साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) दिसंबर-2013
चित्रकार:अमित कल्ला,जयपुर |
सारे लड़के वहीँ कैंटीन के एक छोटे से हिस्से में ही रहा करते थे. तारीफ की बात
ये थी कि सारी तकलीफों के बावजूद भी उनमे निराशा नहीं दिखती थी. एक बार हम तीन चार
लोगों को ऑफिस में काम करते हुए काफी देर हो गयी थी. चूँकि काम के वक़्त के बाद
सिर्फ दो लिफ्ट ही चला करती थीं इसलिए लिफ्ट मिलने में काफी देर लगा करती थी ,
ऐसे में हम लोग मन
मार पैदल ही सीढियां उतरा करते थे. तो उस दिन भी हम सीढियां उतर रहे थे के सातवी
मंजिल पर पहुँचने पर खूब ज़ोर से शोर मचने की
आवाज़ सुनाई देने लगी. हमने ध्यान दिया तो ये आवाजें हमे कैंटीन से आती
लगीं...हम लपक कर उस तरफ गए तो क्या देखते हैं.सतीश की आँखों पर एक कपडा बंधा है और सब लड़के उसे घेरे
हुए शोर मचा रहे हैं. साथ साथ जिसको मौका
मिलता वो उसके सर पर एक चपत लगा देता था.सतीश
हाथ फैलाए हुए इधर उधर घूम रहा था.
हम फ़ौरन उनके पास गए . मैं कड़क कर बोला," ये क्या हो रहा है, तुम लोग इस तरह से घेर
कर सतीश को क्यों मार रहे हो ?" मेरी इस फटकार से सारे लड़के सहम कर चुप हो गए थे. और
कुछ डर कर एक कोने में खिसक गए थे. तभी सतीश ने अपनी आँखों से कपडा उतारा और कुछ
गुस्से भरे स्वर में बोला , " क्या साब आपने आकर हमारा खेल खराब कर दिया?" मैं चक्कर खा गया. अरे
एक तो मैंने इसे पिटने से बचाया, ऊपर से ये मुझ से कह रहा है खेल खराब कर दिया. मैंने यही बात उससे कही तो वो खूब ज़ोर से हंस
पड़ा , उसके
साथ साथ उसके सभी साथी भी अपना डर भूल कर
हंसने लगे.अब मेरी बारी अजीब सा
दिखने की हो गयी. मैंने पूछा , " तुम लोग इतना ज़ोर से
हंस क्यों रहे हो?" सतीश बोला , " साब हम लड़ थोड़े ही रहे थे , हम लोग तो चोर सिपाही का खेल खेल
रहे थे..रोज़ कैंटीन का काम ख़तम होने के बाद हम यही खेलते हैं. यही हमारा मनोरंजन
है. उसके बाद रात का खाना बना कर खाकर सो जाते हैं, सुबह पांच बजे उठाना जो होता है....आप भी न साहब बेकार में परेशान
गए."ये सुन कर मेरे साथी भी हंसने लगे.
मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा, " खेलो, खेलो. तुम लोग खेलो........हम
चलते हैं. " और हम लोग वहां से निकल लिए.
हमारा ऑफिस मुंबई के अत्यंत महंगे इलाके कफ परेड में था. वो एक २१ मंजिला
इमारत की चार मंजिलों में फैला था. हालांकि वहां ६ -६ लिफ्ट
लगीं थीं.पर समस्या ये थी कि कैंटीन के लड़कों को उनमे जाने का मौका कम ही मिल पाता था. लिफ्ट को ऊपर नीचे आने जाने में
इतना वक़्त लगता था के अगर वो लिफ्ट का
इंतज़ार करते खड़े रहते तो उनके हाथ में पकड़ी चाय , नाश्ता ठंडा हो जाता और फिर तो
वो चाय नाश्ता जिसके पास भी जाता था वो इन लोगों को जम कर डांट लगाता था. इसलिए
मजबूरन कैंटीन के इन लड़कों को सीढ़ियों से
ही ऊपर नीचे आना जाना पड़ता था. अब कैंटीन
थी सातवीं मंजिल पर और जहां मैं बैठता था वो जगह थी नवीं मंजिल पर. मेरी मंजिल पर
सतीश की ड्यूटी रहा करती थी.
