साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
सितम्बर अंक,2013
आलेख:शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के लेखन में देश की मिट्टी की सुगंध आती है/ कुमार कृष्णन
|
कीर्तिमान और कालजयी ये दो ऐसे अभियान हैं जो साहित्य जगत में अपना विशेष महत्व रखते हैं, जो हर काल, हर परिस्थिति में जीवंतता से जुड़ा होता है, प्रासंगिक होता है और प्रेरणा श्रोत बनकर दिशाबोध करता है। सामान्य के बीच जन्मकर असामान्य बनकर कुछ ऐसा उभरकर सामने आता है, जो शिखर पर पहुंच जाता है, ‘मील का पत्थर’ बन जाता है। सम्पूर्ण सृष्टि उनके लिए कटुम्ब बन जाती है। ‘वसुधैव कटुम्बकम’ की भावना यहीं से जन्म लेती है और इसी से उनके विराट व्यक्तित्व का सृजन और श्रृंगार होता है। साहित्याकाश में शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय ऐसे लोकप्रिय उपन्यासकार हुए, जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे अर्थों में अखिल भारतीय हो गए। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिन्दी में तथा गुजराती , मलयालम तथा अन्य भाषाओं में मिली।
साहित्य के क्षेत्र में यर्थाथवादी दृष्टिकोण को लेकर उतरे शरतचन्द के लेखन में देश की मिट्टी की सुगंध आती है, उनकी कथाओं तथा उपन्यासों का हर पात्र जमीन से जुड़ाव रखता है। उनके लेखन में एक ओर जहां रूढ़ीवादी समाज की नासमझी तथा क्रूरता का चित्रण मिलता है, वहीं दूसरी ओर उनके नारी पात्र अपमानित, पीड़ित तथा लांक्षित प्रतीत होते हैं नारी वर्ग के प्रति उनके मन में गहरी संवेदना थी और इसके प्रति वे विशेष संवेदनशील रहे। एक विद्वान ने बहुत हद तक सही कहा है - ‘‘वर्तमान की वीणा के हजारों सुरों में जो सुर चिरकाल का है, जिसने उस सुर को वीणा की तारों में गुंजा लिया, उसको कालहरण नहीं कर सका है। जिस शिल्पी के उच्चतम जीवन दर्शन है, जिसने समुद्र के अमृत -गरल दोनों को पिया है, वहीं नीलकंठ साहित्यिक मानवचित को करूणाविलगित करने में सफल हुआ है, शरत्चन्द्र वैसे ही नीलकंठों में अन्यतम हैं।
शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जिला के छोटे से गांव देवानंदपुर में 15 सितम्बर 1876 ई0 तदनुसार 31 भाद्र 1283 बंगाब्द, आश्विन कृष्णा द्वादशी, सम्वत् 1933, एकाब्द 1798 को हुआ था। वे अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे। जिस दौर में शरत्चन्द्र का जन्म हुआ, वह जागृति और प्रगति का काल था। स्वाधीनता के प्रथम संग्राम 1857 की नाकामयावी और ब्रिटिश हुकूमत के दमन के कारण तूफान के कवल शांति का माहौल का काल था। क्रांति का स्वर फूटने लगा था साहित्य के इस स्वर की प्रथम अभिव्यक्ति हुई बंकिमचन्द के ‘आनंदमठ’ उपन्यास से। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में सारा देश सामाजिक क्रांति की पुकार से गूंज उठा।
पांच वर्ष की उम्र में ही देवानंदपुर के प्यारी पंडित की पाठशाला में दाखिल कराया। भागलपुर में शरतचन्द्र का ननिहाल था। नाना केदारनाथ गांगुली का आदमपुर में अपना मकान था और उनके परिवार की गिनती खाते पीते परिवार सभ्रांत बंगाली परिवार के रूप में होती थी, पिता मोती लाल वेफिक्र स्वभाव के थे और किसी नौकरी में टिक पाना उनके वश की बात की बात नहीं था परिणाम स्वरूप गरीबी के गर्त में चला गया और उन्हें बाल बच्चों के साथ देवानंदपुर छोड ़कर भागलपुर अपने ससुराल में रहना पड़ा। इस कारण उनका बचपन भागलपुर में गुजरा और पढ़ाई लिखाई भी यहीं हुई।
