जुलाई-2013 अंक
ग़ज़ल
सोहन सलिल
ग़ज़ल
हम यूँ तेरे आस्तां से उठे
जैसे कोई इस जहाँ से उठे
बिखरे तो हैं नफरतों के शरर
अब आग जाने कहाँ से उठे
अश्कों की बारिश बचाये रखो
शायद धुंआ इस मकां से उठे
हल ज़िन्दगी के सवालात का
अब तो मेरी दास्ताँ से उठे
ये सोच कर सचबयानी न की
बलवा न मेरे बयाँ से उठे
रहबर है गद्दार तो फिर सलिल
ये बात कुल कारवाँ से उठे
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साउथ सिविल लाइन्स,जबलपुर,मध्य प्रदेश
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