उस मंजिल पर कम से कम पचास लोग तो काम करते ही थे. सबको चाय नाश्ता पहुंचाने
कि ज़िम्मेदारी सतीश की ही थी.मुझे नहीं
पता के वो दिन में कितनी बार सातवीं मंजिल से नवीं मजिल के चक्कर लगाता था. पर उसे
जब देखो तब वो नवीं मंजिल पर ही किसी को चाय देता किसी को नाश्ता देता नज़र आत़ा
था. कितनी फुर्ती से वो नीचे जाता होगा, कितनी फुर्ती से सामान लेकर ऊपर आत़ा होगा, इसका तो अंदाज़
लगाना भी मेरे लिए मुश्किल था..क्योंकि
मुझे अगर कभी कैंटीन में जाना पड़ता था तो मैं नवीं मंजिल से उतर कर सातवीं पर चला
तो जाता था पर वापसी में अगर सीढ़ियों से आना पड़ता था तो मेरी तो जैसे शामत आ जाती
थी.
एक दिन मैंने उससे पूछ ही लिया था," सतीश , तू दिन में कितनी बार ऊपर नीचे
आत़ा जाता रहता है." उसने कहा , " कभी गिना नहीं, पर कम से कम पचास साठ बार तो हो जाता होगा." पचास साठ बार .
हे भगवान् ." मेरे मुह से अपने आप निकल गया. उस वक़्त मुझे अपना एक बार का
चढ़ना उतरना याद आ गया. और सच कहूँ तो वो
याद करके बैठे बैठे ही मेरी सांस फूल गयी थी. पर वो , वो तो यूँ मुस्करा रहा था जैसे
ये कोई बात ही न हो.
उसके जाने के बाद मैंने अपने एक साथी से कहा ," सुना तुमने ये लड़का दिन में
पचास साठ बार ऊपर नीचे आत़ा जाता है. है न
कितने ताज्जुब की बात ?' मेरे साथी ने इस पर बड़ी
बेरुखी से कहा , " तो कौन सा बड़ा काम करता है, वो कैंटीन का वेटर है, उसे तो ये सब करना ही है
अगर इस तरह से भागा दौड़ी नहीं करनी थी तो पढ़ लिख कर इंसान बनने की कोशिश करनी
चाहिए थी." ये बात मुझे बुरी लगी. मैंने अपने साथी से कहा ," क्यों क्या जो पढ़े लिखे
नहीं होते हैं, वो इंसान नहीं होते हैं. उनके शरीर में जान नहीं होती है. उनको क्या थकान नहीं होती है." मेरे साथी ने इन बातों का
कोई जवाब नहीं दिया.
पर अपने साथी की बात मेरे मन में चुभ
गयी थी. मैंने एक दिन सतीश से पूछ ही लिया, " सतीश तेरी उम्र तो पंद्रह साल के करीब है., ये उम्र तो बच्चों के पढने
लिखने की होती है, तू क्यों नहीं पढाई लिखाई करता
है."
मेरी बात सुनते ही सतीश की आँखें गीली हो गयीं. वो कुछ नहीं बोला बस वहां से
चुपचाप चला गया.पर उसकी आँखों का गीलापन मुझसे छिपा नहीं रहा था. मेरा दिल अब उसके
दिल का दर्द जानने के लिए बेचैन हो उठा था.
एक दिन मैं जान बूझ कर ऑफिस के समय के
बाद भी काम करता हुआ बैठा रहा.जब सब चले गए तब मैंने कैंटीन में intercom
पर चाय के लिए
कहा. कैन्टीन के मैनेजर ने कह दिया कि
साहब अभी केंटीन बंद हो गयी है,
इसलिए चाय नहीं
मिल सकती है," . पर तभी मुझे दूर से आती
सतीश की आवाज़ सुनाई पड़ी," चाय चाहिए साहब मैं लाता
हूँ." मैंने देखा कि सतीश वहीँ हमारी मंजिल पर ही था. मैंने आश्चर्य से उसे
देखा. वो मेरे पास आया और बोला ," मैं यहाँ चाय के जूठे प्याले उठाने आया था...आपकी
बात सुनी तो मैं समझ गया कि कैंटीन मैनेजर ने मना कर दिया होगा...बड़ा ही कामचोर
है......उसका बस चले तो सुबह दस बजे ही कैंटीन के बाहर सब माल खल्लास का बोर्ड
टांग दे.वो खुद तो मालिक है नहीं जो उसे कैंटीन की ज्यादा चिंता हो....आप फिकर न
करें मैं लाता हूँ चाय आपके लिए."
