सम्पादकीय:करिए छिमा

जुलाई-2013 अंक 
साहित्यकार
गौरा पंत ‘शिवानी’
हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका शिवानी जी की एक मर्मस्पर्शी कहानी है- 'करिए छिमा' वैसे तो भिन्न सन्दर्भ में तुलसी बाबा ने लंका-काण्ड में  'करिए क्षमा' शब्द द्वय का प्रयोग किया है; लेकिन शिवानी जी की कहानी को केंद्र में रखकर कथन को विस्तार दूँ तो सबसे पहले  कुछ सवाल साहित्यिक बिरादरी से पूछने होंगे। क्या कारण है कि हमारी साहित्यिक बिरादरी ने लोकप्रियता को साहित्यिक अक्षमता का पर्याय मान लिया है ? ऐसा क्यों है कि अपठित अथवा अल्पपठित परन्तु साहित्यिक प्रबंधों में बहु उल्लेखित व्यक्तियों को महान साहित्यकार मान लिया जाता है; लेकिन लोकप्रियता के शिखर पर विराजित किसी उच्च स्तरीय साहित्यकार को कुंठित साहित्यिक समाज अस्पृश्य मान लेता है ? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि समग्र मूल्यांकन में इस बात की सुनियोजित उपेक्षा क्यों की जाती है कि जन-जन का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले  साहित्यकार असल में  जन-जन की तो छोड़िये निज-जन की दृष्टि से भी दूर होने के बावज़ूद स्वयं को अपने समय का प्रतिनिधि साहित्यकार कहने का दुस्साहसपूर्ण भ्रम पाले हुए हैं ?

                                     इन सवालों के साथ कुछ बातें  'करिए छिमा' की, कुछ बातें शिवानी जी की और कुछ पहाड़ की बातें भी करते चलें। कॉलेज के दिनों में पहाड़ों से मैं पहली बार रूबरू हुआ था। कुमाऊं के ब्राह्मण परिवार के एक विवाह समारोह में सम्मिलित होने हल्दवानी गया था और फ़िर वहां से एक लम्बी यात्रा का सिलसिला आगे बढ़ा था। चूँकि जोशी परिवार मेरे अपने परिवार की तरह ही है इसलिए हर्षिता दी की शादी में  पहाड़ की परम्पराओं को करीब से देखने का मौका मिला। लेकिन उस विवाह समारोह में और फिर उस यात्रा में मुझे बहुत कुछ चिर परिचित का-सा लगा और उसका कारण था उस यात्रा से कुछ समय पूर्व पढ़ी गयी शिवानी जी की कहानियाँ। उन्होंने जिस ढंग से पहाड़ और वहां के जीवन का वर्णन अपनी कहानियों में किया है वो किसी भी पाठक के मन में ऐसे चित्रित हो जाता है कि फ़िर वो सारा का सारा क्षेत्र लगभग  देखा-देखा सा लगता है। शिवानी जी के अत्यंत प्रभावी लेखन ने उन्हें प्रचुर यश और लोकप्रियता दिलवायी लेकिन हिंदी के हतभाग्य साहित्यिक समाज का आचरण उनके प्रति कभी भी बहुत उदार नहीं रहा। इसके मूल में वही कारण हैं जिनमें इस लेख के आरम्भ में पूछे गए मेरे सवालों के जवाब हैं।

                            अब कुछ बात 'करिए छिमा' की।एक अत्यंत मार्मिक कहानी जिसका सुदर्शन नायक राजनीति का कुशल खिलाड़ी है और पहाड़ पर विकास-यात्रा का पथ भी प्रशस्त करता है; लेकिन नायिका चरित्रहीनता के दाग लिए उन्मुक्त जीवन की अनुगामिनी है। पर इसी कहानी के अंत में नायिका के समक्ष नायक लगभग खलनायक-सा प्रतीत होता है।

