मई -2013 अंक
गीत-फ़रोश
29 मार्च सन् 1913 को
मध्य प्रदेश
के होशंगाबाद
ज़िले में
जन्मे भवानीप्रसाद मिश्र
दूसरे सप्तक
के प्रमुख
कवि हैं।
आपने हिन्दी,
अंग्रेजी तथा
संस्कृत विषयों
से
स्नातक
की उपाधि
प्राप्त की।
महात्मा गांधी
जी के
दर्शन से
प्रभावित
यह
रचनाकार हिन्दी
काव्य जगत्
में
गीत
का अलबेला
हस्ताक्षर था।
भवानी दादा ने
सृजन की
भावुकता और
जीवन
की
व्यवहारिकता
के बीच की पसो-पेश को
इस बेबाक़ी
से
अभिव्यक्त
किया
कि
श्रोता और
पाठक दाँतों
तले उंगलियाँ
दबा लेते
थे।
गांधीवाद की ईमानदारी
भवानी दादा
के व्यक्तित्व
का विशेष
अंग थी।
इसी ईमानदारी
की साफ़-साफ़ अभिव्यक्ति
आपके पहले
संग्रह ‘गीत-फ़रोश’ में
हुई है।
प्रभावपूर्ण शैली, निष्कपट बेबाक़ी,
सत्योद्धाटन
की अदम्य
क्षमता
तथा
काव्य की
मर्यादा का
अनुपालन इस
संग्रह की
रचनाओं में
स्पष्ट दिखाई
देता है।
भवानी दादा की
रचनाओं में
पाठक से
संवाद करने
की क्षमता
है।
सन्
1972 में आपकी
कृति
‘बुनी
हुई रस्सी’
के लिए
आपको
साहित्य
अकादमी पुरस्कार
मिला।
इसके
अतिरिक्त अन्य
अनेक पुरस्कारों
के साथ-साथ आपने
भारत सरकार
का
पद्म
श्री अलंकार
भी प्राप्त
किया।
‘गीत-फ़रोश’, ‘चकित
है दुख’,
‘गांधी पंचशती’,
‘अंधेरी कविताएँ
‘, ‘बुनी हुई
रस्सी’, ‘व्यक्तिगत’,
‘ख़ुश्बू के
शिलालेख’, ‘परिवर्तन जिए ‘, ‘त्रिकाल संध्या’,
‘अनाम तुम
आते हो’,
‘इंदन मम्’,
‘शरीर, कविता,
फसलें और
फूल’,
‘मानसरोवर’,
‘दिन’, ‘संप्रति’
और ‘नीली
रेखा तक’
आदि कुल
22 पुस्तकें आपकी प्रकाशित हुईं।
आपने
संस्मरण, निबंध
तथा बाल-साहित्य भी
रचा।
20 फरवरी सन् 1985 को
हिन्दी काव्य-जगत्
का
यह अनमोल
सितारा
अपनी
कविताओं की
थाती यहाँ
छोड़
हमेशा
के लिए
हमसे बिछड़
गया।
|
जी हाँ हुजूर,
मैं गीत
बेचता हूँ
।
मैं तरह-तरह
के
गीत बेचता हूँ
;
मैं क़िसिम-क़िसिम
के गीत
बेचता हूँ ।
जी, माल देखिए
दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है,
काम बताऊंगा;
कुछ गीत लिखे
हैं मस्ती
में मैंने,
कुछ गीत लिखे
हैं पस्ती
में मैंने;
यह गीत, सख़्त
सरदर्द भुलायेगा;
यह गीत पिया
को पास
बुलायेगा ।
जी, पहले कुछ
दिन शर्म
लगी मुझ
को
पर पीछे-पीछे
अक़्ल जगी
मुझ को
;
जी, लोगों ने
तो बेच
दिये ईमान
।
जी, आप न हों सुन
कर ज़्यादा
हैरान ।
मैं सोच-समझकर
आखिर
अपने गीत बेचता
हूँ;
जी हाँ हुजूर,
मैं गीत
बेचता हूँ
।
यह गीत सुबह
का है,
गा कर
देखें,
यह गीत ग़ज़ब
का है,
ढा कर
देखे;
यह गीत ज़रा
सूने में
लिखा था,
यह गीत वहाँ
पूने में
लिखा था
।
यह गीत पहाड़ी
पर चढ़
जाता है
यह गीत बढ़ाये
से बढ़
जाता है
यह गीत भूख
और प्यास
भगाता है
जी, यह मसान
में भूख
जगाता है;
यह गीत भुवाली
की है
हवा हुज़ूर
यह गीत तपेदिक
की है
दवा हुज़ूर
।
मैं सीधे-साधे
और अटपटे
गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर,
मैं गीत
बेचता हूँ
।
जी, और गीत
भी हैं,
दिखलाता हूँ
जी, सुनना चाहें
आप तो
गाता हूँ
;
जी, छंद और
बे-छंद
पसंद करें
–
जी, अमर गीत
और वे
जो तुरत
मरें ।
ना, बुरा मानने
की इसमें
क्या बात,
मैं पास रखे
हूँ क़लम
और दावात
इनमें से भाये
नहीं, नये
लिख दूँ
?
