आलेख-मशीनीकरण के युग में कला / प्रवीण कुमार जोशी

        चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
              जून 2013 अंक 
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हमारे परिवेश की समस्त कलाओं को नए सन्दर्भों में देखने के लिए उन्हें बहुत हद तक आर्थिक पॉइंट ऑफ़ व्यू से भी देखने की ज़रूरत है। उसी तरह कलाओं के सृजन और संरक्षण में निरत कलावर्ग के सामाजिक जीवन पर हमें खुद को केन्द्रित कर पड़ताल करनी चाहिए। बस्सी काष्ठ कला वर्ग के ये समस्त कारीगर वक़्त के  साथ अब आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं।इनकी युवा पीढ़ी भी पूरे मन के साथ कला की बारीकियां सीख रही है।उन्हें इस कलाकारी की वैश्विक पहचान का आभास है।अरसे पहले से अब तक भले ये कला अपने धार्मिक प्रभाव के इर्दगिर्द ही बढ़ती रही मगर अब इसके चौतरफा उपयोग और आकर्षण से ये तमाम लोग वाकिफ हैं।

हमारा सामाजिक परिवेश सदियों से कला और संस्कृति से खुद को सरस और समृद्ध अनुभव करता रहा है।हमारी विरासत की समस्त शास्त्रीय और लोक कलाओं के साथ ही प्रादेशिक पृष्ठभूमि से जुड़ी परम्पराएं भी हमें अपने ढ़ंग से आकर्षित करती रही है। संस्कृति से जुडा ज्ञान और इसके प्रभाव से हमारी जीवन शैली में यथासमय आये सुखद परिणाम हमारे मन को भाते हैं। विश्व में अपने सांस्कृतिक और एतिहासिक गौरशाली अतीत के बूते परचम फहराते हिन्दुस्तान का ख़ास हिस्सा राजस्थान भी इसमें अपना अहम् रोल निभाता रहा है।दक्षिणी राजस्थान की रियासत मेवाड़ का बहुप्रसिद्ध स्थान बस्सी बहुत से मायनों में हमारी चर्चाओं के केंद्र में है। ये कस्बा चित्तौड़गढ़ जिले में चित्तौड़ से कोटा के रास्ते राष्ट्रीय राजमार्ग पर 24 किलोमीटर पर स्थित है।

लोकानुरंजन और आज के दौर में सजावट का प्रमुख केंद्र कावड़ जैसी कलाकृतियों के सहित,दैनिक जीवन और गृहस्थी के बहुत से साजो-सामान की निर्माण स्थली बस्सी सालों से चले आ रहे अपने परम्परा प्रधान काष्ठकला उद्योग के कारण आज विश्व फलक पर मान पा रही है। असल में यही वह मिट्टी है जहां सालों से बेवाण ,बाजोट,गणगौर और ईसर आदि कृतियाँ अपना आकार ले रही हैं। कभी सोचा ना था कि बस्सी के ये जांगिड़ -खैरादी जाति  के परिवार अपने शिल्प के ज़रिये देशभर में बस्सी को एक बड़ा मुकाम देंगे। भले कई बार ये हस्तशिल्प कला संक्रमण के दौर से गुज़रती रही मगर यहाँ के कारीगरों ने कभी होंसला नहीं छोड़ा। जहां से इस कला के हस्तकला पक्ष ने साथ छोड़ा वहीं से घरेलू किस्म की सामग्री के निर्माण से इन कारीगरों की आजीविका चलती रही।पीढ़ियों से चली आ रही अपनी कारीगरी को आगे बढ़ाने की ये हुनरमंदी इस तरह से हमारे समाज को यथासमय बहुत से नायाब कलाकृतियाँ देती रही है।वहीं हमेशा समाज और गाँव की ज़रूरत के मुताबिक़ ये लोग सुथारी काम करके समाज के एक ख़ास सेवक होने की अपनी भूमिका निभाते रहे।

