अपनी माटी
नवम्बर-2013 अंक
मैं एक डर चुनता हूँ
सबसे
हल्का
सबसे
बारीक
सबसे
मुलायम...
- धूमिल, संसद से सड़क तक
धूमिल
के
पहले
संग्रह
की
पहली
कविता
की
पहली
चार
पंक्तियाँ
हैं-
उसे
मालूम
है
कि
शब्दों
के
पीछे
कितने
चेहरे
नंगे
हो
चुके
हैं
और
हत्या
अब
लोगों
की
रुचि
नहीं
अब
मृत्यु
से
छब्बीस
दिन
पहले
भीषण
सिर
दर्द
और
कमजोर
दृष्टि
से
जूझते
हुए
लिखी
गई
उनकी
आखिरी
कविता
की
आखिरी
चार
पंक्तियों
को
देखिए-
लोहे
का
स्वाद
लोहार
से
मत
पूछो
उस
घोड़े
से
पूछो
इन
दोनों
जगहों
पर
धूमिल
ने
कोई
सवाल
नहीं
किया
बल्कि
अपने
अनुभूत
विचार
का
मजबूत
बयान
दिया
है।
पहले
में
रुचि
से
आदत
बन
चुकी
हत्या
है,
तो
दूसरे
में
यह
बात
कि
यातना
की
यंत्रणा
का
अहसास
यातना
के
चित्रकार
से
ज्यादा
यातना
के
शिकार
को
होता
है।
यहाँ कवि
अपने
वैचारिक
उपलब्धि
के
स्तर
पर
है।
दोनों
काव्यांशों
की
एक
सामान्य
बात
यह भी
है
कि दोनों
में
‘कविता’
की
ही
बात
हो
रही
है।
पहले
का
शीर्षक
ही
‘कविता’
है,
दूसरे
में
इन
चार
पंक्तियों
के
उपर यह
जिक्र है कि कविता किस
तरह
बनती
है। मतलब
धूमिल की कविताई
का
उत्स
और
अस्त
दोनों
ही
‘कविता’
है।
कविता
एक
जिल्द-सी
होती
है-
उतर
जाय
तो
कवि
नज़र
आता
है।
कवि
के
भीतर
कविता
पकती है—
उसकी
उम्र
की
तरह
और
किसी
क्षण
कवि
के
कण्ठ
से
फूट
पड़ती
है
या
उसकी
लेखनी
से
सरक
आती
है।
धूमिल
की
फ़ितरत
और
सख़्शियत
उनकी
कविता
के
खोल
में
बाकायदा
सुरक्षित
है-
जिसने
जितना
खोला,
उसे
उतना
नज़र
आया।
उनकी
कविता
की
बारीकियों
में
घुसने
के
लिए
दो
चाभियों
का इस्तेमाल
हो सकता है-
पहला
है
‘प्रश्न’ और दूसरा
‘वक्तव्य’। गौरतलब है कि उनके प्रश्न और वक्तव्य कहीं बाहर
नहीं बल्कि कविता के भीतर ही मौजूद है- अंतःसाक्ष्य की तरह। उनके कुछ सवालों
को देखिए-
·
क्या आजादी
सिर्फ
तीन
थके
हुए
रंगों
का
नाम
है
जिन्हें एक
पहिया
ढोता
है
·
अपने बचाव
के
लिए
खुद के
खिलाफ
हो
जाने
के
सिवा
·
लोहे की
छोटी-सी
दुकान
में
बैठा
हुआ
आदमी
/ सोना
और इतने
बड़े
खेत
में
खड़ा
आदमी
इन
सवालों
को
देखकर
उनका
नज़रिया
पकड़
में
आता
है।
ये
सवाल
आदमी,
देश,
सत्ता
और
स्वार्थ
से
जुड़े
हैं।
ये
कभी
हौले
से
हूलते
या
झटके
से
झपड़ियाते
हुए उन
मुद्दों
की
ओर
इशारा
करते हैं जिसपर
बात
करने
से
लोग
कतराते
हैं
क्योंकि
ये
हालात
के
नकलीपन
की
पोल
खोलते
हैं।
उनके
प्रश्न
दो
किस्म
के हैं- एक
अनुत्तरित
और
दूसरा
उत्तरित।
अनुत्तरित
प्रश्न
में
कवि
बिना
कोई
जवाब
दिए
सवालों
को
झूलता
हुआ-सा
छोड़
देते
हैं।
यह
कविता
के
व्यंग्य
को
साकार
करने
की
एक
शैली
है।
ऐसे
सवाल
कमर
सीधा
करने
के
लिए
मजबूर
करते
हैं।
‘सुदामा पाण्डे
का
प्रजातंत्र’
में
‘जनतंत्र;
एक
हत्या
संदर्भ’ नामक
कविता
में
उन्होंने
सामाजिक
विसंगतियों
की
घटनाओं
को
सामने
रखकर
बार-बार
यह कोंचता
हुआ सवाल किया है
कि
“उस
वक्त
जनतंत्र
किधर
था?”
