इलेक्शन के इस माहौल में सम्पादकीय कहाँ से शुरू करें? भला यह भी कोई प्रश्न है, बस चुनाव सरीखा विषय ही माकूल रहेगा,सो लिख डाला।खुद ही पढ़ लिजिएगा कि पढ़े लिखों की इस भीड़ में विवेकवान कितनेभर हैं यह बड़ा चिंतनीय विषय है। हालांकि मैं इसे 'चिंतनीय' कहके ज्यादा चिंताजनक करार दे रहा हूँ। खैर इस देश में उतावले युवाओं की कमी नहीं है जो तुरत-फुरत में गलत उम्मीदवारों के चयन के बाद से अब तक देश की प्रति उदासीन रहते हुए उंग रहे हैं जबकि युवाओं पर बदलाव का सबसे ज्यादा ज़िम्मा माना गया है। जिन युवाओं पर भरोसा किया वे ही आज जातिवादी राजनीति में जा उलझे। बहुत ऐसे कम समझ के मतदाता भी है हमारे आसपास जो अपने चुने हुए की सही तारीफ़ से अभी तक नावाकिफ है। इधर देखा तो लगा कि साक्षरता के आँकड़े भी हमें गलतफहमियाँ पालने के प्रति प्रेरित करते नज़र आ रहे हैं क्योंकि ये पढ़े लिखों के आकंड़ों के पहाड़ हमें सालों से एक तरह से गहरे खड्डों में ही धकेल रहे हैं।आंकड़ों में हम पढ़े लिखे भले हो गए हैं मगर असल में हमारा विवेक अभी भी अंदर से पोपला ही है। इन तमाम हालातों में हालांकि गिनती के बृद्धिजीवी लिखते/पढ़ते/बोलते रहे हैं मगर उनकी सुनते कितने हैं? फिर भी एक बात ज़रूरी बयान की तरह कही ही जा सकती है कि उनका बोलना और गलत दिशाओं को प्रश्नांकित करते हुए हमें इंगित करना,राष्ट्र बचाने के क्रम में बेहद ज़रूरी काम है। इस पूरे परिदृश्य में चीजों को ठीक से पहचाने जाने और समय रहते उनके खिलाफ एक विचार बनाने की ज़रूरत है। इन ज्यादा मुश्किल से लगने वालों हालातों में भी सुधरने और सुधारने की पूरी गुंजाईश बाकी है एशिया मेरा मानना है।
वैसे भी हमारा आमजन अपनी संकटकालीन स्थितियों में ही इस कदर फँसा हुआ हैं कि उसके लिए समाज और राष्ट्र सब गौण विषय है। दूसरी मुख्यधारा को अपने दोगलेपन वाले व्यवहार से ही फुरसत नहीं है। दया मिश्रित दुःख होता है कि आज देश का अधिसंख्य समाज बेदखल की तरह दोयम दर्ज़े का जीवन जी रहा है। कुछ(पूंजीपति वर्ग) ने अपने कब्जों की बदौलत ठाठ का जीवन जिया तो कइयों ने रोटी/जल/जंगल/ज़माने की लड़ाइयों में ही अपनी उम्र खो दी है।क्या इस छीना-झपटी का इतिहास कहीं लिखा जाएगा? क्या इस भ्रष्टवाड़े के युग को कहीं किसी पंचनामे में जगह मिल पाएगी? ऐसे में वक़्त का सही आंकलन करने में कमजोर साबित हो रही हमारी वोटर शक्ति की समझ पर दया ही आती है। समय के इस संकट को देखकर भी अनदेखे करते तथाकथित मीडिया/पूंजीपति/अवसरपरस्त मध्यमवर्गीय समाज ने जिस तरह से प्रोत्साहन दिया है गौर करने लायक है।हालांकि कभी कभी लगता है गौर करने के सिवाय हमारे पास अब कोई रास्ता ही कहाँ बचा है।
वैसे भी हमारा आमजन अपनी संकटकालीन स्थितियों में ही इस कदर फँसा हुआ हैं कि उसके लिए समाज और राष्ट्र सब गौण विषय है। दूसरी मुख्यधारा को अपने दोगलेपन वाले व्यवहार से ही फुरसत नहीं है। दया मिश्रित दुःख होता है कि आज देश का अधिसंख्य समाज बेदखल की तरह दोयम दर्ज़े का जीवन जी रहा है। कुछ(पूंजीपति वर्ग) ने अपने कब्जों की बदौलत ठाठ का जीवन जिया तो कइयों ने रोटी/जल/जंगल/ज़माने की लड़ाइयों में ही अपनी उम्र खो दी है।क्या इस छीना-झपटी का इतिहास कहीं लिखा जाएगा? क्या इस भ्रष्टवाड़े के युग को कहीं किसी पंचनामे में जगह मिल पाएगी? ऐसे में वक़्त का सही आंकलन करने में कमजोर साबित हो रही हमारी वोटर शक्ति की समझ पर दया ही आती है। समय के इस संकट को देखकर भी अनदेखे करते तथाकथित मीडिया/पूंजीपति/अवसरपरस्त मध्यमवर्गीय समाज ने जिस तरह से प्रोत्साहन दिया है गौर करने लायक है।हालांकि कभी कभी लगता है गौर करने के सिवाय हमारे पास अब कोई रास्ता ही कहाँ बचा है।
