साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
नवम्बर-2013 अंक
जो ज़मीन से नहीं थे जुड़े
वो ही ज़मीनों को ले उड़े।
षड़यंत्र-अश्व की ठोकर से मेरी प्रतिमा हो गयी नष्ट
मेरे भीतर सुकरात, बुद्ध, ईसा, गांधी
इसलिये सहज सह लिया कष्ट।
जेठ की उस दुपहर तो
फट ही गया था आसमान का ज्वालामुखी
वह तो कवच था पसीने का
जो मैं चलता ही गया जानिबेमंजिल।
चाँदी के अंगवस्त्र में
सजती रही शुक्लाभिसारिका पूनम
और निहारता रहा निष्ठुर नभ
गोलार्द्ध के उस पार की धूप।
उम्र की बल्लियों पर
टांगता रहा जीवन का हर पल
पता ही ना चला
पांवों को कितना धॅंसाता ले गया ज़मीन का दलदल।
विमर्शों के नक्कारखाने में
मेरी अस्मिता
तलाशती है
तलाशती है
कोई कुंवारा टापू।
भूमण्डलीकरण के रथ पर सवार पूंजी
बाजार की ध्वजा
विज्ञापन के बाण
और लक्ष्य
आम आदमी के सपने।
आम आदमी के सपने।
यह कैसा अद्यतन संस्करण काल का
जिसके पाटे पर
क्षत-विक्षत इतिहास
क्षत-विक्षत इतिहास
चिता पर जलते आदर्श
जिनके लिये शहीद हुए थे
कितने ईसा और सुकरात।
कितने ईसा और सुकरात।
कालचक्र की गिरारी में
फॅंसी पृथ्वी
चाहती अपनी
कुंवारी आदिमता।
दुनिया का भला आदमी
रोटी के लिये लड़ता-लड़ता
बन गया सबसे बुरा।
सर्द अंधेरी भूतहा रात में
उसे देखते ही
मैंने पूछा-
’क्या तुम भी सड़कों पर उतरते हो इस कदर?
साजिशों के कुरूक्षेत्र में
भांजता ही रहा वह
अनुभूत सत्य की लाठी।
हटाते ही पत्थर
उठ खड़ी हुई
कब से दबी घास।
मारो मुझे एकमुश्त
महॅंगा ना पड़ जाय
किश्तों में किया मेरा कत्ल।
बनना मुंसिफ
सोच समझ कर
सोच समझ कर
हो न कहीं
तू कातिल मेरा।
बोलने की तो क्या
असल वजह होती है
ना बोलने की।
ताल्लुक है कोई
भीतर के लावे का
पृथ्वी की हरी-भरी परत से।
तलाश रहा मैं
कब से आग वो
राख कर दे
दूसरी को जो।
दूसरी को जो।
गाँव जलाने आये थे सब
मेरी कुटिया
पड़ गई भारी।
भोंक रहा कुत्ता संध्या से
बस्ती जागी
आधी रात।
मस्तिष्क कंदराओं में
कब से दुबकी यादें
बाहर आने को झाँक रही
अब मांग रही कुछ शब्द उधार
सावधान है छुईमुई अब
छूना सोच समझकर भाई
बदला वक्त
छिपी आँचल में तेज कटारी
कालखण्ड की परतों में छिपकर बैठा जो
पड़ी नजर इतिहासविज्ञ की
मिथकों के तहखानों में धॅंस गया अचानक
प्लेटो को पसंद नहीं थे कवि वो
सीधी सी बात को
उलझा देते जो
‘बहुत हो चुका‘
चेले के पतीले में तैश उफना
‘जो है तू करामाती‘
बना दे सीधा गुरु ही
धरा-धुरी को पकड़
नाभि छू
नाप रहा सागर, आकाश
फिर भी चैन नहीं।
जमाना यह कैसा आया
ना हॅंसने की तरह हॅंसा जाता
ना रोने की तरह रोया।
लोकतंत्र में एक जम्बूरा ठोकतंत्र का
दिखता दूजा भोगतंत्र का
और तीसरा ढोकतंत्र का
