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अपनी माटी
नवम्बर-2013 अंक
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हाल ही में हुई दिल्ली बलात्कार की घटना से पूरा देश हिल गया। बलात्कार से
पीड़ित यह लड़की 13 दिन तक जिन्दगी और मौत के बीच लड़ती रही और 29 दिसंबर 2012 को उसकी मौत सिंगापुर
में हो गई। हर रोज़ एक-न-एक घटना समाज में देखने और सुनने को मिलती है। आज समाज में
यौनशोषण एवं अत्याचार की समस्या इस तरह से छायी हुई है, जैसे आसमान में बादल। हमारे समाज
में यौन शोषण, अत्याचार एवं बलात्कार बढ़ने का मुख्य कारण यह है कि अपराधियों को सज़ा नहीं
मिलती, इसलिए
अपराधियों के हौसले बुलन्द हो रहे है, अपराध बढ़ रहे है। मुम्बई, बेंगलुरू, झारखंड, दिल्ली के गांधी नगर, भारत के कोने-कोने में
गांव से लेकर शहरों तक ऐसी अनेक घटनाएं हो रही है। हमारे यहाँ जितने भी अधिकार हैं
वे पुरुषों के हैं, जितने कर्तव्य हैं, वे सब स्त्रियों के है। जिस अभागिन के साथ बलात्कार होता है,
वह कौमार्य अथवा
सतीत्व-भंग की क्षति ही नहीं सहती, गहन भावनात्मक दंश, मानसिक वेदना, भय, असुरक्षा और अविश्वास प्राय:
आजीवन उसका पीछा नहीं छोड़ते। ऐसी स्त्रियाँ अपना दुख अंतरंग से अंतरंग के समक्ष भी
रो नहीं पाती। वक्त के साथ-साथ उनका अकेलापन बढ़ता जाता है और जीवन का बोझ भी,
जबकि पीडि़त नारी
के साथ हमारी सरकार एवं न्याय व्यवस्था उसे न्याद दिलाने में असफल हो जाती है।
शोषण, अत्याचार और बलात्कार मुकदमों
में अधिकांश अपराधी पैसे के बल पर वकील ढूंढ़ता है, जो उसे कानूनी शिकंजे से निकाल
ले जाने का कोई-न-कोई रास्ता निकालता है
क्योंकि न्याय और कानून में बच निकलने के सारे रास्ते बाकायदा मौजूद हैं। अक्सर
देखा जाता है कि सारा अपराध पीडि़ता के सिर मढ़ देते है और कहते है कि जो कुछ हुआ
उसकी मर्जी या उसकी सहमती से हुआ। अपने बचाव के लिए वह प्रत्यारोप तक लगा देता है
कि पीडि़ता संभोग की आदी थी या बदचलन थी। परिणाम यह होता है कि तर्क हर बार जीत
जाता है और पीडा़ हार जाती है। समाज और अदालत में होनेवाली बदनामी और परेशानी से
बचने तथा घर और परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए यौनशोषण के अधिकांश मामले दबाए
जाते है। “वर्तमान कानून व्यवस्था भारतीय नारी को कानूनी सुरक्षा कम देता है, आतंकित, भयभीत और पीडि़त अधिक
करता है। जब तक बलात्कार और शोषण के
सन्दर्भ में कानून और समाज का दृष्टिकोण और पितृसत्तात्मक व्यावस्था की मानसिकता
नहीं बदलती तब तक बलात्कार से पीडि़त नारी स्वयं समाज के कठघरे में खड़ी रहेगी।
स्त्रियाँ आखिर कब तक गूँगी, बहरी और अंधी बनी रहेंगी।”[1]
स्त्रियों में जागृति,
आत्मविश्वास जगाने
और अपने अस्तित्व की पहचान कराने में विभिन्न विचारकों एवं लेखिकाओं ने अपनी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मेरी वोल्टसन क्राफ्ट अपनी पुस्तक ’द विन्डिकेशन ऑफ द
राइट्स ऑफ वूमैन’ में स्त्री शिक्षा, मध्यवर्गीय स्त्रियों की स्थिति और खोखले आदर्शों में जकड़ी
स्त्री की समस्याओं को उजागर किया है। यह पुस्तक इस विषय का प्रतिपादन करती है कि
