट लेते हैं।समाज में लोगों का जीवन बड़ा डिप्लोमेटिक किस्म का हो गया है ऐसे में हरिशंकर परसाई बहुत याद आते हैं।यह आलेख पहली बार आकाशवाणी चित्तौड़ में पढ़ा जा चुका है इसे यहाँ पाठक हित में साभार प्रकाशित कर रहे हैं-सम्पादक)
हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का आरंभ गद्य के साथ होता है और गद्य में व्यंग्य का आरंभ भी इसी के साथ होता है - भारतेन्दु और उनके बाद बाबू बालमुकुन्द गुप्त का व्यंग्य-लेखन उपनिवेशवादी अंग्रेजों के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों को अपना निशाना बनाता है । स्वतंत्रता के बाद व्यंग्य की कमान हरिशंकर परसाई के हाथों में आती है । स्वातंत्र्योत्तर भारत का हिन्दी गद्य यथार्थ की खुरदरी जमीन पर विकसित होता है। यथार्थ-बोध का अर्थ है- विषमताबोध । परसाई इस विषमताबोध की अभिव्यक्ति के लिए व्यंग्य का चुनाव करते हैं और गुणवत्ता तथा मात्रा दोनों लिहाज़ से व्यंग्य को इतना समृद्ध एवं सशक्त बना देते हैं कि उन्हीं के शब्दों में व्यंग्य शूद्र से क्षत्रिय बन जाता है ।
दरअसल परसाई से पहले वाली गंभीर और प्रतिबद्ध व्यंग्य की कबीर, भारतेन्दु, बालमुकुन्द गुप्त की परंपरा हाशिये पर चली गई थी । परसाई ने जब लिखना आरंभ किया तब व्यंग्य के नाम पर हास्य-व्यंग्य, चुटकुलेबाजी का दौर था, जिसे गंभीर साहित्यिक रचना नहीं माना जाता था । मात्र मनोविनोद का लक्ष्य लेकर चलने वाली हास्य धारा में साहित्यिक समाज में शूद्र यानी पिछड़ी हल्की रचना समझी जाती थी, चूँकि व्यंग्य में भी ऊपरी तौर पर एक अंग के रूप में हास्य विद्यमान रहता है, अतः उसे भी हाशिये की रचना मान लिया गया । ऐसे में 1957 से लेखन आरंभ करने वाले परसाई ने अपने समकालीन परिदृश्य की हर विसंगति को न केवल पैनी नजर से देखा, अपितु इस दायित्व बोध के साथ व्यंग्यात्मक अंकन किया कि पढ़ने वालों के मन में हलचल हो और मौजूदा संरचना में परिवर्तन का भाव उठे - यही धारदार व्यंग्य का क्षत्रियत्व है ।
परसाई का समकालीनता में गहरा विश्वास रहा है उनका मानना है कि जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं रहा व शाश्वत के प्रति क्या खाक़ ईमानदार होगा । कालजयी रचना का अर्थ है, युग बोध से संपृक्त होना । उदाहरण के तौर पर उनकी ‘वैष्णव की फिसलन’ रचना को लीजिये- विष्णु भक्त वैष्णव के पास दो नंबर का पैसा इकट्ठा हो गया है, प्रभु की आज्ञा से उसने एक होटल खोल दिया ।
“दूसरे दिन वैष्णव ने फिर प्रभु से कहा ” प्रभु वे लोग मदिरा मांगते हैं । मैं आपका भक्त मदिरा कैसे पिला सकता हूँ ?
