कविताएँ:डॉ. जीवन सिंह

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 
अपनी माटी
 सितम्बर अंक, 2013 

कविताएँ:डॉ. जीवन सिंह,अलवर  

(राजस्थान के अलवर में रेवास वाले आलोचक डॉ जीवन सिंह हमारे राज्य के प्रतिनिधि रचनाकार हैंआपने "साहित्य में वैयक्तिकता और वस्तुपरकता" विषय शोध करने के बाद से लेकर अपने प्राध्यापकी जीवन में बहुत से आलोचनापरक आलेख लिखे।राजस्थान साहित्य अकादमी के प्रसिद्द 'मीरा सम्मान-2001 ' से नवाजे जा चुके जीवन सिंह बड़े सहज और सरलमना है।रामलीला में रावण के अभिनय सहित लोक कलाओं में रूचि है। अनुवाद में भी आपका हस्तक्षेप रहा है। 'कविता की लोक-प्रकृति' , 'कविता और कवि  कर्म ', और 'शब्द और संस्कृति ' शीर्षक से तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं।लगभग तीने-क प्रकाश्य हैं। यहाँ उनकी वे कविताएँ जिन्हें वे प्रकाशित कराने में अक्सर संकोच अनुभव करते रहे जबकि इन कविताओं में अपने समय को उदेड़कर विश्लेषित करने की पर्याप्त ताकत है कटाक्ष है ।पोंगापंथी के खिलाफ नारे हैंआपका संपर्क सूत्र 09785010072,0144-2360288 हैं कभी कभार ब्लोगिंग भी करते हैं आपके ब्लॉग 'तीसरा नेत्र' का लिंक है http://teesra-netra.blogspot.in,पूरा परिचय यहाँ 

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(1 )
कहते हैं जब गीदड़ की 
मौत आती है तो 
वह गाँव की तरफ भागता है 
गीदड़ चाहता है कि 
जंगल के बेर उसके 
कहने से पक जाँय 
पर जंगल अपनी 
चाल से चलता है 

हिंडोले सावन में 
पावस की फुहारों 
और मेघ-घटाओं के 
संगीत के बिना 
नहीं सजते 

आल्हा जेठ में 
किसान तभी गाता है 
जब फसल उठाकर 
घर में ले आता है 
सोरठ आधी ढल जाने पर 
अपने सुरों को 
सारस के पंखों की तरह खोलता है 


पर यह कैसा समय है 
जब समय की पुडिया बनाकर 
कुछ लोग उसे 
चूरन-चटनी की तरह 
बेचने में लगे हैं 
खेतों की अभी जुताई भी नहीं 
और उधर फसल के 
गीत वे लोग गा रहे हैं 
जिन्होंने कभी 
हल की मूंठ भी नहीं पकड़ी 

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(2 )सत्ता -चरित्र 

एक कहानी थी 
'तिरिया चरित्तर' 
लोग इसे सच माने बैठे थे 
वे लोग भी जिनके चरित्र 
कंटीले बियाबानों की तरह नंगे होते हैं 
चरित्र की वहाँ बहुत चर्चा थी 
जहां चरित्र नाम की चींटी भी नहीं पाई जाती 

सबने देखा है कि  
तरु के 
लिपटती है लता और 
तरु लिपटने देता है 
यह  शक्ति का केंद्र 
जहां भी होगा 
यही होगा 
यह चरित्र नहीं प्रकृति है 

चरित्र का पता तब चलता है 
जब हम फूलों के बगीचे में हों 
और फूलों को खिलने  दें 
जब हमारे हाथ में लगाम हो और 
हम घोड़ों को उसी राह पर हांकें 
जो मंजिल तक जाती है 

जब हम रक्त की धारा पर खड़े हों और 
रक्त का ऐसा इम्तिहान न लें 
कि रक्त को पानी पानी कहकर 
उसकी शिनाख्त को बदल दें 