स्त्रियाँ बौद्धिक स्तर पर पुरोषों के समान ही होती हैं। इसलिए उन्हे पुरुषों के
समान ही शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए। सीमोन द बोउवार अपनी पुस्तक ’द सेकेण्ड सेक्स’
में लिखती है कि
स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है, अर्थात स्त्री को बचपन से ही मानसिक तौर पर उसके
नारी होने की भावना के लिए तैयार किया जाता है। पितृसत्तात्मक समाज स्वयं की सत्ता
को कायम रखने के लिए स्त्री को जन्म से ही अनेक नियमों एवं बंधनों में बांध देता
है। “औरात
जन्म से ही औरत नहीं होती, बल्कि बढ़कर औरत बनती है। कोई भी जैविक, मनोविज्ञानिक या आर्थिक
नियति आधुनिक स्त्री के भाग्य की अकेली नियन्ता नहीं होती। पूरी सभ्यता ही इस
अजीबो-गरीब जीव का निर्माण करती है।”[2] स्त्री जीवन के अकेलेपन को प्रभाखेतान ने अपने
उपन्यास ’आओ
पेपे घर चले’ में आइलिन के पात्र से अभिव्यक्त किया है। “औरत कहाँ नहीं रोती और कब नहीं
रोती? वह
जितना भी रोती है, उतनी ही औरत होती है।”[3] आइलिन अपने पति और पाँच प्रेमियों के संपर्क में आने के
बावजूद भी वह स्वयं को अकेला महसूस करती है और अपने कुत्ते पेपे को ही अपने दु:ख
का भागीदार बना लेती है। ’छिन्नमस्ता’ उपन्यास में लेखिका ने एक ऐसे समाज का चित्रण किया है जहाँ
स्त्री के लिए सारे रिश्ते-नाते बे-मायने हो जाते है। स्त्री पर पल-पल, हर स्तर पर होनेवाले
शोषण को दिखाया है। शोषित नायिका शोषण के चरम स्तर को सहती हुई जाग्रत होती है और
विद्रोह करती है। इस उपन्यास में अपनी बहन पर भाई द्वारा अत्याचार, पुरुष-प्रधान समाज में
नारी की स्थिति का बोध कराता है। ’कठगुलाब’ में लेखिका ने नारी जीवन की विडंबना को दिखाया है। एक
स्त्री दूसरी स्त्री का साथ देने के बदले पुरुष का साथ देती है। असीमा कहती है- “यही तो मुसिबत है। ये
औरतें मरजानियाँ दूसरी औरत का साथ देने के बजाय, जल्लाद मरद को ही पल्लू में
समटने लगती है।”[4] असीमा ही ऐसा चरित्र है जो किसी पुरुष की ओर आकर्षित नहीं होती वह कहती है- “इस देश में औरत या माँ
है या पैर की जूती। इनसे काम करवाने के लिए इनकी अम्मा बनना जरूरी है क्या?”[5]
अन्त में माँ बनने
का भाव उसमें भी जाग्रत होता है।
’बेघर’ में स्त्री के विवाह से
पूर्व कुँवारी होने की धारणा को उजागर किया है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री का
कुँआरापन केवल उसके पति के लिए ही है,
किन्तु ऐसी
मान्यता पुरुष पर लागू नहीं होती। पुरुष विवाह से पूर्व कहीं भी, किसी भी स्त्री के
साथ शारिरिक सम्बन्ध बना सकता है, लेकिन एक स्त्री के लिए
यह संभव नहीं है। संजीवनी जो परमजीत की प्रेमिका है, अपने को परमजीत के प्रति समर्पित
करती है, किन्तु
तथ्य उजागर होने पर वह पहले भी किसी अन्य पुरुष के साथ संबंध स्थापित कर चुकी है,
अपने प्रेमी
द्वारा प्रताड़ित की जाती है। अन्तत: वह अपनी घुटन से छुटकारा पाने के लिए
पति-पत्नी के आधार रहित रिश्ते को कोर्ट में ले जाती है।[6] स्त्री पुरुष से आज़ाद होना चाहती
है तो सबसे पहले उसे पुरुषों द्वारा फैलाए हुए जाल से निकलकर शारिरिक यातनाओं को
