कहानी:मुख्यधारा / योगेश कानवा

जून 2013 अंक 
                             
 योगेश कानवा
कविता और कहानी में 
सधा हुआ हाथ है।
आकाशवाणी चित्तौड़गढ़ में 
कार्यक्रम अधिकारी है।
मूल रूप से जयपुर के हैं।
मेडिकल सेवाओं में रहने के बाद 
सालों से आकाशवाणी में हैं।
तीन पुस्तकें 
(हिंदी और राजस्थानी में 
एक-एक कविता संग्रह,
मीडिया पर एक सन्दर्भ पुस्तक )
प्रकाशित हैं।
कई रेडियो रूपक और फीचर के लेखन,
सम्पादन और निर्देशन 
का अनुभव है।
मो-09414665936
ई-मेल-kanava_0100@yahoo.co.in
ब्लॉग 
http://yogeshkanava.blogspot.in/
बहुत दिनों से संदेश कहीं जा नहीं पा रहा था। वो बस अपने ही कार्यालय की मारामारी में उलझ-सा गया था। संदेश जैसा घुम्मकड़ प्रवृति वाला व्यक्ति एक कुर्सी से बंधकर रह जाए तो उसके भीतर की कुलबुलाहट का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वो कई दिनों से इस कोलाहल से दूर निकलने का प्रयास कर रहा था किन्तु निकल ही नहीं पा रहा था। आज अचानक ही उसे एक निमंत्रण मिला, जहाँ पर एक संगोष्ठी थी बाजारवाद, मुख्यधारा और आम आदमी। 

पहले तो उसने सोचा क्या करूंगा वहाँ जाकर, वही भाषण, वही अलाप और वही लोग। जब लोगों के पास कुछ करने को नहीं होता है तो बस कुछ लोगों को इकट्ठा करो और उन पर अपनी बौद्धिक उल्टी कर दो। सुनने वालों को उस उल्टी में से बू आ रही है या ज्ञान मिल रहा है इससे उस उल्टी करने वाले का कोई सरोकार नहीं, बस उसे अपना हाजमा ठीक करना है। बस कुछ इसी तरह से वो सोच रहा था, जाऊँ या नहीं जाऊँ। कुछ अनमने से वो उठकर चल दिया। वहाँ पर बाज़ारवाद के पक्षकार अपने तरीके से समझा रहे थे, पूँजीवाद के गुणगान कर रहे थे, तो वहीं पर कुछ बचे खुचे तथाकथित सर्वहारा मार्क्सवादी उसका विरोध कर रहे थे। तभी मंच से उद्घोषणा हुई- 

और अब आपके सामने आ रहे है जाने माने पत्रकार, विचारक और प्रख्यात मीडियाकर्मी संदेश जी, अचानक ही उसके नाम की उद्घोषण सुन संदेश चौंक पड़ा, उसे नहीं मालुम था कि उसे इस तरह से मंच पर बुलाया जाएगा, और वो भी उससे बिना मशविरा किए, बड़े ही असमंजस में था संदेश। क्या बोले..........

खैर, वो धीरे से उठा और मंच पर रखे डायस के सामने जाकर खड़ा हो गया। यूँ खड़े देख सभी सोचने लगे, ये ख़ामोश क्यों खड़ा है। तभी संदेश बोला- आप सोच रहे होंगे कि मैं ख़मोश क्यों हूँ। मैं यह सोच रहा हूँ कि मैं यहाँ पर अपने हिसाब से सच बोलूं या फिर जो धारा बह रही है उसी का हिस्सा बन मुख्यधारा के साथ बहने वाला कहलाऊँ। वैसे निजी तौर पर मैं कभी भी भीड़ का हिस्सा नहीं बनता हूँ। हो सकता है आपको मेरे विचार अच्छे ना लगे क्योंकि मैं मुख्यधारा का पात्र नहीं हूँ। 

यह सुनकर सभी असमंजस में पड़ गए कि आख़िर यह संदेश कहना क्या चाहता है, सभी जानने को उत्सुक थे, तभी वो बोला- 

