कविताएँ:प्रांजल धर

अगस्त-2013 अंक 


प्रांजल धर
2710, भूतल,
डॉमुखर्जी नगर,
दिल्ली– 110009,
मो– 09990665881,
ईमेल–pranjaldhar@gmail.com 
युवा कवि प्रांजल धर ने पिछले कई सालोंसे अपनी सतत और सार्थक सक्रियता से ध्यान आकृष्ट कियाहै।'जनसत्ता' में 26 अगस्त 2012 को प्रकाशित उनकी कविता " कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं" सचमुच भयानक खबर की कविता है। यह कविता अपने नियंत्रित विन्यास में उस बेबसी को रेखांकित करती है, जो हमारे सामाजिक-राजनैतिक जीवन को ही नहीं, हमारी भाषा और चेतना को भी आच्छादित करती जा रही है।लोकतंत्र एक औपचारिक ढांचे मात्र में बदलता जा रहाहै।स्वतंत्रता और न्याय जैसे मूल्यवान शब्दों का अर्थ ही उलटता दिख रहा है।नैतिक बोध खोज की जगह सुविधा जीविता ने ले ली है। इस सर्वव्यापक नैतिक क्षरण को प्रांजल धर बहुत गहरे विडंबना-बोध के साथ इस सधे हुए विन्यास वाली कविता में मार्मिक ढंग से ले आते हैं। निश्चयात्मक नैतिक दर्शन से वंचित इस समय का बखान करती इस कविता में 'अनुमान' शब्द ज्ञान मीमांसा के अनुमान का नहीं, स़ट्टेबाजी के 'स्पेकुलेशन' का वाचक बन जाता है, और आत्महत्या का 'पाप' बुनकरों तथा किसानों की विवशता का।जिस समय में कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं रहा, उस समय के स्वभाव को इतने कलात्मक ढंग से उजागर करने वाली यह कविता निश्चय ही 2012 के भारतभूषण अग्रवाल सम्मान के योग्य है।-डॉ.पुरुषोत्तम अग्रवाल


पुरस्कृत कविता
कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं

इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब
इसलिए उतना ही देखो, जितना दिखाई दे पहली बार में,
हर दूसरी कोशिश आत्महत्या का सुनहरा आमन्त्रण है
और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे-फूटे शब्दों में ज़रूर बता सकते हैं शायद।

मतदान के अधिकार और राजनीतिक लोकतन्त्र के सँकरे
तंग गलियारों से गुज़रकर स्वतन्त्रता की देवी
आज माफ़ियाओं के सिरहाने बैठ गयी है स्थिरचित्त,
न्याय की देवी तो बहुत पहले से विवश है
आँखों पर गहरे एक रंग की पट्टी को बाँधकर बुरी तरह...

बहरहाल दुनिया के बड़े काम आज अनुमानों पर चलते हैं,
- क्रिकेट की मैच-फ़िक्सिंग हो या शेयर बाज़ार के सटोरिये
अनुमान निश्चयात्मकता के ठोस दर्शन से हीन होता है
इसीलिए आपने जो सुना, सम्भव है वह बोला ही न गया हो
और आप जो बोलते हैं, उसके सुने जाने की उम्मीद बहुत कम है...

सुरक्षित संवाद वही हैं जो द्वि-अर्थी हों ताकि
बाद में आपसे कहा जा सके कि मेरा तो मतलब यह था ही नहीं
भ्रान्ति और भ्रम के बीच सन्देह की सँकरी लकीरें रेंगती हैं
इसीलिए
सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब !
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यही दीवाली

कुछ लोग इसी दीवाली में
उस बस्ती के बाशिन्दे हैं,
जहाँ दर्द की सीमा चुकती है
और पाँव ठिठक रुक जाते हैं,
जब दीपक सबके जलते हों,
दीपक उनके बुझ जाते हैं।

उनकी पीड़ा का बोध उन्हें
कितना खाली कर जाता है !
सब खुशियाँ मानो लुटी हुईं,
उजड़ा जीवन चिल्लाता है।

कविता की सीमा !
बाँध सकी कब भीतर उठती चीखों को,
जो दिये बेचते रहते हैं
उन बच्चों की बदहाली को ?
सारी उदास ये कविताएँ
कितनी अक्षम हो जाती हैं,
देख वंचना की दुनिया
बगिया के उजड़े माली को !

रोशन करते वे जगप्रकाश
पर दिये बेचते बच्चे ये,
अन्दर से कितने हैं निराश;
नयनों की उनकी कातरता -
कितनी आहत यह मानवता
सब इसी सृष्टि की रेखा है...
निर्धनों के गहरे घावों को
कब किस कविता ने देखा है !

बाबू-बाबू चिल्लाते हैं,
ये बच्चे कितने संकोची;
सब व्यथा हृदय की सहते हैं
है लोकतन्त्र यह प्रगतिशील
ये राम भरोसे रहते हैं।

रस, छन्द, बिम्ब क्या बाँधेंगे
जीवन की इस परिभाषा को,
ढहते जीवन की ढही हुई
इस अन्तिम घोर निराशा को ?
यह जगत प्रलय का आँगन है,
बस इतना-सा अनुभव उनका
जिसका उनको अन्दाज़ा है,
इस सकल विश्व की निर्धनता ही
सबसे गहरे पड़ोसी हैं
सारे कष्टों के लिए सदा ही
खुला यहाँ दरवाजा है !