किंतु नहीं है लोक-मदारी ठोसतंत्र का।
यक्ष-वेदना से हो प्रेरित
निर्वासन के कृष्णपत्र पर
विरह-रक्त की मसि से लिखा
कालिदास ने मेघदूत।
हॅंसी द्रोपदी जीवन में दो बार
फिसला था जब अहंकार स्फटिक सतह पर
और दुबारा
शरशैया पर नीति भूलता राजसभा का मूक अतीत।
काली रात के खौफनाक साये में
उम्मीद के खम्भों पर
वह बुजुर्ग टांगे जा रहा था
असंतोष के पोस्टर।
नागिनों के समंदर सी
लहराती-गहराती जा रही थी रात
वह शख्स देखे जा रहा था
भोर की पताका उठाते लाल सपने।
ठर्रा के पलीता ने
आग लगा दी गुस्से की भट्टी में
मजदूर ने पहली बार जुबान खोली
‘पल-पल का हिसाब लूंगा हरामियों से।‘
जुआ उठाये बैलों को उसने टचकारा
हल का फाल धॅंसता गया सूखी जमीन में
उम्मीदभरी नजरों से
वह नापने लगा पूरा आकाश।
कर्ज के इतने भारी पत्थर थे दिमाग में
कि, स्याहीसना अंगूठा ही
खुद ब खुद चस्पां हो गया
बही के कागज पर।
फिर चुनाव की भेरी बजी
नूराकुश्ती नेताओं की
बेबस जनता उनके आगे
बारबार बाजी में हारी।
गिद्ध दृष्टि आला कुर्सी पर
तीसमारखा एक बोलता उल्टा-सीधा
दूजा कुर्सी पकड़े चुप है
उधर नये मुल्ले के किस्से।
देख रूपैया
भांड मीडिया ढोल बजाता
चाल चुनावी चले मदारी
जम्बूरियत बनी जम्बूरा।
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शतरंजी बिसात पर आओ
राजनीति के सब उस्तादो
छासठा साला बूढ़ा भारत
देखो तो, कितना सदमे में।
दर्जनभर से ज्यादा निकले
पत्र घोषणाओं के फिर से
नारों के नक्कारालय में
सुनें कौन जनता की तूती।
फिर से दिखे सभी नंगे
चुनाव के इस दंगल में
इकदूजे के रहे फाड़ते
धोती और पायजामा सब।
प्रजातंत्र की बूढ़ी गैया
भटकी फिर चुनाव जंगल में
तन-मन कैसे नौंचे जाते
राजनीति के रीछ-बघेरे।
आओ, खेलें बोटमबोट
जनता पर दावों की चोट
नेता भाई, पीटो ढोल
छिपी रहे सब पोलमपोल।
अब के नये मदारी आये
काला जादू लेकर आये
इधर बाप-दादी की बातें
उधर सब्जबागी सौगातें।
छीना-झपटी धक्कमपेल
मतवाले मतदाता झेल
हर खेमा में चकरमलीदा
मौका आया, लगा सभी के चूना-तेल।
हरिराम मीणा ऐतिहासिक उपन्यास धूणी तपे तीर से लोकप्रिय सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी, विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफ़ेसर और राजस्थान विश्वविद्यालय में शिक्षा दीक्षा ब्लॉग-http://harirammeena.blogspot.in 31, शिवशक्ति नगर, किंग्स रोड़, अजमेर हाई-वे, जयपुर-302019 दूरभाष- 94141-24101 ईमेल - hrmbms@yahoo.co.in फेसबुकी-संपर्क |
बहुत ही खूबसूरत छोटी - छोटी कवितायेँ !
जवाब देंहटाएंअनुपमा तिवाड़ी
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