मुख्यधारा अपनी धारा बदलती रहती है, तुलसी बाबा ने भी कहा था- सबल को दौष नाही गुसाई, सदियों पहले जो मुख्यधारा थी वो आज दकियानुसी हो गई है- तब की मुख्यधारा से दूर त्रासद जीवन जीने को मज़बूर शुद्र, अछूत थे, उनको हक़ नहीं था, मुख्यधारा में आने का और आज, आज क्या है- जो मुख्यधारा सोचे वहीं सोचों। किसी को नहीं पता, आखिर वो सोच किसकी है, जिसकी धारा मे वो बह रहे है, बस एक भीड़ है, बहे जा रही है। आज किंग लियर की पंक्तिया सार्थक लगती है- 

पाप को सोने से मढ़ दो- न्याय की मज़बूत तलवार  इसे बिना क्षति पहुंचाए टूट जाती है और इसी पाप के चिथड़ो में लपेटो तो बौने का सरकण्डा भी इसे पूरी तरह से बंध जाएगा। 

यह कौनसी मुख्यधारा है, सोने की चमक के आगे तलवार बौनी है। यह अगर नृशंसता करे तो इसका वीरोंचित गुणगान करो। आज बाज़ारवाद मुख्यधारा बन रहा है इसकी त्रासदियाँ सोचो बाज़ारवादी व्यवस्था का यह अजगर आज समूचा ही मानव को निगल रहा है और वो खुद भी खुशी-खुशी उसके पेट में जाना चाहता है। फैसला आपके हाथ है, आप भीड़ का हिस्सा बनना चाहते है तो बनिए, वहाँ पर आराम है, न्यूनतम शक्ति व्यय किए ही भीड़ के धक्को के साथ आप बढ़ते रहेगें, उस अनजान डगर की तरफ जिसे भीड़ में से कोई भी नहीं जानता है।

आगे वो बिना कुछ बोले ही मंच से नीचे उतर आया, वापस आकर अपनी कुर्सी में बैठ गया। संगोष्ठी समाप्त हुई तो वो भी बस निकल ही रहा था तभी वहीं उद्घोषिका सामने आ गई, 

सर मैं निहारिका हूँ, आज पहली बार आपको सुना है, वाकई आप बहुत अच्छा बोलते है। मैं भी आपसे कुछ सीखना चाहती हूँ सर। 

वो बोला- 
पर मेरे पास सिखाने जैसा तो कुछ भी नहीं है। 

नहीं सर आज आपने मेरे विचारों की दिशा ही बदल दी है। मुझे थोड़ा सा समय दीजिए ना, मैं आपके साथ थोड़ी सी देर बैठ सकुं, प्लीज सर। 

संदेश बिना कुछ बोले खड़ा रहा, वो यह तय हीं नहीं कर पा रहा था कि इस कोमलांगी के साथ बैठ जाए या लौट जाए तभी वो एक बार फिर बोली- प्लीज सर बस थोड़ी ही देर, बस एक कप चाय, ठीक  है ना सर। 

ओ.के. चलिए, 

और फिर वो दोनों साथ हो लिए, पास ही एक रेस्तरा में बैठ चाय पीने लगे, निहारिका नॉन स्टॉप बोले जा रही थी। 

सर, इतनी सारी बाते आप कैसे कह लेते है, 

और संदेश बिना आत्ममुदित हुए बस उसे देखता रहा। चाय के खत्म होते ही संदेश सहज भाव से उठा और उससे विदा लेने लगा। 

तभी वो बोली- सर आपसे एक बात पूछनी है, एक सवाल मुझे कचोटता रहता है, रोज़ाना, कई दिनों से मैं परेशान हूँ। 

संदेश ज्यादा रूकने के मूड़ में नहीं था। उसने बस उसे टालने के लिए यूँ ही कह दिया- 

कल किसी समय मेरे पास आ जाना तभी बैठकर बाते करेंगे। आज ज़रा कुछ और काम निपटाने है। बस इतना कहकर संदेश वहाँ से चला गया। 

