जुलाई-2013 अंक
(एक सतत चिन्तनशील उत्साही युवा के रूप में त्रिपुरारि कुमार शर्मा को अपनी माटी के इस अंक में शामिल करने से हम सभी उत्साहित हैं। इस मित्र के लेखन में कविता करने का नया ढ़ंग है। नयी शब्दावली है। त्रिपुरारि कुमार में गहन अनुभूति का प्रबल सामर्थ्य है। साफ साफ दिखते दृश्य के उस पार तक देखने की दृष्टि भी इस युवा कवि में बखूबी देखी जा सकती है। आगे बढ़ने की सभी संभावनाओं के बीच इन पांच नज़्मों में ही त्रिपुरारि ने कई सारी नई उपमाओं से बिम्ब रचने की अपनी नवाचारी प्रक्रिया से हमें वाकिफ करवाया है।एक बार फिर स्वागत-सम्पादक)
चुप्पी
(एक सतत चिन्तनशील उत्साही युवा के रूप में त्रिपुरारि कुमार शर्मा को अपनी माटी के इस अंक में शामिल करने से हम सभी उत्साहित हैं। इस मित्र के लेखन में कविता करने का नया ढ़ंग है। नयी शब्दावली है। त्रिपुरारि कुमार में गहन अनुभूति का प्रबल सामर्थ्य है। साफ साफ दिखते दृश्य के उस पार तक देखने की दृष्टि भी इस युवा कवि में बखूबी देखी जा सकती है। आगे बढ़ने की सभी संभावनाओं के बीच इन पांच नज़्मों में ही त्रिपुरारि ने कई सारी नई उपमाओं से बिम्ब रचने की अपनी नवाचारी प्रक्रिया से हमें वाकिफ करवाया है।एक बार फिर स्वागत-सम्पादक)
चुप्पी
यतीम होंठों पर कोई चुप्पी सिसकती है
जैसे किसी ने गर्म सलाख़ों से
मेरी आवाज़ के बदन को दाग़ दिया है
और तंदूर में झोंकी गई है रूह
(हवाओं में जलते लहू की बू फैल गई है)
तंदूर से उठता है लाल धुआं
और धीरे-धीरे एक चेहरे में तब्दील हो जाता है
मैं कहता हूँ—
ये मरे हुए प्यार की ज़िंदा लाश है
मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि कह सकूँ—
वो चेहरा तुम्हारा है!
जैसे किसी ने गर्म सलाख़ों से
मेरी आवाज़ के बदन को दाग़ दिया है
और तंदूर में झोंकी गई है रूह
(हवाओं में जलते लहू की बू फैल गई है)
तंदूर से उठता है लाल धुआं
और धीरे-धीरे एक चेहरे में तब्दील हो जाता है
मैं कहता हूँ—
ये मरे हुए प्यार की ज़िंदा लाश है
मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि कह सकूँ—
वो चेहरा तुम्हारा है!
झुलस रहा है मेरे जिस्म का कोना-कोना
रूह में आग लग गई जैसे
कुछ दिनों से दिन-रात मेरी आँखों में
कोई तक़लीफ़ बह रह रही है धीरे-धीरे
सारे मरासिम पक रहे हैं अभी
मुझको इतनी-सी फ़िक्र रहती है
अलग न हो जाए हर्फ़ से कोई नुक़्ता
ख़त लिफाफे में गर रहे तो अच्छा है
रूह में आग लग गई जैसे
कुछ दिनों से दिन-रात मेरी आँखों में
कोई तक़लीफ़ बह रह रही है धीरे-धीरे
सारे मरासिम पक रहे हैं अभी
मुझको इतनी-सी फ़िक्र रहती है
अलग न हो जाए हर्फ़ से कोई नुक़्ता
ख़त लिफाफे में गर रहे तो अच्छा है
आँखों में पानी
तुम्हारी गीली-गीली स्याह-सी आँखों में
सफ़ेद नूर का सूखा हुआ छोटा-सा टुकड़ा
जैसे ‘नून’ के दामन में हल्का-सा नुक़्ता
और जब खुलती हैं पलकें
उस चिपके हुए धब्बे की जानिब
नज़र ज़ख़्मी हो जाती है बारहा मेरी
तुम रोने से बचती हो मेरे सामने अक्सर
मगर अश्क़ की ख़ुशबू पहचानता हूँ मैं
तुमसे कहीं ज़्यादा तुमको जानता हूँ मैं
कुछ और तो नहीं बस एक बात का हक़ है
उदास आँखों में पानी अजीब लगता है!
