समीक्षा:रणेन्द्र का ‘‘ग्लोबल गाँव के देवता’’: बदलते मूल्य और मानदण्ड के सदर्भ में / आकांक्षा



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हिन्दी कथा-साहित्य में बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक से ही अस्मितावादी उपन्यासों की एक धारा स्पष्ट रूप से उभरती हुई दिखाई देती है जो इक्कीसवीं शताब्दी में आकर पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है। वर्तमान समय में हिन्दी साहित्य में मुख्य रूप से तीन तरह के विमर्श (स्त्री, दलित और आदिवासी) पर आधारित कथा-साहित्य देखा जा सकता है जिसमें रणेन्द्र का ‘ग्लोबल गांव के देवता’ सन् 2009 में प्रकाशित हुआ। मोटे तौर पर देखा जाए तो यह उपन्यास झारखण्ड की ‘असुर जनजाति’ के संघर्षों को बयान करता है। लेकिन सूक्ष्म तौर पर यह उपन्यास उस पूरे समुदाय की संघर्ष-गाथा है जिसे तथाकथित ‘लोकतांत्रिक आधुनिकता’ लील रही है। रणेन्द्र ने बहुत कौशल के साथ इस कथा की देशकालबद्धता को कायम रखते हुए इसे एक वैश्विक आयाम दिया है और जो क्रमशः पूरे ‘इतिहास’ में संचरित दिखाई देता है।

रणेन्द्र ने प्रस्तुत उपन्यास में झारखण्ड के असुरों की संघर्ष गाथा का बहुत ही स्पष्ट और निर्मम चित्र खींचा है जो अपनी नियति (मृत्यु) के खिलाफ लड़ रहे हैं। जहाँ एक ओर इनके विरुद्ध ग्लोबल गांव के देवता हैं जैसे शिण्डालको और वेदांग तो दूसरी ओर एम-पी- और विधायक हैं। इसके अतिरिक्त तीसरी ओर शिवदास बाबा जैसे धार्मिक ठेकेदार भी प्रस्तुत हैं। इस त्रिदलीय सन्धि के सामने संघर्ष कर रहे असुरों को अपनी नियति का एहसास है लेकिन वे अपनी इस नियति को चुपचाप प्राप्त नहीं होना चाहते। बल्कि आखिरी सांस तक संघर्ष करना उनकी मूलभूत सांस्कृतिक विरासत है, उन्हें अधिक श्रेयस्कर लगता है। अनायास ही प्रेमचन्द का ‘गोदान’ याद आ जाता है जहाँ धर्म और पूंजी की दुरभि सन्धि होरी को तोड़ रही है। ‘गोदान’ और ‘ग्लोबल गांव के देवता’ के बीच फर्क यह है कि ‘ग्लोबल गांव के देवता’ की कथा-भूमि लोकतांत्रिक भारत की है। अतः इसमें हमारे द्वारा चुने गए नेता भी महत्वपूर्ण किरदार हैं। ऐसा नहीं है कि भौरा पाठ के असुरों की लोकतांत्रिक सरकार में आस्था नहीं है। प्रधानमंत्री को लिखा गया उन का पत्र इस बात का ठोस सबूत है कि उन्हें इस बात का दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि वे लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध लड़ रहे हैं। उन्हें दिखावे का लोकतंत्र नहीं चाहिए। एक ओर जिस ज़मीन पर वे रहते हैं उस ज़मीन से निकाले गए खनिजों से निकली कमाई से सुन्दर शहर बसाये जा रहे हैं और दूसरी ओर उन्हें इसके बदले दोयम दर्जे के मजदूर की जिन्दगी देकर सन्तुष्ट किया जा रहा है। जाहिर है इस तरह का छद्म लोकतंत्र ‘असुरों’ को बर्दाश्त नहीं है।