धूमिल
ने
दूसरे
तरह
का
उत्तरित
सवाल
भी
किया, जिसमें
सवाल को
सामने
रख उसका
उत्तर
दिया
है।
प्रायः
ऐसे
सवालों
के
जवाब बड़े
विचारोत्तेजक
हैं, जिसमें
जवाब
कोई
बिम्ब,
मुहावरा
या
मिसाल
है।
ऐसे में
सवाल
और
जवाब
दोनों
प्रत्यक्ष
के
बजाय
किसी
परोक्ष
चीज का संकेत
देते
हैं।
‘अकाल-दर्शन’ कविता की
पंक्तियाँ
द्रष्टव्य
हैं-
भूख
कौन
उपजाता
है
...
उस
चालाक
आदमी
ने
मेरी
बात
का
उत्तर
नहीं
दिया।
उसने
गलियों
और
सड़कों
और
घरों
में
बाढ़
की
तरह
फैले
हुए
बच्चों
की
ओर
इशार
किया
यहाँ
जवाब
के
इशारे
में
गुप्त
संकेत
छिपे
हैं।
इसी
कविता
में
आगे
कुछ
पंक्तियाँ
देखिए-
मैं
उन्हें
समझाता
हूँ-
वह
कौन
सा
प्रजातांत्रिक
नुस्खा
है
कि
जिस
उम्र
में
मेरी
माँ
का
चेहरा
झुर्रियों
का
झोली
बन
गया
है
उसी
उम्र
में
मेरे
पड़ोस
की
महिला
के
चेहरे
पर
मेरी
प्रेमिका
के
चेहरे-सा
यहाँ
कवि
उस
‘नुस्खा’
के
बारे
में
प्रश्नवाचक
संदेह
रखते
हुए
वहीं जवाब
समझने का इशारा भी देते हैं।
उनकी
कविता
को
दूसरी
चाभी
(वक्तव्य)
से
खोलने
पर
उनके राजनीतिक
आयाम वाले वैचारिक व्यक्तित्व
से
मुलाकात
होती
है।
इनकी
सोच
के
नेपथ्य
में
एक
तरफ
पूरी
हिंदी-काव्यधारा
है,
तो
दूसरी
तरफ
विभिन्न
साठोत्तरी साहित्यिक धाराएँ
हैं,
एक
तरफ
राजकमल
चौधरी
हैं
तो
दूसरी
तरफ
नामवर
सिंह
और
काशीनाथ
सिंह हैं,
एक
तरफ
साहित्यिक
वाद
है
तो
दूसरी
तरफ
जीवनानुभव
है,
एक
तरफ
अतीत
से
अभिलाषाएँ
है
तो
दूसरी
तरफ
अभिलाषाओं
से
खिलवाड़
है।
इन
सब
चीजों
ने
ही
उनको गढ़ा
है।
‘विक्षोभ’
की
बात
आते
ही
नागार्जुन
याद
आते
हैं।
नागार्जुन
‘विषकीट’
नामक
निबंध
में
‘विक्षोभ रस’
की
बात
करते
हैं-
“भारतीय
काव्य
की
समीक्षा
में
नौ
रस
माने
गए
हैं।
परन्तु
अपनी
कटु-तिक्त-चरपरी
रचना
के
सिलसिले
में
मुझे
एक
और
ही
रस
की
अनुभूति
होने
लगी।
यह
था
विक्षोभ
रस।”[10] इस
विक्षोभ
रस
की
कल्पना
विचारणीय
है।
कोई
जरुरी
नहीं
कि
शास्त्रीय
मानदण्ड
शाश्वत
भी
हो। समय
के हिसाब से उसमें जोड़-घटाव करना लाजमी है, नहीं तो नए के सामने पुराना हमेशा
‘पुराना’ और पुराने के सामने नया हमेशा
‘नया’ ही बना रहेगा। अक्सर विक्षुब्ध कवियों के
विक्षोभ को आलोचकों ने व्यंग्य, वक्रोक्ति और मार्मिक कहकर कर्तव्य
पूरा कर लिया है। नागार्जुन ने इस आदत को अनुचित बताया। वे मानते है कि हर कवि विक्षोभ
प्रकट करता है पर इसका तरीका उसकी शैली तथा भाषिक संस्कार के कारण अलग होता है लेकिन
उसकी उत्स भूमि समान होती है। यह भूमि है ‘बहुजन समाज की व्यापक
विपन्नता से प्रत्यक्ष परिचय।’[11] नागार्जुन ने अपने
काव्यगत विक्षोभ का गौर करने लायक कारण बताया है- “मेरे अंदर
विक्षोभ तब फूटता है, जब लगातार बढ़ती हुई महँगाई के मारे लोगों
को परेशान पाता हूँ... परम मेधावी बालक और बालिकाएँ गरीबी के