बस्सी फोर्ट पेलेस के संचालक कर्नल रणधीर सिंह की माने तो साल 1574 में चुण्डावत राजपूतों के एक ठिकाने देवगढ़  मदारिया से एक परिवार बस्सी चला आया तभी से साथ ही तमाम सेवक जातियां भी यहाँ बसने लगी। बाद के सालों में नागौर से कुछ सुथार परिवार यहाँ आकर बसे तभी से ही ये कारीगरी सतत रूप से कला के इस गहरे रूप के साथ को खुद को कायम रखे हुए है। खासकर इस सुथार जाति के सभी परिवार तो खैर इस काम में जुटे हुए नहीं हैं। मगर फिर भी मशीनीकरण के इस युग में वर्तमान में सात-आठ परिवार आज भी लगन और परिश्रम से बस्सी काष्ठ कला के नाम को रोशन कर रहे हैं।किसी ज़माने में आसपास के निवासियों के लिए उपयोगी सामग्री बनाकर अपना गुज़ारा चलाने वाले ये कारीगर धीरे-धीरे देश-विदेश के मेहमानों और आर्ट गैलेरियों के संपर्क में आये। भले शुरुआत में बिचोलियों की गिरफ्त में फँसे ये लोग अपने काम का सही मौल नहीं पा सके हों मगर अब ये भी अपनी पढ़ाई लिखाई और बरसों के अनुभव के बाद ज़रूरत के मुताबिक़ होशियार हो चुके हैं।

जन कला साहित्य मंच,जयपुर के देवेन्द्र के अनुसार कभी सरकार ने इस इलाके में तीन वर्ष तक यहाँ हस्तशिल्प क्लस्टर के बहाने सहयोग दिया तो कभी उद्योग मेले के बहाने वे बस्सी से बाहर निकले। गौरतलब ये भी है कि यहाँ के कलाकारों ने कभी पश्चिमी क्षेत्र-सांस्कृतिक केंद्र,उदयपुर के निर्देशन में हवाला ग्राम ,शिल्पग्राम में काष्ठ कला का प्रशिक्षण भी दिया हैं।हस्तशिल्प को प्रोत्साहन के तौर पर वर्तमान में सरकारी स्तर पर यहाँ कोई भी बड़ी योजना संचालित नहीं है। इस कार्य में परिवार के लगभग सभी सदस्य अपना सहयोग देते हैं। खासकर महिलाएं और बच्चे भी। कुल मिलाकर कला के अस्तित्व को बनाए रखने वाले ये कारीगर बहुत से मायनों में इज्ज़त के हक़दार है।

अरावली की ही श्रेणियों में स्थित इस इलाके को बस्सी वन्य जीव अभ्यारण की वजह से भी ख्याति प्राप्त है।जो इस बस्ती से 6 किलो मीटर दूर लगभग 138 वर्ग किलो मीटर में स्थित है। साथ ही कहा जाता है कि मेवाड़ में तीन चीजें बड़ी लोकप्रिय हैं जैसे बिनोता की बावड़ी, अठाणा के महल और बस्सी का कुण्ड।तो यहाँ के कुण्ड का भी पुरातत्व के लिहाज से महत्व माना जाता है। वहीं सरकर के लेवल पर पर्यटन विभाग की ग्रामीण हेरिटेज को लेकर चलाई गयी तमाम योजनाओं के पॉइंट ऑफ़ व्यू से भी बस्सी की इस कला ने पर्यटकों का मन मोहा है। बड़ी तेजी से बदलते समय में भी काष्ठ कला के ये कारीगर इसलिए भी धन्यवाद के पात्र हैं कि  इन्होने अभी भी मशीनों से पर्याप्त दूरी बनाए रखी है और अपने काम में मौलिकता का टच देते रहे हैं।हालांकि जोधपुर और जयपुर के आसपास भारी मात्रा में फेक्टरियों में एक सरीखे खिलौने बनने  लगे हैं वो भी ज्यादा फिनिशिंग के साथ मगर यहाँ के बारीक और ओरिजनल काम की अपनी आभा है।