गरीबी और अभाव में पलने के बावजूद शरत् दिल के आला और स्वभाव के नटखट थे। वे अपने हम उम्र मामाओं और बाल सरणाओं के साथ खूब शराराते किया करते थे। कथाशिल्पी शरत् ंके प्रसिद्ध पात्र देवदास, श्रीकांत, सत्यसाची, दुर्दान्त राम आदि के चरित्र को झांके तो उनके बचपन की शरारतें और सभी साथियों की सहज दिख जायगी।
सन् 1883 में शरत्चन्द्र का दाखिला भागलपुर दुर्गाचरण एम0ई0 स्कूल की छात्रवृति क्लास में कराया गया। नाना केदारनाथ गांगुली इस विद्यालय के मंत्री थे। अब तक उसने वोधोदय ही पढा था, लेकिन यहां पढ़ना पड़ा। सीता बनवास ‘चारू पाठ’, ‘सद्भाव सद्गुरू’ और ‘प्रकांड व्याकरण’, नाना कई भाई थे और संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे। इसलिए मामा तथा मौसियों की संख्या काफी थी। छोटे नाना अघोरनाथ गांगुली का बेटा मणिन्द्रनाथ उनका सहपाठी था। छात्रवृति की परीक्षा पास करने के बाद अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुए, उनकी प्रतिभा उत्तरोत्तर विकसित होती गयी।
गांगुली परिवार में पतंग उड़ाना आदि वर्णित था, लेकिन शरत्चन्द्र को पतंग उड़ाना, लट्टू घुमाना कांच गोली तथा गुल्ली डंडा जैसे खेल प्रिय थे। मामा सुरेन्द्र नाथ से सबसे अधिक पटती थी। मकान के उत्तर में गंगा बहती थी। गंगा के दृश्यों को किनारे बैठकर निहारना, क्रीडाएं करना दिनचर्या का एक अंग बन गया था। स्कूल के पुस्तकालय में उस युग के सभी प्रसिद्ध लेखकों की रचना पढ़ डाली। हर वस्तु को काफी करीब से देखते थे।
आदर्शवादी गांगुली परिवार में केदारनाथ के चौथे भाई अमरनाथ गांगुली ऐसे व्यक्ति थे, जो नवयुग से प्रभावित थे। बंकिमचन्द्र बनर्जी के ‘बंग-दर्शन’ का प्रवेश इन्हीं के द्वारा गांगुली परिवार में हो सका। ‘बंग-दर्शन’ बंगला साहित्य में नवयुग का सूचक था। नवयुग के संदेशवाहक होने के कारण कट्टर परिवार में उनके प्रति अप्रतिष्ठा थी। अमरनाथ चोरी छिपे ‘बंग-दर्शन’ लाते थे, उनसे भुवनमोहनी के द्वारा मोतीलाल के पास पहुंचता था ओर वहां से कुसुम कामिनी की बैठक में। कुसुमकामिनी सबसे छोटे नाना, अघोरनाथ की पत्नी थी। छात्रवृति पास करके स्वयं उन्होंने ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के हाथों पुरस्कार पाया था। जिस दिन रसोई की बारी नहीं रहती उस दिन उपरी छत या बैठक खाने में होने वाली साहित्यिक गोष्ठी में वे स्वयं ‘बंग-दर्शन’ के अतिरिक्त ‘मृणालिनी’ ‘बीरांगना’, वृजांगना, ‘मेघनाथ बध’ नील दर्पण स्वयं सुनाती थी। इस गोष्ठी में शरत्चन्द्र ने साहित्य का पहला पाठ पढ़ा था।। ‘बंग-दर्शन’ में कवि गुरू भी युगान्तकारी रचना ‘आंख की किरकिरी’ पढ़कर उनके मन में गहरे आनंद की अनुभूति हुई। इस तरह अपराजेय कथाशिल्पी शरतद्चन्द्र के निर्माण में कुसुमकामिनी का जो योगदान है, उसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। पारिवारिक स्थितियां ऐसी हो गयी कि तीन वर्ष नाना के घर में रहने के बाद शरत्चन्द्र को पुनः देवानंदपुर लोटना पड़ा और वहां हुगली ब्रांच स्कूल में दाखिला लिया, दो कोस चलकर स्कूल का सफर तय