चलते अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ने को बाध्य हो जाते हैं, धूर्तों
की जमात वर्ष दो वर्ष के भीतर ही लाखों की रकम बटोर लेती है, मेहनत-मशक्कत की कमाई खानेवाला रिक्शा-मजदूर महीनों फटी बनियान पहनता है... किसान, खेतिहर, टीचर, किरानी...
कौन नहीं है संकट का शिकार। ये वे नहीं हैं जो कवि-सम्मेलनो की अपनी कतारों में बैठते हैं। यह भी विक्षुब्ध हैं। इन्हीं का विक्षोभ
पुंजीभूत होकर मेरी रचनाओं में फूटता रहता है।”[12] यहाँ विक्षोभ की
जड़ गरीबी, शोषण और अन्याय को माना गया है। इन्हीं तीनों बातों
से प्रेरित होकर मैनेजर पांडेय ने विक्षोभ रस के तीन भावों को माना है। उनके अनुसार
विक्षोभ रस “के मूल में तीन भावों का योग होता है। ये भाव है
करुणा, क्रोध और घृणा। इन तीनों का स्वभाव प्रायः सामाजिक होता
है। एक स्थिति में ये तीनों एक साथ क्रियाशील हो सकते हैं। अपने देश या समाज की साधारण जनता की भीषण गरीबी
के प्रत्यक्ष बोध से जो विक्षोभ पैदा होगा उसमें गरीबों के प्रति करुणा होगी,
गरीबी से घृणा और गरीबी के कारणों के प्रति विक्षोभ पैदा होगा। ये तीनों
मनुष्य को कर्मशील बनाते हैं, विक्षोभ के कारण को मिटाने के लिए
क्रियाशीलता की प्रेरणा देते हैं, इसलिए यह भाव परिवर्तनकारी
भी हैं।”[13]
यह वे बिंदु हैं जो रचना में आकर विक्षोभ पैदा करते हैं। भारतेंदु से
लेकर धूमिल तक कवियों में यह विक्षोभ अपनी भाषा व मिज़ाज के हिसाब से फूटा है।
“समकालीन कविता में धूमिल ने उसी प्रकार एक नए अंदाज एवं तेवर का आगाज
किया, जिस प्रकार निराला ने छायावादी कविता तथा मुक्तिबोध ने
नयी कविता में।”[14] धूमिल के काव्य
के नए अंदाज के मूल में विक्षोभ ही है और उससे मिलने वाला आस्वाद भी विक्षोभ रस ही
है।
धूमिल की कविता में आए विक्षोभ के मुख्यतः दो
कारण थे और दोनों ही राजनीतिक थे। ये है आजादी से मोहभंग और जनतंत्र की असफलता। धूमिल
के मोहभंग के बारे में कुछ भी कहने से पहले ‘आलोचना-4’ के सम्पादकीय
में डा. नामवर सिंह द्वारा उद्धृत लघुपत्रिका ‘अनास्था’ का यह उद्धरण देखिए- “हमारी पीढ़ी के सम्बन्ध मे जो 1946 तथा उसके एक दो साल बाद पैदा हुई स्वतंत्रता
के बाद मोहभंग, आदर्शों तथा सपनों के टूटने और विघटन की बात करना
सर्वथा बेतुकी और मूर्खतापूर्ण है...हम स्वतंत्रता के पहले या
बाद के सपनों और आदर्शों में भागीदार नहीं थे, क्योंकि तबतक हमारा
न तो जन्म हुआ था न हमने आजादी की लड़ाई को ही झेला था।”[15] बात चाहे जो भी
हो पर धूमिल की कविता में मोहभंग की मनोदशा वर्तमान है। ‘पटकथा’,
‘बीस साल बाद’, ‘शहर में सूर्यास्त’ आदि कविताओं में धूमिल ने मोहभंग की स्थिति का चित्र खींचा है। ‘पटकथा’ में कवि कहते हैं-
बाहर हवा थी / धूप थी
/ घास थी
मैंने कहा आजादी...
