जून-2013 अंक (यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।इससे पहले के मासिक अंक अप्रैल और मई यहाँ क्लिक कर पढ़े जा हैं।आप सभी साथियों की तरफ से मिल रहे अबाध सहयोग के लिए शुक्रिया कहना बहुत छोटी बात होगी।-सम्पादक)
(एक) पिटाई
वो बोलती है
तो पिटती है
और बोलती है
तो और पिटती है
वो बोलेगी
तो पिटेगी
और बोलेगी
तो और पिटेगी
वो नहीं बोलेगी
तो पिटती रहेगी
वो बोलेगी- ज़रूर बोलेगी
कोई और बोलेगा
तो और बोलेगी
कोई पीटेगा
तो पलटकर पीटेगी
वो बोलेगी
बोलती रहेगी
तब तक
जब तक कि वो बोले
और पिटे नहीं
(दो )भले लोग
लोग हमसे मिले
अपने दाँत सींग नाखून छिपाए हुए
सफ़ेद छोटे सुन्दर और तीखे थे उनके दाँत
जड़े थे मजबूत मसूड़ों में
ढके थे -सूर्ख होठों में
रंग रखे थे उन्होंने अपने नाखून
सदाशयता और सौजन्य के रंगों से
हाथ मिलाते समय-वे ही रंग दिखते थे
सींग उनकी टोपियों से ढंके थे
या छिपे थे घने बालों में
आधुनिक विचित्र केश विन्यास की तरह
वे लोग हमसे मिले
उन्होंने हमें सूंघा और सोचा हमारे बारे में
शायद वे कुछ ख़ास समझ न पाए
तो थोड़ा सा चखा
हम उनके काम के न थे
उन्होंने हमें छोड़ते हुए कहा-
अच्छे हैं ये लोग-भले हैं
(तीन) एक कवि
एक रात थी खयालों में
कई दिन तक मैं उसमें तारे गिनता रहा
एक चरखा था कल्पना में
उस पर सूत कातता रहा
विचारों में बिजली थी
उससे एक लट्टू जला लेता
दिमाग में एक जंगल था मानो
हर वक़्त रास्ता तलाशता रहता
बजाज और दर्जियों की कई दुकाने थीं
मगर कपड़े मेरे मन मुजब न थे
मेरे नाप के न थे
मेरे लिए न कोई वस्त्र था न रंग
बहुत सारी वस्तुएं थीं
जो मुझे दर्ज करनी थीं
तफसील में जाता तो बड़ी देर हो जाती
घर में पड़ी है अभी भी
घड़ी एक पुरानी
मैं रोज उसमें चाबी भरता हूँ
उसे कभी बंद नहीं होने देता।
(चार )मिट्टी धीरे धीरे
मेरे अन्दर का प्लास्टिक पुराना पड़ता जा रहा है
पुराना होने के साथ ही
वह खोता जा रहा है अपनी तन्यता
पुराने होते जाते पदार्थ धीरे धीरे होते जाते जोजरे
कमजोर और भुरभुरे
उन्हें अधिक तानने की कोशिश तोड़ सकती है
सचमुच पुराना होना
एक तकलीफदेह अहसास है
कौन रह सकता है हरदम ताज़ा और नया
कुछ भी उगाने के लिए तत्पर और तैयार
उर्वर सदा सर्वदा
सिवा मिट्टी के
मैं उस तरफ बढ़ रहा हूँ
होता जा रहा हूँ मिट्टी धीरे धीरे
(पांच )बुरी कविताएँ
होते हैं जिस तरह
बुरे दिन-बुरे लोग
उसी तरह होती होंगी
बुरी कविताएँ भी
कोई लेने नहीं जाता
बुरे दिन
बुलाता नहीं कोई भी
बुरे लोगों को
पर वे आते हैं
सहसा आ जाते हैं
सहज ही जीवन में
इसी तरह आती होंगी
बुरी कविताएँ भी
बुरी कविताएँ
लिख चुकने के बाद
सब जान चुके होते हैं जब
उसके बाद
जान पाता है कवि
बुरी कविता के बारे में
अगर उसके दिन अच्छे हों तो !