सत्ता रक्त- पिपासु कब हो जाय 
पता नहीं चलता 
उसका चरित्र कब करवट ले जाय 
पता नहीं चलता 
शेर जंगल में अपने शिकार को
घात लगाकर पकड़ता है 
सता हर क्षण घात लगाती है 
उसके लिए कोई दिन निर्घात नहीं होता 

ये विज्ञापन 
साधारण खरगोशों के लिए 
जाल की तरह फैला दिए गए हैं 
खरगोश और जंगल के रिश्ते को 
मिटाने की कोशिशें जारी हैं

जंगल का चौधरी 
एक खूंख्वार  बर्बर  शेर 
समुद्र पार 
खरगोशों के जंगल में
स्वच्छंद विचरण पर 
लगातार घात लगाये 
पूरी चौकसी बरत  रहा है

सताएं सभी 
आदमखोर होती हैं 
आदमी की सत्ता आने में अभी देर है 

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(3 )
आज़ादी को मैंने 
छियासठ साल पहले 
खेत की मैंड पर 
खड़े नहीं देखा 
वहाँ कुछ पन्ने जरूर थे 
जो कुछ बतला रहे थे 
जैसे बहका रहे हों 
कोई लालीपॉप  देकर 
बच्चों को 

बहकावा सतत  जारी है 
जिनके  हाथों में फूल हैं 
वे बगीचे उन्होंने खुद नहीं लगाए 
जिनके हाथों में पताकाएं हैं 
वे नहीं जानते कि 
इनके निर्माता 
इनको फहराने वाले नहीं हैं 

जो कुछ है उसमें सच की मात्रा 
इतनी कम है कि 
बार बार आज़ादी आने का 
 शोर चौराहों पर 
मचता है और 
आज़ादी है कि हर बार 
अपनी नई पौशाक में  
महलों में प्रवेश कर जाती है
रह जाते हैं महरूम 
जो अपने पैरों पर चल कर 
अपनी मंजिल तक पहुँचते हैं
फिर एक साल और बीतने का इंतज़ार करते हैं 
शुभकामनाओं की प्लेट में कुछ मिल जाए ।  

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(4)
हरयुग  में खरीददार रहे हैं 
छोटा-मोटा बाज़ार भी रहा है 
सीकरी रही है और संत भी 

बिकने  से जो बचा है 
उसी ने सत्य, शिव और सुंदर को 
 रचा है                         
जोखिम उठाकर जो पैदल चला 
त्रिलोचन की तरह 
वही बच  पाया है  
बाज़ार में आदमी, कविता  
चीजों की तरह  
बोली लगाई जा रही है 
 लोग बिक रहे हैं 
कुछ लोग अब भी हैं जो 
बिकने को तैयार नहीं 
अपनी आन पै डटे हैं 
इसीलिये बिकने से बचे हैं 

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(5 )
समय ऐसा आ गया है 
कि अब वही बचा रहेगा जो 
बचने की कोशिश नहीं करेगा 
जो बचा ,सो मरा 

सुनने में अच्छा लगता है 
 यह सत्य पर  पूरा नहीं 
अब जरूरत आ गयी है बचने की 
जैसे घास को घोड़े से बचना पड़ता है 
लडकी को उन जगहों से 
उन आँखों से जिनमें 
आग की झल निकलती है 

अभी ऐसा फूल कहाँ जो 
निदाघ के दाघ  से खुद को बचा सके 
अंधेरा इतना गहरा है कि 
रोशनी को लोग अन्धेरा कहकर 
सत्ता की मुंडेरों पर 
बन्दर की तरह उछल कर जा बैठे हैं 

अभी बचने और बचाने 
दोनों की जरूरत हैं नहीं तो नदी 
पावस में भी बहने से इनकार कर देगी 

ये फूल जिस मंजिल तक 
आ पंहुचे हैं 
फल आने में अभी देर है 
जिन्होंने इन पौधों को लगाया है 
उनके हाथ बंधे हैं 
बंधे हाथों और फूलों का सही रिश्ता
जिस रोज 
दोनों समझ जायेंगे 
न बचने की जरूरत रहेगी 
न बचाने की । 