मुझे अच्छी तरह याद
है...
मैंने यही कहा था...[16]
इस आजादी के नशे में कवि आदर्श के बादलों पर कुलाँचे
भरने लगते हैं-
इस तरह जो था उसे मैंने
जी भरकर प्यार किया
और जो नहीं था
उसका इंतज़ार किया-[17]
कवि का शिद्दत भरा इंतज़ार लम्बे अर्से तक चलता
रहा-
मैं इंतज़ार करता रहा...
इंतज़ार करता रहा...
इंतज़ार करता रहा...[18]
लेकिन
इंतज़ार की घातक परिणति चीनी हमले और लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के रुप में सामने
आती है-
मगर एक दिन मैं स्तब्ध
रह गया।
मेरा सारा धीरज
युद्ध की आग से पिघलती
हुई बर्फ में
मोहभंग का असर अन्य कवियों पर भी पड़ा है। यह
तत्कालीन काव्य में प्रधान विषय बनकर उभरा है। अजय तिवारी यह बात स्वीकारते हुए
‘समकालीनता और कुलीनतावाद’ में कहते हैं-
“आजकल जिसे समकालीन कविता कहा जाता है, वह मोटे
तौर पर 1970
के बाद
लिखी गई कविता है। जो बात सबसे पहले ध्यान खींचती है, वह है स्वाघीनता
आन्दोलन की स्मृति और मोहभंग के हैंग-ओवर से उसका पूरी तरह मुक्त
होना।”[20]
लेकिन नन्दकिशोर नवल मोहभंग के स्वीकार-अस्वीकार
को लेकर मध्यमार्गी रुख अपनाते हुए कहते हैं- “कवि का मोहभंग
अतीत से भी हुआ है और वर्तमान से भी।”[21] बाद में नवल जी
ने धूमिल के मोहभंग को स्वीकारा पर उसे नई कविता के अन्य कवियों से पृथक माना। वे कहते
हैं- “नई कविता के कवियों की कविता में उनके मोहभंग से एक मोड़
आता है। वे यथार्थवाद की दिशा में कदम बढ़ाते हैं। लेकिन धूमिल की बिल्कुल आरम्भिक
कविताओं को छोड़ दें, तो ऐसा कुछ नहीं है। नई कविता के कवियों
में मोहभंग से पैदा होनेवाली गहरी पीड़ा है। धूमिल को झटका तो लगता है, लेकिन वे चित्कार नहीं करते, जैसे तमाम चीजों को स्वाभाविक
रुप से लेते हैं। श्रीकांत वर्मा को मोहभंग उन्हें सिनिसिज्म तक ले जाता है,
लेकिन धूमिल सिनिक नहीं होते। वे अपने को जनतंत्र की व्यवस्था अथवा जनतांत्रिक
व्यवस्था पर केंद्रित करते हैं और उसकी असलियत उजागर करने लगते हैं। जनतंत्र को रघुवीर
सहाय भी अपना निशाना बनाते हैं, लेकिन उनमें उसके प्रति जहाँ
आलोचना का भाव है, वहाँ धूमिल में आक्रोश का भाव है। धूमिल की
जन प्रतिबद्धता अधिक स्पष्ट नहीं, अधिक दृढ़ भी है औऱ उनका एक
पाँव शहर में है तो दूसरा गाँव में।”[22]
विक्षोभ वहीं है जहाँ आकांक्षाओं के पूरित न होने
का अधैर्य है। बात जनतंत्र या प्रजातंत्र की हो तो धूमिल गहरे अधैर्य के कवि हैं। उनके
अंदर अलमारियों में बंद किताबों का विवेक नहीं बल्कि ऊब को आकार देने की छटपटाहट है
क्योंकि वह इस व्यवस्था से नाखुश है। मुक्तिबोध में भी व्यवस्था के प्रति असंतोष दिखा
है। ‘मैं तुमलोगों से दूर हूँ’ में मुक्तिबोध
ने कहा-
इसीलिए कि जो है उससे
बेहतर चाहिए
पूरी दुनियाँ साफ करने
के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं नहीं हो
पाता
पर, रोज कोई भीतर
चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा
हो
मुक्तिबोध ने स्वीकारा कि उनके भीतर व्यवस्था-परिवर्तन के लिए रोज कोई चिल्लाता है, पर वो कुछ नहीं