मैंने कहा ," तू कैसे लाएगा जब कैंटीन बंद हो गयी है." वो बोला , " हमारी कैंटीन बंद हो गयी
तो क्या पांचवी मंजिल पर एक दूसरे दफतर की कैंटीन खुली होती है. वहां के लड़के मेरे
दोस्त हैं, मैं वहां से लता हूँ आपके लिए गरमागरम चाय."
मैंने मना करना चाहा, " नहीं, नहीं सतीश रहने दो." क्योंकि मेरा असली मकसद तो
सतीश से बात करना ही था, और मैं उसे रोकना चाहता
था, पर
उसने मेरी एक न सुनी फ़ौरन दौड़ता चला गया. कुछ देर बाद वो गर्मागर्म चाय लिए हाज़िर
था. उसने कहा ," लीजिये साहब
चाय."मैंने चाय लेते हुए कहा," बैठो सतीश तुमसे कुछ बात करनी है. "
वो पास पड़े एक स्टूल पर बैठने लगा . मैंने कहा ," अरे वहां स्टूल पर क्यों बैठ रहे
हो, कुर्सी
पर बैठ जाओ." " नहीं साब मैं यहीं ठीक हूँ, आप कम से कम बैठने के लिए तो कह रहे हैं , और सब लोग तो अगर बैठा
देखते हैं तो डांटते भी हैं और कैंटीन के
मैनेजर से भी शिकायत कर देते हैं. वो अलग से डांटता है. अब आप ही बताईये साहब सारा
दिन ऊपर नीचे दौड़ते दौड़ते क्या हमारे पैर नहीं दुख जाते हैं.आखिर हम भी तो इंसान
हैं, पर
हमारी तकलीफ को कोई नहीं समझता है."
आज पहली बार मैंने उसकी आवाज़ में दर्द
महसूस किया था. इतने सालों में पहली बार मैंने उससे पूछा ," तुम अपनी ज़िन्दगी के
बारे में कुछ बताओ सतीश, कहाँ के रहने वाले हो, घर में कौन कौन है, यहाँ कैसे आ गए.?"
सतीश ने कहना शुरू किया ," मैं केरल का रहने वाला हूँ,
वहां एक
शांत सुन्दर नदी किनारे के किनारे मेरा गाँव था, गाँव में चारों तरफ हरियाली थी
पर मेरे घर में सूखा था. घर में बहुत गरीबी थी.मेरे माँ बाप दूसरों खेतों में
मजदूरी करते थे. हम पांच भाई बहिन, और दो माँ बाप यानि साथ जनों का परिवार , कमाई बहुत कम थी , सबका पेट कैसे भरता ? रोज़ लगभग आधा खाना खा कर गुज़ारा करना पड़ता था. कभी हममे से कोई बीमार हो जाता था तो डॉक्टर से
दवा लाने तक के पैसे नहीं होते थे. फिर ही हम भाई बहिन बड़े खुश थे. हमारे जैसे कई
और भी घर थे. हम सब बच्चे मिल कर खूब शैतानी करते थे. टेलीविज़न तो हमारे गाँव में किसी के घर नहीं था. इसलिए
हमारा पूरा मनोरंजन बाहर खेलने में जाता था. सब बच्चे मिल कर खूब खेलते कूदते थे इसलिए हम लोग बीमार भी बहुत कम पड़ा
करते थे. रोज़ नदी में नहाते थे, नाव चलाते थे. और एक
दूसरे के साथ नदी पार करके दूसरे किनारे पर जाने कि रेस लगाते थे."
