अप्रैल 2013 अंक
(यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)
साहित्य की सत्ता मूलतः अखण्ड और अविच्छेद्य सत्ता है। वह जीवन और जीवनेतर सब कुछ को अपने दायरे में समाहित कर लेता है। इसीलिए उसे किसी स्थिर सैद्धांतिकी की सीमा में बाँधना प्रायः असंभव रहा है। साहित्य को देखने के लिए नजरिये भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, जो हमारी जीवन-दृष्टि पर निर्भर करते हैं। एक ही कृति को देखने-पढ़ने की कई दृष्टियाँ हो सकती हैं। उनके बीच से रचना की समझ को विकसित करने के प्रयास लगभग साहित्य-सृजन की शुरूआत के साथ ही हो गए थे। आदिकवि वाल्मीकि जब क्रौंच युगल के बिछोह के शोक से अनायास श्लोक की रचना कर देते हैं, तब उन्हें स्वयं आश्चर्य होता है कि यह क्या रचा गया ? इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते-आते साहित्य से जुड़े क्या, क्यों और कैसे जैसे प्रश्न अब भी ताजा बने हुए लगते हैं, तो यह आकस्मिक नहीं हैं।
आज का दौर भूमण्डलीकरण और उसे वैचारिक आधार देने वाले उत्तर आधुनिक विमर्श और मीडिया की विस्मयकारी प्रगति का दौर है। इस दौर में साहित्य और उसके मूल में निहित संवेदनाओं के छीजते जाने की चुनौती अपनी जगह है ही, साहित्य और सामाजिक कर्म के बीच का रिश्ता भी निस्तेज किया जा रहा है। ऐसे में साहित्य की ओर से प्रतिरोध बेहद जरूरी हो जाता है। इधर साहित्य में आ रहे बदलाव नित नए प्रतिमानों और उनसे उपजे विमर्शों के लिए आधार बन रहे हैं। वस्तुतः कोई भी प्रतिमान प्रतिमेय से ही निकलता है और उसी प्रतिमान से प्रतिमेय के मूल्यांकन का आधार बनता है। फिर एक प्रतिमेय से निःसृत प्रतिमान दूसरे नव-निर्मित प्रतिमेय पर लागू करने पर मुश्किलें आना सहज है। पिछले दशकों में शीतयुद्ध की राजनीति ने वैश्विक चिंतन को गहरे आन्दोलित किया, जिसका प्रभाव भारतीय साहित्य एवं कलाजगत् पर सहज ही देखा जाने लगा। इसी प्रकार भूमण्डलीकरण और बाजारवाद की वर्चस्वशाली उपस्थिति ने भी मनुष्य जीवन से जुड़े प्रायः सभी पक्षों पर अपना असर जमाया। इनसे साहित्य का अछूता रह पाना कैसी संभव था? उत्तर आधुनिकता, फिर उत्तर संरचनावाद और विखंडनवाद के प्रभावस्वरूप पाठ के विखंडन का नया दौर शुरू हुआ। इसी दौर में नस्लवादी आलोचना, नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श , सांस्कृतिक-ऐतिहासिक बोध जैसी विविध विमर्श धाराएँ विकसित हुईं। केन्द्र के परे जाकर परिधि को लेकर नवविमर्श की जद्दोजहद होने लगी। ऐसे समय में मनुष्य और साहित्य की फिर से बहाली पर भी बल दिया जाने लगा। पिछले दो-तीन दशकों में एक साथ बहुत से विमर्शों ने साहित्य, संस्कृति और कुल मिलाकर कहें तो समूचे चिंतन जगत् को मथा है। हिन्दी साहित्य में हाल के दशकों में उभरे प्रमुख विमर्शों में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, वैश्वीकरण, बहुसांस्कृ तिकतावाद आदि को देखा जा सकता है। ये विमर्श साहित्य को देखने की नई दृष्टि देते हैं, वहीं इनका जैविक रूपायन रचनाओं में भी हो रहा है।