कर पाते। इस नहीं कर पाने के अपराध-बोध का उन्हें अहसास है लेकिन
यह भाव धूमिल में नहीं है। धूमिल ने व्यवस्था पर कुठाराघात किया, पर उसको बदलने के लिए कोई कदम नहीं उठाया और ऐसा नहीं कर पाने की स्थिति में
उन्हें कोई अपराध-बोध का अनुभव नहीं हुआ। “इसीलिए मुक्तिबोध एक ईमानदार जनवादी कवि के रुप में धूमिल से बीस पड़ते हैं।
अपनी जिम्मेदारी नकारने के कारण धूमिल की कविताओं में विद्रोह के स्वर और आक्रामकता
अधिक मुखर है।”[24] जहाँ भी धूमिल
की कविता में प्रजातंत्र का जिक्र हुआ है, उनकी आवाज में व्यंग्य
की धार और तेज हुई है। जनतंत्र व प्रजातंत्र के संबंध में उनकी उक्तियों को देखकर व्यवस्था
के प्रति उनकी असहमति साफ तौर पर प्रकट होती है। यथा-
·
न कोई
प्रजा
है
न कोई
तंत्र
है
यह आदमी
के
खिलाफ
आदमी का
खुलासा
·
दरअस्ल अपने यहाँ जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
धूमिल
ने
पूर्ववर्तियों
की
तरह
जनता
के
लिए
किताबी
संवेदना नहीं दिखाई,
न
अपने
समकालीनों
की
तरह
आत्ममुग्धता
में
खोए
रहे।
वह
जानते
हैं
कि
भूख
से
बलबिलाते
आदमी
अपनी
जरुरतों
में
असहाय
है
और
उनका
सबसे
बड़ा
तर्क
रोटी
है।
उन्होंने
अपने
वक्त
को
जितना
जिया,
उतना
कविता
में
दिया।
जनतंत्र
का
युटोपिया
उनकी
कविता
में
जार-जार
नज़र
आता
है-
हवा
से फड़फड़ाते हुए हिन्दुस्तान के नक्शे पर
इस अव्यवस्था की तह में उस तीसरे आदमी का हाथ
है, जो न रोटी खाता है, न रोटी बेलता है
बल्कि रोटी से खेलता है। ‘मोचीराम’ कविता
में उस तीसरे लालची आदमी की बनिया सचाई को दिखाया गया है-
न वह अक्लमन्द है / न वक्त का
पाबंद है
उसकी आँखों में लालच
है / हाथो में घड़ी है
उसे कहीं जाना नहीं
है / मगर चेहरे पर / बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है / या बिसाती
है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर
का नाती है...[28]
धूमिल जनतंत्र के असफल होने की घोषणा हिंदी में
सबसे तीखी आवाज में करते है। ‘पटकथा’ में
अधमरे जनतंत्र के सड़ने का एक जुगुप्सापूर्ण दृश्य देखिए-
लेकिन मुझे लगा कि एक
विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु
पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा
हुआ घाव है
जिससे लगातार भयानक
बदबूदार मवाद
बह रहा है
उसमें जाति और धर्म
और सम्पदाय और
पेशा और पूँजी के असंख्य
कीड़े
किलबिला रहे हैं और
अंधकार में
डूबी हुई पृथ्वी
(पता नहीं किस
अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ांध को चुपचाप
सह रही है...[29]
इस
असफल जनतंत्र की मौत की प्रतीक्षा पूरी व्यवस्था एवं परिदृश्य के प्रति घृणा व्यक्त
कर रहा है। यह घृणा असहमति,
आक्रोश से गुजरती हुई जब अपने चरम पर पहुँचती है तो निराशा का रुप ले
लेती है। नन्दकिशोर नवल ने ‘कविता की मुक्ति’ में जिक्र किया है कि धूमिल की निराशा का मुख्य कारण ‘राष्ट्रीय जीवन के यथार्थ को समग्रता में न समझ पाना’[30] है । यह सच है
कि धूमिल ने विचारधाराओं को समझने-समझाने में ध्यान नहीं झोंका
