साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) जनवरी-2014
चित्रांकन:निशा मिश्रा,दिल्ली |
हिंदी साहित्य के संसार में स्त्री और
दलित विमर्श जिस प्रवृत्ति के साथ आगे आया है उससे भिन्न आदिवासी साहित्य है।
स्त्रीवादी साहित्य को देखा जाए तो वह जाति के प्रश्न को नहीं समझता। वह सिर्फ
स्त्री जाति के हकों और अधिकारों को लेकर चर्चा करता है। वह दलित, आदिवासी, मुस्लिम स्त्रियों की
तरफ आँख भौ सिकुडता है। आरक्षण के मामले को लेकर यह बात देखी जा सकती है। दलित
साहित्य में भी स्त्री के सवालों को पिछे छोड़ा गया है इसी कारण अगल ‘दलित स्त्री विमर्श’
की चर्चा होने
लगी। इसी शृंखला में हम आदिवासी साहित्य को देखेंगे तो स्त्री ने अपनी बड़ी तादात
में उपस्थिति दर्शाई है। आदिवासी समाज में खेती का कार्य हो, श्रम, शिकार हो या लड़ाई की बात
हो हर समय स्त्री ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा लगाकर उपस्थिति थी। इसी कारन
आदिवासी साहित्य में स्त्री के बहुत से सवालों को महत्व मिला है। आदिवासी साहित्य
अपनी रचनात्मक उर्जा आदिवासी विद्रोह की परंपरा से लेता है। इसलिए आदिवासी साहित्य
को अन्य साहित्य की तुलना में विद्रोही साहित्य या जीवनवादी साहित्य कहा जाता है।
भारत के विभिन्न प्रदेशों में निवास कर रहे आदिवासियों ने अपने अपने भू-भाग
में अपने हकों, अधिकारों और अस्तित्व की लड़ाई के लिए विभिन्न विद्रोह किए। अंग्रेजों, साहुकारों, महाजनों, जमीनदारों और सुद्खोरों
के अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आंदोलन किए। झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र में पहचान का
आदोलन भी शुरु हुआ था। जिनमें संथाल हुल विद्रोह, उलगुलान, बस्तर की लड़ाई, पुर्वोत्तर का पहचान का
आंदोलन जैसे विभिन्न आंदोलन हैं। आज अधिकतर आदिवासी साहित्य के प्रेरणा स्रोत
बिरसा मुंडा, सिद्धो-कानू, तिलका माँझी, टंट्या भिल, कालिबाई, झलकारी बाई जैसे तमाम क्रांतिकारी हैं।
आदिवासी साहित्य की
विधाओं में ’कविता’ आदिवासी साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण विधा रही है। महत्वपूर्ण इस बात में
रही है कि आरंभिक और ज्यादातर आदिवासी साहित्य गीत या कविता के माध्यम से हमारे
सामने आता है। आदिवासी कवियों में निर्मला पुतुल, वाहरु सोनवणे, हरिराम मीणा, अनुज लुगुन, केशव मेश्राम, महादेव टोप्पो, डॉ. मंजू ज्योत्स्ना,
सरिता बड़ाइक,
डॉ. रामद्याल
मुंडा, दिनानाथ
मनोहर, आदि.