                            पिछले दिनों जो आपदा पहाड़ पर आई उसने भी कई सुदर्शन चेहरे वाले नायकों का असली रूप दिखा दिया। राजनीति के खिलाड़ियों में पक्ष-विपक्ष दोनों सम्मिलित हैं और वैसे तो दिखावे के लिए ही उन्हें कुछ अलग दिखना चाहिए था पर विकास और विनाश के प्रश्न पर दोनों की निर्ल्लज एकता सारी  कलई खोल गयी। दोनों करते भी क्या? एक अभी-अभी सत्ता से बाहर हुए हैं लेकिन चल रहे विकास के सारे ठेके तो उनके ही दिए हुए हैं और दूसरे सत्ता में अभी-अभी आये हैं इसलिए विकास की सभी संभावनाओं में ही उनका उज्ज्वल भविष्य छुपा हुआ है। तो ऐसे में कौन किसके ख़िलाफ़ बोलता ? नूरा कुश्ती कुछ दिन होकर ख़त्म हो गयी और अब संभावनाओं में ही सब अपना-अपना हिस्सा तलाश रहें हैं। रही बात मंदिर की तो उस पर कब्जे के लिए दो शंकराचार्य आमने-सामने हैं। 

                           एक कहानी का नायक उसी कहानी की चरित्रहीन नायिका के समक्ष भी बौना सिद्ध होता है। असल ज़िन्दगी में राजनीति के नायक धनलोलुप खलनायक बन जाते  हैं और साहित्य में जन-जन की बात करने वाले मठाधीश किसी भी जनप्रिय साहित्यकार को बाहर बनाये रखने  के लिए किसी भी हद तक नीचे गिर जाते  हैं। ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या कोई रिश्ता है इन सब के बीच ?
                        
शिवानी जी का बचपन का फोटो 
कुछ सवालों के ठीक-ठीक जवाब नहीं मिलते पर कुछ सूत्र अवश्य मिल जाते हैं और ऐसा ही एक सूत्र है - दाव पर लगी हुई प्रकृति। जो शायद इन सभी सवालों और जवाबों के मध्य खड़ी है। वैसे प्रकृति तो एक ही सूत्र हैं लेकिन हमने तो शुभ के हर एक सूत्र को दाव पर लगाया है। सब कुछ दाव पर लगाने की हमारी आत्मघाती प्रवृति साधारण जन और विशिष्ट जन दोनों के मानस में इस तरह समायी है कि समाज के हर वर्ग और व्यक्ति के आचरण में दोहरा चरित्र ही पाथेय बन गया है। शायद इसी दोगलेपन के कारण इस दौर के साहित्यकारों ने यथार्थ के नाम पर पूर्ववर्ती बहुत कुछ नकारा। जैसे आधुनिक कविता के लिए उन्होंने छायावाद को नीचा दिखाया। यह कहकर कि यह लिजलिजा वायवीय  लेखन है। कितने आश्चर्य की बात है कि आज जिन साहित्यकारों की दुकानें जल-जंगल-ज़मीन के नाम पर चल रही हैं उन्होंने प्रकृति के मानवीकरण की कविता को साहित्य से बाहर करने के लिए अथक श्रम किया और अब वो उसी प्रकृति का रोना भी रो रहे हैं। वहीँ  दूसरी ओर विकास के गीत गाती नेता मंडली के सामने प्रकृति अपने उदात्त चरित्र को बदलकर भी उन्हें ही बौना सिद्ध कर रही  है। शेष बात रही कहानी की तो 'करिए छिमा' की अंतिम पंक्तियाँ लिखूं उससे पूर्व शिवानी जी से क्षमा याचना करते हुए उन्हें प्रणाम कर लूँ। क्योंकि साहित्य से जुड़ा होने के कारण लोकप्रियता और सस्ती जुगाड़ू लोकप्रियता के मध्य अंतर न समझ पाने वाली विवेकहीन साहित्यिक बिरादरी के समस्त दोषों का मैं भी हिस्सेदार हूँ। चाहे उसमें मेरी कोई भूमिका रही हो या न रही हो। शायद मुझे यह साहस भी शिवानी जी की कहानी ही दे रही है क्योंकि 'करिए छिमा' के अंत में नायक निभृत मंदिर में नायिका की कल्पना के साथ खड़ा है। उसके मन में न मोक्ष की आकांक्षा है न वैभव की। पंखी में लिपटा दीन- दरिद्र याचक बना नायक है और काला फटा लहंगा फटफटाती नायिका की कल्पना भी उसके साथ है। क्या यह ठीक नहीं होगा कि देवभूमि पर एक बार हम कम से कम यह कहने का साहस तो जुटा  लें कि हमारा किया न किया, हमारा कहा-अनकहा सब करना क्षमा .... शिवानी जी के शब्दों में कहें तो ............

कइया नी कइया , करिया नी करिया
करिए छिमा , छिमा मेरे परभू ........

अपनी माटी सम्पादक 
  अशोक जमनानी

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