साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) दिसंबर-2013
विज्ञान
शिक्षा को लोकप्रिय बनाना जरूरी है–प्रो.यशपाल
(शिक्षाविद और भौतिविज्ञानी प्रो. यशपाल से युवा आलोचक पुखराज जाँगिड़ की बातचीत पर
आधारित)
चित्रकार:अमित कल्ला,जयपुर |
हमसे गलती यह हुई कि हमने जानने और सीखने की प्रक्रिया को अंकों
से जोड़ दिया। इससे बच्चे सीखने की अपेक्षा रटने की ओर उन्मुख होने लगे, नतीजन
शिक्षा अंक या उपाधि प्राप्त करने तक सिमटकर रह गयी। असल में जरूरी अंक नहीं, विषय
की जानकारी है। अगर आप किसी विषय में 100 में से 100 अंक लाते है, लेकिन आपको वह
विषय ही नहीं आता है तो सब व्यर्थ है। समझ के इसी अन्तर्विरोध के कारण एक और तो सामाजिक
और अकादमिक शिक्षा के बीच की खाई लगातार बढती जा रही है दूसरी और वह जीवन से भी
दूर होती जा रही है क्योंकि आप समझना नहीं रटना चाहते है। यही कारण है कि अब
शिक्षा हमारे लिए सीखनो और समझने पर आधारित दीर्घकालीन प्रक्रिया न होकर अधिकतम
अंक प्राप्त करने वाली अल्पकालीन प्रक्रिया बन गयी है।
प्रो.यशपाल |
बेहतर
विज्ञान शिक्षा के लिए प्रयोगशालाएँ जरूरी है लेकिन हमारे गाँवों में तो प्रयोगशालाएँ
ही नहीं है। उसके बावजूद उपयुक्त परिस्थितियों के अभाव में भीग्रामीण बच्चे
विज्ञान में अच्छा इसलिए कर लेते है क्योंकि उन्होंने प्रकृति को ही प्रयोगशाला की
तरह इस्तेमाल करना सीख लिया है। विज्ञान सम्बन्धी उनकी सैद्धान्तिकी किसी भी रूप
में शहरी बच्चों से कमतर नहीं होती लेकिन उनके लिए अपने वास्तविक अनुभव क्षेत्र की
भाषा और किताबी भाषा में सामंज्स्य बिठा आसान नहीं होता है। अधिकाँश बच्चे ऐसा नहीं
कर पाते और वे पाठशाला से ही दूर होते जाते है क्योंकि उन्हें जीवन के विज्ञान और
किताब के विज्ञान में कोई समानता नजर नहीं आती। हालाँकि विज्ञान के व्यावहारिक
प्रयोग के सिलसिले में तो उनका कोई जवाब नहीं होता। कृषि सम्बन्धी ज्ञान जितना
ग्रामीण बच्चों के पास होता है उतना शहरी बच्चों के पास नहीं होता। आज भी हमें
ज्ञान के, विज्ञान की शिक्षा के व्यावहारिक उपयोग पर बहुत सारा काम करना बाकी है।
एन.सी.ई.आर.टी.
की राष्ट्रीय पाठ्रयक्रम समिति का काम देश भर की शिक्षा-संस्थाओं के लिए
पाठ्रयक्रम बनाना है और पिछले कुछ सालों में इसने इसमें अभूतपूर्व काम किया है।इस
लिहाज से ‘राष्ट्रीय
पाठ्यचर्या-2005’ (एन.सी.एफ.)एक उल्लेखनीय उपलब्धि है और वह
समस्या की जड़ तक पहुँचने की कोशिश करती है। इसमें विषयज्ञान बनाम भाषाज्ञान पर भी
काफी काम किया गया है। हमारे यहाँ बच्चों पर, विशेषकर ग्रामीण बच्चों पर अंग्रेजी
थोपी जाती है, ग्रामीण बच्चों के लिए अंग्रेजी पढना एकदम नया और भयमिश्रित अनुभव
होता है और जिसे वे जीवन भर भूल नहीं पाते।इसके चलते उनमें से अधिकाँश बच्चे
विद्यालय से दूर हो जाते है (अधिकाँश बच्चे अंग्रेजी में ही फेल होते है और सरकारी
संस्थाएं इसे छिपाती है) और उनमें भी जो बचते है उनमें भी बहुत कम उच्च शिक्षा
प्राप्त कर पाते है। असल में बच्चों कोअंग्रेजी पढ़ाई तो जाए लेकिन उसमें किसी को अनुत्तीर्ण
न किया जाए।
हमारे
बच्चे हमारा भविष्य है, वे हमारे समाज की स्टेम कोशिकाएँ हैं। इसलिए जरूरत उनकी
क्षमताओं को पहचानने और उन्हें ताराशने की है। इसके लिए जरूरी है कि बच्चों को खुद
ज्ञान की निर्मिति की प्रक्रिया से गुजरने दिया जाए। जब ज्ञान उनके अपने अनुभवों
से होकर गुजरेगा तभी वे उसे ह्दयंगम कर सकेंगे और फिर उसे से नये सूत्र निकाल
सकेंगे। असल में हुआ यह है कि हमने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि स्व-अनुभव
ज्ञान की अनिवार्य शर्त है। हमने विदेशी शिक्षा प्रणाली का अन्धानुकरण ही अधिक