का नाम विशेष रुप से लिया जाता हैं। ये कवि अपनी कविताओं के माध्यम से अपना भोगा
हुआ सत्य और साथ ही अपने समाज की सामाजिक वैयक्तिक जीवन-संघर्ष की समस्याओं को
व्यक्त किया है। आदिवासी कविताओं में विभिन्न सामाजिक विद्रोह, नारी का जीवन-संघर्ष,
विस्थापन, अस्तित्व की समस्या और
शिक्षा जैसी समस्याएँ प्रमुख रुप से देखी जाती हैं। जिसके लिए आदिवासियों को समय
समय पर आंदोलन, विद्रोह, क्रांति करनी पड़ी है।
आदिवासी कविताओं के माध्यम से अपने समाज की प्रताड़ित महिलाओं की आत्मा की चीख,
मदद के लिए
पुकारती आवाजें- पहाड़ों, जंगलों और घाटियों में नगाड़े की तरह बजने लगती हैं। पहाड़
हिलने लगते है। अगर हम भारतीय समाज एवं संस्कृति के हवाले से कहें तो स्त्री के
साथ ’माता’,
’भू-माता’,
’पृथ्वीमाता’,
’धरतीमाता’
जैसे विशेषण लगाए
जाते है, उसकी
पूजा की जाती है । यह कहने की जरूरत नहीं है कि आज स्त्री किस पर्व में है और
पुरुषों का व्यवहार उनके प्रति कैसा है। एक तरफ माता आदि कहकर पूजते है तो दुसरी
ओर उसका अस्तित्व नष्ट किया जा रहा है। स्त्री-भ्रूणहत्या, बलात्कार, नंगा घुमाना, भगवान के नाम पर छोड़
देने जैसे कई अमानुषिक बर्ताव य व्यवहार
उनके साथ हो रहे है। ब्रिटिशों, जमीनदारों, साहुकारों द्वारा उनका शारिरिक शोषण होता आया है। हर बार
बलात्कार, अत्यचार और उपेक्षा की शिकार होती आयी है। सदियों से उसे दूसरी आँख से देखा जा
रहा है। उसके विचारों को दबाया जाता रहा है। उसके शरीर को पुरुषों द्वारा पागल
कुत्ते की तरह नोचने का इतिहास भी कहीं न कहीं जरुर रहा है। आज भी बदस्तूर समाज में कई जगह नारी के साथ यह
घटनाएँ हो रही हैं। उसने अपने अत्याचारों का विरोध समय समय पर किया है। जिसके लिए
उसे हाथ में हाथियार भी उठाया है। उदाहरण के रुप में हम प्रथम महिला सेनापती
शुर्पनखा, ताडका, त्रिजटा, रानी दुर्गावती, कालिबाई, क्रांतिकारी वीर बाला रानी अवंतीबाई, चीमी और सावंती बाई जैसी कई
महिलाएँ है जो अपने अधिकार, इज्जत, आत्मसम्मान को बचाने के लिए, समाज और देश को बचाने के लिए
विद्रोह किया। अपने प्राणों की आहुती दी। अवंतीबाई के विद्रोही रुप ने
क्रांतिकारियों में जोश भरने का कार्य किया है। जो समाज के सभी लोगों में क्रांति
के बिज बोने का का करती है। 1857 की क्रांति में निम्नलिखित गीत आत्म विभोर होकर गाया गया-“दुर्गा मय्या खड्ग खींच आओ,/ बैरीको मार भगाओ।/ बहुत दिनन से तड़प रहे है, /अब आकर लाज बचाओ।”1
आदिवासी स्त्रियों ने पहले से अपने हक और अधिकारों के लिए पुरुष के साथ मिलकर
समाज और शासकों का सामना किया है समय समय पर उसने अपने हाथ में हाथियार भी उठा लिए
है। कवयित्री निर्मला पुतुल ने अपनी कविताओं द्वारा स्त्री अस्मिता के प्रश्नों को
हाशिए पर ढकेला गया है वह अपनी पीड़ा का प्रतिरोध करती हुयी चेतावनी देती है। वह
कहती है-
“आज की तारीख के साथ / की गिरेंगी जितनी बूंदे लहू की प्रथ्वी पर / उतनी ही
जनमेंगी निर्मला पुतुल / हवा में उठ्ठी-बंधे हाथ लहराते हुए।” 2
डॉ. मंजू ज्योत्स्ना ने ’ब्याह’ कविता के माध्यम से एक आदिवासी स्त्री को अपने माता-पिता का
घर छोड़ दूसरे के घर जाने के बाद की पीड़ा को व्यक्त करती है। ससुराल में लड़कियों के
साथ शोषण, अत्याचार, दहेज के लिए जलाना, खेत और घर को संभालना और यह सब बुधनी, मंगरी, सोमरी जैसी पीड़ित