करना पड़ता था। गरीबी इतनी थी कि आसानी से फीस का जुगाड़ भी मुश्किल था। इतनी थी कि आसानी से फीस का जुगाड़ भी मुश्किल था। आभूषण बेच देने तथा मकान गिरवी रख देने पर भी वह अभाव नहीं मिट पाया। बावजूद इसके किसी तरह प्रथम श्रेणी तक पहुं्रच पाए। पिता का ऋण बहुत बढ़ गया था। फीस का प्रबंध न होने के कारण विद्या पीछे छूट गयी ओर श्ज्ञरारती बालकों का सरदार बन गए। कथा गढ़कर सुनाने की उसकी जन्मजात प्रतिभा पल्लवित हो रही और आगे चलकर साहित्य सृजन के आधार बने। कहानी लिखने की प्रेरणा उन्हें एक और मार्ग से मिली पिता की टूटी आलमारी खोलकर चुपके से हरिदास की गुप्त बातें और भवानीपाक जैसी पुस्तकें पढ़ डाली, यहां उसे मिली आधी-अधूरी कहानियां।
दुख-दारिद्रय के कारण देवानंदपुर में रहना मुश्किल हो गया था, इसलिए वे 1891 में माता-पिता के साथ भागलपुर लौट गए। स्कूल में प्रवेश पाना कठिन था, क्योंकि देवानंदपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के पैसे नहीं थे। टी0 एन.बी0 कॉलेजिएट स्कूल के प्रधानाध्यापक चारूचन्द्र वसु की कृपा से दाखिला मिल गया और यहां से 1894 में प्रवेशिका पास की। एफ0 ए0 की परीक्षा धनाभाव के कारण देने से बंचित रहे। संथाल परगणन में सर्वे सेटेलमेंट का काम चल रहा था। उन दिनों बनेैली स्टेट के हित की देखभाल के लिए कर्मचारी के रूप में नियुक्त किए गये।
जिस दौर में शरत्चन्द्र भागलपुर में थे, वह जागृति तथा प्रगति का काल था, नवोत्थान की लहर थी। वंग समाज अंधविश्वास और कुसंस्कारों से घिरा था। भागलपुर के प्रवासी बंगाली बिहार के अन्य हिस्सों के गंगालियों की अपेक्षा ज्यादा कट्टर थे और इसका नेतृत्व करते थे शरत्चन्द्र के नाना केदारनाथ मंगोपाध्याय इन्हें शास्त्रसम्मत विचार प्रिय थे। तो दूसरी ओर कट्टर पंथी लोगों के विरोध में राजा शिवचन्द्र वन्दोपाध्याय बहादुर। तीक्ष्ण बृद्धि ओर अध्यवसाय के वूते की उपाधि पायी। इनके बारे में एक कहावत है कि ‘राज न पाट शिवचन्द्र राजा, ढोल न ढाक अंग्रेजी बाजा।’ यूरोप से लौटने के बाद बंगाली समाज ने इन्हें वहिष्कृत कर दिया था। गांगुली परिवार के युवकों, किशोरों को जाने की मनाही थी। गांगुली परिवार का शासन इन्हें बांधकर नहीं रख सका। वांसुरी, बेहाला, हारमोनियम और तबला आदि बजाना तो आता ही था, वे इस मंडली में शामिल हो गए। नई सभ्यता के प्रसार के साथ भागलुपर में बंगाली समाज में थियेटर का उदय हुआ।। शरतचन्द्र के प्रयासों से एक नए थियेटर का जन्म हुआ, जिसका नाम आदमपुर क्लब रखा गया। राजा शिवचन्द्र वनर्जी के पुत्र सतीशचन्द्र इस दल के प्राण थे। बंकिमचन्द्र वनर्जी का ‘मृणालिनी’ का मंचन किया गया, जिसमें मृणालिनी की भूमिका शरत्चन्द्र ने अदा की थी। शरतद् ने ‘चिंतामणि’ और जनां में भी भूमिका अदा की थी।
उन दिनों अंग्रेजियत हावी थी। वे न तो अंग्रेजी में पत्र लिखते और न ही किसी परिचित को प्रेरणा देते हैं एक मासिक हस्तलिखित पत्रिका ‘शिशु’ का प्रकाशन हुआ और संपादक थे मामा गिरिन्द्रनाथ। साहित्य साधना मात्र उन्हीं तक सीमित नहीं थी। भागलपुर में 4 अगस्त 1900 में ‘साहित्य गोष्ठी’ की स्थापना की। इसके प्रणेता वे स्वयं थे और उसके प्रमुख सदस्यों में थे मामा सुरेन्द्र नाथ, गिरिन्द्रनाथ और विभूभूषण भट्ट। भागलपुर के खंजरपुर