वैश्वीकरण और बाजारवाद के तमाम दवाबों के बीच सांस्कृतिक मूल्यवत्ता को लेकर गहरे प्रश्न उभर रहे हैं। विशेष तौर पर मनुष्यता के मूलभूत सरोकारों को लेकर भारतीय संदर्भ में कई रचनाकार चिंतामग्न मुद्रा में हैं । इसी दौर में साहित्य के भविष्य को लेकर भी चिंतातुर स्वर उभर रहे हैं। सूचनाबहुल और संवेदनाविहीन होते समय में साहित्य सहित सभी कलारूपों के सामने नई चुनौतियाँ उभर रही हैं। साहित्य के भविष्य से जुड़े प्रश्नों को लेकर इम्मन्युल लेवीनास कहते हैं, ‘‘हम चाहे ज्ञान के प्रकाश के केन्द्रीय आशावाद में विश्वास रखते हों या आधुनिकतावाद या उत्तरआधुनिकता में, संरचनावाद या उत्तर संरचनावाद के वर्तमान विवाद में उलझे हों कि पराभौतिकी का अंत हो गया है, पुस्तक का अंत हो गया है, कर्ता या लेखक का अवसान हो गया है, हमारे सामने एक ऐसे भविष्य की समस्या है, जिसमें दुनिया की समस्त संबद्धता नष्ट हो गई हैंतथा दृश्यात्मक अर्थ में संसारांत की संभावना है।‘’
(यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)
प्रोफ़ेसर एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय,
उज्जैन [म.प्र.] 456 010
संपर्क : 'सृजन' 407 ,
सांईनाथ कॉलोनी,
सेठी नगर,
उज्जैन 456010
मोबाईल :098260-47765 ,
निवास : 0734-2515573
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आज का दौर भूमण्डलीकरण और उसे वैचारिक आधार देने वाले उत्तर आधुनिक विमर्श और मीडिया की विस्मयकारी प्रगति का दौर है। इस दौर में साहित्य और उसके मूल में निहित संवेदनाओं के छीजते जाने की चुनौती अपनी जगह है ही, साहित्य और सामाजिक कर्म के बीच का रिश्ता भी निस्तेज किया जा रहा है। ऐसे में साहित्य की ओर से प्रतिरोध बेहद जरूरी हो जाता है। इधर साहित्य में आ रहे बदलाव नित नए प्रतिमानों और उनसे उपजे विमर्शों के लिए आधार बन रहे हैं। वस्तुतः कोई भी प्रतिमान प्रतिमेय से ही निकलता है और उसी प्रतिमान से प्रतिमेय के मूल्यांकन का आधार बनता है। फिर एक प्रतिमेय से निःसृत प्रतिमान दूसरे नव-निर्मित प्रतिमेय पर लागू करने पर मुश्किलें आना सहज है। पिछले दशकों में शीतयुद्ध की राजनीति ने वैश्विक चिंतन को गहरे आन्दोलित किया, जिसका प्रभाव भारतीय साहित्य एवं कलाजगत् पर सहज ही देखा जाने लगा। इसी प्रकार भूमण्डलीकरण और बाजारवाद की वर्चस्वशाली उपस्थिति ने भी मनुष्य जीवन से जुड़े प्रायः सभी पक्षों पर अपना असर जमाया। इनसे साहित्य का अछूता रह पाना कैसी संभव था? उत्तर आधुनिकता, फिर उत्तर संरचनावाद और विखंडनवाद के प्रभावस्वरूप पाठ के विखंडन का नया दौर शुरू हुआ। इसी दौर में नस्लवादी आलोचना, नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श , सांस्कृतिक-ऐतिहासिक बोध जैसी विविध विमर्श धाराएँ विकसित हुईं। केन्द्र के परे जाकर परिधि को लेकर नवविमर्श की जद्दोजहद होने लगी। ऐसे समय में मनुष्य और साहित्य की फिर से बहाली पर भी बल दिया जाने लगा। पिछले दो-तीन दशकों में एक साथ बहुत से विमर्शों ने साहित्य, संस्कृति और कुल मिलाकर कहें तो समूचे चिंतन जगत् को मथा है। हिन्दी साहित्य में हाल के दशकों में उभरे प्रमुख विमर्शों में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, वैश्वीकरण, बहुसांस्कृ
