जून-2013 अंक
|
जिन्होंने 'साहित्य-देवता' पढ़ा
है वो
बहुत हद
तक दिनकर
जी से
सहमत भी
होंगे, लेकिन
अब इसी
कृति को
हम भिन्न
संदर्भों के
साथ देखें
...
माखनलाल चतुर्वेदी
जी ने
अपने घर
पर इस
कृति का
एक हिस्सा
पढ़कर सुनाया।
श्रोताओं में
भवानी प्रसाद
मिश्र, धर्मवीर
भारती, शिवमंगल
सिंह 'सुमन',
श्रीकांत जोशी
और जगदीश
गुप्त जैसे
विद्वान मौजूद
थे। चतुर्वेदी
जी वाचन
करते रहे
और वाह-वाह का
अनवरत सिलसिला
भी चलता
रहा।सबसे अधिक
वाह-वाह
सुमन जी
कर रहे
थे। भवानी
दादा से
रहा नहीं
गया और
उन्होंने वहीं सुमन जी
से कहा
कि अगर
ये रचना
उन्हें इतनी
ही पसंद
है तो
ज़रा उसका
अर्थ भी
समझा दें।
बस फिर
क्या था
महफ़िल में
चुप्पी छा
गयी। सब
एक-दुसरे
का मुंह
देखने लगे। आख़िर भवानी दादा
ने चतुर्वेदी
जी से
कहा कि
आप इसकी
एक टीका
भी लिख
दीजिये क्योंकि
जब
ये हमें समझ में नहीं
आ रही
है तो
भविष्य में
तो लोग
इसके न
जाने क्या-क्या अर्थ
निकालेंगे। चतुर्वेदी जी, भवानी दादा
की बात
से बहुत
आहत हुए
और लम्बे
समय तक
उनसे नाराज़
रहे। लेकिन
सरलता के
पक्षधर भवानी
दादा अपनी
बात कहने
से कैसे
चूकते ?
एक और
संदर्भ के
साथ इसे
देखें। 'साहित्य-देवता' 1943 में
प्रकाशित हुई
लेकिन इसका
अधिकाँश हिस्सा
1921-22 में बिलासपुर जेल में लिखा
गया जहाँ
पर चतुर्वेदी
जी रतौना
के कसाईखाने
के विरुद्ध
लिखने के
कारण सज़ा
काट रहे
थे और
इसी दौरान
उन्होंने अपनी
अमर कविता
'चाह नहींहै सुरबालाके गहनोंमें गूँथाजाऊं ... " लिखी।
क्या कारण
थे कि
एक ही
कालखंड में,
एक-सी
ही परिस्थितियों
में, एक
ही स्थान
में लिखी
गयी एक
रचना जन-जन की
कविता बन
गयी और
एक रचना
विद्वानों की समझ का भी
अतिक्रमण करने
वाली सिद्ध हुई? हम बहुत
तलाश करें
तब भी
ठीक-ठीक
ज़वाब नहीं
ढूंढ पायेंगे
लेकिन जो
सवाल सबसे
अधिक महत्त्वपूर्ण
है वो
है कि
लिखा क्या
जाये? विद्वता
यदि कठिन
शब्द-संयोजन
और दुर्गम
प्रस्तुति का आश्रय पाकर 'क्लासिक'
का दर्ज़ा
हासिल करे
तो रचनाकार
धन्य हो
उठता है
लेकिन यही
यत्न पाठक
के लिये
अगम्य बीहड़
भी सिद्ध होता है।
जबकि सरलता
जन-जन
के साथ
रिश्ता क़ायम
करती है।
तब 'क्लासिक'
का आग्रह
आज
भी क्यों है? जब उसे
स्वीकार ही
नहीं किया
जाना है
या फ़िर
उसे चंद
तथाकथित बुद्धिजिवियों की ही
स्वीकृति मिलनी
है तो
ऐसा सृजन
किया ही
क्यों जाये? उत्तर आसान
नहीं है।
बहुत कम
होता है
कि एक
रचनाकार अपनी विद्वता
के समस्त
सौन्दर्य को
तिलांजलि दे
केवल लोक
के स्वर
में बोले।
विद्वता का
सौन्दर्य व्यक्त
होने की
पुरजोर कोशिश
करता है
लेकिन त्रासदी
यह है
कि अक्सर
यह व्यक्त
सौन्दर्य अनदेखा
रह जाता
है क्योंकि
'चमन में
दीदावर नहीं
होते'...