मुुहल्ले में रहते थे सब जज नफरचन्द्र भट्टाचार्य निरूपमा देवी और विभूतिभूषण दोनों भाई बहन थे निरूपमा देवी विधवा थी, वह स्वयं न उपस्थित होकर रचनाओं के माध्यम से उपस्थित होती थी। खंजरपुर भट्ट परिवार के मकान के पश्चिम की ओर शाहजहां द्वारा निर्मित खंजरपुर बेग साहब का मकवरा था। उसकी छत के उपर गोष्ठी उमती थी तो कभी दूसरी जगह। साहित्यिक गोष्ठियां में रचनाओं की समीक्षा होती थी। इस साहित्य गोष्ठी में एक और सदस्य थे सतीशचन्द्र मिश्र उन्होंने हस्तलिखित पत्रिका ‘आलो’ के प्रकाशन की याजना शरतचन्द्र के सुझाव पर बनायी गयी और संपादक के रूप में सतीशचन्द्र मित्र और योगेन्द्र चन्द्र मजूमदार तय किये गए। नियति को यह मंजूर नहीं था, एक प्खवारे के अंदर सतीश चन्द्र मिश्र की मौत हो गयी, जिससे सभी मर्माहत थे।
यह तय किया गया कि सतीश की स्मृति में छाया नाम से हस्तलिखित पत्रिका प्रकाशित किये जाय और संपादक के रूप में नियुक्त किए गए योगेन्द्र चन्द्र मजूमदार शरतद् की कहानियां और आलेख इस पत्रिका में प्रकाशित हुए। छुद्रेर गौरव नामक प्रबंध और ‘आलो ओ छाया’ लघु उपन्यास इसी पत्रिका में प्रकाशित हुए। लेखक कई थे लेकिन लेखिका एक ही थी निरूपमा देवी। थोड़े ही दिनों में इस पत्रिका की धूम मच गयी थी। यदि उस काल पर गौर करें तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भागलपुर के साहित्यिक इतिहास को नयी गति प्रदान करने वाले कथाकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय भागलपुर के साहित्यिक इतिहास के शिखर पुरण थे। अंतिम दशक का यह दौर शरतयुग के नाम से नाम से जाना जाता रहेगा। साहित्यिक गोष्ठी के माध्यम से हिन्दी और बंगला के साहित्यकारों को प्रेरित किया। शरत् की साहित्य सभा की प्रेरणा से ही नगर के पूर्वी भाग आदमपुर में ‘बंग-साहित्य परिषद’ की स्थापना की गयी।
अपने हम उम्र मामाओं और बाल सखाओं की शरारत शरतचन्द्र के प्रसिद्ध पात्र देववास, ‘श्रीकांत’, सव्यसाची, दुर्दान्त राम आदि के चरित्र को झांकें तो शरत् के बचपन की शरारतें और संगी-साथियों की छवि सहज दीखती है। भागलपुर में शरत् के बचन के मित्रों में राजेन्द्र नाथ मजूमदार उर्फ राजू का नाम महत्वपूर्ण है। शरत् के बचपन की कई यादें, कई शरारतें और दुस्साहसिक कारनामें राजू के साथ जुड़े हैं। ‘श्रीकांत’ उपन्यास के पात्र इन्द्रनाथ में शरतचन्द्र ने बचपन के इस मित्र को साकार रूप दिया है। कथाशिल्पी शरत्चन्द्र ने ‘देवदास’ में दो अविस्मरणीय नारी पात्रों का सृजन किया है- पार्वती उर्फ पारो और चन्द्रमुखी। पारो की छवि शरत के वाल्यकाल्य की देवानंदपुर की सहपाठिनी धीरूमें देखी जा सकती है और चन्द्रमुखी और कोई नहीं भागलपुर के बदनाम बस्ती मंसूरगंज की एक नर्तकी थी, जिसका नाम था-कालीदासी। मामा और मित्रों की सलाह पर ‘कुन्तलीन पुरस्कार’ के लिए रचना अपने मामा सुरेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय के नाम भेजी और यह कहा कि यदि भाग्य से पारितोषिक मिल जाय तो मोहित सेन द्वारा प्रकाशित रविन्द्रनाथ की काव्य ग्रंथावली भेज देना। डेढ़ सौ कहानियों में उनकी रचना सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चुनी गयी।