समकालीन चैंतनिक परिदृश्य में सबसे पहले बात नारी-विमर्श की ,जो आज एक महत्त्वपूर्ण उपस्थिति बन चुका है। हाल के दशकों में तेजी से विश्वजनीन हुए इस विमर्श ने जहाँ आन्दोलनात्मक रूप अख्यितार किया, वहीं यह स्त्री के सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक अधिकारों का समर्थ घोषणा-पत्र भी बना। साहित्य और संस्कृति के फलक पर इसकी व्याप्ति जहाँ विचारोत्तेजक रही, वहीं निरंतर जटिल होती सामाजिक-संरचना के बरअक्स इसके कई आयाम उभरे हैं। यह तय बात है कि आज भारतीय समाज में पचास या सौ बरस पहले की नारी स्थिति से पर्याप्त अंतर आ गया है, किन्तु यह भी सच है कि भारतीय समाज के वैचारिक दायरे में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आ सका है। आज के दौर में नारी के उद्विकास को पुरुष वर्चस्ववादी समाज ने स्वीकारना भले ही शुरू कर दिया है, किंतु उसकी समस्याएँ कई नए रूप-रंगों में ढलकर सामने आ रही हैं।
वस्तुतः स्त्री- विमर्श सहज एवं बौद्धिक विमर्श नहीं है, यह सामाजिक परिवर्तन का माध्यम है। यह इस बात की ओर तीखा संकेत करता है कि यह दुनिया स्त्री के लिए शायद नहीं बनी है और अब स्त्री इसे फिर से बनाना चाहती है। यह विमर्श स्त्री सहित समूची मानवजाति की स्वतंत्रता का पक्षधर है। कई दशकों पहले महादेवी वर्मा ने भी इस ओर महत्त्वपूर्ण संकेत किया था। स्त्री- विमर्श को प्रायः प्रतिशोध-पीडि़त रूप में देखा जाता रहा है, जबकि वह ऐसा है नहीं। यह स्वयं मानवियों द्वारा अधिकार और न्याय के लिए उठाई गई स्वाभाविक आवाज है। इसी तरह यह अपने मूलार्थ में पुरुष बनने का समर्थक आंदोलन भी नहीं है। बकौल अनामिका, ‘‘ब्रा-बर्निंग आदि एकाध आवेशमूलक घटनाओं के साक्ष्य से यह नहीं समझना चाहिए कि ये स्त्रियाँ अपनी विशिष्ट दैहिक, मानसिक और भाषिक संरचना पर गर्व नहीं करतीं। जो प्राकृतिक विशिष्टताएँ हैं, शर्मनाक वे नहीं, शर्मनाक आरोपित सामाजिक मानदंड हैं , जो दोहरे हैं और जिन पर पुनर्विचार होना ही चाहिए, ताकि विकास के अवसर सबको समान मिल सकें। इसी तरह यह आंदोलन ‘पितृसत्तात्मक समाज में पल रहे स्त्री संबंधी पूर्वाग्रहो’ जैसे-स्त्री को हीनतर और भोग का साधन मात्र मानने के खिलाफ है। इसका एक और वैशिष्ट्य इस बात में है कि यह सार्वभौम भगिनीवाद (यूनिवर्सल सिस्टरहुड) के मूलमंत्र को हर स्तर, हर वर्ग, हर नस्ल, हर देश तक पहुँचाने के लिए प्रयत्नशील है। यदि यह कहीं आक्रामक हुआ है तो उसके पीछे शताब्दियों की सामाजिक जकड़न से मुक्ति की तीखी छटपटाहट कारण रही है।
इसी कड़ी में दलित विमर्श ने हाल दशकों में अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है।शताब्दियों पहले महान् संत कवि दादू ने कहा था -
दादू हाड़ौ मुख भरो, चाम रह्यौ लिपटाइ।
मांही जिह्वा मांस की ताही सैती खाइ।।
(अर्थात् समान अस्थि-मज्जा से बने कुछ लोगों को अछूत कहा जाता है, लेकिन उन्हीं से बने मुंह की जीभ और दांत अछूत क्यों नहीं ? )
संत कवि दादू का यह प्रश्न वर्ण-जाति के नाम पर शताब्दियों से खाँचों-खानों में बंटे भारतीय समाज पर तीखी टिप्पणी दर्ज करता है। भारत के इतिहास का वह सर्वाधिक काला दिन था, जब गुण-कर्म के स्थान पर जन्म के साथ वर्ण-जाति की व्यवस्था को जोड़ दिया गया था। सामाजिक अलगाव की इस कुरीति ने अब तक न जाने कितने काले पृष्ठ भारतीय इतिहास में जोड़े हैं। वैसे तो इससे जुड़ी पीड़ा और चिंता को बुद्ध से लेकर मध्यकालीन संतों और भक्तों और आधुनिक युग में डा. भीमराव अम्बेडकर तक ने बार-बार उकेरा और सामाजिक परिवर्तन की अलख भी जगाई, किन्तु किसी न किसी रूप में ये काले पृष्ठ लगातार जोड़े गये। पिछली एक-डेढ़ शताब्दी में इस तरह के प्रश्नों को व्यापक मानवीय सरोकारों के साथ जोड़ते हुए नए आयाम मिले हैं। इसी प्रवाह में समकालीन