हमारे देश के तथाकथित सेवक तो इन दिनों जातिवाद/वंशवाद/परिवारवाद की बेले लगाने में यूं बीजी है कि देखते ही उल्टी होती है।जाने कहाँ तक ले जाकर छोड़ेंगे अधरझूल में लटके बेचारे इस देश को। जिन पर किया भरोसा वही लूट रहे हैं मनमाफिक। धर्म/समाज और वर्गवाद के नाम पर फ़ैल रहे इस ज़हरीले माहौल के ज़िम्मेदार वहीं चयनित लोग है जिन्हे लोग अपने कमजोर फैसले लेने की आदतवश नोट/पव्वे/तत्काल लाभांश के बदले पांचसाला महोत्सव में चुन ही लेते हैं। दूजी तरफ इसी माहौल में अपराधियों के ही घराती/बराती को टिकट देकर अपने को महात्मा बनाने के इस खेल को भला ये जनता कितना कम समझ पाती है यही तो रोना है। असल में आम आदमी की ये विवेकहीन चयन पद्दति और सालों की नींद से जागने और फिर से गुदड़ी में जा घुसने की प्रवृति ही देश को ले डूबेगी। लोगों ने हक़ों के लिए बोलना/दहाड़ना/नारे उछालना शायद कभी सीखा ही नहीं। निराशा तब हाथ लगती है जब एक वोटर अपने वोटर होने की जिम्मेदारी अदा करते समय मतिमंद होकर ही अपनी जात/धर्म/बिरादरी के उम्मीदवार को वोट दे आता है भले वो असामाजिक तत्व के तौर पर कुख्यात हो।चौतरफ़ा फटे इस चद्दर को सिलना हालांकि मुश्किल ज़रूर है मगर बिना शैक्षिक विकास के यह काम वाकई असम्भव ही समझा जाना जाना चाहिए। यहाँ शैक्षिक विकास का मतलब सिर्फ विवेक को जगाने से ही समझा जाए क्योंकि शिक्षा के मामले में तो हम सालों से आगे ही कहे जा रहे हैं भले नजीता शून्य हों।
एक तयशुदा निति है जिसमें हम नवीन शैक्षिक प्रावधानों की पूर्ति करते हुए नरेगा के मजदूर बनने/बनाने की हौड़ में संलग्न हैं। हमें इस बात का भी भान नहीं है कि हम किन लोगों के टारगेट पूरने को इस आँगन में नाच रहे हैं। उनकी कोशिशें यही है कि कोई इतना नहीं पढ़ जाए कि अपने अधिकारों के हित अंगुलियां उठाना सीख जाए। अपने शोषण के विरूद्ध लोग बोलना सीख जाए तो फिर राजनीति ही क्या? देहाती इलाकों को बाज़ारवाद की गिरफ्त में आने/खपने और कुचले जाने के पूरे बंदोबस्त है। खेतीबाड़ी की कहें तो सोची समझी चाल के तहत किसान वर्ग का खात्मा किया जा रहा है। एक गुनी फेक्ट्री के लिए तीन गुनी ज़मीन अवाप्त की जा रही है। पहाड़ के पहाड़ लोगों ने कब्जा लिए और कोई चु-चकारा तक नहीं हुआ।गज़ब का सेटलमेंट है भाई।आपकी आवाज़ दबी रह जाए उसके माकूल इंतज़ाम है।आपसे से बस यही अपेक्षा है कि आप उनकी पांच सालों की गलतियां एकदम भूल जाए और उन्हें मुआफ करते हुए फिर से चुन लें।चुनने की इस प्रक्रिया में एक साँपनाथ है और दूजा नागनाथ है। जाएं तो जाएं कहाँ? पहाड़ों पर उनके गैर ज़रूरी कब्जों पर आप कुछ नहीं बोलेंगे।आदिवासियों को बेदखल करने की उनकी नीतियों के खिलाफ आप एक लब्ज़ भी नहीं उगलेंगे।लोग पानी में खड़े रहे उन्हें क्या।लोग धरनों के हित मैदान भरें उन्हें क्या।वे सिर्फ भाषण देना जानते है जनाब।उन्हें क्या पता उनके चुनाव खातों में कौन पैसा उंडेल गया? उन्हें यह तो बिलकुल भी मालुम नहीं रहा है कि जिन महानुभावों/बूढ़ों/वाइफ़ों/बेटियों/भतीजों/नातियों/ को उन्होंने इस साल टिकट दिया है उनके बाप/चाचा/फूफा/मामा/नाना अपने कारनामों की वजह से नज़रबंद/सजायाफ्ता/ या फिर जेल में जी रहे हैं।
इस पूरी रामायण में कुछ भी नया नहीं है वही सबकुछ है जिसे हमें हर बार कहना ही होता है, दायित्व के एक निपटान की तरह। न वे सुधरेंगे न आप, न ही हम सुधरेंगे। सीरियसली कहना चाहता हूँ कि लोकतंत्र के सही मायने काश हम ठीक से समझ पाएं।काश हम ठीक से वोट डालना सीख जाए।काश हम जात/धर्म/समाज/वर्ग/क्षेत्र के वनिस्पत मुद्दों को तरज़ीह देने की समझ और हिम्मत जुटा लें। खैर इस वक़्त तो आओ हम सभी मिलकर देश के हित कुछ अच्छे सपने देखें।सपने दखने में हर्ज़ ही क्या है ?
