जून-2013 अंक (यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।इससे पहले के मासिक अंक अप्रैल और मई यहाँ क्लिक कर पढ़े जा हैं।आप सभी साथियों की तरफ से मिल रहे अबाध सहयोग के लिए शुक्रिया कहना बहुत छोटी बात होगी।-सम्पादक)
(एक)
कवि,चिन्तक और ओजस्वी पत्रकार माखन लाल चतुर्वेदी |
पुष्प की अभिलाषा
चाह नहीं मैं
सुरबाला के
गहनों में गूथा
जाऊँ
चाह नहीं प्रेमी
माला में
बिंध प्यारी को
ललचाऊँ
चाह नहीं सम्राटों
के
शव पर हे
हरि डाला
जाऊँ
चाह नहीं देवों
के सिर
पर
चढूँ भाग्य पर
इतराऊँ
मुझे तोड़ लेना
बनमाली
उस पथ पर
तुम देना
फेंक
मातृभूमि पर शीश
चढ़ाने
जिस पथ जाएँ
वीर अनेक
(दो )
वर्षा ने आज
विदाई ली
वर्षा ने आज
विदाई ली
जाड़े ने
कुछ अंगड़ाई
ली
प्रकृति ने पावस
बूँदो से
रक्षण की
नव भरपाई
ली।
सूरज की किरणों
के पथ
से काले
काले आवरण
हटे
डूबे टीले महकन
उठ्ठी दिन
की रातों
के चरण
हटे।
पहले उदार थी
गगन वृष्टि
अब तो
उदार हो
उठे खेत
यह ऊग ऊग
आई बहार
वह लहराने
लग गई
रेत।
ऊपर से नीचे
गिरने के
दिन रात
गए छवियाँ
छायीं
नीचे से ऊपर
उठने की
हरियाली पुन:
लौट आई।
अब पुन: बाँसुरी
बजा उठे
ब्रज के
यमुना वाले
कछार
धुल गए किनारे
नदियों के
धुल गए
गगन में
घन अपार।
अब सहज हो
गए गति
के वृत
जाना नदियों
के आर
पार
अब खेतों के
घर अन्नों
की बंदनवारें
हैं द्वार
द्वार।
नालों नदियों सागरो
सरों ने
नभ से
नीलांबर पाए
खेतों की मिटी
कालिमा उठ
वे हरे
हरे सब
हो आए।
मलयानिल खेल रही
छवि से
पंखिनियों ने कल गान किए
कलियाँ उठ आईं
वृन्तों पर
फूलों को
नव मेहमान
किए।
घिरने गिरने के
तरल रहस्यों
का सहसा
अवसान हुआ
दाएँ बाएँ से
उठी पवन
उठते पौधों
का मान
हुआ।
आने लग गई
धरा पर
भी मौसमी
हवा छवि
प्यारी की
यादों में लौट
रही निधियाँ
मनमोहन कुंज
विहारी की।
(तीन)
बोल तो किसके
लिए मैं
बोल तो किसके लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल
बोलूँ?
प्राणों की मसोस,
गीतों की-
कड़ियाँ बन-बन
रह जाती
हैं,
आँखों की बूँदें
बूँदों पर,
चढ़-चढ़ उमड़-घुमड़ आती
हैं!
रे निठुर किस
के लिए
मैं आँसुओं में
प्यार खोलूँ?
बोल तो किसके
लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल
बोलूँ?
मत उकसा, मेरे
मन मोहन
कि मैं
जगत-हित कुछ
लिख डालूँ,
तू है मेरा
जगत, कि
जग में
और कौन-सा
जग मैं
पा लूँ!
तू न आए तो भला
कब-
तक कलेजा मैं
टटोलूँ?
बोल तो किसके
लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल
बोलूँ?
तुमसे बोल बोलते,
बोली-
बनी हमारी कविता
रानी,
तुम से रूठ,
तान बन
बैठी
मेरी यह सिसकें
दीवानी!
अरे जी के
ज्वार, जी
से काढ़
फिर किस तौल
तोलूँ
बोल तो किसके
लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल
बोलूँ?
तुझे पुकारूँ तो
हरियातीं-
ये आहें, बेलों-तरुओं पर,
तेरी याद गूँज
उठती है
नभ-मंडल में
विहगों के
स्वर,
नयन के साजन,
नयन में-
प्राण ले किस
तरह डोलूँ!
बोल तो किसके
लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल
बोलूँ?
भर-भर आतीं
तेरी यादें
प्रकृति में, बन
राम कहानी,
स्वयं भूल जाता
हूँ, यह
है
तेरी याद कि
मेरी बानी!
स्मरण की जंजीर
तेरी
लटकती बन कसक
मेरी
बाँधने जाकर बना
बंदी
कि किस विधि
बंद खोलूँ!
बोल तो किसके
लिए मैं
गीत लिक्खूँ, बोल
बोलूँ?
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