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(6 )
यह जो कुआ बन रहा है 
और कितना गहरा होगा कि 
इसमें धकेल कर 
दबा दिया जायगा 
तितलियों, भोरों और 
वसंत की गायिका कोकिल को 

जो मृदंग बज रहा है 
शुभ  संकेत नहीं हैं 
इसका नाद 
सुर से  बाहर है

जो लोग कुआ खोदने  में माहिर हैं
खाईयों का सारा हिसाब उनके ही पास है 
इनकी परिक्रमाओं में 
प्रेतों का टोना 
आखिर कब तक चलता रहेगा । 
अभी भोलापन बहुत बाकी है 
और रास्तों की इतनी कमी है 
कि बिना समझे लोग 
किसी भी रास्ते पर चल पड़ते हैं ।

----------------------------------------------- (7 )
बचपन नहीं ,
हमारा परिवेश हमको 
सत्य नहीं बोलने देता 
बचपन में छोटी-छोटी बातों पर 
झूठ बोलता था 
तब अम्मा कहती थी ---
"बेटा , भूखे की बगद जाती है 
झूठे की कभी नहीं "

नेताओं को बोलते देखकर 
अम्मा की 
बहुत याद आती है । 

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(8 )रामायण- पाठ
घर था किराये पर
खाली होने पर
कराया रामायण- पाठ
पसीने आ गए
खाली कराने में
कराया रामायण- पाठ

प्रेतबाधा न रहे
सबसे पहले डॉक्टर ने
कराया रामायण- पाठ
झिझक टूटने पर
कराया इंजिनियर ने
सामने आकर
वैज्ञानिक ने
कराया रामायण- पाठ

एक दिन माथे पर
धरे पोथी जुलूस में
प्रोफ़ेसर प्राणिशास्त्र ने
कराया रामायण- पाठ

चुर्री बनाने वाले व्यापारी ने
कराया रामायण- पाठ
ठेकेदार शराब के
कारोबारी ने
कराया रामायण- पाठ

पुलिस वाले ने
कराया रामायण- पाठ
मुख्यमंत्री के साले ने
कराया रामायण- पाठ

रिश्वतखोर ने
कराया रामायण- पाठ
पक्के चोर ने
कराया रामायण- पाठ
गुण्डे ने
कराया रामायण- पाठ

दगाबाज ने
कराया रामायण- पाठ
औरतबाज ने
कराया रामायण- पाठ
देखादेखी सबने
कराया रामायण- पाठ
किराये पर एक मुश्त
ठेके में कराया रामायण- पाठ

गाँव जाता था पहले जब
नही था रामायण- पाठ
गया इस बार
हो रहा था रामायण-पाठ

मैंने देखा
जाल से पायी
बिना कमायी
बदबू देती
एक धारा
माया की
बहने लगी थी वहां
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(9 )बनवारी कारीगर
वह आता है रोज अपने गाँव पलखडी से एक अधटूटी साईकिल पर दोपहरी करने का रोटी -झोला लटकाए आता है रोज बेनागा रोज कुआ खोदना रोज पानी पीना यही जीवन रहा पीढी दर पीढी राजतंत्र था तब भी लोकतंत्र आया तब भी कोई ख़ास अंतर नहीं वह नहीं जानता 15 अगस्त क्या है ? उसे पता नहीं राज कैसे चलता है ? वह मेहनत करना जानता है सिर्फ कला है उसके हाथों में जादू-सा है उसकी आँखों में उसके ह्रदय में एक नदी बहती है ऐसा गुणीजनों में दूर दूर तक नहीं वे सूखे ठूंठ हैं वह हरा-भरा वृक्ष
शाम को वह जब वह अपने घर लौट जाता है तो सूना -सूना लगता है उसका दोस्ताना फखरू से है फखरू की राय है कि बनवारी के कोई शान-गुमान नहीं । शायद ऐसा उन लोगों में ज्यादा हो जो मेहनत का कमाते हैं और मेहनत का खाते हैं ।
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