जून-2013 अंक
‘‘मेरी कविताए अपना पथ खोजते बेचैन मन की अभिव्यक्ति है. उनका सत्य और मूल्य उसी जीवन-स्थिति में छिपा है.’’
मुक्तिबोध एक सच्चे कवि की तरह सरलीकरण से इंकार करते है क्योंकि सत्य का सरलीकरण संभव नहीं है, वे विचार या अनुभव से आतंकित नहीं होते. वे यथार्थ को जैसा पाते है वैसा उसे समझने और उसका विश्लेषण करने की कोशिश करते है इसलिए उनकी कविताएं अनुभव की व्याख्या और पड़ताल का साक्ष्य है. मुक्तिबोध की कविताओं में सर्जनात्मक उर्जा रहने के कारण मन को न सिर्फ झकझोरती है अपितु समृद्ध भी करती है. यह आकस्मिक नहीं है कि मृत्यु के लगभग 49 वर्षों बाद भी मुक्तिबोध हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित कवि बने हुए है.
मुक्तिबोध हिन्दी के शायद एकमात्र कवि है जो अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में पूरी तरह एकमेक रहे. मुक्तिबोध की कविताओं से यह जानकारी मिलती है कि महायुद्ध सिर्फ रणक्षेत्र में ही नहीं लड़े जाते बल्कि निजी जीवन में भी महायुद्ध व्याप्त होता है यद्यपि हम महायुद्ध में अनजाने और बेखबर शामिल रहते है इसलिए उनकी कविताएं हमें आगाह करती लगती है कि मनुष्य के विरूद्ध हो रहे षड़यंत्र में अपनी हिस्सेदारी को हम समझे. मुक्तिबोध ने अपनी हिस्सेदारी को समझा और लिखा इसलिए उनकी कविताएं निरा तटस्थ बखान नहीं है अपितु निजी प्राथमिकता की कविताएं है. भगवान सिंह ने ठीक कहा है कि
‘‘मुक्तिबोध सरस नहीं है, सुखद नहीं है. वे हमें झकझोर देती है, गुदगुदाती नहीं. वे मात्र अर्थग्रहण की मांग नहीं करती, आचरण की भी मांग करती है.’’
‘‘मुक्तिबोध सरस नहीं है, सुखद नहीं है. वे हमें झकझोर देती है, गुदगुदाती नहीं. वे मात्र अर्थग्रहण की मांग नहीं करती, आचरण की भी मांग करती है.’’
मुक्तिबोध के कविता की जब पहली पुस्तक छपी तब वे अपने होश-हवास खो चुके थे. आज भी उनकी लिखी रचनाएं प्रकाशित हो रही है. उन्हें हिन्दी क्षेत्रों से कोई मदद नहीं मिली जब वे लंबे समय तक बीमार रहे और लंबी बीमारी के बाद 11 सितम्बर 1964 को नई दिल्ली में अंतिम सांसे लीं. सामाजिक-पारिवारिक-आर्थिक संकट के भारी पाटों में पिसने के बावजूद जीवन के अंत तक अपराजेय जिजीविषा से भरे मुक्तिबोध का किसी ने साथ नहीं दिया. मन, विचार और सपनों की दुनिया में सिर्फ कविता उनके साथ रही और इसी कविताओं में उन्होंने एक ऐसे समाज को रचा जहां वे अपना जीवनयापन कर रहे थे. बाहरी समाज ने तो उनका साथ नहीं दिया इसलिए उन्होंने एक समाज अपने कल्पना लोक में बनाया जिसका प्रतिबिंब उनकी कविताओं में नजर आता है. उनकी एक कविता में इसका प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है- जिंदगी में जो कुछ है, जो भी है।
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है
गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है
इसलिए कि पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है
संवेदन तुम्हारा है
मनुष्य के विरूद्ध षंड़यंत्र पर कटाक्ष करती एक अन्य कविता इस प्रकार है-दुनिया को हाट समझ
जन-जन के जीवन का
मांस काट
रक्त-मांस विक्रय के
प्रदर्शन की प्रतिभा का
नया ठाठ
शब्दों का अर्थ जब
नोच-खसोट लूट-पाट
तब मनुष्य उबकर उकताकर
ऐसे सब अर्थों की छाती पर पैर जमा
तोड़ेगा काराएं कल्मष की
तोड़ेगा दुर्ग सब
अर्थों के अनर्थ के
मुक्तिबोध की कविता आज भी गंभीर चर्चा और विवाद के केन्द्र में है. अशोक बाजपेयी ने ठीक लिखा है कि ‘‘हिन्दी के इतिहास में किसी लेखक द्वारा ऐसी केन्द्रीयता पाने के उदाहरण बिरले है. मुक्तिबोध एक कठिन समय के कठिन कवि है. ऐसे समय में जब उनके समकालीन छोटी कविताएं लिखकर ‘खंड-खंड़ सर्जनात्मकता’ का प्रमाण दे रहे थे, मुक्तिबोध ने प्राय लंबी कविताएं लिखने का जोखिम उठाया.’’