बल्कि इनके आड़ में छिपे लालच के खेल को उघारा है। हर विचारधारा अंत में विश्वास तोड़ती
है, यही उनकी निराशा और क्रोध का सूत्र है। जब निराशा उन्हें
घाव की तरह टीसने लगता है, तब वह ‘पराजय-बोध’ जैसी कविता भी लिखते हैं जिसे पढ़कर निराला की
‘मैं अकेला’ वाली मनःस्थिति याद आती है।
इस
प्रकार विक्षुब्ध कवि धूमिल की कविता में जनता के निरीहता के प्रति ‘करुणा’,
अवसरवादी लालचियों के प्रति ‘क्रोध’ और व्यवस्था की दुर्दशा से उत्पन्न ‘घृणा’ तीनों भावों का ही साक्षात्कार होता है जो उनकी कविता में विक्षोभ रस के परिपाक
को पूरा करता है।
अगर
धूमिल को उनसे कोई गैरवाकिफ़ सख़्श पहली बार पढ़े तो वह उनकी अनूठी शैली और हथौड़ी-भाषा के कारण
जरुर चकरा जाएगा। उनके यहाँ कविता भाषा के पतित स्तर पर उतर कर भी समाज के सतीत्व की
थाह लेने में सक्षम है। ‘कुछ पूर्वग्रह’ में अशोक वाजपेयी ने धूमिल की कविता ‘माध्यम की समस्याओं
के प्रति जागरुकता’[31 को विशेष रुप
से रेखांकित किया है। उन्होंने धूमिल की कविता में ‘रुपवादी आग्रह’[32] के चिपटे रहने
का संकेत देते हुए उन्हें मुक्तिबोध की ‘समावेशी परंपरा का उपयुक्त
उत्तराधिकारी’[33] करार दिया है
क्योंकि धूमिल ने भी मुक्तिबोध की तरह कविता में ही कविता पर बहस करते हुए उसे सामाजिक
संदर्भ से जोड़ा है। यह अपने ढंग की प्रगतिशीलता है, जो प्रगतिवाद
की चौहद्दी के बाहर खड़ी है। वाजपेयी जी धूमिल की इसी ख़ासियत की वजह से कहते हैं कि
“कविकर्म में ऐसा अडिग विश्वास, जैसा उनके यहाँ
है, उनके सहकर्मियों में दुर्लभ ही है। यही नहीं बल्कि यह धारणा
भी स्पष्ट और अनिवार्य रुप से बनती है कि धूमिल कविता को मुनासिब कारवाई मानते हैं;
कविता के प्रति जो कामचलाऊ रवैये अनेक नये प्रगतिशीलों में है उससे वे
सर्वथा मुक्त थें।”[34]
आलोचकों
में प्रगतिशील कवियों की कविता के रुपपक्ष को भावपक्ष के सामने उपेक्षित रखने की आदत
है। प्रायः रुप व रुपवाद को अभिजात काव्यधारा से जोड़कर देखा जाता है क्योंकि प्रायः
रुपवादी रुझान की कविता जन-मन की चिंताओं के बदले निज-मन की आतुरताओं को तरजीह देती
है तथा शाब्दिक सौंदर्य, भाषिक भंगिमा, वाचिक व्यंजना को महत्व देने के कारण आस्था, समर्पण एवं
रुमानियत काव्य का मूल स्वर बन जाता है। परन्तु किसी ने इस बात की जाँच नहीं की कि
विरोध या विक्षोभ की कविताओं की रुपवादी अभिव्यक्ति कैसी होगी ? उत्तर है- धूमिल की कविता जैसी होगी।
धूमिल
तुकबंदी की आलोचना करने के बावजूद खुद अव्वल दर्जे के तुक्काड़ हैं। इसी कारण उनकी
कविताएँ चर्चित भी हैं। भदेस भाषा के बलिष्ठ कवि होने के नाते वह अपनी कविता में भाषा, शब्द,
कविता और कवि पर अनवरत बहस करते हुए चलते हैं। इसमें उनके काव्य का संवेदन
पक्ष कहीं भी उपेक्षित नहीं हुआ। कभी-कभी तो शब्द और भाषा की
चर्चा संवेदना पक्ष को ही प्रकट करने के लहजे से आती है। कुछ उदाहरण-
·
इस देश के बातुनी दिमाग में
किसी विदेशी भाषा का सूर्यास्त
·
उन्हें तुम्हारी भूख पर भरोसा था
सबसे पहले उन्होंने एक भाषा तैयार की
जो तुम्हें न्यायालय से लेकर नींद से पहले