आज के
दौर की
बात करें
तो कुछ
समय पूर्व
की घटना
शायद मेरी
बात को
पूर्ण होने
का रास्ता
दिखाये। चेतन
भगत ने
एक कर्यक्रम
के दौरान
गुलज़ार साहब
की मौज़ूदगी
में उनके
फ़िल्मी गीत
' कजरारे-कजरारे
तेरे कारे-कारे नैना
... ' की तारीफ़
कुछ नागवार
ढंग से
की। गुलज़ार
साहब ने
उसी मंच
से उनसे
पूछ लिया
कि इस
गीत की
दो पंक्तियों
का अर्थ
क्या है।
चेतन भगत
उत्तर नहीं
दे पाये।
वो पंक्तियाँ
थीं ....... 'तेरी बातों में किमाम
की खुशबू
है .... तेरा
आना भी
गर्मियों की
लू है
.. '
इस घटना
का ज़िक्र
यहाँ इसलिए
किया, क्योंकि
ये गीत
बहुत अधिक
मशहूर हुआ
और इस
गीत के
ठीक अर्थ
तक पहुंचना
आज के
सबसे अधिक
सफल लेखक
के बूते
से बाहर
की बात
रही।
शायद ये
घटना एक
उत्तर है।
जो क्लासिक
रचना चाहते
हैं वो
यदि विद्वता
के हिमालय
से सरलता की कोई
गंगा प्रवाहित
कर दें
तो वो
रचना 'बुध
विश्राम .. सकल जन रंजनि' का
गौरव हासिल
कर सकती
है। संभवत:
माखनलाल चतुर्वेदी
जी ने
भी यह
बात महसूस
की होगी
इसलिए उन्होंने
1958 में 'गंगा की विदा' लिखी।
जो हिमालय
से आग्रह
करती है
कि तुम
पानी के
पत्थर हो
लेकिन संसार
को पत्थर
से पानी
बनी गंगा
की ज़रुरत
है। इस
लम्बी कविता का एक हिस्सा कहता
है ...
अगम नगाधिराज जाने
दो
बिटिया अब ससुराल
चली
तुम ऊंचे उठते
हो रह
रह
यह नीचे को
दौड़ी जाती
तुम देवों से
बतियाते यह
भू से मिलने
को अकुलाती
रजतमुकुट तुम धारण
करते
इसकी धारा सब
कुछ बहता
तुम हो मौन
विराट क्षिप्र
यह
इसका वाद रवानी
कहता
तुमसे लिपट लाज
से सिमटी
लज्जा-विनत निहाल
चली
अगम नगाधिराज जाने
दो
बिटिया अब ससुराल
चली
तुम जब पानी
के पत्थर
हो
तब यह पत्थर
का पानी
है
द्रवित हो उठे
तुम यह
प्रबला
तेरी तरल मेहरबानी
है
प्रियतम की यह
श्याम सलोनी
बना बना पथ
में तिरवेनी
विश्वनाथ गर्वित हैं
इस पर
शीश चढ़ाते इसकी
वेणी
बूँद-बूँद अघ
हर तलवारें
दौड़ बनाकर ढाल
चली
अगम नगाधिराज जाने
दो
बिटिया अब ससुराल
चली
गंगा अब ससुराल
चली
'साहित्य-देवता' जैसे क्लासिक की
रचना करने
वाले माखनलाल
चतुर्वेदी जी ने संभवत: हिमालय
की स्थापना
के साथ
द्रवित हिमालय
से निकली
गंगा को
स्वीकार करना
श्रेयस्कर समझा और यह कविता
लिखी।
हर दौर
में हिमालय
का महत्व
रहा है
और सदा-सदा रहेगा
लेकिन हिमालय
से गंगा
निकलती है
तो हिमालय
जन-जन
का हो
जाता है।
दुष्यन्त कुमार
ने कहा
'इस हिमालय
से कोई
गंगा निकालनी
चाहिए' मुझे
लगता है
हर हिमालय से कोई गंगा निकलनी
चाहिए। साहित्य
के हिमालय
से कोई
गंगा निकलेगी
तो साहित्य
का हिमालय
भी जन-जन तक
पहुंचेगा लेकिन
सदैव ध्यान
रखना होगा
कि गंगा
का सरल
प्रवाह किसी
न किसी
हिमालय से
ही निकले
वैसे तो
आजकल क्षुद्रता
के पुजारी
सरलता के
नाम पर
गटर से
निकली हर
एक धारा
को गंगा
घोषित करने
में जुटे
हुए हैं
....
|
एक टिप्पणी भेजें