अपनी डायरी में मुक्तिबोध ने लंबी कविता लिखने के कारण पर प्रकाश डालते हुए लिखते है कि ‘‘यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते है और पूरा यथार्थ गतीशील, इसलिए जब तक पूरे का पूरा यथार्थ अभिव्यक्त न हो जाए कविता अधूरी ही रहती है. मुक्तिबोध ने लगभग दौ सौ से अधिक कविताएं लिखी जिसमें ‘एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्मकथन, दिमागी गुहा, अंधकार का ओरांग-उटांग’ आदि कविताएं शमिल है. ‘एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्मकथन’ में मुक्तिबोध लिखते है- दुख तुम्हें भी है।
दुख मुझे भी है
हम एक ढहे हुए मकान के नीचे
दबे है.
चीख निकलना भी मुश्किल है
असंभव
हिलना भी
भयानक है बड़े-बड़े ढ़ेरों की
पहाड़ियों-नीचे दबे रहना और
महसूस करते जाना
पसली भी टूटी हुयी हडडी
भंयकर है ! छाती पर वजन टीलों
का रखे हुए
उपर के जड़ीभूत दबाव से दबा हुआ
अपना स्पंद
अनुभूत करते जाना
दौड़ती रूकती धुकधुकी
महसूस करते जाना भीषण है
भंयकर है !
वाह क्या तजुर्बा है !!
छाती में गडढ़ा है !!!
आलोचक मुक्तिबोध पर बर्गसां के संदेहवाद और फ्रायड की मनोग्रंथि का प्रभाव कहकर उनकी आलोचना करते रहे है जबकि मुक्तिबोध की रचनाओं से बर्गसां एवं फ्रायड के प्रभाव का कोई संकेत नहीं मिलता है. मुक्तिबोध का मानना था कि वर्तमान समय में रचनाकार के लिए विषय वस्तु की कमी नहीं इसलिए वे कहते है -
और मैं सोच रहा कि जीवन में आज के
लेखक की कठिनाई यह नहीं कि
कमी है विषयों की
वरन यह कि आधिक्य उनका ही
उसको सताता है
और वह ठीक चुनाव नहीं कर पाता है
उनकी कविता संग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ में उन्होंने समाज में व्याप्त बुराइयों, असंगतियों, विसंगतियों को कविता के माध्यम से कहा है, उनकी एक कविता -
पी गया आसमान
पी गया आसमान
अंधियाली सच्चाइयां घोंट के
मनुष्यों के मारने के खूब है ये टोटके
गगन में कर्फ्यू
धरती पर चारों ओर जहरीली छी: थू:
प्रसिद्ध कवि और समीक्षक अशोक बाजपेयी ने कहा है कि ‘‘मुक्तिबोध की कविता अपने समय के जीवित इतिहास है वैसे ही जैसे अपने समय में कबीर, तुलसी और निराला की कविता. हमारे समय का यथार्थ उनकी कविता में पूरे कलात्मक संतुलन के साथ मौजूद है. उनकी कल्पना बर्तमान से सीधे टकराती है जिसे हम फंतासी की शक्ल में देखते है. वे आज की तमाम अमानवीयता के विरूद्ध मनुष्य की अंतिम विजय का भरोसा दिलाती है.’’
मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ने से ऐसा महसूस होता है कि कवि के आवेग का ज्वार कविता में बहुत बार अंट नहीं पाता. श्रीकांत वर्मा ने काफी संगत टिप्पणी करते हुए कहा है कि ‘‘कविता में जो काम अधूरा रह गया उसे मुक्तिबोध डायरी में पूरा करने का प्रयास किया और डायरी में जो रह गया उसे शक्ल देने के लिए उन्होंने कहानी का माध्यम चुना, हालांकि ये तीनों ही विधाएं मुक्तिबोध के उस महानुभव की संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए जगह-जगह अपर्याप्त साबित हुयी है जिसे किसी युग का समग्र अनुभव कहा जा सकता है. मुक्तिबोध अकेले कलाकार है जिनके अनुभव का आवेग अभिव्यक्ति की क्षमता से इतना बड़ा था कि सारा साहित्य टूट गया.’’
मुक्तिबोध सामाजिक विसंगतियों, जीवन की अव्यवस्थाओं और विद्रुपताओं से मुठभेड़ करते हुए कहते है -
इसलिए कि इससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
राजीव आनंद
इन्डियन नेशन और
हिन्दुस्तान टाइम्स के
ज़रिये मीडिया क्षेत्र का लंबा अनुभव हैं।
परिकथा, रचनाकार डाट आर्ग, जनज्वार,
शुक्रवार, दैनिक भास्कर,
दैनिक जागरण, प्रभात वार्ता में
प्रकाशित हो चुके हैं।
वर्तमान में फारवर्ड प्रेस, दिल्ली से
मासिक हिन्दी-अंग्रेजी पत्रिका में गिरिडीह,
झारखंड़ से संवाददाता हैं।
इतिहास और
वकालात के विद्यार्थी रहे हैं।
सम्पर्क:-
प्रोफेसर कॉलोनी,गिरिडीह-815301
झारखंड़
ईमेल-rajivanand71@gmail.com,
मो. 09471765417
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(यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।इससे पहले के मासिक अंक अप्रैल और मई यहाँ क्लिक कर पढ़े जा हैं।आप सभी साथियों की तरफ से मिल रहे अबाध सहयोग के लिए शुक्रिया कहना बहुत छोटी बात होगी।-सम्पादक)
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