सफ़ेद नूर का सूखा हुआ छोटा-सा टुकड़ा
जैसे ‘नून’ के दामन में हल्का-सा नुक़्ता
और जब खुलती हैं पलकें
उस चिपके हुए धब्बे की जानिब
नज़र ज़ख़्मी हो जाती है बारहा मेरी
तुम रोने से बचती हो मेरे सामने अक्सर
मगर अश्क़ की ख़ुशबू पहचानता हूँ मैं
तुमसे कहीं ज़्यादा तुमको जानता हूँ मैं
कुछ और तो नहीं बस एक बात का हक़ है
उदास आँखों में पानी अजीब लगता है!
पहाड़ों में शाम
शाम कुछ इस तरह फ़लक में हुई है दाख़िल
जैसे मरते हुए शायर की आख़िरी हिचकी
लहू में भीगा हुआ है तमाम पैराहन
उफ़क़ के चेहरे पे नाखून के निशां हैं कई
हर एक सिम्त कोई सूर्ख़-सी उदासी है
और पहाड़ों का बदन यूँ पिघल रहा है अभी
जैसे तंदूर की भट्ठी में कोई रूह जले
और दरख़्त की फुनगी पे टंगा है सूरज
जैसे जीसस ही चढ़ गए हों फिर से सूली पर
और पीली पत्तियों से रिस रहा है अंधेरा
जैसे हर साँस टपकती है गले से मेरे
और ख़रगोश-सा इक चाँद अपने ही भीतर
जैसे आँखों को उठाता है फिर झुकाता है
हर एक सिम्त कोई सूर्ख़-सी उदासी है
ये उदासी मुझे गुमनाम कर के दम लेगी
ये उदासी तुझे बदनाम कर के दम लेगी
जैसे मरते हुए शायर की आख़िरी हिचकी
लहू में भीगा हुआ है तमाम पैराहन
उफ़क़ के चेहरे पे नाखून के निशां हैं कई
हर एक सिम्त कोई सूर्ख़-सी उदासी है
और पहाड़ों का बदन यूँ पिघल रहा है अभी
जैसे तंदूर की भट्ठी में कोई रूह जले
और दरख़्त की फुनगी पे टंगा है सूरज
जैसे जीसस ही चढ़ गए हों फिर से सूली पर
और पीली पत्तियों से रिस रहा है अंधेरा
जैसे हर साँस टपकती है गले से मेरे
और ख़रगोश-सा इक चाँद अपने ही भीतर
जैसे आँखों को उठाता है फिर झुकाता है
हर एक सिम्त कोई सूर्ख़-सी उदासी है
ये उदासी मुझे गुमनाम कर के दम लेगी
ये उदासी तुझे बदनाम कर के दम लेगी
मशवरा
नज़्म कहते हो तो कहो
मगर ये याद रहे
कि तुम कह रहे हो नज़्म ये जिसकी ख़ातिर
उसके आँसू की कोई बूँद न आने पाए
नज़्म गीली जो अगर हो गई किसी कारण
तुम्हारी आँख की पुतली से चिपक जाएगी
सूख जाएगी जैसे सूखे लहू का धब्बा
खुरच दो भी अगर दाग़ तो रह जाएगा
एक उँगली के इशारे से लोग पूछेंगे
तुम्हारे दाग़ में दुनिया किसी की देखेंगे
जो आँख मूँद भी लो फिर भी भीगी पलकों पर
एक टूटा हुआ चेहरा किसी का उभरेगा
तुम्हारी साँस के सीने पे पाँव रखेगा
तुम्हारी धड़कनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए
सफ़ेद ओस के टुकड़ों को भर के मुट्ठी में
चमकती चुप्पियों को चाँद में चुनवाएगा
कैसे देखोगे अपनी आह को तुम मरते हुए
अपनी आवाज़ को तुम किस तरह दफ़नाओगे
ऐसे हालात में एक नज़्म भी कह पाओगे
कि तुम कह रहे हो नज़्म ये जिसकी ख़ातिर
उसके आँसू की कोई बूँद न आने पाए