किया है और उन्हीं के मानदण्डों के आधार पर अपनी शिक्षा नीतियाँ बनायी, जिसका
नतीजा हमारे सामने है।
आज हम
महाविद्यालयी और विश्वविद्यालयी स्तर पर तो समान पाठ्यक्रम की व्यवस्था लागू करने
की कोशिशों में जुटे हुए है लेकिन हम यह भूल गए कि इसकी सबसे ज्यादा जरूरत
विद्यालयी स्तर पर है क्योंकि शिक्षा पद्धति का आधार तो आखिरकार विद्यालयी शिक्षा
ही है। विद्यालयी शिक्षा में हमने ग्रेडिंग की व्यवस्था की ताकि बच्चे गलाकाट
प्रतियोगिता से बचें और ज्ञान के वास्तविक उद्देश्यों से जुड़े। सिर्फ लिखित
परीक्षा अंकों के आधार पर किसी की योग्यता का निर्धारण सहीं नहीं है, हमें मूल्याँकन
की प्रणाली को सतत् रूप सालभर चलने वाली प्रक्रिया के रूप में जारी रखना होगा ताकि
बच्चा साल भर सीखे न कि परीक्षा के दिनों में रटे। अगर आप शिक्षा को अनवरत चलने
वाली प्रक्रिया के देखेंगे तो बच्चों की वास्तविक जिज्ञासाओं से परिचित होंगे और
उन्हें उसी दिशा में आगे बढने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। बच्चों की रूचि और उनके
हुनर का सम्मान बहुत जरूरी है लेकिन हमारे यहाँ होता इसके विपरित है। बच्चे जबरन
अपने अभिभावकों की महत्त्वाकाँक्षाओं को ढोते रहते है।
पुखराज जाँगिड़
युवा आलोचक हैं।
राष्ट्रीय मासिक ‘संवेद’ और
‘सबलोग’ के सहायक संपादक,
ई-पत्रिका ‘अपनीमाटी’
व ‘मूक आवाज’ के
संपादकीय सहयोगी है।
दिल्ली विश्वविद्यालय से
‘लोकप्रिय साहित्य की अवधारणा और
वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास’
पर एम.फिल. के बाद
फिलहाल
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
के भारतीय भाषा केन्द्र से
साहित्य और सिनेमा के
अंतर्संबंधों पर पीएच.डी. कर रहे है।
संपर्क:
204-E,
ब्रह्मपुत्र छात्रावास,
पूर्वांचल,
जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली-67
|
हमारे
यहाँ तमाम सारे विषयों के बीच इतनी बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी कर दी गयी है कि बच्चे
कभी भी उन्हें समग्रता में स्वीकार नहीं कर पाते। वे यह जान ही नहीं पाते कि सारे
विषय एक-दूसरे से जुड़े हुए है। भाषा, विज्ञान को तथा विज्ञान, इतिहास और गणित को
समझने की कुँजी है। जब तक हम विषयों की इन दीवारों को गिराएँगे नहीं बच्चे ज्ञान
को समग्रता में स्वीकार कर ही नहीं पाएँगे। इसीलिए आजकल अन्तरअनुशासनात्मक पद्धति
पर ज्यादा जोर दिया जाता है। नयी तकनीक ने बच्चों की जिज्ञासाओं को बढाने में
भरपूर योगदान दिया है, इसीलिए कई बार हमारे शिक्षकों को जानकारियाँ नहीं होती
जिन्हें हमारे बच्चे कम्प्यूटर के माध्यम से इण्टरनेट से आसानी से प्राप्त कर लेते
है। ऐसे में शिक्षकों की भूमिका और भी अधिक
महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वे लीक से हटकर नये रास्ते इजाद करते है और
युवाओं को उस ओर बढने के लिए प्रेरित करते है।
बहुत जरूरी हैं कि हमारे शिक्षक नये विषयों, नयी शिक्षण
पद्धतियों और नयी तकनीक से अवगत हों और उनका प्रयोग करें तथा अपने विद्यार्थियों
को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करें। शिक्षक खुद ज्ञान के तमाम अनुशासनों का
सम्मान करें और उससे जुड़ें और अपने विद्यार्थियों को ऐसा करने दें। समय के साथ
कदमताल करने के लिए यह बेहद जरूरी है अन्यथा हम बहुत पिछड़ जाएँगे। ग्रामीण
क्षेत्रों को इससे जोड़ना तो और भी जरूरी है। रोजमर्रा के जीवन में हम हमेशा सीखते
हैलेकिन इस सीख को हम शिक्षण में इस्तेमाल नहीं करते। शिक्षण को जीवन से जोड़ना
बहुत जरूरी है। जब आप ज्ञान को सीमाओं में बाँधने लगते है तो वह अपने वास्तविक
उद्देश्यों से भटकने लगता है।
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