सहेलियों के उदाहरण देखे हैं। वह ऐसे पुरुष जाति का विरोध करती है जो स्त्री को
सिर्फ चुल्हा और बिस्तर के माफिक समझता है। वह कहती है-
“पिता मेरी शादी मत करना / मैंने देखी है- बुधनी की जिंदगी / बाल बच्चे सँभाल
खेत में खटती है / उसका मर्द साँझ, सवेरे, रात / मारता है कितना ।”3
आदिवासियों के विद्रोह में स्त्रियों के कार्य को हमें भुलना नही चाहिए। सिनगी
दई जैसी वीर योद्धा मुगल सेना के साथ मैदान में अकेले ही लड़ती है। ग्रेस क्रुजुर
अपनी कविता के माध्यम से सिनगी दई को याद करते हुए उसकी अनुपस्थिति को व्यक्त करती
है। आज आदिवासी कविताओं में नवजागरण के
भाँति स्त्री चेतना से युक्त आदिवासी समाज के आक्रोश एवं अस्तित्व-साकार के स्वर
सुनाई देते हैं-
“अगर अब भी तुम्हारे हाथों की / उंगलियाँ थरथराई तो जान लो / मैं बनूँगी एक बार
और सिनगी दई” 4
आदिवासी समाज के सामने विस्थापन की सबसे बड़ी समस्या है। वे यह समस्या पुर्वजों
से झेलते आ रहे है। कई बार उन्होंने प्रतिकार भी किया। आधुनिक काल में तथा कथित
मूख्यधारा के लोगों ने उनका तिरस्कार किया, उनको बंदरों सा नचाया, उनकी नंगी तस्वीरें
खिंची। उनको उन्हीं की ज़मिन से बेदखल किया गया। सरकारी कानून और परियोजनाओं,
विदेशी कंपनियों,
पुलिस और नक्सलवाद
ने उन्हे और घने जंगल में जाने को मजबूर किया। विस्थापन एक ऐसी समस्या है जो
मनुष्य को सांस्कृतिक, मानसिक और भौगोलिक तौर पर बदल देती है। विस्थापन के साथ
सभ्य कहे जाने वाले समाज उसकी देह की गंध से रोमांचित हो जाता है। उसकी तारीफ करते
हुए वह उसके देह को बोचने के लिए कोशिश कर रहा है। लेकिन वह सब समझ गयी है।
निर्मला पुतुल अपनी कविता के माध्यम से उसको उस व्यक्ति को चेतावनी दे रही है –
“मैं चुप हूँ तो मत समझो की गूँगी हूँ / या की रखा है मैंने रखा है आजीवन
मौन-व्रत / गहराती चुप्पी के अंधेरे में सुलग रही है भीतर / जो आक्रोश की आग”5
सरिता बड़ाइक जी की कविताएँ औरत को आत्र वस्तु बनाना नहीं चाहती वह उसकी आज़ादी
के लिए सपने सजाती है। उनकी कविता में स्त्री पात्र ग्रामिण परिवेश के साथ एक अलग
चित्र प्रस्तुत करती है। जैसे करमी, बुधनी, फुगनी, सुगिया अपनी रोगमर्रा के कामों के साथ अस्तित्व के
साथ यथार्थ मौजुद है। उनकी ’मुझे भी कुछ कहना है’ कविता में अपने प्रियवर के लिए
स्त्री के अस्तित्व का संदेश देती है। वह अपनी जीवन के हर उम्र को कैसे झेलती है
और घर के सदस्यों को चुल्हे से लेकर बिस्तर तक खुश रखकर भी कैसे खपती है स्पष्ट
चित्र उभर देती है। उसका नकार करती है-
“चुल्हे बिस्तर की परिधि में / मुझे नहीं है रहना / गऊ चाल में चलकर नहीं है
थकना / मन में भरी है कविता / मंजुर नहीं है थमना / हे प्रियवर... ” 6
सरिता जी की कविताओं के
संबंध में रमणिका गुप्ता कहती है- “सरिता की मोर पंखी भाषा इतनी बहुरंगी है कि झारखंड के हर
तेवर को पकड लेती है। वे न केवल झारखंड के गावों की धड़कनों को स्वर देती हैं बल्कि
झारखंड के हर निवासी की, चाहे वह किसी आयु, स्तर, वर्ग, वर्ण का क्यों न हो उनके बिंब सरल-सहज शब्दों में
खड़ा कर देती है।”7
आदिवासी लेखन द्वारा स्त्री के अस्तित्व, उसके अधिकारों के लिए द्वार खोले
गए हैं। आदिवासी साहित्य मूख्यधारा की संस्कृति के दायरे से बाहर रहकर आदिवासीयों