वैष्णव की पवित्र आत्मा से आवाज आयी “मूर्ख तू क्या होटल बिठाना चाहता है? देवता सोमरस पीते थे । वही सोमरस मदिरा है । इसमें तेरा वैष्णव धर्म कहाँ भंग होता है? सामवेद में 63 श्लोक सोमरस अर्थात् मदिरा की स्तुति में हैं । तुझे धर्म की समझ है या नहीं ? गरज यह है कि वैष्णव के पास हर फिसलन के लिए धर्मग्रंथों के उद्धरण हैं और वह धर्म को धंधे से जोड़ लेता है। अब हम इस व्यंग्य को हमारे समकालीन परिदृश्य में घटित करें तो साफ है कि आवारा पूंजी और कथित धर्माचार्यों का गठजोड़ हमारे समाज का बड़ा संकट है ।
चूंकि परसाई मार्क्सवादी थे इसलिए यह मिथ्या धारणा निर्मित हुई कि वे नितान्त धर्म विरोधी थे । वस्तुतः वे धर्म नहीं अपितु पाखंड विरोधी थे । धर्म, विज्ञान और सामाजिक परिवर्तन में उन्होंने लिखा- “सच्ची धर्मानुभूति स्व के त्याग से ऊँचे स्तर की है- यह ऐसी धर्मानुभूति नहीं है कि सुबह भगवान की पूजा की । एक सौ ग्यारह नंबर का तिलक लगाया, दुकान गए और दिनभर आदमियों को लूटा ।”
अंग्रेजों के कारण इस देश में मध्यवर्ग का उदय हुआ । इस मध्यवर्ग में अफ़सर हैं, बाबू हैं, चपरासी हैं और तथाकथित पदानुक्रम जनित प्रतिष्ठा का मिथ्या बोध है । ‘लघुशंका न करने की प्रतिष्ठा’ व्यंग्य में परसाई नकली विशिष्टता बोध, चापलूसी के मनोविज्ञान पर दृष्टिपात करते हैं- इस व्यंग्य कथा में दफ्तर के बड़े साहब दिल्ली से आये हैं, उनके स्वागतार्थ एक पार्टी रखी गई है- पार्टी में स्थानीय अफ़सर शर्मा साहब की पत्नी, दिल्ली से आये बड़े साहब की पत्नी की चापलूसी करती है, पर स्थानीय बाबूओं की पत्नियों से अपने को श्रेष्ठ समझती हैं । उनकी गोद में छोटा बच्चा है जो कि उनके मुताबिक “इतना समझदार है कि कभी गोद या बिस्तर में पेशाब नहीं करता । पेशाब लगी हो तो इशारा कर देता है” चूंकि उस बच्चे यानि शर्मा पुत्र की उम्र के अन्य बच्चे गोद या बिस्तर में पेशाब करते रहे हैं । अतः बबुआइ में, चपरासिने अपने को हीन अनुभव करने लगती हैं- पर समारोह खत्म होते-होते शर्मा पुत्र ने गोद में पेशाब कर दिया । परसाई व्यंग्य के अंत में टिप्पणी करते हैं- लड़के ने पेशाब करके उनकी सारी महत्ता खत्म कर दी- “लड़के ने पेशाब करके समाजवाद की प्रक्रिया शुरू कर दी ।”
नितान्त मामूली सी घटना में व्यंग्य पैदा करके परसाई ने एक बड़े सत्य का उद्घाटन किया है- यही परसाई की खासियत है । यथास्थितिवादी, भाग्यवादी, चेतना शून्य भारतीय समाज पर परसाई का व्यंग्य-प्रहार ‘चूहा और मैं’ कहानी में देखने को मिलता है । कहानी में चूहे ने रात रात भार लेखक को तंग कर मजबूर कर दिया कि वह रोटी, पापड़ के कुछ टुकड़े फर्श पर छोड़ दे। यानी चूहे ने अपना हक ले लिया परसाई सूक्ति-रूप में लिखते हैं कि “इस देश का आदमी कब चूहे की तरह आचरण करेगा? ”