जिन्दगी की जंग लड़ते हुए वे रंगुन गये थे इसके कबल सारी रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गये थे। उनमें एक लम्बी कहानी थी - ‘बड़ी दीदी’। जो सुरेन्द्र नाथ के पास थी जाते समय कह गये थे कि प्रकाशित करने की आवश्यकता नहीं, छापना हो तो ‘प्रवासी’ छोड़कर किसी भी पत्र में उनकी कोई भी रचना बिना अनुमति के न छापी जाय’। 1907 में भारती के अंक में शरत्चन्द्र का पहला उपन्यास ‘बड़ी दीदी’ प्रकाशित हुआ। इसके बाद तो रचनाएं प्रकाशित होती गयी। विदुरे-र- छेले’ ओ अनन्या (1914) गृहदाह (1912) बकुण्डेर-विल (1916), पल्ली समाज (1916) , देवदास (1917), चरित्रहीन (1917), निविकृति (1917-33), गृहदाह (1920), दत्ता (1918), देना-पावना (1923), पाथेर-दावी (1926), श्रीकांत, छेलेर-बेलार गल्प, सुभद्रा (1938), शेषेर परिचय (1949), नारीर मूल्य (1930), स्वदेश ओ साहित्य (1932), विराज-वहू (1934), रमा (1928), विजया (1935), तरूणेर विद्रोह (1919), शरत्चन्द्र गंथावली (1948), प्रमुख है। उपन्यासकार तथा कथाकार के साथ-साथ कलाकार भी थे। वर्मा में तैयार तैलचित्र ‘महाश्वेता’ काफी चर्चित है। 1921 में असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया तथा हुगली जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी चुने गये।
अप्रतिम प्रतिभा के धनी कथाकार शरत्चन्द्र ने अपने उपन्यासों ने मध्यमवर्गीय उच्छश्रृंखल पुरुष पात्रों और रूढिग्रस्त समाज की नाना प्रताड़नाओं से पीड़ित नारी पात्रों का हृदयद्रावक चित्रण करके इस क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति उपस्थित कर दी। उनके द्वारा वर्णित अनेक चरित्र कल्पना प्रसूत न होकर उनकी वास्तविक जीवन यात्रा से जुड़े पात्र रहे हैं। अद्भूत स्वाभाविकता तथा मार्मिकता विद्यमान है। शरत्चन्द्र की कथाकृतियों में उनका निजी वैचित्रय एवं वैशिट्य है, जो मध्यमवर्गीय जीवन में उनके प्रगाढ़ संपर्क तथा परम्परागत सामाजिक रूढ़ियों से निरंतर जूझने वाले उनके संवेदनशील प्रखर व्यक्तित्व के स्वयं मुक्त अनुभवों का प्रतिफल है। अंग्रेजी साहित्य में जिस स्तर पर यथार्थ को ऑस्कर वाइल्ड ने रखा उसी स्तर पर
शरत् बाबू ने यथार्थ का चित्रण अपने उपन्यासों में कलात्मक ढंग से किया। ‘चरित्र हीन परम्परागत सामाजिक सदाचार की रूढ़ियों को चुनौती देनेवाला क्रांतिकारी उपन्यास था, जिसे किसी समय द्विजेन्द्र लाल राय जैसे प्रौढ़ लेखक ने भी छापने से इंकार कर दिया। शरत्चन्द्र की अन्य कथाकृतियों में ‘पंडित मोशाय’, बैकुठेर विल, ‘दीदी’, दर्पचूर्ण’, ‘पल्ली समाज’, ‘श्रीकांत’, ‘अरजणीया’, ‘निविकृति’, ‘माललार फल’, ‘गृहदाह’, ‘पथेरदाती’, दत्ता,, देवदास, वाम्हन की लड़की और ‘शेष प्रश्न’ उल्लेखनीय है। ‘पाथेरदावी’, उपन्यास बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन पर केन्द्रित था और इसे ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन भी होना पड़ा था, यह उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि तीन हजार का संस्करण तीन माह में समाप्त हो गया, ब्रिटिश सरकार को इसे जप्त करना पड़ा।
कुमार कृष्णन
स्वतंत्र पत्रकार,
द्वारा श्री आनंद,
सहायक निदेशक,
सूचना एवं जनसंपर्क विभाग
झारखंड,
सूचना भवन ,
मेयर्स रोड, रांची,
ई-मेल-kkrishnanang@gmail.com ,
मो - 09304706646
|
एक टिप्पणी भेजें