भले इन परिवारों के युवा सदस्य अब पढ़ने-लिखने की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं मगर फिर भी पुराने कारीगर अपनी साधारण तरीके से चलती ज़िंदगी में अपने पुरातन के साथ कायम हैं।जहां आज भी मेहनत,ईमानदारी , आस्था और कलाकारी उसी सटीक अंदाज़ में व्याप्त है। अफसोस एक सच यह भी है कि यहाँ के काम को विदेशों या आर्ट गैलेरियो तक अपनी पहुँच बनाने में आज भी यहाँ के कलाकारों को मध्यस्थ कारोबारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस कारोबार में वक़्त के साथ घटते परिवार इसी बात का संकेत है कि कला पोषक समाज ने करवट बदल ली है। इस हलके में सरकार के द्वारा भी अपने वित्तीय स्त्रोतों और संस्कृति पोलिसी  के तहत कुछ और ज़रूरी कदम उठाये जाने अपेक्षित लगते हैं। ग्लोबलाईजेशन के इस युग में जहां हर फाइन आर्ट में आधुनिकता ने स्थान लिया है वहीं  हस्तकलाओं से उपजे आईटम आस्था के स्थान पर सजावट का केंद्र होने लगे है।आम आदमी अपनी दैनिक ज़रूरत को पूरने के बाद कहीं जाकर इस तरफ सोच पाता है।इन सभी स्थितियों ने कमोबेश बस्सी काष्ठ कला को भी प्रभावित किया है।

बस्सी काष्ठ कला में निर्मित सामग्री के तौर पर तीन पक्ष प्रमुख है-कावड़ ,बेवाण और घरेलू सामग्री। कावड़  एक डिब्बाबंद आकृति है जो कुछ विशेष गीतों और संवादों के गायन के साथ एक-एक पट के रूप में खुलते हुए अपना महत्व स्पष्ट करती है। बीते दौर की बात छेड़े तो ये पूरी तरह से आस्था और धर्म से जुड़ा हुआ मामला है। कावड़िया भाट एक जाति है जो अपनी कावड़ लाल कपड़े में लपेट कर उसे घर-घर ले जाते हैं और उसे बांचते हुए घर बैठे गंगा आयी की तर्ज़ पर आस्थावादी लोगों को भगवान् के दर्शन कराते हैं।आमजन भेंट चढ़ाते हैं बस इसी तरह भाटों का गुज़ारा चलता है। एक तरफ कावड़  निर्माण से जांगिड़-खैरादी सुथारों का तो दूसरी तरफ कावड़  बांचने की इस परम्परा के बहाने कावड़िया भाटों का गुज़ारा। मेवाड़ में फड़ बंचवाने की तरह से ही ये परम्परा भी अपनी मनौतियाँ पूरी होने पर कावड़  बंचवाने के स्वरुप में सालों से कायम एक रिवाज़ है।वक़्त के साथ इस कला से जुड़े सभी वर्ग वो चाहे सुथार हो या फिर गायक जाति इस आर्थिक युग के प्रभाव और समीकरण समझने लगे हैं।

