साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) दिसंबर-2013
चित्रकार:अमित कल्ला,जयपुर |
अदम गोण्डवी |
उनकी प्रतिनिधि कविताएँ
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्णा रोटी के लिए !
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्णा रोटी के लिए !
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घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है
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काजू भुने पलेट में ह्विस्की गिलास में
काजू भुने पलेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनाएँ तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गई है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
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''22 अक्तूबर 1947 को गोंडा के परसपुर आटा गांव में जन्मे अदम विद्रोह की परम्परा के कवि रहे हैं। उनकी गजलों और कविताओं का संग्रह ‘धरती की सतह पर’ और ‘समय से मुठभेड़’ काफी चर्चित और लोकप्रिय रहा है। अदम 1980 के दशक में अपनी व्यवस्था विरोधी तथा आंदोलन परक कविताओं से चर्चा में आये। जनता की भाषा में जनता की बात करने वाले कवि की उनकी पहचान बनी। ‘चमारों की गली से’ उन दिनों अमृत प्रभात में छपी और काफी चर्चित हुई। अदम का जन्म उस साल हुआ, जब देश आजाद हुआ था। आजादी के जवान होने के साथ वे जवान हुए। उन्होंने इस आजाद हिन्दुस्तान में गरीब को गरीब और अमीर को और अमीर होते देखा और बढ़ती विषमता को अपनी कविता में इस तरह व्यक्त किया: ‘सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पर रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है’ और ‘ कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आंकिए, असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है’। वे गोण्डा के ‘पहचान सांस्कृतिक संगठन’ के संस्थापकों में रहे। उनका राजनीतिक जुड़ाव इण्डियन पीपुलस फ्रंट जैसे क्रान्तिकारी संगठनों से था जिसका असर उनकी कविताओं में दिखता है। गांधीवाद पर जहाँ वे प्रहार करते है, वहीं नक्सलवाद के फलसफे पर यकीन करते हैं। बाद में वे जनवादी लेखक संघ से भी जुड़े। उनका किसी संकीर्णता में विश्वास नहीं था और व्यापक वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन के पक्षधर थे। धोती और कमीज पहने, गंवार सा दिखने वाला यह कवि जब कविता पढ़ता तो आपको अन्दर तक हिला देता। जनता की चेतना को बदल देने वाला हैं ये कविताएँ। अदम सभी मंचों पर जाते थे। पर बात अपनी करते थे, किसी को अच्छा लगे या बुरा इससे बेपरवाह। एक घटना याद आ गई। केरल की वामपंथी सरकार ने 1980 के दशक में त्रावनकोर कोचीन जनसुरक्षा कानून 1950 को रिवाइव किया था और मलयालम भाषा के कवि सचिदानन्द को इस कानून के तहत गिरफ्तार किया था। अदम ने जनवादी लेखक संघ के मंच से केरल की वामपंथी सरकार के इस कदम की आलोचना की थी।
जहां कबीर धार्मिक पाखण्ड को निशाना बनाते हैं, वहीं अदम राजनीतिक पाखण्ड व धोखाधड़ी व बेईमानी पर चोट करते हैं। इनकी कविताओं में कबीर जैसी निडरता व साफगोई है। अदम का जीवन उस किसान की तरह रहा है, जो मौसम और समय की मार झेलता है। अन्न पैदाकर सबको खिलाता है, पर अपने भूखा रहता है, अभाव में जीता है। अदम का जीवन अभाव में बीता। हालत यह रही कि जब वे गंभीर रूप से बीमार पड़े तो उनके इलाज के लिए धन नहीं था। लेकिन इसे लेकर उनके मन में कोई मलाल कभी नहीं रहा क्योंकि वे आम आदमी के जीवन की हकीकत अच्छी तरह जानते थे। उनके लिए कविता करना धन व ऐश्वर्य जुटाने, कमाई करने का साधन नहीं रहा बल्कि उनके लिए शायरी करना, गजलें लिखना सामाजिक प्रतिबद्धता थी, समाज को बदलने के संघर्ष में शामिल होने का माध्यम था। देखने में वे धोती और कमीज पहने गंवार सा लगते लेकिन मंच से जब वे कविता पढ़ते तो सुनने वालों को अन्दर तक हिला देते। जनता की चेतना को बदल देने वाली उनकी कविताएँ ऐसी हैं कि जहां अदम सशरीर नहीं पहुँच पाये, वहां भी उनकी कविताएं पहुँच गई। । यहाँ दुष्यन्त की तरह की तल्खी व बेबाकपन है, वहीं गोरख पाण्डेय की तरह व्यवस्था को बदलने की छटपटाहट है। वे चाहते हैं कि कविता, अदब मुफलिसों की अंजुमन तक पहुँचे, उनकी आवाज बने: ‘भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो/या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो।’
आजादी के बाद की ऐसी कौन सी समस्या है जिस पर अदम ने कविताएँ नहीं की है। 1990 के दशक में जब साम्प्रदायिकता जैसी समस्या से देश जूझ रहा था। उन्होंने साम्प्रदायिकता के खिलाफ कविताएँ की। साझी संस्कृति की रक्षा के लिए चले आंदोलन में वे न सिर्फ शामिल थे बल्कि वे जानते थे कि यह सब भूख व गरीबी के खिलाफ चल रही लड़ाई को भटकाने की साजिश है। इसलिए वे कविता में आहवान करते हैं: ‘छेड़िए इक जंग, मिलजुल कर गरीबी के खिलाफ/ दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए’।
अदम की दो कविता पुस्तक प्रकाशित हुईं। उनकी गजलों और कविताओं का संग्रह ‘धरती की सतह पर’ और ‘समय से मुठभेड़’ काफी चर्चित और लोकप्रिय रहा है। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार रहे। पहले उनका इलाज गोण्डा में चला, बाद में हालत बिगड़ने पर उन्हें लखनऊ लाना पड़ा जहां पिछले साल 18 दिसंबर की सुबह उन्होंने हमारा साथ छोड़ दिया। जब वे बीमार थे, उनके कविता संग्रह ‘धरती की सतह पर’ की बड़ी मांग थी। पर वह कही उपलब्ध नहीं था। ऐसे में अदम ने इसके नये संस्करण के प्रकाशन की इच्छा जाहिर की। किताबघर प्रकाशन ;24, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, मूल्य: एक सौ रुपयेद्ध ने अदम के परिवर्धित संस्करण को अभी हाल में प्रकाशित किया है। इसमें अदम की चौहत्तर कविताएं संकलित हैं। इस संग्रह में अपने जीवन के अन्तिम दिनों में लिखी उनकी आखिरी गजल भी शामिल है जिसमें वे कहते है।''-कौशल किशोर
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