के जीवन को व्यक्त करनेवाला, उनकी संस्कृति, परंपराएँ, संघर्ष, इतिहास को एक स्तर से उपर उठाने वाल साहित्य है। इन
साहित्यकारों ने आदिवासीयों के उन प्रश्नों की तरफ ध्यान देने वाले साहित्य का
निर्माण किया है, जो आदिवासीयों में प्रेरणा, जागरुकता, अपने हक के लिए लढ़ने की शक्ति दे सके। स्त्री जीवन के
संघर्ष को लेकर रमणिका गुप्ता, महाश्वेता देवी, निर्मला पुतुल, सरिता बड़ाइक, ग्रेस क्रुजुर, मीरा रामनिवास, डॉ. मंजु ज्योत्स्ना आदि
साहित्यकारों की आवाज़ दी है। देख सकते है कि किस प्रकार अपनी कविताओं के माध्यम से
आदिवासी स्त्री के मन के दरवाजें खोलकर उनकी चिंतनशीलता, संवेदनशीलता, अपने संबंधों, नेतृत्वगुणों, अंत:प्रेरणाओं को बाहर
निकाला है। आदिवासी स्त्री को अपने अंधश्रद्धाओं, परंपराओं, रूढ़ियों, चुल्हा और बच्चे के जाल से मुक्त
करने की कोशिश की है।
आदिवासी सदियों से जंगलों में रहते आया है। उसने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग
किया है लेकिन उसे कभी नुकसान नहीं पहुंचाया। विकास के नाम पर जंगलों को उजाडा जा
रहा है जो जंगल की रक्षा करते थे उनको
विस्थापित किया जा रहा है। आदिवासी अपने आँखों के सामने पेडों को कटने नहीं देता।
वह उसका विरोध करता है। जिससे आदिवासी कलम में आज विश्वास भर गया है इसलिए महादेव
टोप्पो कहते है-
“वह धनुष उठाएगा / प्रत्यांचा पर कलम चढाएगा / साथ में बांसुरी और मांदर भी
जरुर उठाएगा / जंगल के हरेपन को बचाने के खातिर / जंगल का कवि / माँदर बजाएगा /
चढ़ा कर प्रत्यांचा पर कलम।”8
पुर्वोत्तर के आदिवासीयों का आंदोलन अपनी पहचान का आंदोलन है। 150 साल पहले से वहाँ
आदिवासी साहित्य रचा जाने लगा है। जो लोकगीत, गीत, लोककथाओं के मौखिक रुप में मिलता
है। असम, मिजोराम,
नागालैंड, मणिपूर का आंदोलन अपनी
अस्मिता के साथ साहित्य को ढूँढने की कोशिश कर रहा है। वहाँ पर आज बोड़ो साहित्य
लोकगीतों, लोककथाओं, गीतों और गाथाओं में देखने को मिलता है। कवि, कहानीकार, उपन्यासकारों ने बोड़ो साहित्य की
समृद्ध परंपरा को चलाया है। अपनी संस्कृति को बचाने में एक होकर आदोलन को सशक्त
बनाया। लेकिन आज विदेशी आक्रमणों, संक्रमणों और धर्म के प्रचारकों ने अपनी जड़े जमानेकी कोशिश
की है। जिसका पुरा विरोध कविमन करता है। उसके विरोध में विद्रोह भी करता है। भारत
का पुर्वोत्तर भाग आज भी अपने मुलभूत हकों के लिए लड़ रहा है उनके प्रदेश में देशी
और विदेशी घुसपैठ के कारण वह खुद अपनी संस्कृति, परंपरा और आदिम मुल्यों को हेय
की दृष्टि से देखने लगा है। वहाँ के लोगों का साहित्य देखा जाए तो उनकी कविताओं
में वह पीड़ा एवं संकल्प को अभिव्यक्त करता है। आज भी वहाँ अपनी मुल संस्कृति और
भाषा बचाकर रखने में कामयाब है। पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव एवं अपने उपर लादे
गए संस्कार को वह व्यंग रुपी शब्द बाणों से भेदता है। ऐसे ही- “मेघालय के कवि ‘पॉल लिंग दोह’ की ‘बिकाऊ है’ कविता में कवि मन अपनों
को ही कोसता है-
“बिकाऊ है हमारा स्वाभिमान / हमारी मान्यताएँ / हमारी सामूहिक चेतना / अतिरिक्त बोनस : ये सारी चीजें लुटाने
के भाव उपलब्ध है। / विशेष: संपर्क के लिए टेलिफोन नंबर की जरुरत नहीं / हमारे
एजंट हर कहीं है।” 9
अपनी पुरातन संस्कृति का ह्रास और विकृति आने पर पुर्वोत्तर के कवियों का कवि
