साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) दिसंबर-2013
चित्रकार:अमित कल्ला,जयपुर |
(1) अपने हिस्से की लड़ाई
रिश्तों की लाशें ढोते-ढोते
थके हैं कंधे कई बार
ताउम्र नकली अभिनय में जिए
चेहरे थके इधर कई बार
कितनी बार सकुचाए
दबे रहे कुछ न बोले
पाँव धरे इस देहरी जब से
सबकुछ सहा उनका दिया उपहार
पलटवार न कुछ भी किया
किससे छुपा है मोहल्ले में अपना किस्सा कि
न हँस सके न रो सके ठीक से खुलकर
अभिशाप समझ पी गए सब हम
गूंगे रहे बहरे बने
कभी-क ज़िंदा लाशों में हो तब्दील
ऊंची आवाज़ों वाले फरमानों पर चलते रहे
बिना किए तक़रार
मगर न टूटे आखिर तक हम
बने रहे अटूट
यही हासिल था हमारा
दमभर साँसे खींची हरपल
चले हम भरसक
रुके नहीं
दबे नहीं रिश्तों के बोझ तले
मरे नहीं मरो हुओं के बीच
ज़िंदा रह लड़ते रहे
अपने हिस्से की लड़ाई
यही हासिल था हमारा
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(2) जीवन की असली कखग
जीवन में अक्सर मिले हमें मुर्दा लोग
पहचान हुई
हुआ संवाद भी
निराशा से लथपथ उनके मन
चेहरों पे लकीरें चिंता की
गज़ब लोग थे वे
रहे देर तक साथ हमारे
साथ चले भी दूर तक
फिर बिछुड़े भी हमसे
इस आते-जाते में सीख गए हम भी
जीवन की असली कखग
दुःख के पल में बिखरे नहीं
फिर रख्खा खुद को सुगठित
न आँखें नम हुई कभी इधर
न उधर वाक्य पड़े ढीले कभी
राह चलते बाँटी खुशियाँ हमने
टटोले जब भी दूजों के जीवन
पाया दुःख तो साथ हो लिए कुछ पल
चेहरों पर उनके पोत दिया हमने
अबाध मुस्कराहटों का सफेदा
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सीमा पारीक
स्कूली व्याख्याता(हिंदी),
आकाशवाणी से प्रसारित,
कविता आदि में रुचि
संपर्क
आकाशवाणी कॉलोनी के सामने,
गांधी नगर,चित्तौड़गढ़-राजस्थान,
मो-9166178404
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