झेलने से इन्कार करते हुए विद्रोह का दम भरना होगा। कृष्णा सोबती ने अपने उपन्यास ’मित्रो मरजानी’ में मध्यवर्गीय परिवार
की रुढ़ियों और परंपराओं का विरोध करती है। इस उपन्यास की नायिका मित्रो अपना
विद्रोह इस प्रकार व्यक्त करती है- “क्या स्त्री की कोई यौन इच्छा नहीं होती? अपने ठण्डे पति के साथ,
अपनी समस्त
इच्छाओं का गला घोंटते हुए, जीवन-यापन करना उचित है?”[7] मित्रो एक ऐसी नायिका है,
जो अपने मन के
भीतर की इच्छाओं के लावे को ज्वालामुखी की भाँती तीव्र गति के साथ बाहर निकाल देती
है।
नासिरा शर्मा का उपन्यास ’ठीकरे की मंगनी’ में मुस्लिम समाज की उस
सच्चाई को उजागर करता है, जहाँ स्त्रियों की स्थिति अपमानजनक और बदतर दिखाई पड़ती है।
लेखिका ने इस उपन्यास में यौन समस्याओं के साथ-साथ जीवन के अनेक प्रश्न को उठाया
है, जो आज
भी कदम-कदम पर नारी का रास्ता रोके रखता है। नारी कहीं बेटी के रूप में, कहीं पत्नी के रूप में,
कहीं बहन के रूप
में, कहीं
कामकाजी के रूप में तो कहीं सड़क पर काम करनेवाली मज़दूर के रूप में और नजाने
कहाँ-कहाँ और कितने रूपों में प्रताड़ना, शोषण और अत्याचार का शिकार होती रही है। उपन्यास की
नयिका महरूख संघर्षशील पात्रों की त्रासदी भोगती हुई कहीं भी बटोरती हुई नहीं पड़ती,
बल्कि वह अपने लिए
खुद रास्ता बनाती है।[8] ’शाल्मली’ में एक ऐसी स्त्री की छवि दिखाई देती है, जो उसका घर-परिवार ही
उसका संघर्ष-स्थल है और इसी संघर्ष-स्थल पर वह स्वयं को प्रतिस्थापित करना चाहती
है। पुरुष-प्रधान समाज के प्रति विद्वेष की भावना से प्रेरित नहीं अपितु स्वयं की
अस्मिता की खोज से सम्बद्ध है।[9] लेखिका ने एक ऐसी स्त्री का चित्रण किया है, जो अपनी पहचान बनाने की
इच्छुक है, जो उसकी अपनी हो, उसके अपने प्रयत्नों का परिणाम हो। ये आधुनिक नारी की विद्रोही प्रवत्ति है कि
पुरुष के प्रत्येक अत्याचार को चुनौती देती हुई उन सभी मान्यताओं को अस्वीकार कर
देती है, जो
पुरुष के वर्चस्व के लिए बनाई गई हैं। अंतत: हम कह सकते है कि इन लेखिकाओं ने अपने
साहित्य के माध्यम से न केवल स्त्री की दशा का चित्रण किया है, बल्कि उनकी अस्मिता,
स्वतंत्रता,
जागरुकता एवं
चेतना जगाई है। सभी लेखिकाओं ने स्त्री-शोषण, उत्पीड़न, पीड़ा और इन सबके परिणामस्वरूप आए
जागरुकता को ही अपनी रचना के केन्द्र में रखा है। समाज के प्रत्येक वर्ग की स्त्री
चाहे वह शहरी हो या ग्रामीण, सभी ने शोषण एवं अत्याचार के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई है।
स्त्री के प्रति होने वाले अत्याचारों को इन्होंने गहरी संवेदनशीलता के साथ
चित्रित किया है।
संदर्भ ग्रंथ:
- स्त्री उपेक्षिता- अनु. प्रभा खेतान, पृ.सं-121
- औरत होने की सज़ा- अरविंद जैन, पृ.सं- 184
- आओ पेपे घर चले- प्रभा खेतान, पृ.सं-220
- कठगुलाब- मृदुला गर्ग, पृ.सं- 17
- वही.
- बेघर- ममता कालिया
- मित्रो मरजानी- कृष्णा सोबती
- ठीकरे की मंगनी- नासिरा शर्मा.
- शाल्मली- नासिरा शर्मा
एम.ए. हिन्दी
दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली-110007
Email – anjum.anjum0786@gmail.com
मुबारका जी मुबारका.....
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