सामाजिक, सांस्कृतिक परिदृश्य में दलित- विमर्श ने जन्म लिया है, जो सब प्रकार के भेदभाव के विरुद्ध सजग और सचेत करता है। इस सचेतनकारी विमर्शको आधार देने में डा. अम्बेडकर की अविस्मरणीय भूमिका रही है। सामाजिक और आर्थिक समानता की ओर उन्मुख दलित- विमर्श ने न सिर्फ अखंड राष्ट्रीयता का पक्ष लिया है, वरन् उससे आगे जाकर अखण्ड मानवता को चरितार्थ करने की पहलकदमी भी की है। अपने व्यापक स्वरूप में यह विमर्श जाति नस्ल, रंग, धर्म आदि सभी धरातलों पर मानवनिर्मित असमता के निषेध का विमर्श है। इन सारे विभेदकारी तत्त्वों में भी उसकी पहली नजर जाति और वर्ण पर है। यह मानता है कि सामाजिक समता पहली आवश्यकता है, तभी आर्थिक व अन्य प्रकार की समताओं की बात हो सकती है। यह उन सभी संस्थाओं, मतों और शास्त्रों के विरुद्ध है जो वर्ण-व्यवस्था और जातिभेद को बरकरार रखे हुए हैं।
दलित- विमर्श के शुरूआती चरण बुद्ध की वाणी में दिखाई देते हैं, जो निरंतर पालि,प्राकृत, अपभ्रंश जैसी जनभाषाओं से आगे बढ़ते हुए आधुनिक भारतीय भाषाओं के आरंभिक और मध्यकालीन काव्य में विस्तार लेते चले गए। विशेषतः मध्ययुगीन संत काव्य में इसकी मुखर अभिव्यक्ति हुई है, जिसने भारतीय समाज को गहरे आंदोलित भी किया। आधुनिक पुनर्जागरण के दौर में दलित चिंता का स्वर पुनः उभरा जो राष्ट्रीय आंदोलन को एक नया आयाम दे रहा था। इसी की सफल परिणति के रूप में ज्योतिराव फुले, डा. अम्बेडकर जैसे व्यक्तित्व सामने आए, जो न केवल दलित विमर्श को नई जमीन देते हैं, वरन् खुद भी जमीनी नेतृत्वकर्ता के रूप में परिवर्तन की दस्तक देते हैं। इनमें डा. अम्बेडकर का कार्य विशेषतः उल्लेखनीय है, जो दलित चेतना को न सिर्फ बृहतर आयाम देने में, वरन् उसे आंदोलनधर्मिता के साथ जोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन के एक बड़े सवाल के रूप में उभारने में भी कामयाब रहे। समकालीन सांस्कृतिक परिदृश्य में दलित- विमर्श और दलित साहित्य की वैचारिक पीठिका को निर्मित करने में डा. अम्बेडकर की भूमिका निर्णायक और निर्विवाद रही है।
हिन्दी साहित्य में इस नए ढंग के दलित विमर्श का आगमन कुछ विलम्ब से और बरास्ते मराठी साहित्य हुआ है, फिर भी इसने बहुत कम समय में अपनी अलग पहचान बना ली है। खासतौर पर पिछले दो-तीन दशकों में इससे न सिर्फ सुंदर अतीत से आते मान-मूल्यों पर प्रश्न चिह्न लगाए हैं, वरन् कथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता के आड़म्बर में छुपी दलित विरोधी मानसिकता पर भी अपना निशाना साधा है। दलित साहित्य को प्रायः ‘नकार’ का साहित्य कहा जाता है, इसके बजाय इसे प्रवाह का साहित्य कहना अधिक संगत है, क्योंकि फिलवक्त यह अपनी स्पष्ट और खरी पहचान बनाने में सक्रिय है। यह स्थापित तथ्य है कि दलित चेतना के अभ्युदय में डा. अम्बेडकर की भूमिका विशेष उल्लेखनीय है, किन्तु यह भी स्वीकार करना होगा कि उनकी विचारधारा बुद्ध, कबीर, रैदास और ज्योतिराव फुले जैसे समतानिष्ठ चिंतकों से अनुप्रेरित थी। अम्बेडकर की यह दृष्टि उल्लेखनीय है कि हमें न सिर्फ पहले पहल भारतीय होना चाहिए, वरन् अंततः भी भारतीय ही बने रहना चाहिए, और कुछ नहीं। राष्ट्र की इसी कल्पना को वे आजीवन कर्म और विचार सभी धरातलों पर साकार करते रहे।