की- / प्रार्थना तक, गलत रास्तों
पर डालती थी...[36]
·
उसके लिए कविता सिर्फ शब्दों की बिसात नहीं
‘खून के बारे में एक कविता’ में धूमिल कविता के धर्म को प्रकट करते हैं-
...कविता मारती
नहीं
जानें बचाने की कोशिश
में
धूमिल
की कविता की भाषा में अमूमन कुछ भी बेमतलब का नहीं है। हर वाक्य, शब्द,
मात्रा का मतलब है- यहाँ तक कि शब्दों और पंक्तियों
के बीच के खाली जगहों का भी मतलब है। उनकी भाषा के शब्दों और बिम्बों को देखने से लगता
है कि वे अपनी जिंदगी और दौर के ताप से अंदर तक जले हुए हैं। यह जलन ही विक्षोभ की
भाषा बन गई है, जिसके तरंग में आकर कवि नें शब्दों के त्याज्य
व ग्राह्यता पर विचार करने की सुधी नहीं ली। उनका एकमात्र लक्ष्य विक्षोभ को पूरी शक्ति
से प्रकट करना है। भाषा का यह अक्खड़ लहज़ा धूमिल की इज़ाद है, जिसने उस दौर को ही नहीं बल्कि पूरी कविता-परम्परा के
लिए सोची-समझी बौद्धिक शैली में भावुक विक्षोभ प्रकट करने का
रास्ता खोला दिया।
धूमिल
ने अधैर्य को अधैर्य की भाषा में पेश किया है। उनकी कविता अधैर्य का एक वृहत सामासिक
चित्र नहीं बनाती,
बल्कि कई छोटे-छोटे बिम्बों के जरिए स्थिति के
संजीदेपन का आभास कराती है। इस अर्थ में धूमिल भाषा के चित्रकार हैं। उन्हें एक चित्रकार
की भाँति ‘हिडेन ब्यूटी’ की तलाश रहती है।
पर उनके स्नैपशॉट का फोकस कविता के कुलीन सौंदर्यबोध से अलग है। उनकी भाषा को सबसे
ज्यादा पहचाना जाता है- अधैर्य के स्तर पर शब्दों के प्रयोग के
लिए। अधीर-असंतुष्ट व्यक्ति ही अमर्यादित हो सकता है। बात देश
के जनतंत्र की हो तो धूमिल जैसा अधीर और असंतुष्ट आदमी मिलना दुर्लभ है। ऐसे में एक
दुर्लभ हद के असंतुष्ट आदमी की भाषा से मर्यादा की उम्मीद रखना बेमानी लगती है। उनकी
कविता का सौंदर्यबोध अनुभूत जगत के सुंदर पर नहीं असुंदर पर टिका है। उनकी भाषा असुंदर
को सुंदर तरीके से पकड़ती है। काशीनाथ सिंह भी कहते हैं- “उसने
भाषा को उसकी जिम्मेदारी की तरह तैनात किया। उसने कविता को एक खास तरह के मुँहफट और
खुर्राट ज़बान दी।”[39]
इस
तरह विक्षोभ के कवि धूमिल अपने संदर्भों पर अडिग हैं। बिना किसी लाग-लपेट उन्होंने
गलत को गलत की औकात तक गलत कहने की हिम्मत दिखाई। अपनी कविता को किसी वाद का मेनिफेस्टो
नहीं बनाया और न ही किसी पार्टी का नारा बनने दिया। उनकी कविता सचाई के लिए लड़ी है
और अब तक सचाई के लिए ही खड़ी है।
संदर्भ
[1] धूमिल, संसद से सड़क तक, संस्करण-1997, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-7
[2] धूमिल, कल सुनना मुझे, संस्करण-2010, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-109
[3] धूमिल, संसद से सड़क तक, संस्करण-1997, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-9
[4] वही, पृष्ठ-10
[5] वही, पृष्ठ-61
[6] धूमिल, सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र, प्रथम संस्करण-1984, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-52
[7] वही, पृष्ठ-65
[8] धूमिल, संसद से सड़क तक, संस्करण-1997, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-15