मैंने पूछा , " और पढाई? तुम लोग पढ़ते नहीं थे क्या?" सतीश बोला ," पढ़ते भी थे. गाँव में
एक सरकारी स्कूल था. उसके मास्टर साब
सप्ताह में तीन दिन ही स्कूल आते थे. बाकी तीन दिन वो मुझे ही बाकी बच्चों को
पढ़ाने की ड्यूटी देकर लापता रहते थे. ये तो बाद में पता चला के वो तीन दिन अपने
खेतों में खेती किया करते थे.पर वो जो भी पढ़ाते थे मैं उसे बड़े ध्यान से पढता था.
पांचवीं क्लास में मैं अव्वल आया था. पर
उसके बाद........."
ये कह कर वो चुप हो गया था. मैने पूछा ," फिर उसके बाद. क्या हुआ."
सतीश के चेहरे पर उदासी की रेखाएं उभर
आयीं थीं. उसके बाद एक साल गाँव में बहुत सूखा पड़ा था.हमारे घर में खाना खाने तक
के लाले पड़ गए थे. तब हमारे गाँव में इस कैंटीन वाले सेठ का एक आदमी आया . उसने
मेरे माँ बापू और मेरे कई दोस्तों के माँ
बापू को समझाया के इन लोगों को मुंबई शहर
भेज दो, वहां
ये लोग काम करेंगे , कुछ पैसे कमाएंगे तो तुम्हारे घर का खर्च चल जाएगा.हमारे गरीब माँ बाप के आगे
और कोई रास्ता नहीं था. और हमे उस आदमी के साथ यहाँ आना पड़ गया . अब यहीं
रहते हैं और हर महीने कुछ पैसे बचा कर घर
भेजते हैं ताकि वहां का खर्च चल
सके."
सतीश की ये कहानी सुन कर मेरी आँखों
के सामने अपने शहर के उन बच्चों की तस्वीर
घूमने लगी , जो अपने माँ बाप के पैसों की बिलकुल भी परवाह नहीं करते हैं और माँ बाप से
अनाप शनाप चीज़ों की मांग करते रहते हैं. उनकी उम्र का एक लड़का मेरे सामने बैठा था जो उनकी जैसी खेलने
की उम्र में कितनी ज़िम्मेदारी के साथ अपने
माँ बाप की मदद कर रहा था. क्या इसका मन नहीं
करता होगा दूसरें बच्चों को मौज मस्ती करते हुए देख कर. ये उस वक़्त कैसे
अपने मन को समझाता होगा. जब ये दूसरे बच्चों को अपने मम्मी पापा के साथ घूमता
देखता होगा तो क्या इसका मन अपने माँ -बाप को याद नहीं करता होगा?
मैंने सतीश से पूछा, " क्या तुम्हारा दिल नहीं करता है आगे पढने के लिए?"
सतीश बोला ,
" क्यों नहीं
करता है? मैं
भी पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहता हूँ." मैंने कहा," सच." उसने कहा." सच."मैंने कहा ," तो फिर कोशिश क्यों नहीं करते .? यूँ ही काम और खेल में अपनी
ज़िन्दगी क्यों गंवा रहे हो.?यहाँ कितने सारे नाईट
स्कूल हैं , अगर तुम पढाई नहीं करोगे तो ज़िन्दगी भर इसी कैंटीन के वेटर बने रहोगे '"
उसका चेहरा मेरी
बात सुन कर लटक गया था. मुझे उसका लटका हुआ चेहरा
देख कर लगा कि मैंने बिना बात उसका
दिल दुखा दिया है.
ये बात उस दिन वहीँ पर ख़तम हो गयी थी. दूसरे दिन से सतीश फिर से अपनी
ड्यूटी पर था. उसी तरह से हँसते मुस्कराते.पर अब मुझे ये सोच कर ताज्जुब होने लगा
था कि जीवन में इतनी परशानियाँ झेलने पर भी ये लड़का कितना खुश रहता है. मतलब कि
खुश रहने के लिए महंगे मंहगे खिलौनों कि ज़रुरत नहीं होती है, नहीं विडियो गेम्स की,
न दिन भर कंप्यूटर
पर बैठने की, बल्कि सबके साथ मिलजुल कर रहने में ज्यादा ख़ुशी हासिल हो सकती है. और मैंने
तो खुद उन सब लड़कों को पूरे दिन के थका
देने वाले काम के बाद मिल कर खिलखिलाते हुए चोर सिपाही खेलते हुए देखा था.