मन तिलमिला उठता है। पडोसी देश के लोग उनको संरक्षण देते है। उनकी सहायता करते
बदले में खुद के प्रति हिन भावना को जागृत करते है। अपनी जमीन के प्रति गद्दारी
करने को मजबूर करते है।
महाराष्ट्र में कुल 47 आदिवासी जनजातियाँ पायी जाती है। जो आजादी के 65 साल बाद भी अपनी आदिम
अवस्था में जी रही है। सह्याद्री, सातपुडा, गोंडवाना में यह समाज देखने को मिलता है। शिक्षा के प्रचार
प्रसार और सभ्य समाज की उपेक्षा ने उन्हें अपने आप का निरिक्षण और आदिवासी समाज का
चिंतन करने को मजबुर किया है। जिसके चलते आज विभिन्न स्तरों पर आदिवासी साहित्य
सम्मेलन, नवोदित
आदिवासी प्रशिक्षण- शिविर,और साहित्यिक मेलों का आयोजन किया जा रहा है। आदिवासीयों को
साहित्य लिखने की प्रेरणा प्राकृतिक संसाधनों, विभिन्न कलाओं, और ऐतिहासिक घटनाओं से
मिली है। आज महाराष्ट्र में आदिवासी लेखकों द्वारा वेदना और विद्रोह का साहित्य
बडे पैमाने पर लिखा जा रहा है। जिनमें भुजंग मेश्राम, वाहरु सोनवणे, डॉ. विनायक तुमराम,
वामन शेडमाके,
नेताजी राज गडकर,
उषा किरण
आत्राम का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
विनायक तुमराम कविता के माध्यम से आशावादी दृष्टिकोन नजर आता है। वह अपने काव्य के
माध्यम से एकलव्य से बातचीत करता है और एकलव्य के साथ हुए अन्याय को वह अपनी कविता
में वाणी देता है –
“मित्रवर तुम्हारे तरकश में / तड़पने वाले तीक्ष्ण तीर से / करुंगा मै क्रांति,
बनाऊंगा क्रांति
की मशाल / तुम्हारे अंगुठे से बहे रक्त से लिखुंगा मृत्युलेख”10
अंडमान निकोबार इन द्विपों का इतिहास बहुत पुराना है। यहाँ की जनजाति आज भी
अपने आदिम अवस्था में जीवन यापन कर रही है। ब्रिटिश शासन काल में स्वतंत्रता
संग्राम के सेनानीयों को अपराधिक दंड देने के उद्देश से इन द्विपों का उपयोग किया।
जिसे हम ‘काले
पानी’ की
सजा कहते है। ऐसे समुद्र द्विप पर निवास कर रहे जन समुहों का मीलों दुर अन्य समाज
से किसी भी प्रकार का संपर्क नही था। काले पानी की सजा पाने हेतु मार्च 1858 में सबसे पहले वहाँ पर
लोग पहुँचे। तबसे वहाँ पर हिन्दी भाषा का व्यवहार शुरु हुआ। ऐसे द्विप खंड पर
साहित्य लेखन की बात करें तो शायद आप मुझे पागल कहेंगे, लेकिन सन 1979 ई. में ‘नवपरिमल’ द्वारा प्रकाशित एक कृति
मिली है। जिसमें हिंदी और अहिंदी भाषी 22 कवियों की कविताएँ हैं। उनकी कविताओं में सुख-दुख,
आशा-निराशा,
संघर्ष, आक्रोश मौजुद है।
रचनाकारों की संवेदना को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक स्मृतियाँ, स्थानियता, समकालिन यथार्थबोध,
वैश्विक चिंताओं
का स्वर, पर्यावरण
संरक्षण उनकी कविता के मुख्य सरोकार है। अण्दमान के आदिवासी की मनोदशा को देखकर
हरिराम मीणा का कवि मन कह उठता है-
“समुद्रों से उठ रही हैं आग की लपटें / पृथ्वी की सारी सभ्यता / एक भीमकाय रोड़
रोलर की मानिंद / लुढ़कती आ रही है हमारी जानिब / और हम - बदहवास”11
हरिराम मीणा के शोधपरक आलेखों से यह तथ्य सामने आया है कि मानगढ़ में जालियन
वाला बाग से भी बड़ा कांड घट चुका था। 1500 आदिवासियों को अंग्रेजों ने राजस्थान और गुजरात के
रजवाडों को साथ लेकर मानगढ़ की पहाड़ियों पर गोलियों से भुन डाला था।असम, सिक्किम,
त्रिपुरा, मिजोराम, नागालैंड के कवियों की
कविताएँ विदेशी आक्रमणों से त्रस्त कबिलों, गावों और समूहों के त्रस्त जीवन
