झरोखा:कबीर

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 
अपनी माटी
 सितम्बर अंक,2013 

झरोखा:कबीर

(क्या कारण है कि हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय परिदृश्य को देखते हुए अब हमें बार-बार कबीर याद आते हैं। उनकी ज़रूरत इन विपरीत हालातों में हर मोर्चे पर अनुभव होने लगी है। यही सोच कबीर की कुछ साखियाँ यहाँ 'झरोखा' में प्रकाशित कर रहे हैं।इस दकियानूसी दौर में फिर से एक बड़े जनजागरण की ज़रूरत है।एक तरफ चीजों के मायने समझने में हम ढीले पड़ते जा रहे हैं दूसरी तरफ देश के आमजन को ये 'अगमचारी 'नौचते जा रहे हैं।जागो मेरे मित्रो जागो।-संपादक)

मैं जान्यूँ पढ़िबौ भलो, पढ़िवा थें भलो जोग।
राँम नाँम सूँ प्रीति करि, भल भल नींदी लोग॥1

कबिरा पढ़िबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ।
बांवन अषिर सोधि करि, ररै ममैं चित लाइ॥2

कबीर पढ़िया दूरि करि, आथि पढ़ा संसार।
पीड़ उपजी प्रीति सूँद्द, तो क्यूँ करि करै पुकार॥3

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया कोइ।
एकै आषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होइ॥4
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सहज सहज सबकौ कहै, सहज चीन्है कोइ।
जिन्ह सहजै विषिया तजी, सहज कही जै सोइ॥1

सहज सहज सबको कहै, सहज चीन्हें कोइ।
पाँचू राखै परसती, सहज कही जै सोइ॥2

सहजै सहजै सब गए, सुत बित कांमणि कांम।
एकमेक ह्नै मिलि रह्या, दास, कबीरा रांम॥3

सहज सहज सबको कहै, सहज चीन्हैं कोइ।
जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कहीजै सोइ॥4
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कर सेती माला जपै, हिरदै बहै डंडूल।
पग तौ पाला मैं गिल्या, भाजण लागी सूल॥1

कर पकरै अँगुरी गिनै, मन धावै चहुँ वीर।
जाहि फिराँयाँ हरि मिलै, सो भया काठ की ठौर॥2

माला पहरैं मनमुषी, ताथैं कछु होइ।
मन माला कौं फेरताँ, जुग उजियारा सोइ॥3

माला पहरे मनमुषी, बहुतैं फिरै अचेत।
गाँगी रोले बहि गया, हरि सूँ नाँहीं हेत॥4

कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि।
मन फिरावै आपणों, कहा फिरावै मोहि॥5

कबीर माला मन की, और संसारी भेष।
माला पहर्या हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देष॥6

माला पहर्याँ कुछ नहीं, रुल्य मूवा इहि भारि।
बाहरि ढोल्या हींगलू भीतरि भरी भँगारि॥7

माला पहर्याँ कुछ नहीं, काती मन कै साथि।
जब लग हरि प्रकटै नहीं, तब लग पड़ता हाथि॥8

माला पहर्याँ कुछ नहीं, गाँठि हिरदा की खोइ।
हरि चरनूँ चित्त राखिये, तौ अमरापुर होइ॥9
(टिप्पणी: में इसके आगे यह दोहा है-

माला पहर्याँ कुछ नहीं बाम्हण भगत जाण।
ब्याँह सराँधाँ कारटाँ उँभू वैंसे ताणि॥2)

माला पहर्या कुछ नहीं, भगति आई हाथि।
माथौ मूँछ मुँड़ाइ करि, चल्या जगत कै साथि॥10

साँईं सेती साँच चलि, औराँ सूँ सुध भाइ।
भावै लम्बे केस करि, भावै घुरड़ि मुड़ाइ॥11
टिप्पणी: -साधौं सौं सुध भाइ।

केसौं कहा बिगाड़िया, जे मूड़े सौ बार।
मन कौं काहे मूड़िए, जामै बिषै विकार॥12

मन मेवासी मूँड़ि ले, केसौं मूड़े काँइ।
जे कुछ किया सु मन किया, केसौं कीया नाँहि॥13

मूँड़ मुँड़ावत दिन गए, अजहूँ मिलिया राम
राँम नाम कहु क्या करैं, जे मन के औरे काँम॥14

स्वाँग पहरि सोरहा भया, खाया पीया षूँदि।
जिहि सेरी साधू नीकले, सो तौ मेल्ही मूँदि॥15
(टिप्पणी: -जिहि सेरी साधू नीसरै, सो सेरी मेल्ही मूँदी॥)

बेसनों भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक।
छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक॥16

तन कौं जोगी सब करैं, मन कों बिरला कोइ।
सब सिधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ॥17

कबीर यहु तौ एक है, पड़दा दीया भेष।
भरम करम सब दूरि करि, सबहीं माँहि अलेष॥18

भरम भागा जीव का, अनंतहि धरिया भेष।
सतगुर परचे बाहिरा, अंतरि रह्या अलेष॥19

जगत जहंदम राचिया, झूठे कुल की लाज।
तन बिनसे कुल बिनसि है, गह्या राँम जिहाज॥20

पष ले बूडी पृथमीं, झूठी कुल की लार।
अलष बिसारौं भेष मैं, बूड़े काली धार॥21

चतुराई हरि नाँ मिले, बाताँ की बात।
एक निसप्रेही निरधार का, गाहक गोपीनाथ॥22

नवसत साजे काँमनीं, तन मन रही सँजोइ।
पीव कै मन भावे नहीं, पटम कीयें क्या होइ॥23

जब लग पीव परचा नहीं, कन्याँ कँवारी जाँणि।
हथलेवा होसै लिया, मुसकल पड़ी पिछाँणि॥24

कबीर हरि की भगति का, मन मैं परा उल्लास।
मैं वासा भाजै नहीं, हूँण मतै निज दास॥25

मैं वासा मोई किया, दुरिजिन काढ़े दूरि।
राज पियारे राँम का, नगर बस्या भरिपूरि॥26

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