कावड़ में बहुत सी खिड़कियाँ/फाटकें होती है जो धीरे-धीरे खुलती है। वहीं सतरंगी तरीके से बनी चित्राकृतियां भी अपनी और हमारा  ध्यान आकर्षित करती है। वहीं धार्मिक पहलू की चर्चा करें तो यहाँ भगवान् विष्णु,राम और श्री कृष्ण की लीलाओं का चित्रण किया जाता है। कहीं लक्ष्मीजी विष्णु के चरणों में बिराजमान है तो कहीं ऋषी मुनियों के आश्रम आदि का अंकन।गऊ माता ,स्वर्ग-नरक और दान पेटी आदि का वर्णन अपने तरीके से व्याख्यायित करता हुआ कावड़िया भाट लोगों को ज्ञान धर्म ज्ञान बांटता है और यूँहीं संस्कृति के पालन-पोषण के साथ ही खुद का भी जीवन यापन करता है।असल में ये कथा पौराणिक रूप से श्रवण कुमार द्वारा अपने अंधे माता-पिता को तीर्थ कराने के सन्दर्भ में है जहां सफ़र में राजा दर्शारथ द्वारा शिकार के दौरान अनजाने में श्रवण कुमार की मृत्यू हो जाती है। राजा दशरथ को वे अंधे माता-पिता श्राप देते है। तभी से जो आदमी अपनी कम आमदनी और दूजी परिस्थितियों के कारण तीर्थ यात्रा नहीं कर पाते हैं वे कावड़ वाचन के ज़रिये अपनी  इच्छा  पूर्ति करते घर बैठे ही कर लेते हैं।
  
देवउठनी एकादशी से देवशयनी एकादशी तक ये कावड़  वाचन की रस्म की जाती है। समय की बात करें तो सवेरे से शुरू होने वाला ये वाचन गौधुली के बाद नहीं जारी नहीं रखा जाता है। जन आस्था के प्रतीक कावड़  में उसकी बनावट के साथ ही चित्रांकन भी दर्शनीय होता है। खासकर जब सारे रंग विशुद्ध रूप से प्राकृतिक हों। यहाँ बस्सी काष्ठ कला में उपयोग में लाये जाने वाले अधिकाँश रंग पत्थर आदि से ही बनाए जाते हैं।करोत,बसूली,आरी,हथौड़ी सरीखे देसी औज़ार से ही इनका काम शोभा पाता रहा है। एक कावड़  कितनों के तीर्थ करा देती है। बहुत गहरे अर्थों में ये हमारी संस्कृति का अमोल हिस्सा ही तो है।वैचारिक रूप से ये कावड़िया भाट आपसी समभाव के साथ सभी के हित कावड़  बांचते हैं। इस प्रक्रिया में जात-पात का कोई भेदभाव नहीं होता। एक तरीके से ये स्वचलित मंदिर है जो जजमानो के घर जाते हैं। वक़्त के साथ जहां शिक्षा के प्रभाव से आज का इंसान विज्ञान के प्रभाव में आया है तो परिणामवश इसी कावड़ को आस्था के बजाय एक कलाकृति के रूप में मान मिलने लगा है।बस्सी के कारीगर जहां कभी बारह इंच बड़ी कावड़  खासकर भाटों के लिए बनाते थे वे ही कारीगर अब पर्यटन और बाज़ारीकरण के लिहाज से कुछ छोटे आकार की कावड़ बनाने पर मज़बूर हैं।

भले कावड़ वाचन की वैसी परम्परा अब देखने को बहुत कम दृष्टिगत होती है मगर आज भी कमोबेश रूप में ये कला हमारे समाज में ज़िंदा है।बीते समय की बात करें तो वाचन के बाद भक्त जन भाट को धान,गेहूं आदि अनाज और कपड़े  दान देते थे। एक और ख़ास बात कि बहुत सी मर्तबा भाट जानबूझ कर ऐसे लोक देवी-देवताओं के चित्र कावड़  विशेष में चित्रित करवाते थे जिनकी लोक मानस या फिर उस जाति  विशेष में  मान्यता ज्यादा हो।पूरी तरीके से जजमानी प्रथा के मुताबिक़ संचालित इस परम्परा में भी कुछ जातियां जजमान का रोल अदा करती है जैसे माली, चौधरी, राजपूत, कुम्हार, जाट का ज़िक्र यहाँ किया जा सकता है।समय के साथ कम होते इस चलन के कारण भाट ढूंढना भी मुश्किल काम है।वैसे अधिकाँश भाट जोधपुर के इलाके में बस गए हैं।जजमानी प्रथा में भाटों का पूरा मान किया जाता है।शुरुआती स्वागत सत्कार से लेकर दान के रूप में कपड़े-लत्ते  के साथ आभूषण देने तक की रस्म में।

