साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) जनवरी-2014
चित्रांकन:निशा मिश्रा,दिल्ली |
संस्कृति इस देश की देह में प्राण की तरह बसती है और भाषाओं एवं बोलियों का वैविध्य इस प्राण को केवल तत्त्व मात्र नहीं रहने देता वरन इस तत्त्व को सगुण भी बनाता है। इस तत्त्व की महिमा ऐसी कि महल से लेकर झोपड़ी तक और संसद से लेकर सड़क तक वाणी का साम्राज्य रहता है और सामर्थ्य ऐसी कि कोई कबीर निर्गुण बखानता है तो उसे भी बानी का बाना ओढ़ना ही पड़ता है।क्या छूटा है इन भाषाओं से, इन बोलियों से … कुछ भी तो नहीं। फिर ऐसा क्या हो गया कि प्राणों के प्राण सूखने लगे ! भारत की समृद्ध भाषाएँ और बोलियां असमय ही प्राण विहीन होने लगीं !! कोस-कोस में बदलता पानी और बीस कोस में बदलती बानी अब बदलते नहीं बल्कि सूखे कंकाल बने मरघट के घट जा बैठे हैं!!!फ़िर वही उदारीकरण का गिरेबान पकड़कर, दोष का ठीकरा उसके माथे फोड़कर चाहूं तो बात ख़त्म कर दूँ, पर करूंगा नहीं। सोचता हूँ अपने गिरेबान में भी झांककर देख लूँ।
मैं जहाँ रहता हूँ उस मोहल्ले का नाम है-इतवारा बाज़ार। कभी इतवार का साप्ताहिक हाट घर के बाहर तक लगता था। कस्बा ज़रा छोटा था पर संस्कृति की समृद्धि बहुत बड़ी थी। वैसे भी बुंदेलखण्ड, निमाड़ , मालवा और भोपाल रियासत की सीमाओं ने मेरे क़स्बे को केवल स्पर्श ही नहीं किया है बल्कि अपनी भाषा-बोली के अंश भी इस कस्बे की भाषा में घोल दिए। इसलिए यहाँ की भाषा का वैविध्य भी अद्भुत था। फ़िर देखते ही देखते कस्बा बड़ा हो गया। इतवारा बाज़ार एक दिन लगने वाला हाट नहीं रहा बल्कि पक्की दुकानों की कतार अब घर तक आती है और सजी हुई दुकानों में जो संवाद है उसमें न तो बुंदेलखण्ड, न निमाड़ , न मालवा और न ही भोपाल रियासत का सुर गमकता है। उसमें तो बस एक रस होती अंग्रेज़ी घुसी खड़ी बोली का वर्चस्व है। कभी मैं इसे सभ्य समाज की भाषा समझाता था पर अब लगता है कि ये बाज़ारू बाना देह के लिए तो ठीक है पर न तो ये दिल तक पहुँचता है और न शेष अंतः करण को स्पर्श कर पाता है। और बात अगर यहाँ तक भी नहीं पहुँचती है तो घूंघट के पट खोलने का तो स्वप्न भी कौन देखे ?
सम्पादक अशोक जमनानी |
कभी घर के बाहर तक आते इतवारी हाट में देहाती भाषा में बोलते लोगों के साथ वैसी ही भाषा में संवाद करता था। फ़िर पता नहीं कब असभ्य हो गया और तथाकथित सभ्य भाषा बोलने लगा। शायद उन विलुप्त हो गईं तीन सौ चालीस बोलियों में मेरे कस्बे की बोली भी होगी क्योंकि अब वो सुनाई देना बंद हो गयी है और केवल बोली नहीं मिटी बल्कि हाट की संस्कृति जबसे बाज़ार के रंग में रंगी है तो कितनी भद्दी और कैसी कुरंगी हो गयी है। दिल्ली में प्रभाकर श्रोत्रिय को सुन रहा था तो याद करने की कोशिश कर रहा था कि अपनी बोली जब बिछड़ी थी तो वो बरस कौन-सा था।पर अब ऐसी गैर ज़रूरी बातें कहाँ याद रहती हैं।
एक कबीर थे उन्होंने नलिनी से पूछा था - काहे री नलिनी तू कुम्हलानी ? तेरे तो नीचे सरोवर का पानी था !सोचता हूँ लुप्त हो चुकी तीन सौ चालीस बोलियों में से किसी एक से तो पूछूं कि काहे री बानी तू कुम्हलानी ?तेरे साथ तो ये महान हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी थे।पर सच कहूं तो पूछने में ख़तरा भी बहुत है। कहीं इस कुम्हलायी बानी के निर्जीव होंठों पर मेरी अंग्रेजी निष्ठ खड़ी बोली को निहारकर कोई व्यंग्य स्मित उभरी तो बताइये मैं कहाँ मुंह छुपाऊंगा ?????
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