नज़्म गीली जो अगर हो गई किसी कारण
तुम्हारी आँख की पुतली से चिपक जाएगी
सूख जाएगी जैसे सूखे लहू का धब्बा
खुरच दो भी अगर दाग़ तो रह जाएगा
एक उँगली के इशारे से लोग पूछेंगे
तुम्हारे दाग़ में दुनिया किसी की देखेंगे
जो आँख मूँद भी लो फिर भी भीगी पलकों पर
एक टूटा हुआ चेहरा किसी का उभरेगा
तुम्हारी साँस के सीने पे पाँव रखेगा
तुम्हारी धड़कनों की धज्जियाँ उड़ाते हुए
सफ़ेद ओस के टुकड़ों को भर के मुट्ठी में
चमकती चुप्पियों को चाँद में चुनवाएगा
कैसे देखोगे अपनी आह को तुम मरते हुए
अपनी आवाज़ को तुम किस तरह दफ़नाओगे
ऐसे हालात में एक नज़्म भी कह पाओगे
त्रिपुरारि कुमार शर्मा |
एरौत (बिहार) में जन्मे त्रिपुरारि कुमार शर्मा एक कवि, लेखक, संपादक और
अनुवादक हैं। इन्होंने शिक्षा, रचनात्मक लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में सफलतापूर्वक कार्य किया है।
ये दिल्ली विश्वविद्यालय, इंडियन
अकादेमी ऑफ़ ड्रामैटिक आर्ट्स, दैनिक जागरण,
स्वाभिमान टाइम्स, हमवतन, अल्पेसो प्रोडक्शंस (फ्रांस), वेस्टलैंड बुक्स और नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया सहित कई
संस्थानों के साथ काम कर चुके हैं। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है
और फिलहाल, हिंदी फ़िल्मी
गीतों पर शोध कर रहे हैं।
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लेख, आदि
प्रकशित। ‘स्मृति में साथ’ नरेंद्र मोहन पर केंद्रित संस्मरण-संग्रह में एक लेख शामिल
है। पहला कविता-संग्रह ‘नींद की
नदी’ और कहानी की किताब प्रकाशनाधीन है। इन्होंने मर्लिन मुनरो, जेन ऑस्टेन, जेनिफर रीसर, केनेथ
पैटचेन, स्टीवन वान नेस्ट, नागार्जुन, हरिमोहन झा, आरसी
प्रसाद सिंह और राजकमल चौधरी की रचनाओं का हिंदी अनुवाद किया है।
त्रिपुरारि 'कहानी140' (ट्विटर कहानी लेखन प्रतियोगिता) के विजेताओं में से एक हैं, जो जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल 2013 के दौरान यात्रा-वेस्टलैंड बुक्स द्वारा आयोजित किया गया था। इन्हें श्री
गुरु तेग़ बहादुर खालसा कॉलेज, दिल्ली यूनिवर्सिटी में लगातार दो वर्षों (2007-09) तक बेस्ट ऑल राउंडर स्टूडेंट (हिन्दी) का सम्मान मिला है।
इसके अलावा, इंटर-कॉलेज और
इंटर-यूनिवर्सिटी स्तर पर दर्जनों पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किया है, जिसमें कविता, वाद-विवाद, शीर्षक, रचनात्मक लेखन आदि शामिल हैं।त्रिपुरारि, ‘बीइंगपोएट
फाउंडेशन’ के संस्थापक
हैं। इस समय यात्रा बुक्स, दिल्ली
के साथ कार्यरत हैं।
बहुत ही सुंदर और उत्कृष्ट कवितायेँ है ,शुभकामनायें |
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