डा. अम्बेडकर भारतीय स्वाधीनता के प्रबल समर्थक थे, किन्तु वे यह भी मानते थे कि हमारे राजनीतिक पक्ष को सुदृढ़ करने के लिए सामाजिक सुधार आवश्यक है। इसीलिए उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में पूर्ण परिवर्तन की इच्छा व्यक्त की है। अम्बेडकर जब हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का विश्लेषण करते हैं तो उनकी निगाह इसकी बहुस्तरीय जटिल संरचना पर टिकी हुई थी। वे मानते हैं कि यह व्यवस्था असमानता पर आधारित है। जाति, वर्ग, कुल तथा वंष के आधार पर बनी इस पिरामिड रूपी व्यवस्था के शीर्ष पर एक वर्ग अपना अधिपत्य तथा वर्चस्व किए हुए है, जिसके कारण अन्य वर्ग अपने सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित है और यही उसके शोषण का कारण है। डा. अम्बेडकर ने इस व्यवस्था को राष्ट्रीय एकता में भी बाधक माना। उन्होंने दलितों के उत्थान को राष्ट्र का उत्थान माना है। वस्तुतः दलित चिंतन में राष्ट्र एक भारतीय परिवार या कौम के रूप में है, जो उसकी व्यापकता का ही द्योतक है। इसका यदि परम्परारूढ़ चिंतन से अंतर दिखाई देता है तो वह यह कि दलित चिंतन महज जाति के आधार पर कुछ लोगों को विशेषाधिकार देने और कुछ लोगों को मानवाधिकारों से वंचित करने का विरोध करता है, जबकि जाति-वर्ण की रूढ़ मान्यताएँ इन्हें बरकरार रखना चाहती हैं।
सांस्कृतिक परिदृश्य में डा. अम्बेडकर की एक महत्त्वपूर्ण देन उनका दलित विमर्श रहा है, जो महज विचार के स्तर पर नहीं, पनपा, उसकी साहित्य एवं कलाओं में बहुआयामी अभिव्यक्ति हुई है। वस्तुतः भारतीय नवजागरण की चिंताओं में दलितों-शोषितों की दुरावस्था और उपेक्षा को समाप्त करने की चिंता शामिल रही है। दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी और डा. अम्बेडकर तक सभी ने भारतीय समाज व्यवस्था को जाति आधारित वर्ग वैषम्य पाटने की कोशिश की। इसका शुरूआती असर भारतेन्दु युग से लेकर द्विवेदी युग तक के रचनाकारों पर दिखाई दिया, वहीं बाद में प्रेमचन्द, निराला जैसे रचनाकारों ने दलित पीड़ा को व्यापक मानवीय सरोकारों के बरअक्स देखा। प्रगतिवादी काव्यधारा में भी दलित चिंता उत्तरोत्तर गहराती चली गई, जहाँ दलित को सर्वहारा की स्थिति में देखा गया। दलितों की पीड़ा की प्रामाणिक अभिव्यक्ति वैसे तो मध्यकाल से ही प्रारंभ हो गई थी, किन्तु आधुनिक काल में और उसमें भी सत्तर के दशक में उभरे दलित साहित्य को एक नई शुरूआत के रूप में देखा जाना चाहिए।
समकालीन दलित साहित्य एक नए सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका तैयार करता है, जिसने लम्बे समय से प्रतिष्ठित सौंदर्यशास्त्र को चुनौती दी है। पूर्व से चले आ रहे सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों के केन्द्र में काल्पनिक रोमानियत है, वहीं दलित साहित्य में घटनाओं के खुरदरेपन की यथार्थ अभिव्यक्ति केन्द्रस्थ है। वस्तु के अन्तर्निहित सौंदर्य के अन्वेषण में गतिशील रहे परम्परागत सौंदर्यशास्त्र से हटकर दलित साहित्य जीवन की विषमताओं, शोषण और धार्मिक विद्रूपताओं के विरुद्ध नये सौंदर्यशास्त्र की आधारशिला रखता है, जिसके गहरे सामाजिक सरोकार हैं। नारी रूप की परम्परागत सुकुमार और दीप्त छवि के स्थान पर उसके श्रम-स्वेद से सिंचित सौंदर्य को केन्द्र में लाने की कोशिश दलित साहित्य करता है। वस्तुतः खुरदरे यथार्थ को समाहित करते हुए दलित साहित्य भाव या संवेदना के स्तर पर ही नहीं बदला है, वह अभिव्यक्ति के उपकरणों में भी इस खुरदरेपन को रूपायित करता है। दलित साहित्य की संवेदना और शिल्प निरंतर विकासमान हैं । वह बनावटी भाषा, आरोपित अलंकरणों से परहेज करता है। उसकी अभिव्यक्ति में यदि नुकीलापन आया है तो वह अनायास नहीं है। इसके पीछे एक लम्बी वैचारिक प्रक्रिया रही है। इसीलिए अब कविता हमारा मन बहलाने के बजाय तेज नुकीला खंजर बनती है। बकौल जयंत परमार-