बस्सी के इन कारीगरों ने किस कदर हमारी विरासत को अपने हुनर से सींचा है शायद वे खुद भी इसकी खुशबू  से पूरी तरह वाकिफ ना हो। इन्ही कलाकारों की दूसरी कृतियों में लकड़ी के बेवाण हैं जिनमें भगवान् को बिठाकर जुलुस,सवारी,यात्रा निकाली जाती है। राजस्थान के मेवाड़ प्रांत में भगवान् कृष्ण के जन्मोत्सव के अठारह दिन बाद देवजुलनी एकादशी पर उन्हें बेवाण  में ले जाते हुए कहीं नदी,तालाब में स्नान कराया जाता है। ढ़ोल-नंगाडों और भजन-कीर्तन के साथ ये सवारी निकालने की परम्परा है। इन्ही बेवाणों का निर्माण हमारे बस्सी के कारीगर पुरे मनोयोग से करते रहे हैं। यहाँ के बने बेवाण बहुत दूर-दूर तक चर्चित हैं।विशेष मांग पर बेवाण  में चांदी और सोने का काम भी किया जाता है।निर्माण के साथ ही मरम्मत आदि का केंद्र भी बस्सी ही है।

बेवाण बनाने में कई तरह की लकड़ियाँ उपयोगी है जैसे चमेली,छाल,सेमल,नीम। इन बेवाणों की कीमत दो-तीन हजार से लेकर पचास हजार तक आंकी जा सकती है।जितनी बारीक कारीगरी और नक्काशी वाला काम होगा जाएगा कीमत उसी अनुपात में बढ़ती जायेगी। चित्रों के नाम पर पशु-पक्षी के अलावा बैल-बूटे  बनाए जाते हैं। यहाँ चित्रकारी में रंग ज्यादातर चमकीले ही काम में लिए जाते हैं। बारीक काम की इस यात्रा में बेवाण का प्रत्येक हिस्सा बहुत सी बार अलग-अलग रंगों के प्रभाव में आते हुए अपनी अंतिम चमक तक पहूंचता है। समय के साथ प्राकृतिक रंगों के स्थान पर केमिकल पेंट्स भी बाज़ार के बहुत बड़े हिस्से के साथ इस कला को भी घेर चुके हैं।गुम्बद और शिखर वाले ये बेवाण अपने आधार में चार से लेकर आठ स्तम्भ वाले होते हैं। लकड़ी के काम के बाद उन पर रंग-रोगन भी उतनी ही मेहनत माँगता है जितना आधारभूत निर्माण । यहाँ परिश्रम के साथ ही कल्पना का भी उतना अवदान झलकता है। 

फीचर लेखक नटवर त्रिपाठी के अनुसार सालभर काष्ठ कला के सभी उत्पाद बनते हैं मगर खासकर अनंत चतुर्दशी के बाद से यहाँ समग्र ध्यान बेवाण निर्माण पर केन्द्रित हो जाता है। बेवाण  के बहुत हिस्से होते हैं जिनमें से कुछ बैठका, मेहराब, अगाड़ा पम्बा, कंदडी की तार, विमान, आल्या, घोडली,  कंगूरे, शिखर हैं। निर्माण की इस प्रक्रिया में घर-गृहस्थी के काम से निबटने के बाद महिलाएं भी पूरी तरके से काम में जुट जाती है। महिलाएं विशेष रूप से रंग निर्माण में सर्वाधिक रूप से हिस्सा लेती हैं। इस तरह से इस कला के पोषण में समग्र परिवार का योगदान अंकित किया जाना चाहिए। सभी काम करने वाले उम्दा कलाकारों में सर्वश्री जमनालाल, द्वारकाप्रसाद , अवन्तिलाल, रामनिवास सहित बहुत से नाम हैं। जिन्होंने अपने कला कौशल के बूते बस्सी का नाम ऊंचा किया है।अभी तक इस कला यात्रा में काष्ठ कला के नाम पर केवल दो राज्य स्तरीय सम्मान दिए गए हैं। सम्मानित होने वाले कारीगरों में सत्यनारायण प्रसाद और द्वारकाप्रसाद हैं। वैसे चर्चा करें तो बेवाण  की कारीगरी में सर्वश्री बोतलाल, शंकरलाल, मदनलाल और रतनलाल ने एक मुकाम हासिल किया है। वहीं युवा पीढ़ी के नाम पर सूरजमल और माँगी लाल का ठीक-ठाक नाम है।