आसान है
बुरे लोगों के बारे बात करना रुचिकर भी
बुरे दिनों के लिए क्या सीख हो सकती है
सिवा धैर्य के
बुरी कविताओं के समीक्षकों के लिए भी
क्या कहें कैसे सराहें उनके धैर्य को
धन्य हैं-वे
जो बुरे लोगों
बुरे वक़्त
और बुरी कविताओं के बारे में बात करते हैं
लम्बे समय तक
उन कवियों को कहें-क्या?
जो अच्छे दिनों में बुरी कविताएँ लिखते हैं
वे अच्छी कविताएँ लिखेंगे
शायद बुरे दिनों में
(छ:) कितनी सी बची है
(1)
फूल कभी एक
जो खिला था जंगल में
पिरोया ही नहीं किसी ने
जिसे गूंथा ही नहीं/टांका ही नहीं
दिया ही नहीं/उपहार/वो अनूठा प्रकृति का
हुआ ही नहीं उपमान भी किसी का
क्या खिला होगा अभी भी ?
या खीर गया होगा
पंखुरी-पंखुरी बिखर गया होगा
पादप!
पर पादप वे अभी भी बचे तो होंगे कहीं
जिन पर वो खिला था
होंगे वो अवश्य होंगे कहीं
जो बचा होगा अरनी तो!
(2)
कौन सुनता है
शोर से भरी दुनिया में
आवाज़ उसकी
एक ढ़ोल जो लटका ही रहा
मढने के बाद खूंटी पर
किसी ने बजाया ही नहीं
कोई गीत गुजरा ही नहीं
सुक्ख का या दुक्ख का उसमें से
उत्सव जैसे जीवन में आया ही नहीं
बचा कोई नगमा होगा तो होगा
उसकी धीमी तरेड़ में
जो होगा बचा कोई मन भी अगर गाने वाला
(3)
एक पत्त्थर छिछले पानी में पड़ा है
और पूरा ढक गया है काई से
उसी पर ग़र धर पाँव
जा सकूं उस पार फिसले बिना
बस ठाँव इतनी सी भर
बची है कविता
लोग हमसे मिले
अपने दाँत सींग नाखून छिपाए हुए
सफ़ेद छोटे सुन्दर और तीखे थे उनके दाँत
जड़े थे मजबूत मसूड़ों में
ढके थे -सूर्ख होठों में
रंग रखे थे उन्होंने अपने नाखून
सदाशयता और सौजन्य के रंगों से
हाथ मिलाते समय-वे ही रंग दिखते थे
सींग उनकी टोपियों से ढंके थे
या छिपे थे घने बालों में
आधुनिक विचित्र केश विन्यास की तरह
वे लोग हमसे मिले
उन्होंने हमें सूंघा और सोचा हमारे बारे में
शायद वे कुछ ख़ास समझ न पाए
तो थोड़ा सा चखा
हम उनके काम के न थे
उन्होंने हमें छोड़ते हुए कहा-
अच्छे हैं ये लोग-भले हैं
(तीन) एक कवि
एक रात थी खयालों में
कई दिन तक मैं उसमें तारे गिनता रहा
एक चरखा था कल्पना में
उस पर सूत कातता रहा
विचारों में बिजली थी
उससे एक लट्टू जला लेता
दिमाग में एक जंगल था मानो
हर वक़्त रास्ता तलाशता रहता
बजाज और दर्जियों की कई दुकाने थीं
मगर कपड़े मेरे मन मुजब न थे
मेरे नाप के न थे
मेरे लिए न कोई वस्त्र था न रंग
बहुत सारी वस्तुएं थीं
जो मुझे दर्ज करनी थीं
तफसील में जाता तो बड़ी देर हो जाती
घर में पड़ी है अभी भी
घड़ी एक पुरानी
मैं रोज उसमें चाबी भरता हूँ