किस्मत से कुछ दिनों बाद , एक दिन फिर से मुझे ऑफिस के बाद देर तक रुकना पड़ा था. उस
दिन भी मैं सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था. सातवीं मंजिल के पास पुहंचा तो मुझे फिर से उन बच्चों का शोर सुनाई दिया. मैंने यूँ
ही वहां झाँका तो देखा कि सभी बच्चे चोर सिपाही खेल रहे थे लेकिन उनमे सतीश नहीं था. अब मुझे अपनी पिछली बात पर
और दुःख होने लगा.दूसरे दिन जब सतीश सुबह चाय लेकर आया तो मैंने पूछा, " अरे सतीश कल शाम तुम कहाँ थे?
अपने साथियों के
साथ खेल नहीं रहे थे ? " तो वो हंस कर टाल गया.
बात यूँ ही आई गयी हो गयी. मुझे ऐसा लगने
लगा था कि उसके निजी जीवन में दखल देकर मैंने बहुत गलत किया है. इसलिए मैंने
इस बारे में उससे बात करना बंद कर दिया था.अप्रैल के आखिरी सप्ताह की बात है एक दिन अचानक सतीश मिठाई का डिब्बा लिए
हमारी मंजिल पर आया. सब लोग उससे इस डिब्बे का रहस्य पूछने लगे थे. वो सीधे मेरे
पास आया और डिब्बा खोल कर मिठाई मेरे
सामने रखी. ' साब, मिठाई
लीजिये." सतीश बोला . उसके चेहरे पर ख़ुशी छाई हुई थी.
मैंने एक टुकड़ा उठाते
हुए पूछा," मिठाई ? किस बात की ?'" उसने बताया कि,"
साब मैंने आठवीं
क्लास पास कर ली है.?वो भी फर्स्ट डिविसन में." मेरे मुह से निकला , : क्या? तुमने पढना कब शुरू किया?" उसने कहा ,
" साब जिस
दिन आपने मुझ से कहा था कि अगर मैं पढ़ा नहीं तो मुझे ज़िन्दगी भर इसी कैंटीन में
वेटर रहना पड़ जाएगा, उसी दिन रात को मैंने तय कर लिया था कि अब मैं वापस पढाई करूँगा. इसलिए मैंने
एक नाईट स्कूल में दाखिला ले लिया था. जब मेरे दूसरे साथी यहाँ खेल रहे होते थे
तब मैं वहां पढ़ा रहा होता था." मैंने कहा पर इम्तिहान कि तैयारी तुमने कैसे
की, सारा
दिन तो तुम कैंटीन में भागा दौड़ी करते रहते हो?" उसने कहा, " रात को जब सब सो जाते थे तब मैं नीचे सड़क के किनारे बैठ
कर ट्यूब लाइट कि रौशनी में पढ़ा करता था."
मैंने पूछा ," तुझे खेलने की कमी नहीं महसूस होती थी, तेरे सभी साथी तो खेलते
रहते थे." उसने कहा," मुझे अपनी ज़िन्दगी के लिए बेहतर रास्ता तलाशना था, इसलिए मैंने खेल को पीछे
रख दिया था. मैं रविवार के दिन खेल लिया करता था."
उसकी इस सफलता पर मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था. हमारी मंजिल के बाकी सभी
लोग भी बेहद खुश थे. हम सबने मिल कर उसे
हज़ार रुपये इनाम में दिए.कुछ दिनों बाद बाद शाम को जब मैं ऑफिस की सीढियां उतर रहा था तो मैंने पाया कि
सातवीं मंजिल पर पूरा सन्नाटा था. मैंने सिक्यूरिटी गार्ड से इसका कारण पूछा तो
उसने बताया कि ये सारे बच्चे नाईट स्कूल में पढने
गए हैं. सतीश उन सब के लिए प्रेरणा बन गया था, अब सब उसकी तरह से ही पढ़ कर आगे
बढ़ना चाहते थे. उस दिन सातवीं मंजिल से
नीचे उतरते हुए मुझे एहसास हुआ कि सीढियां थकाती नहीं हैं बल्कि चुनौतियों से
जूझने का हौसला देती हैं.
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