परसाई ने लक्ष्य किया कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे और परनिन्दा भारतीय स्वभाव है-‘दूसरों के ईमान के रखवाले’ व्यंग्य आत्मनिरीक्षण, आत्मालोचन के लिए बाध्य करता है- “देखता हूँ हर आदमी दूसरे के ईमान के बारे में विशेष चिंतित हो गया है । दूसरे के दरवाज़े पर लाठी लिये खड़ा है । क्या कर रहे हैं साहब? इसके ईमान की रखवाली कर रहा हूँ । मगर अपना दरवाजा तो आप खुला छोड़ आये हैं । तो क्या हुआ? हमारी ड्यूटी तो इधर है ।” अब ज़रा इस उद्धरण की संरचना देखिये- छोटे-छोटे वाक्य, साधारण बोलचाल के शब्द - और ‘डयूटी’ शब्द से पैदा होता व्यंग्य । यानी गंभीर कर्तव्य में लिपटा अकर्तव्य, अकरणीय का अर्थ - बोध । परसाई के सारे व्यंग्य ऐसे ही हैं - तीन-चार पृष्ठों तक सीमित किंतु देर तक, दूर तक विचारोद्वेलन में सक्षम। इस दृष्टि से वे बाबू बालमुकुन्द गुप्त और जर्मन कवि-कथाकार बर्तोल्त ब्रेख्त से तुलनीय हैं।
परसाई संपदा और संस्कृतिहीनता के रिश्ते को बखूबी जानते थे । समाज में विद्यमान आर्थिक विषमता तो असह्य थी ही, धन का फूहड़ प्रदर्शन भी उन्हें पीड़ित करता था । ‘अपनी-अपनी हैसियत’ व्यंग्य में वे विवाह समारोहों में होने वाली फिजूलखर्ची को निशाना बनाते हुए लिखते हैं “मेरे सामने एक पैसे वाले युवक की शादी का निमंत्रण-पत्र रखा है । कई रंगों का है । इतने गहरे रंग हैं कि पढ़ा नहीं जाता कि शादी के बारे में लिखा है या श्राद्ध के ।” अब शादी और श्राद्ध शब्द समाज में मौजूद दो परस्पर विपरीत वर्गों के परिचायक बन जाते हैं साथ ही हमें हमारे समय में लगातार महँगे होते जा रहे विवाह-समारोहों पर प्रश्नचिह्न लगाने को मजबूर करते हैं । परसाई का व्यंग्य करूणाजनित है- उनका क्रोध उनकी करूणा, संवेदनशीलता से ही जन्मा है। धनपतियों, नवकुबेरों ने करूणाधारित मानवीय सामाजिकता का श्राद्ध कर दिया है यह तथ्य उनके क्रोध का कारण है ।
भारतीय समाज दोहरे चरित्र का है । चोरी, तस्करी, कालाबाजारी से आदमी इज्जत नहीं जाती पर शादी ब्याह में खर्चा न करे तो इज्जत चली जाती है । ‘दो नाकवाले लोग’ में उनका व्यंग्य देखिये ‘स्मगलिंग में पकड़े गये हैं । हथकड़ी पड़ी है । बाजार में से ले जाये जा रहे हैं, लोग नाक काटने को उत्सुक हैं । पर वे नाक को तिजोरी में रखकर स्मगलिंग करने गये थे । पुलिस को खिला पिला कर बरी होकर लौटेंगे और नाक फिर पहन लेंगे । नाक फिर पहनने का मतलब है, समाज में पूर्ववत पुनः प्रतिष्ठित होना और प्रतिष्ठित होने का मतलब है- भ्रष्टाचरण को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होना- परसाई इसके खिलाफ हैं और परसाई की खिलाफत का मतलब है- सदाचरण की प्रतिष्ठा हेतु लेखकीय प्रयत्न ।
परसाई के व्यंग्य की मूल प्रेरणा है- उनका सौन्दर्य-बोध । समाज में बाहर-भीतर की हर विसंगति पर वे व्यंग्य करते ही इसलिए हैं कि समाज हर तरह से सुसंगत और सुंदर हो । आर्थिक समानता समाज की बाहरी सुंदरता है तो आत्मा का उन्नयन भीतरी सुंदरता । इसलिए वे स्थूल उपभोक्तावादी प्रवृत्ति को लक्ष्य करते हैं- ‘सुंदरी गुलाब से से ज्यादा बैंगन को पसन्द करने लगी । मैंने कहा ‘देवी तू क्या उसी फूल को सुंदर मानती है, जिसमें से आगे चलकर आधा किलो सब्जी निकल आये? पुष्पलता और कद्दू की लता में तू क्या कोई फर्क नहीं समझती ? तू क्या वंशी से चूल्हा फूँकेगी ? और क्या वीणा के भीतर नमक-मिर्च रखेगी ? स्थूल इन्द्रिय सुखों को ही जीवन का पर्याय समझने वाले वर्ग पर कितना गहरा व्यंग्य है ।