किसी गली में नुक्कड़ पर
या फिर किसी मुहल्ले में
जब भी कविता पाठ होता है
मेरे लफ्ज की गंध व
पुलिस पहुँच जाती है
गोया वहाँ पर
टेररिस्ट आने वाले हों।
सारी गली और सारा मुहल्ला
पुलिस से भर जाता है
मेरी कविता
पुलिस में दर्ज होती है
उन्हें खौफ है
मेरी कविता तेज नुकीला खंजर है
एक न एक दिन
रात के सीने में उतरेगा।
उस दिन अपनी बयाज़ का एक एक वरक
हवाले हाथ में रख दूँगा। (दलित साहित्य, वार्षिकी से )
डा. अम्बेडकर ने धर्म, समाज, राजनीति और अर्थतंत्र के पारम्परिक क्षेत्रों को तो आंदोलित किया ही है, उनकी प्रतिध्वनि संस्कृति और साहित्य तक सुनाई दे रही है। दलित-गैर दलित जैसे साहित्यिक विभाजन निश्चय ही कई प्रश्न खड़े करते हैं, किन्तु यह तय है कि दलित साहित्य की एक विलक्षण पहचान बन गयी है। इसका लक्ष्य मानव-मानव के बीच सभी प्रकार के गैर बराबरी के रिश्तों पर प्रश्न चिह्न लगाना है, जो डा. अम्बेडकर को भी काम्य था। वस्तुतः किसी भी देश,कला या समाज का श्रेष्ठ साहित्य समरस मानवता के पक्ष में खड़ा होता है। इस दृष्टि से दलित साहित्य का महत्त्व तीखेपन और मुस्तैदी के साथ मानवता के पक्ष में खड़े होने में है। डा. अम्बेडकर ने जाति के सवाल को बेहद गंभीरता से लिया था। उनकी मान्यता है कि आप जो भी क्रांति करेंगे, जाति का राक्षस आपका रास्ता जरूर रोकेगा, अतः जाति के राक्षस को मारे बिना आप कोई सुधार नहीं कर सकते है। डा. अम्बेडकर के विचारों के बरअक्स पुनर्जागरण की जरूरत है तो वह इसी अर्थ में है कि दलित साहित्य अपनी परिधि को विस्तृत कर अखंड मानवता के पक्ष में उठ खड़ा हो।
आदिवासी विमर्श इसी शृंखला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। यह विमर्श प्रकृति के बीच अपने सहज जीवनबोध के साथ रहते चले आ रहे जनजातीय समुदायों के विस्थापन के त्रास को केन्द्र में लाता है। कथित आधुनिकता और विकास को प्रतिमानों के रहते न जाने कितने जनजातीय समुदायों को समाज की मुख्य धारा से परे जाने को विवश किया गया। यह विमर्शसाहित्य में उनके दर्द को गहरी संवेदना के साथ उकेरने और उनके हिस्से की दुनिया लौटाने काआह्वान करता है।
अब बात वैश्वीकरण की, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के रूप में विश्व नीड़ या विश्वग्राम जैसी परिकल्पना वैसे तो अत्यन्त पुरातन है, किन्तु इन दिनों ‘विश्व ग्राम’ शब्द का व्यवहार ‘ग्लोबल विलेज’ जैसे चर्चित टर्म के हिन्दी पर्याय के रूप में हो रहा है। 