वही शाश्वत चिन्ता इनकी
सतत धार ज्यों बहते जल की
आँखों से निकलकर चलती है;
परसों की दो सूखी रोटी
ये दीवाली पर खाते हैं
बस इतनी इनकी गलती है।

चीथड़े बदन पर फटेहाल
दिन, माह, वर्ष और कई साल
चिथड़ों में लिपटा जीवन यह
चिथड़े इनकी खुशहाली हैं
ये चिथड़े इनकी होली हैं
ये चिथड़े ही दीवाली हैं।
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छोटी झील

एक छोटी एशियाई झील
पसरीं जिसमें अभावों की घनी जलकुम्भियाँ
मल्लाहों के झुण्ड
निरन्तर कर्मशील,
दो वक्त की रोटी फिर भी कई मील !
यह छोटी-सी झील
समन्दर है ख़तरों का
तैरते मासूम पक्षियों के लिए
बतखों के लिए,
अनजान मछलियों के लिए।
और मल्लाहों के लिए तो
किल मी क्विक* का देशी रूपान्तर है !
क्योंकि अब बनेगा झील की जगह
एक सुन्दर सॉफ़्टवेयर पार्क;
कुन्द कर डालेंगी घरघराती मशीनें
श्रवण शक्ति की कोमलता को।
आज जिस मौन को
सुनता-समझता है, झील-तन्त्र यह
कल उस मौन को नहीं सुन पाएगा।
समझ नहीं पाएगा।
मौन की लकीरें ही ध्वनियों का वजूद हैं
पर अफ़सोस
कि चोट खाती ऐसी तमाम छोटी झीलें
भारत समेत पूरी दुनियाँ में मौजूद हैं।

(* किल मी क्विक गरीबों की मुसीबतों का चित्रण करने वाले प्रसिद्ध कीनियाई लेखक मेजा मवांगी का एक जाना-माना उपन्यास है।)
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पहला आदमी नहीं वह

पहली हार...
जन्म लेते ही मिली थी
पहला काम रोना,
रोते-रोते सोना।
परिवार वालों ने कहा था
यह शिशु का ब्रह्मसाक्षात्कार है,
ज्योतिषी ने विचारा
इस पर किसी का
पिछले कुछ जनमों का काफी उधार है,
इसीलिए दुःख भरी मानव-जाति में
इसका अवतरण हुआ है।
पहली कक्षा,
स्कूल जाने का मन नहीं हुआ,
स्कूल का पहला दिन
शाश्वत अज्ञानता का खण्डित प्रारम्भ था।
पहला प्यार,
जिसका वह इजहार तक न कर सका,
रुकते-रुकते चला और चलते-चलते रुका !
पहला प्यार भी दूसरी पहली चीज़ों-सा
हाथ से निकल गया
लीक से फिसल गया...
भटकता रहा वह।
पहली प्रेमिका
जिसके पहले ही ख़त में धोखा था
बहुतों ने समझाया
और मित्रों ने रोका था
समझकर कदम बढ़ाना
फूँक-फूँक चलना और जाने क्या-क्या निर्देश !
पहली कविता,
जो उसने स्नेहस्निग्ध विरह में डूबकर लिखी,
खो गयी कहीं, पता नहीं उसका।
पहला वादा,
जिसे अपनी मामूली ज़िन्दगी में
वह कभी पूरा न कर सका।
यह बात हमेशा उसे सालती रही,
निरर्थकता-बोध के कड़े साँचे में ढालती रही।
पहला सिद्धान्त,
जिसमें वह डूबा, ज़िन्दा रहने की ज़िद थी।
पहला बेटा,
जिसने उसकी बात कभी न मानी।
कॉरपोरेटीय आकांक्षाओं में डूबता-उतराता रहा,
पिता को धता बताता रहा।
पहला समर्पण,
जो उसने हालात के आगे किया,
ज़िन्दगी भर मर-मर कर जिया।
जीता रहा
और ज़िन्दगी जितनी लम्बी
निराशा का घूँट पीता रहा।
फिर भी, वह जानता है
कि पहला आदमी नहीं वह
जिसने यह दंश झेला है
ज़िन्दगी ने उसे फुटबाल की तरह खेला है।
और भी हैं,
जो उससे ज्यादा त्रस्त हैं, फिर भी मस्त हैं !
यही सन्तोष लिए वह
मेट्रो सिटी में रिक्शा खींचता रहता है,
खींचता रहता है आत्मीयता से।
और रिक्शा उसे बेदर्दी से खींचता रहता है।
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मुफ़लिसी

यह उनकी मुफ़लिसी का ताज़ा व्याकरण है
कि उनके
एअर कण्डीशनर का स्विच ख़राब हो गया है
और मजबूरी में वे
जेठ की तपती दुपहरी में
महज कूलर के भरोसे ही सोते हैं।
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1 टिप्पणियाँ

  1. धनंजय कुमारअगस्त 27, 2013 1:45 pm

    प्रांजल भाई की नज़रें उन सबकोदेखती हैं जिनको हम देख कर भी अनदेखा कर देते हैं और केवल देखती ही नहीं बल्कि थोडा ठहर कर उनसे हार्दिक संवाद भी करती हैं और अपनी टीस को कभी सीधे सीधे कभी व्यंग्य के आवरण में व्यक्त करती हैं ।

    धनंजय कुमार
    सी-60,रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास
    उल्टाडांगा,कोलकाता-67

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