वे अपने - समकालीन व्यंग्यकारों - श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी आदि से अधिक प्रतिबद्ध थे । इसीलिए वे अकेले ऐसे व्यंग्यकार हैं जिन पर आलोचकों ने सर्वाधिक लिखा है । विषय-वैविध्य और सूक्ष्म दृष्टि तथा पठनीयता के लिहाज़ से परसाई प्रेमचन्द के सर्वोच्च उत्तराधिकारी हैं ।
दरअसल परसाई से पहले वाली गंभीर और प्रतिबद्ध व्यंग्य की कबीर, भारतेन्दु, बालमुकुन्द गुप्त की परंपरा हाशिये पर चली गई थी । परसाई ने जब लिखना आरंभ किया तब व्यंग्य के नाम पर हास्य-व्यंग्य, चुटकुलेबाजी का दौर था, जिसे गंभीर साहित्यिक रचना नहीं माना जाता था । मात्र मनोविनोद का लक्ष्य लेकर चलने वाली हास्य धारा में साहित्यिक समाज में शूद्र यानी पिछड़ी हल्की रचना समझी जाती थी, चूँकि व्यंग्य में भी ऊपरी तौर पर एक अंग के रूप में हास्य विद्यमान रहता है, अतः उसे भी हाशिये की रचना मान लिया गया । ऐसे में 1957 से लेखन आरंभ करने वाले परसाई ने अपने समकालीन परिदृश्य की हर विसंगति को न केवल पैनी नजर से देखा, अपितु इस दायित्व बोध के साथ व्यंग्यात्मक अंकन किया कि पढ़ने वालों के मन में हलचल हो और मौजूदा संरचना में परिवर्तन का भाव उठे - यही धारदार व्यंग्य का क्षत्रियत्व है ।
परसाई का समकालीनता में गहरा विश्वास रहा है उनका मानना है कि जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं रहा व शाश्वत के प्रति क्या खाक़ ईमानदार होगा । कालजयी रचना का अर्थ है, युग बोध से संपृक्त होना । उदाहरण के तौर पर उनकी ‘वैष्णव की फिसलन’ रचना को लीजिये- विष्णु भक्त वैष्णव के पास दो नंबर का पैसा इकट्ठा हो गया है, प्रभु की आज्ञा से उसने एक होटल खोल दिया ।
“दूसरे दिन वैष्णव ने फिर प्रभु से कहा ” प्रभु वे लोग मदिरा मांगते हैं । मैं आपका भक्त मदिरा कैसे पिला सकता हूँ ?
वैष्णव की पवित्र आत्मा से आवाज आयी “मूर्ख तू क्या होटल बिठाना चाहता है? देवता सोमरस पीते थे । वही सोमरस मदिरा है । इसमें तेरा वैष्णव धर्म कहाँ भंग होता है? सामवेद में 63 श्लोक सोमरस अर्थात् मदिरा की स्तुति में हैं । तुझे धर्म की समझ है या नहीं ? गरज यह है कि वैष्णव के पास हर फिसलन के लिए धर्मग्रंथों के उद्धरण हैं और वह धर्म को धंधे से जोड़ लेता है। अब हम इस व्यंग्य को हमारे समकालीन परिदृश्य में घटित करें तो साफ है कि आवारा पूंजी और कथित धर्माचार्यों का गठजोड़ हमारे समाज का बड़ा संकट है ।
चूंकि परसाई मार्क्सवादी थे इसलिए यह मिथ्या धारणा निर्मित हुई कि वे नितान्त धर्म विरोधी थे । वस्तुतः वे धर्म नहीं अपितु पाखंड विरोधी थे । धर्म, विज्ञान और सामाजिक परिवर्तन में उन्होंने लिखा- “सच्ची धर्मानुभूति स्व के त्याग से ऊँचे स्तर की है- यह ऐसी धर्मानुभूति नहीं है कि सुबह भगवान की पूजा की । एक सौ ग्यारह नंबर का तिलक लगाया, दुकान गए और दिनभर आदमियों को लूटा ।”