1941 में प्रकाशित पुस्तक‘अमेरिका एण्ड कॉस्मिक मैन’ के जरिये इस शब्द को गढ़ने का श्रेय विण्डहेम लेविस को जाता है,किन्तु इसे अधिक प्रचारित करने का श्रेय कैनेडियन शिक्षाविद्, दार्शनिक और विद्वान् हरबर्ट मार्शल मैकलुहान (जुलाई 21, 1911-दिसम्बर, 31, 1980) को जाता है। मार्शल ने अपने ग्रन्थ द गुटेनवर्ग गैलेक्सी, द मेकिंग ऑफ टायपोग्राफिक मैन (1962) और अंडरस्टेंडिंग मीडिया (1964) में विश्वग्राम की अवधारणा पर विचार किया है। मैकलुहान की मान्यता है कि मानव संचार के क्षेत्र में इलेक्ट्रानिक जनसंचार माध्यमों ने देश और काल की दीवारें तोड़कर अभूतपूर्व क्रांति की है। अब लोग वैश्विक स्तर पर जीते और परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। इस अर्थ में इलेक्ट्रानिक जनसंचार माध्यमों ने इस विश्व को एक ग्राम के रूप में तब्दील कर दिया है। मैकलुहान सही अर्थों में विश्वग्राम का भविष्यद्रष्टा था। ‘अण्डरस्टेण्डिंग मीडिया’ पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है, ‘इलेक्ट्रिक टेक्नोलॉजी के एक शताब्दी से अधिक समय बीतने के बाद, जहाँ तक हमारे ग्रह का सरोकार है, आज हम अपने केन्द्रीय नर्वस सिस्टम को वैश्विक स्तर पर विस्तार ले चुके हैं और देश एवं काल दोनों मिट चुके हैं।‘ इस अवधारणा के पीछे मैकलुहान का मन्तव्य है किइलेक्ट्रोनिक माध्यम के जरिये होने वाले संचार ने हमारी इन्द्रियों की गति को बढ़ा दिया है। टेलीफोन, टेलीविजन और हाल में कम्प्यूटर, इंटरनेट एवं मोबाईल जैसे मीडिया के जरिये समूचे भूमण्डल में हम अधिकाधिक परस्पर जुड़ गए हैं और दुनिया में लोगों का आपसी सम्पर्क इतना त्वरित हो गया है, जितना कि समान भौतिक देश , जैसे किसी एक ही गाँव में रहने वाले लोगों के बीच सम्पर्क और संवाद होता है। अब हम कुछ ही सेकण्ड में हजारों मीलों दूर होने वाली घटनाओं को देख और सुन सकते हैं, उससे भी अधिक तेजी से जितना कि अपने गाँवों या परिवारों में होने वाली घटनाओं को सुन या देख पाते हैं। मैकलुहान की मान्यता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की गति की बदौलत हम वैश्विक मुद्दों पर उसी गति से क्रिया और प्रतिक्रिया कर सकते हैं, जैसे हम आमने-सामने के मौखिक संचार में करते हैं।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भारतीय अवधारणा आज के ‘विश्वग्राम’ और ‘विश्वशान्ति’ के लिए भी आदर्श हो सकती है, किन्तु यथार्थ में ऐसा हो नहीं रहा है, ‘ दुनिया के मजदूरों एक हों’ कहने के दिन अब लद गए लगते है, उसकी जगह ‘दुनिया के पूँजीपतियों एक हो’ ने ले ली है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ वैश्वीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद के जरिये अधिकाधिक पूंजी समेटने में लगी हैं । ऐसे में वैश्वीकरण की संकल्पना का प्रचार भले ही जोर-शोर से जारी हो, किन्तु उसकी व्याप्ति‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उदात्त संकल्पना को छू पाने में असफल रही है। पश्चिम में पनपीविश्वग्राम की अवधारणा वर्तमान पूंजीवादी विश्व व्यवस्था के हाथों में पड़कर अपने मूलार्थ से भटककर महज एक आवरण सिद्ध हो रही है। जिसके जरिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ पूरी दुनिया में पूंजीवादी स्वप्नों के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रही है। ऐसे समय में महाजनी पूंजी का प्रवाह प्रभुसत्ता सम्पन्न देशों की ओर होने साथ ही विज्ञान-तकनीकी से लेकर विचारधारा और संस्कृति की भूमिका बदल देने का उपक्रम भी जारी है। वस्तुतः ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भारतीय अवधारणा व्यापक मानवीय सरोकारों पर आधारित थी, जिसका लक्ष्य रहा है-‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’। दूसरी ओर ‘विश्वग्राम’ की अवधारणा का लाभ नकारात्मक शक्तियाँ अधिक उठ रही हैं । इसे ‘सब कहँ हित होई’ के बजाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और उनके सबसे बड़े केन्द्र अमेरिका एवं यूरोप के हितों की रक्षा का माध्यम बना लिया गया है, संसार को एक करने की इनकी दृष्टि एकांगी है। ये कम्पनियाँ मात्र व्यापार-व्यवसाय के लिए दुनिया को एक करना चाहती है, शेष सभी बातें अप्रांसगिक हैं। कभी भारतेन्दु ने कहा था-