 रणेन्द्र ने ‘असुर जनजाति’ की संघर्ष-गाथा के माध्यम से दुनिया के अनेक भागों में फैले हुए आदिवासियों के संघर्ष की पड़ताल की है। मसलन अमेरीकी महाद्वीप में ‘इंका’, ‘माया’, ‘एज़्टेक’ और सैकड़ों ‘रेड इण्डियन्स’ की मूक हत्याएँ भी ‘झारखण्डी असुरों’ के संघर्ष से अलग नहीं है क्योंकि उन्हें भी आधुनिकता के ठेकेदारों ने असहिष्णु और बर्बर कहकर कुछ इसी तरह मौत के घाट उतारा था। अमेरिका की चेराकी जनजाति सरकारी तंत्र द्वारा किस प्रकार मन्थर गति से मृत्यु तक पहुंचाई गई, इसका उल्लेख ‘टेल ऑफ टीयर्स’ (आँसुओं की पगडंडी) के माध्यम से लेखक ने किया है। रणेन्द्र ने ‘असुर जनजाति’ के संघर्ष की समकालीनता को कायम रखते हुए उस सांस्कृतिक इतिहास की भी पड़ताल की है जिसने उसे असुर नाम दिया। लेखक शुरू में ही कहता है, ‘‘अब जाकर ध्यान आया कि एतवारी में इस सुदर्शन व्यक्ति का नाम लालचन्द असुर बताया था। सुना तो था कि यह इलाका असुरों का है, किन्तु असुरों के बारे में मेरी धारणा थी कि खूब लम्बे, चौड़े, काले-कलूटे, भयानक दांत-वांत निकले हुए, माथे पर सींग-वींग लगे हुए होंगे। लेकिन लालचन्द को देखकर सब उलट-पुलट हो रहा था। बचपन की सारी कहानियाँ उल्टी घूम रही थीं।’’  दरअसल यह संघर्ष तबसे शुरु होता है जब से बाहर से आए आर्यों और इन स्थानीय लोहा गलाने वाले निवासियों के बीच संघर्ष शुरू हुआ। रूमझुम असुर कहता है कि ‘‘ट्टग्वेद के प्रारम्भ के लगभग डेढ़ सौ श्लोकों में असुर देवताओं के रूप में हैं। मित्र, वरुण, अग्नि, रुद्र सभी असुर पुकारे जा रहे हैं। बाद में यह अर्थ बदलने लगता है और असुर दानव के रूप में पुकारे जाने लगते हैं। 

रणेन्द्र जी 
इस प्रकार रणेन्द्र ने असुरों की गाथा को एक सार्वकालिक और सार्वदेशिक संघर्ष गाथा के रूप में जरूर पेश किया है लेकिन कहीं भी उसकी देशबद्धता और कालबद्धता छिन्न नहीं होने पाई है। उपन्यासकार ने बड़ी सावधानी से ग्लोबल गांव के देवताओं के जो नाम रखे हैं यथा सिण्डालको और वेदांग, वे भी मूल नाम से स्वर-साम्य के आधार पर काफी कुछ कह जाते हैं। यह उपन्यासकार की देशकालबद्धता को तो प्रकट करता ही है साथ ही उसके साहस का भी प्रमाण है। प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र में बार-बार प्रधानमंत्री की ईमानदारी का उल्लेख करना स्पष्ट कर देता है कि किस विशेष प्रधानमंत्री की ओर इशारा किया गया है। उपन्यास की यह कालबद्धता उसे वास्तविक अर्थों में समकालीन बनाती है।

रणेन्द्र ने कथा कहने का एक स्पष्ट और सरल रास्ता चुना है। जब कथ्य का सामाजिक सन्दर्भ इतना स्पष्ट और मजबूत हो तो कथावचन के लिए किसी घुमावदार रास्ते की जरूरत नहीं रह जाती। कथावाचक ‘असुरों’ के क्षेत्र में बाहर से गया एक अध्यापक है जिसे आप उपन्यासकार का प्रतिनिधि भी कह सकते हैं। लेकिन यह प्रतिनिधि बाहरी नज़रों से ‘भौरापाठ’ की सच्चाई को देखने में भरोसा नहीं रखता और न ही वह मूक दर्शक बना रहना चाहता है बल्कि वह खुद को असुरों के संघर्ष में शामिल कर देता है और कहें तो इस माध्यम से उपन्यासकार भी असुरों के पक्ष में संघर्ष करने वालों में शामिल हो जाता है। यह उपन्यास न सिर्फ ‘असुरों’ की ‘ग्लोबल गांव के देवताओं’ के विरुद्ध लड़ाई का आख्यान है बल्कि हम तथाकथित सहिष्णु हिन्दुस्तानी संस्कृति के धारकों के समक्ष कुछ बहुत ही ज्वलन्त प्रश्न छोड़ता है।

आकांक्षा
शोधार्थी,

हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
ई-मेल:akanksharocks2010@gmail.com 

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