अंग्रेजों के कारण इस देश में मध्यवर्ग का उदय हुआ । इस मध्यवर्ग में अफ़सर हैं, बाबू हैं, चपरासी हैं और तथाकथित पदानुक्रम जनित प्रतिष्ठा का मिथ्या बोध है । ‘लघुशंका न करने की प्रतिष्ठा’ व्यंग्य में परसाई नकली विशिष्टता बोध, चापलूसी के मनोविज्ञान पर दृष्टिपात करते हैं- इस व्यंग्य कथा में दफ्तर के बड़े साहब दिल्ली से आये हैं, उनके स्वागतार्थ एक पार्टी रखी गई है- पार्टी में स्थानीय अफ़सर शर्मा साहब की पत्नी, दिल्ली से आये बड़े साहब की पत्नी की चापलूसी करती है, पर स्थानीय बाबूओं की पत्नियों से अपने को श्रेष्ठ समझती हैं । उनकी गोद में छोटा बच्चा है जो कि उनके मुताबिक “इतना समझदार है कि कभी गोद या बिस्तर में पेशाब नहीं करता । पेशाब लगी हो तो इशारा कर देता है” चूंकि उस बच्चे यानि शर्मा पुत्र की उम्र के अन्य बच्चे गोद या बिस्तर में पेशाब करते रहे हैं । अतः बबुआइ में, चपरासिने अपने को हीन अनुभव करने लगती हैं- पर समारोह खत्म होते-होते शर्मा पुत्र ने गोद में पेशाब कर दिया । परसाई व्यंग्य के अंत में टिप्पणी करते हैं- लड़के ने पेशाब करके उनकी सारी महत्ता खत्म कर दी- “लड़के ने पेशाब करके समाजवाद की प्रक्रिया शुरू कर दी ।”
नितान्त मामूली सी घटना में व्यंग्य पैदा करके परसाई ने एक बड़े सत्य का उद्घाटन किया है- यही परसाई की खासियत है । यथास्थितिवादी, भाग्यवादी, चेतना शून्य भारतीय समाज पर परसाई का व्यंग्य-प्रहार ‘चूहा और मैं’ कहानी में देखने को मिलता है । कहानी में चूहे ने रात रात भार लेखक को तंग कर मजबूर कर दिया कि वह रोटी, पापड़ के कुछ टुकड़े फर्श पर छोड़ दे। यानी चूहे ने अपना हक ले लिया परसाई सूक्ति-रूप में लिखते हैं कि “इस देश का आदमी कब चूहे की तरह आचरण करेगा? ”
परसाई ने लक्ष्य किया कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे और परनिन्दा भारतीय स्वभाव है-‘दूसरों के ईमान के रखवाले’ व्यंग्य आत्मनिरीक्षण, आत्मालोचन के लिए बाध्य करता है- “देखता हूँ हर आदमी दूसरे के ईमान के बारे में विशेष चिंतित हो गया है । दूसरे के दरवाज़े पर लाठी लिये खड़ा है । क्या कर रहे हैं साहब? इसके ईमान की रखवाली कर रहा हूँ । मगर अपना दरवाजा तो आप खुला छोड़ आये हैं । तो क्या हुआ? हमारी ड्यूटी तो इधर है ।” अब ज़रा इस उद्धरण की संरचना देखिये- छोटे-छोटे वाक्य, साधारण बोलचाल के शब्द - और ‘डयूटी’ शब्द से पैदा होता व्यंग्य । यानी गंभीर कर्तव्य में लिपटा अकर्तव्य, अकरणीय का अर्थ - बोध । परसाई के सारे व्यंग्य ऐसे ही हैं - तीन-चार पृष्ठों तक सीमित किंतु देर तक, दूर तक विचारोद्वेलन में सक्षम। इस दृष्टि से वे बाबू बालमुकुन्द गुप्त और जर्मन कवि-कथाकार बर्तोल्त ब्रेख्त से तुलनीय हैं।
परसाई संपदा और संस्कृतिहीनता के रिश्ते को बखूबी जानते थे । समाज में विद्यमान आर्थिक विषमता तो असह्य थी ही, धन का फूहड़ प्रदर्शन भी उन्हें पीड़ित करता था । ‘अपनी-अपनी हैसियत’ व्यंग्य में वे विवाह समारोहों में होने वाली फिजूलखर्ची को निशाना बनाते हुए लिखते हैं “मेरे सामने एक पैसे वाले युवक की शादी का निमंत्रण-पत्र रखा है । कई रंगों का है । इतने गहरे रंग हैं कि पढ़ा नहीं जाता कि शादी के बारे में लिखा है या श्राद्ध के ।” अब शादी और श्राद्ध शब्द समाज में मौजूद दो परस्पर विपरीत वर्गों के परिचायक बन जाते हैं साथ ही हमें हमारे समय में लगातार महँगे होते जा रहे विवाह-समारोहों पर प्रश्नचिह्न लगाने को मजबूर करते हैं । परसाई का व्यंग्य करूणाजनित है- उनका क्रोध उनकी करूणा, संवेदनशीलता से ही जन्मा है। धनपतियों, नवकुबेरों ने करूणाधारित मानवीय सामाजिकता का श्राद्ध कर दिया है यह तथ्य उनके क्रोध का कारण है ।