[9] वही, पृष्ठ-17-18
[10] नागार्जुन, विषकीट (निबंध), नागार्जुन रचनावली-6, शोभाकान्त (सम्पादक), पहली आवृत्ति-2011, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-283
[11] वही, पृष्ठ-284
[12] वही, पृष्ठ-284-285
[13] पांडेय, मैनेजर, नागार्जुन के यहा विक्षोभ रस (लेख), आलाव (नागार्जुन जन्मशती विशेषांक), जनवरी-फरवरी-2011, रामकुमार कृषक (सम्पादक), दिल्ली, पृष्ठ-23-24
[14] मिश्र, ब्रह्मदेव, धूमिल की श्रेष्ठ कविताएँ, प्रथम संस्करण-2009, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ-7
[15] नवल, नन्दकिशोर, समकालीन काव्य-यात्रा, संस्करण-2004, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-253
[16] धूमिल, संसद से सड़क तक, संस्करण-1997, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-99
[17] वही, पृष्ठ-100
[18] वही, पृष्ठ-101
[19] वही, पृष्ठ-103
[20] तिवारी, अजय, समकालीन कविता और कुलीनतावाद, पहला संस्करण-1994, राघाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-252
[21] नवल, नन्दकिशोर, समकालीन काव्य-यात्रा, संस्करण-2004, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-255
[22] वही, पृष्ठ-256
[23] मुक्तिबोध, गजानन माधव, प्रतिनिधि कविताएँ, चतुर्थ संस्करण-1999, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पृष्ठ-84
[24] सिंह नरेंन्द्र, आधुनिक साहित्य चिंतन और कुछ विशिष्ट साहित्यकार, प्रथम संस्करण-1990, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-113
[25] धूमिल, सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र, प्रथम संस्करण-1984, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-18
[26] धूमिल, संसद से सड़क तक, संस्करण-1997, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-105
[27] वही, पृष्ठ-10
[28] वही, पृष्ठ-39
[29] वही, पृष्ठ-119
[30] वही, पृष्ठ-144
[31] वाजपेयी, अशोक, कुछ पुर्वग्रह, दूसरा संस्करण-2003, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-40
[32] वही, पृष्ठ-41
[33] वही, पृष्ठ-41
[34] वही, पृष्ठ-42
[35] धूमिल, संसद से सड़क तक, संस्करण-1997, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-43
[36] वही, पृष्ठ-47
[37] धूमिल, कल सुनना मुझे, संस्करण-2010, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ-75
[38] वही, पृष्ठ-90
[39] सिंह, काशीनाथ, आलोचना भी रचना है, संशोधित संस्करण-1996, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, नई दिल्ली, पृष्ठ-17
संदीप प्रसाद
(वर्तमान में पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी अंचल में रहता हूँ। कविताएँ, आलेख एवं चित्र (रेखा व जलरंग) कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके है। पेशे से स्कूल शिक्षक और उत्तर बंग विश्वविद्यालय, दार्जिलिंग से शोधरत।)
मो.- 9333545942 / 9126002808,
ई-मेल sandeepjpg@gmail.com,
एक टिप्पणी भेजें