अंग्रेज राज सुख साज सजै अति भारी।
पै धन बिदेस चले जात यहै अति ख्वारी।।
आज भारत जैसे अनेक देशों पर अंग्रेजों का राज्य भले ही न हो, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के जरिये प्राप्त अधिकांश गैर जरूरी सुख साज के बदले हमारी धन-सम्पदा अमेरिका सहित कई यूरोपीय देशों को सम्पन्न कर रही है। इसमें भी शर्तें उनकी अपनी रहती है। विश्वग्राम के प्रादर्शके समक्ष एक बड़ी चुनौती युद्ध और उससे जुड़ी हथियारों की अंधी दौड़ रही है। कहने को इंटरनेट और अन्य संचार-साधनों ने दुनिया की भौगोलिक दूरी को निरर्थक कर दिया है, किन्तु दिलों और देशों की दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। युद्ध को हथियार बाजार ने महज एक खेल में बदल दिया है। अमेरिका जैसे देशों का राष्ट्रपति वही हो सकता है, जो हथियारों के अकूत भण्डार का उपयेाग (यदि वह उपयोग है तो) करने का साहस दिखाए। हथियारों के जरिये मौत के सौदागारों के वर्चस्व जारी है। राजनैतिक-आर्थिक वैश्वीकरण की इस भूमि पर मानवीय संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। नए साहित्य में वैश्वीकरण से जुड़ी चिंताओं और चुनौतियों को बड़ी शिद्दत से देखा-परखा जा रहा है।
वैश्वीकरण और बाजारवाद के तमाम दवाबों के बीच सांस्कृतिक मूल्यवत्ता को लेकर गहरे प्रश्न उभर रहे हैं। विशेष तौर पर मनुष्यता के मूलभूत सरोकारों को लेकर भारतीय संदर्भ में कई रचनाकार चिंतामग्न मुद्रा में हैं । इसी दौर में साहित्य के भविष्य को लेकर भी चिंतातुर स्वर उभर रहे हैं। सूचनाबहुल और संवेदनाविहीन होते समय में साहित्य सहित सभी कलारूपों के सामने नई चुनौतियाँ उभर रही हैं। साहित्य के भविष्य से जुड़े प्रश्नों को लेकर इम्मन्युल लेवीनास कहते हैं, ‘‘हम चाहे ज्ञान के प्रकाश के केन्द्रीय आशावाद में विश्वास रखते हों या आधुनिकतावाद या उत्तरआधुनिकता में, संरचनावाद या उत्तर संरचनावाद के वर्तमान विवाद में उलझे हों कि पराभौतिकी का अंत हो गया है, पुस्तक का अंत हो गया है, कर्ता या लेखक का अवसान हो गया है, हमारे सामने एक ऐसे भविष्य की समस्या है, जिसमें दुनिया की समस्त संबद्धता नष्ट हो गई हैंतथा दृश्यात्मक अर्थ में संसारांत की संभावना है।‘’
स्त्री विमर्श से लेकर वैश्वीकरण तक विस्तारित इन तमाम विमर्शों की ऊहापोह के बीच यह तय बात है कि जब तक इस धरती पर मनुष्य है, साहित्य एवं विविध कलारूपों की सत्ता बनीरहेगी , भले ही उनके स्वरूप में बदलाव आता रहे । विविध विमर्श साहित्य से जुड़े नितनूतन परिप्रेक्ष्यों पर रौशनी अवश्य डालते हैं, किन्तु साहित्य की अविच्छेद्य और अखंड सत्ता को अक्षत रूप में देखते-विचारते रहना भी बेहद जरूरी है।
अपनी माटी के नए अवतार के लिए टीम को बधाइयाँ ....
जवाब देंहटाएंआधुनिक विमर्श पर इतना अच्छा लेख अभी तक नहीं मिला था.बहुत बहुत धन्यवाद सर 🙏🙏🙏🙏
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