अपनी माटी की तरफ से भी बीते दिनों हमारे बीच से लगातार चले जाने वाले ख़ास लोगों को सलाम करना चाहेंगे जिनमें 'सारा आकाश' के लेखक राजेन्द्र यादव, संवाद लेखक केपी सक्सेना, मशहूर गायिका रेश्मा, आलोचक परमानंद श्रीवस्ताव,विजयदान देथा और मन्ना डे। अंक छपते-छपते हमारे नन्द भारद्वाज जी से दु:खद समाचार मिला कि राजस्थानी के वरिष्ठ साहित्यकार ओंकार श्री का उदयपुर में निधन हो गया है।अच्छे लोग जल्दी-जल्दी जा रहे हैं। इन लेखकों को उनके लेखकीय जीवन के लिए बहुत याद किया जाएगा।बाकी इधर आनंद है। इस अंक से हमारी पत्रिका में कुछ नए साथी भी जुड़ रहे हैं उनका हम हार्दिक स्वागत करते हैं। अब हमने डाकखाना कॉलम में माहभर में हमें प्राप्त पुस्तकों और पत्रिकाओं की सूचना छापना तय किया है। वहीं रपटपक्ष में माह की ख़ास रिपोर्ट्स भी प्रकाशित करने का मन बनाया है।अंक में इस बारी विविधता है विश्वास है आपको रुचेगा। इस अंक में खासकर सभी युवा लेखक/लेखिका हैं जिनके लेखन को हमें यथासम्भव आगे बढ़ाने के लिहाज से भी समाहित किया है। युवा लेखकों और शोधार्थियों से आग्रह है कि अपनी अप्रकाशित रचनाएं हमें ज़रूर भेजिएगा ताकि सफ़र ठीक से आगे बढ़ सके।
इस पूरी रामायण में कुछ भी नया नहीं है वही सबकुछ है जिसे हमें हर बार कहना ही होता है, दायित्व के एक निपटान की तरह। न वे सुधरेंगे न आप, न ही हम सुधरेंगे। सीरियसली कहना चाहता हूँ कि लोकतंत्र के सही मायने काश हम ठीक से समझ पाएं।काश हम ठीक से वोट डालना सीख जाए।काश हम जात/धर्म/समाज/वर्ग/क्षेत्र के वनिस्पत मुद्दों को तरज़ीह देने की समझ और हिम्मत जुटा लें। खैर इस वक़्त तो आओ हम सभी मिलकर देश के हित कुछ अच्छे सपने देखें।सपने दखने में हर्ज़ ही क्या है ?
सम्पादक अशोक जमनानी |
अशोक जी, आप संपादकीय बहुत बढ़िया लिखते हैं। बहुत-बहुत बधाई! भविष्य में, इससे भी उम्दा पढ़ने को मिलेगा--यही उम्मीद है। ज़रूरी सूचनाएं, घटनाओं का स्पंदन, संपादकीय आत्मीयता, पाठकों के साथ सोच में हिस्सेदारी आदि अच्छी संपादकीय की विशेषताएं हैं और ये सारे लक्षण आपकी संपादकीय में उपलब्ध हैं।
जवाब देंहटाएंएक ख़ास बात जो आपसे मैं करना चाहता हूँ, वह यह है कि मैं अपनी एक पत्रिका आपको भेज रहा हूँ। आपसे अनुरोध है कि इस पत्रिका पर कुछ समीक्षात्मक टिप्पणी/उद्गार आदि 'अपनी माटी' में प्रकाशित करें। पत्रिका में साहित्यिक परिशिष्ट भी है। मेरा छोटा भाई-प्रतीक श्री अनुराग इसका संपादन करता है। नवंबर अंक में लेखिका डॉ कुसुम अंसल पर ख़ास सामग्री दी गई है। आपको याद होगा कि उन्हें इसी वर्ष विद्यानिवास मिश्र स्मृति सम्मान भी दिया गया है। पंडित जी मेरे बड़े सम्मानित गुरू थे और स्वयं द्वारा संपादित 'साहित्य अमृत' अमृत में मेरी कई कहानियाँ और कविताएं आदि प्रकाशित की थीं।
मैं उक्त पत्रिका आपको प्रेषित कर रहा हूँ।
आपका--डॉ मनोज मोक्षेंद्र
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