उसे कभी बंद नहीं होने देता।
(चार )मिट्टी धीरे धीरे
मेरे अन्दर का प्लास्टिक पुराना पड़ता जा रहा है
पुराना होने के साथ ही
वह खोता जा रहा है अपनी तन्यता
पुराने होते जाते पदार्थ धीरे धीरे होते जाते जोजरे
कमजोर और भुरभुरे
उन्हें अधिक तानने की कोशिश तोड़ सकती है
सचमुच पुराना होना
एक तकलीफदेह अहसास है
कौन रह सकता है हरदम ताज़ा और नया
कुछ भी उगाने के लिए तत्पर और तैयार
उर्वर सदा सर्वदा
सिवा मिट्टी के
मैं उस तरफ बढ़ रहा हूँ
होता जा रहा हूँ मिट्टी धीरे धीरे
(पांच )बुरी कविताएँ
होते हैं जिस तरह
बुरे दिन-बुरे लोग
उसी तरह होती होंगी
बुरी कविताएँ भी
कोई लेने नहीं जाता
बुरे दिन
बुलाता नहीं कोई भी
बुरे लोगों को
पर वे आते हैं
सहसा आ जाते हैं
सहज ही जीवन में
इसी तरह आती होंगी
बुरी कविताएँ भी
बुरी कविताएँ
लिख चुकने के बाद
सब जान चुके होते हैं जब
उसके बाद
जान पाता है कवि
बुरी कविता के बारे में
अगर उसके दिन अच्छे हों तो !
आसान है
बुरे लोगों के बारे बात करना रुचिकर भी
बुरे दिनों के लिए क्या सीख हो सकती है
सिवा धैर्य के
बुरी कविताओं के समीक्षकों के लिए भी
क्या कहें कैसे सराहें उनके धैर्य को
धन्य हैं-वे
जो बुरे लोगों
बुरे वक़्त
और बुरी कविताओं के बारे में बात करते हैं
लम्बे समय तक
उन कवियों को कहें-क्या?
जो अच्छे दिनों में बुरी कविताएँ लिखते हैं
वे अच्छी कविताएँ लिखेंगे
शायद बुरे दिनों में
(छ:) कितनी सी बची है
(1)
फूल कभी एक
जो खिला था जंगल में
पिरोया ही नहीं किसी ने
जिसे गूंथा ही नहीं/टांका ही नहीं
दिया ही नहीं/उपहार/वो अनूठा प्रकृति का
हुआ ही नहीं उपमान भी किसी का
क्या खिला होगा अभी भी ?
या खीर गया होगा
पंखुरी-पंखुरी बिखर गया होगा
पादप!
पर पादप वे अभी भी बचे तो होंगे कहीं
जिन पर वो खिला था
होंगे वो अवश्य होंगे कहीं
जो बचा होगा अरनी तो!
(2)
कौन सुनता है
शोर से भरी दुनिया में
आवाज़ उसकी
एक ढ़ोल जो लटका ही रहा
मढने के बाद खूंटी पर
किसी ने बजाया ही नहीं
कोई गीत गुजरा ही नहीं
सुक्ख का या दुक्ख का उसमें से
उत्सव जैसे जीवन में आया ही नहीं
बचा कोई नगमा होगा तो होगा
उसकी धीमी तरेड़ में
जो होगा बचा कोई मन भी अगर गाने वाला
(3)
एक पत्त्थर छिछले पानी में पड़ा है
और पूरा ढक गया है काई से
उसी पर ग़र धर पाँव
जा सकूं उस पार फिसले बिना
बस ठाँव इतनी सी भर
बची है कविता
ambika ji really depicts the sensivity of human soul.he is one of the great writers.
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