वो सोच रहा था चलो कुछ काम किया जाए। आज बिना वजह ही खूब समय जाया हो गया है।


संदेश भूल गया था कि कल उसने यूँ ही टालने के लिए ही उस लड़की को कल आने के लिए कह दिया था, उसे यह अन्दाज़ा हीं नहीं था कि वो लड़की आ ही जाएगी। उसके दरवाज़े पर दस्तक और दरवाज़े पर उसी लड़की- हाँ, निहारिका को देखा तो याद आया कि उसे मैने ही कहा था। 

वो बोला- अरे आप, चलिए आइए मैं कुछ काम से जा ही रहा था- सर, अगर आपको कोई काम है तो आप निकलइए ना, मैं यही इन्तज़ार कर लेती हूँ या आप कहें तो कल आ जाऊँगी। नहीं, आ गई हो तो बैठो, मैं थोड़ी देर से निकल जाऊँगा।...........हूँ  ........... क्या कहना चाह रही थी ? 

सर, आपने सुना ही होगा पिछले दिनों एक गुमनाम चित्रकार अपने शहर आया, मैं उससे मिलने चली गई थी, मेरे लाख मिन्नत करने पर भी वो कोई चित्र बनाने को तैयार नहीं था, बस एक ही बात कह रहा था- समाज के ठेकेदारों ने मेरे रंगों को छीन लिया है, मैं अब कोई तस्वीर नहीं बना सकता हूँ। मैंने उससे उसके जीवन के बारें में पूछा तो वो बोला- 

क्या करोगी जानकर, तुम रंगों, छन्दों में समाई सुन्दरता हो, तुमसे मेरे जीवन के कांटों का अहसास तोला नहीं लाएगा, जाओ, तुम अपने घर जाओ, मेरे साथ तुम्हें कोई देखेगा तो समाज का कोई ठेकेदार फिर उठा खड़ा होगा, फिर रंगों को मिट्टी में रौंदते हुए इस सुन्दरता पर ग्रहण लगा देगा और कला तार-तार होती आंसु बहाती रहेगी, जाओ मुझे कुछ नहीं कहना है।


सर, मैं बहुत विचलित हूँ कल आपकी बात सुनकर मुझे लगा, आप मुझे सही उत्तर दे सकते है। सर क्या वो चित्रकार मुख्यधारा के विपरीत जा रहा था। और यदि कोई मुख्यधारा जो चन्द ठेकेदार तय करते है इसी तरह से साथ ना चहने वालें का हश्र करती है तो क्या वो वाकई मुख्यधारा है। यह समाज को जोड़ने वाली है या सच्चाई की कमर तोड़ने वाली। आप ही बताइये ना सर......यह क्या है ?


संदेश मौन साधे उसके चेहरे को अपलक देखता रहा, मानो उसके चेहरे पर उभरे हर अक्स का अर्थ वो खोज रहा था, वो सोच रहा था, इसी लड़की के भीतर भी एक ज्वाला है, यही ज्वाला इसे जीवित रखेगी। वो धीरे से बोला- 

देखो तो भी वो चित्रकार था, वो सही मायने में आशिक़ था अपने फ़न का, दुनियाँ का कोई भी काम- आशिक़ी के बिना नहीं हो सकता है, एक जुनून चाहिए, और कला-कला तो जुनून ही मांगती है, सब कुछ भूलकर डूबना पड़ता है, तुम्हारे भीतर भी एक ज्वाला है, एक जुनून है, कुछ करने का, अपने भीतर इस आग को जलाए रखोगी तो कुछ कर जाओगी वरना उसी मुख्यधारा का हिस्सा बन बह जाओगी! अब तुम्हें तय करना है, जाना किधर है। सर.....मैं आपके साथ काम करना चाहती हूँ, कुछ सीखना चाहती हूँ, मुझे भी थोड़ा-सा बस आपका सहारा चाहिए।


संदेश आंख बंद कर अपने आपमें ही खो गया- कुछ नहीं बोला, बस उसकी आँखों ने एक नया सपना आकार लेते सामने ही देखा था।

(यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।इससे पहले के मासिक अंक अप्रैल और मई यहाँ क्लिक कर पढ़े जा हैं।आप सभी साथियों की तरफ से मिल रहे अबाध सहयोग के लिए शुक्रिया कहना बहुत छोटी बात होगी।-सम्पादक)

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