भारतीय समाज दोहरे चरित्र का है । चोरी, तस्करी, कालाबाजारी से आदमी इज्जत नहीं जाती पर शादी ब्याह में खर्चा न करे तो इज्जत चली जाती है । ‘दो नाकवाले लोग’ में उनका व्यंग्य देखिये ‘स्मगलिंग में पकड़े गये हैं । हथकड़ी पड़ी है । बाजार में से ले जाये जा रहे हैं, लोग नाक काटने को उत्सुक हैं । पर वे नाक को तिजोरी में रखकर स्मगलिंग करने गये थे । पुलिस को खिला पिला कर बरी होकर लौटेंगे और नाक फिर पहन लेंगे । नाक फिर पहनने का मतलब है, समाज में पूर्ववत पुनः प्रतिष्ठित होना और प्रतिष्ठित होने का मतलब है- भ्रष्टाचरण को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होना- परसाई इसके खिलाफ हैं और परसाई की खिलाफत का मतलब है- सदाचरण की प्रतिष्ठा हेतु लेखकीय प्रयत्न ।
परसाई के व्यंग्य की मूल प्रेरणा है- उनका सौन्दर्य-बोध । समाज में बाहर-भीतर की हर विसंगति पर वे व्यंग्य करते ही इसलिए हैं कि समाज हर तरह से सुसंगत और सुंदर हो । आर्थिक समानता समाज की बाहरी सुंदरता है तो आत्मा का उन्नयन भीतरी सुंदरता । इसलिए वे स्थूल उपभोक्तावादी प्रवृत्ति को लक्ष्य करते हैं- ‘सुंदरी गुलाब से से ज्यादा बैंगन को पसन्द करने लगी । मैंने कहा ‘देवी तू क्या उसी फूल को सुंदर मानती है, जिसमें से आगे चलकर आधा किलो सब्जी निकल आये? पुष्पलता और कद्दू की लता में तू क्या कोई फर्क नहीं समझती ? तू क्या वंशी से चूल्हा फूँकेगी ? और क्या वीणा के भीतर नमक-मिर्च रखेगी ? स्थूल इन्द्रिय सुखों को ही जीवन का पर्याय समझने वाले वर्ग पर कितना गहरा व्यंग्य है ।
वे अपने - समकालीन व्यंग्यकारों - श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी आदि से अधिक प्रतिबद्ध थे । इसीलिए वे अकेले ऐसे व्यंग्यकार हैं जिन पर आलोचकों ने सर्वाधिक लिखा है । विषय-वैविध्य और सूक्ष्म दृष्टि तथा पठनीयता के लिहाज़ से परसाई प्रेमचन्द के सर्वोच्च उत्तराधिकारी हैं ।
प्राध्यापक (हिन्दी)
महाराणा प्रताप राजकीय महाविद्यालय,
महाराणा प्रताप राजकीय महाविद्यालय,
चित्तौड़गढ़-312001,राजस्थान
ईमेल:-rajeshchoudhary@gmail.com
मोबाईल नंबर-09461068958
फेसबुकी संपर्क
फेसबुकी संपर्क
आदरणीय राजेश जी सर,
जवाब देंहटाएंनमन। आपका आलेख 'हरिशंकर परसाई के सन्दर्भ में 'जीवन बड़ा डिप्लोमेटिक किस्म का हो गया है'(
पढ़ा पढ़कर परसाई जी के व्ंयग लेखन के अनेंक आयाम समझनें का मौका मिला। पढ़कर एक नवीन उत्तसाह का संचार हुआ। सर मै अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन सिरोही मे भाषा मे शिक्षको के साथ काम कर रहा हूं। आपके आलेख से व्यंग शिक्षण करानें व शिक्षक प्रशिक्षण मे बहुत मदद मिलेगी। सर आपको असीम धन्यवाद।
सादर
महेन्द्र शर्मा
सिरोही
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