को अभिव्यक्ति देती है। उनका साहित्य व्यक्तिगत की अपेक्षा सामूहिकता पर अधिक जोर
देता है। उनका साहित्य इतिहास से प्रेरणा शक्ति और वर्तमान स्थिति से बोध लेकर अपनी
जड़ों को खोजने का भरसक प्रयास करता है। आज़ादी के 66 साल बाद भी आदिवासियों की
स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। उनको विस्थापन सहित तमाम समस्याओं से गुजरना पड़
रहा है। कहीं उसे नक्सलवादी बना दिया जाता है तो कहीं वह नक्सलवादी बनने पर मजबूर होता है। शासन -प्रशासन रक्षक के जगह पर भक्षक की भूमिका
में नजर आता है। उसका सरकार पर से भरोसा
उठ गया है, उसके विरोध में ईर्ष्या और घृणा का भाव उभरता जा रहा है। जिसकी अभिव्यक्ति
कविता सहित अन्य विधाओं के आदिवासी साहित्य में हो रही है।
वर्तमान आदिवासी कविताएँ क्रांतिदर्शी है। उसमें अंध-विश्वासों के प्रति विरोध है।
ये कविताएं पुरुषों की स्त्री विरोधी मानसिकता को बदलने में समर्थ है।
आदिवासी साहित्य समस्त विश्व साहित्य को प्रेरणा देने वाला साहित्य है जिसमें
सामुहिकता, समानता, एकता, प्रकृति के प्रति प्रेम और लोक साहित्य के अपार खजाने से भरा हुआ है। अगर अन्य
साहित्य के होते हुए आदिवासी साहित्य की आवश्यकता के बारें में सवाल पुछा जाए तो
वाहरु सोनवणे जी की ‘मंच’ कविता
उसका समर्पक उत्तर दे देती है। आदिवासी कविताओं में अपनी पीड़ा कहकर खुद उसका
समाधान ढूंढने की कोशिश करता है। सभ्य समाज ने अपने रचित षडयंत्र के तहत उनको अपने
अधिकारों से वंचित रखा था। उसी एहसास के साथ उसकी कलम से लेखन का प्रस्फुटन हो रहा
है। मानवियता और समानता के तत्वों की तरफ ध्यान दे तो आज की तारीख में आदिवासी
साहित्य कई अर्थों में विशेष ध्यान दिये जाने की अपेक्षा रखता है।
संदर्भ ग्रंथ:
- युद्धरत आम आदमी- संपा- रमणिका गुप्ता, अंक-109, जुलाई-सितंबर 2011 पृष्ठ सं- 69
- नगाड़े की तरह बजते शब्द- निर्मला पुतुल, प्रका. भारतीय ज्ञानपिठ,संस्करण:2005 पृष्ठ सं- 91
- आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी- सं. रमणिका गुप्ता, वाणी प्रकाशन,संस्करण:2008. पृष्ठ सं-98
- आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी- सं. रमणिका गुप्ता, वाणी प्रकाशन,संस्करण:2008. पृष्ठ सं-23
- नगाड़े की तरह बजते शब्द- निर्मला पुतुल, प्रका. भारतीय ज्ञानपिठ,संस्करण:2005 पृष्ठ सं- 56
- नन्हें सपनों का सुख- सरिता बड़ाइक, प्रका.रमणिका फाउंडेशन, संस्क.-2013 पृष्ठ सं.108
- नन्हें सपनों का सुख- सरिता बड़ाइक, प्रका. रमणिका फाउंडेशन, संस्क.-2013 पृष्ठ सं.VIII
- आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी- सं. रमणिका गुप्ता, वाणी प्रकाशन,संस्करण:2008. पृष्ठ सं-47
- आदिवासी लेखन एक उभरती चेतना-सं.रमणिका गुप्ता, सामयिक प्रकाशन,संस्करण:2013 पृष्ठ सं-69
- आदिवासी साहित्य यात्रा- संपा. रमणिका गुप्ता, संस्क. 2008,पृष्ठ सं. 60
- सुबह के इंतजार में- हरिराम मीणा, अक्षर शिल्पी प्रकाशन,संस्करण- 2007, पृष्ठ सं- 34
_______ ______________________________________________
गणेश डी.के
शोधार्थी (हिन्दी विभाग)
मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी,
गच्चीबौली, हैदराबाद-500
032.
ganeshkalghuge@gmail.com
मोबाईल - 09052392496
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