प्रवीण कुमार जोशी 
स्वतंत्र लेखन और अध्यापकी,
पोस्ट-पहुना,तहसील-राशमी 
ज़िला-चित्तौड़गढ़ (राजस्थान)
यदि हम इस कारीगरी के धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष को छोड़ भी तो इसके सबसे ज्यादा विस्तृत फलक वाले घरेलू सामग्री वाले पक्ष पर बात की जा सकती है।भले बस्सी काष्ठ कला के आधुनिक स्वरुप में ये देखा गया है कि कावड़  जैसा उत्पाद सदाबहार साबित हुआ है फिर भी मगर रोजमर्रा की ज़रूरत के मुताबिक़ लकड़ी के सामान भी बहुत बड़ी मात्रा में क्रय-विक्रय किये जाते हैं। बेलन, चकला, धोवणा, पटिया, बाजोट, खुरपी, फ्लावर पॉट, पेन स्टेंड जैसे घरेलू वस्तुओं के साथ ही  बच्चों की लेलगाड़ी , हाथी, घोड़े आदि खिलौने भी यहाँ प्रचुर मात्रा में बनाए जाते हैं। हालांकि कई बड़ी कंपनियों ने भी इस तरह के सामान बड़े स्तर पर बनाना शुरू कर इन कारीगरों पर कुठाराघात ही किया है।यथासम्भव ये कारीगर इन घरेलू सामानों को मेलों के ज़रिये भी ग्राहकों तक पहुँचाने की कोशिश करते हैं। अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ इसी इलाके के कई ग्रामीण इन परिवारों से अपनी सेवाएं लेते रहते हैं और सालाना रूप से चुकारा करते है। हर घर-परिवार की सबसे बड़ी ज़रूरतों में शामिल इन सामग्रियों की खरीदी के लिए आसपास के लोग इन्ही कारीगरों पर निर्भर रहते हैं। इसी तरह ईसर और गणगौर की मूर्तियाँ भी यहाँ प्रचलित है जिन्हें यहाँ के कारगर सालों से  बनाते रहे हैं। शादीब्याह के लिहाज से कलात्मक ढ़ंग से बने हुए बाजोट के उपयोग की भी परम्परा रही है। मध्यमवर्गीय परिवारों में होने वाले हर तरह के उत्सव और रस्मों में बाजोट की ज़रूरत रहती ही है।

भौतिकतावादी युग की इस दौड में जहां सबकुछ बाजारीकरण के प्रभाव में आ चुका है वहीं बस्सी क्षेत्र की ये कला भी भला कैसे अछूती रह सकती है। फिर भी एक आशा के सहारे यहाँ के कारीगर अपने काम में लगे हुए हैं।आज भी एक उम्मीद के सहारे ये जाति  अपने काम में लगी हुयी है कि बस्सी काष्ठ कला के हित हमेशा बाज़ार उपलब्ध रहेगा ही।समाज के हित भले समस्त आवश्यक सामग्री अब हमें प्लास्टिक की बनी उपलब्ध होने लगी है मगर फिर भी कुछ चीजें तो लकड़ी की ही जचती है यही इन कारीगरों के लिए एक तरह से आजीविका का सृजन करता है।

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