इन दिनों की
दुहरा है
कवि-धंधा,
हैं दोनों चीज़े
व्यस्त, कलम,
कंधा ।
कुछ घंटे लिखने
के, कुछ
फेरी के
जी, दाम नहीं
लूँगा इस
देरी के
।
मैं नये पुराने
सभी तरह
के
गीत बेचता हूँ
।
जी हाँ, हुज़ूर,
मैं गीत
बेचता हूँ
।
जी गीत जनम
का लिखूँ,
मरन का
लिखूँ;
जी, गीत जीत
का लिखूँ,
शरन का
लिखूँ ;
यह गीत रेशमी
है, यह
खादी का,
यह गीत पित्त
का है,
यह बादी
का ।
कुछ और डिजायन
भी हैं,
ये इल्मी
–
यह लीजे चलती
चीज़ नयी,
फ़िल्मी ।
यह सोच-सोच
कर मर
जाने का
गीत,
यह दुकान से
घर जाने
का गीत,
जी नहीं दिल्लगी
की इस
में क्या
बात
मैं लिखता ही
तो रहता
हूँ दिन-रात ।
तो तरह-तरह
के बन
जाते हैं
गीत,
जी रूठ-रुठ
कर मन
जाते है
गीत ।
जी बहुत ढेर
लग गया
हटाता हूँ
गाहक की मर्ज़ी
– अच्छा, जाता
हूँ ।
मैं बिलकुल अंतिम
और दिखाता
हूँ -
या भीतर जा
कर पूछ
आइये, आप
।
है गीत बेचना
वैसे बिलकुल
पाप
क्या करूँ मगर
लाचार हार
कर
गीत बेचता हँ
।
जी हाँ हुज़ूर,
मैं गीत
बेचता हूँ
।
सतपुड़ा के जंगल
सतपुड़ा के घने
जंगल।
नींद मे
डूबे हुए
से
ऊँघते अनमने
जंगल।
झाड ऊँचे और
नीचे,
चुप खड़े हैं
आँख मीचे,
घास चुप है,
कास चुप
है
मूक शाल, पलाश
चुप है।
बन सके तो
धँसो इनमें,
धँस न पाती
हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने
जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।
सड़े पत्ते,
गले पत्ते,
हरे पत्ते,
जले पत्ते,
वन्य पथ
को ढँक
रहे-से
पंक-दल
मे पले
पत्ते।
चलो इन
पर चल
सको तो,
दलो इनको
दल सको
तो,
ये घिनोने,
घने जंगल
नींद मे
डूबे हुए
से
ऊँघते अनमने
जंगल।
अटपटी-उलझी लताऐं,
डालियों को खींच
खाऐं,
पैर को पकड़ें
अचानक,
प्राण को कस
लें कपाऐं।
सांप सी काली
लताऐं
बला की पाली
लताऐं
लताओं के बने
जंगल
नींद मे डूबे
हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
मकड़ियों के
जाल मुँह
पर,
और सर
के बाल
मुँह पर
मच्छरों के
दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह
पर,
वात- झन्झा
वहन करते,
चलो इतना
सहन करते,
कष्ट से
ये सने
जंगल,
नींद मे
डूबे हुए
से
ऊँघते अनमने
जंगल|
अजगरों से भरे
जंगल।
अगम, गति से
परे जंगल
सात-सात पहाड़
वाले,
बड़े छोटे झाड़
वाले,
शेर वाले बाघ
वाले,
गरज और दहाड़
वाले,
कम्प से कनकने
जंगल,
नींद मे डूबे
हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
इन वनों
के खूब
भीतर,
चार मुर्गे,
चार तीतर
पाल कर
निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के
बीच बैठे,
झोंपडी पर
फ़ूंस डाले
गोंड तगड़े
और काले।
जब कि
होली पास
आती,
सरसराती घास
गाती,
और महुए
से लपकती,
मत्त करती
बास आती,
गूंज उठते
ढोल इनके,
गीत इनके,
बोल इनके
सतपुड़ा
के घने
जंगल
नींद मे
डूबे हुए
से
उँघते अनमने
जंगल।
जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों
में,
घास पागल, कास
पागल,
शाल और पलाश
पागल,
लता पागल, वात
पागल,
डाल पागल, पात
पागल
मत्त मुर्गे और
तीतर,
इन वनों के
खूब भीतर।
क्षितिज तक फ़ैला
हुआ सा,
मृत्यु तक मैला
हुआ सा,
क्षुब्ध, काली लहर
वाला
मथित, उत्थित जहर
वाला,
मेरु वाला, शेष
वाला
शम्भु और सुरेश
वाला
एक सागर जानते
हो,
उसे कैसा मानते
हो?
ठीक वैसे घने
जंगल,
नींद मे डूबे
हुए से
ऊँघते अनमने जंगल|
धँसो इनमें
डर नहीं
है,
मौत का
यह घर
नहीं है,
उतर कर
बहते अनेकों,
कल-कथा
कहते अनेकों,
नदी, निर्झर
और नाले,
इन वनों
ने गोद
पाले।
लाख पंछी
सौ हिरन-दल,
चाँद के
कितने किरन
दल,
झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
खिल रहीं
अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा,
रक्त किसलय,
पूत, पावन,
पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के
घने जंगल,
लताओं के
बने जंगल।
बुनी हुई रस्सी
बुनी हुई रस्सी
को घुमायें
उल्टा
तो वह खुल
जाती हैं
और अलग अलग
देखे जा
सकते हैं
उसके सारे रेशे
मगर कविता को
कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं
होंगे हमारे
अनुभव
इस तरह
क्योंकि अनुभव तो
हमें
जितने इसके माध्यम
से हुए
हैं
उससे ज्यादा हुए
हैं दूसरे
माध्यमों से
व्यक्त वे जरूर
हुए हैं
यहाँ
कविता को
बिखरा कर देखने
से
सिवा रेशों के
क्या दिखता
है
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव
के रेशे
को
समेट कर लिखता
है !
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