टिप्पणी :असमानता और अधिकार : एक स्त्री परिप्रेक्ष्य/ सुधा तिवारी

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 दिसंबर-2013 
                                                                                                    
असमानता और अधिकार : एक स्त्री परिप्रेक्ष्य
  
चित्रांकन:निशा मिश्रा,दिल्ली 
 “All human beings are born free and equal in dignity and rights. they are endowed with reason and conscience and should act towards one another in a spirit of brotherhood.” - (Universal declaration of Human Right,1948 Article 1)

10  दिसंबर मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया  जाता है.मानवाधिकार को हमारे समय के एक महती आदर्श के रूप में चिह्नित किया गया है, ये वो मूलभूत, बहुमूल्य एवं अहस्तांतरणीय अधिकार हैं जो व्यक्ति को जन्म से ही और उसके मानव-मात्र होने के कारण प्राप्त हैं. देश की आजादी के समय और उसके बाद भी मानवाधिकार का प्रश्न केंद्र-बिंदु में था और यह सच है कि वर्तमान समय में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ी है परन्तु प्रश्न यह है कि क्या सभी मनुष्यों को यह जन्म-आधारित अधिकार सुलभ कराया जा सका है.

यदि विषय का तथ्यपरक विश्लेषण किया जाये तो उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा. देश के सौ से ज्यादा जिलों के एक करोड़ से अधिक ग्रामीण-आदिवासियों को भाषायी, सांस्कृतिक एवं जीवन की मूलभूत सुविधाओं हेतु संघर्ष करना पड़ रहा है. आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना, बंगाल के मिदनापुर, बांकुड़ा, पुरुलिया, महाराष्ट्र के विदर्भ, छत्तीसगढ़ के बस्तर, मध्य प्रदेश और ओडिशा के बारह सीमावती जिलों में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय आंकड़े से बहुत नीचे है. माओवादी प्रभावित इलाकों में विकास की बात तो दूर, जीने की बुनियादी जरूरतें तक नहीं हैं. 2011 की जनगणना के आंकड़ों ने देश के जो चार कलंक उजागर किये हैं उससे हमारे समाज में महिलाओं और बच्चों की वास्तविक स्थिति का एक क्रूर चित्र सामने आता है. विज्ञान और तकनीकी के अत्याधुनिक समय में भी हमारे देश में ऐसे स्थान हैं जहाँ49% प्रसूताएं कुपोषण की चपेट में (श्रावस्ती, उत्तर प्रदेश) और 1000 लड़कों पर सिर्फ़ 774 लड़कियां (झज्जर, हररयाणा) हैं.

महिलाओं से जुड़ी ख़बरों के प्रति मीडिया-संवेदनशीलता:जनसत्ता के एक वर्ष (2009) के समाचार-पत्रों में स्त्री से जुड़ी ख़बरों का विश्लेषण करने पर ये आंकड़ें उद्घाटित हुए. दहेज उत्पीड़न से सम्बंधित कुल 13 ख़बरें साल भर में प्रकाशित हुईं. इसमें दहेज न मिलने के कारण या अतिरिक्त दहेज की मांग पूरी न होने के कारण बहु पर अत्याचार, उसे प्रताड़ित करने एवं आत्महत्या के लिए उकसाने की ख़बरें थीं. स्त्री के असम्मानजनक चित्रण की कुल 14 ख़बरें प्रकाशित हुई थीं. इसमें स्त्री का अशिक्षित या पर्दे वाली औरत के रूप में चित्रण, स्त्री की उपलब्धियों का अवमूल्यन, डायन के रूप में चित्रण और हत्या, स्त्री-शोषण एवं संतान तथा सम्बन्धियों द्वारा संपत्ति हडपने के लिए की गयी हिंसा की ख़बरों में स्त्री की विवशता के चित्रण पर बल देने वाली ख़बरें थीं. इस दौरान घरेलू हिंसा की कुल 40 खबरें प्रकाशित हुईं. इस वर्ग में स्त्री के घरेलू श्रम का अवमूल्यन, प्रेम-विवाह के मामले में युगलों को आत्महत्या करने पर मजबूर करने, पिता द्वारा लड़कियों को बेचे जाने, दांपत्य कलह के कारण स्त्री के आत्महत्या करने आदि से सम्बंधित ख़बरें थीं. बलात्कार के कवरेज से सम्बंधित कुल 36 ख़बरें आयी थीं. इसके अलावा अन्य ख़बरों में कुल १६१ ख़बरें प्रकाशित हुई थी. इसमें स्त्री-उत्पीड़न से सम्बंधित विविध ख़बरें जैसे, सामाजिक दबाव में बेटियों के साथ माता-पिता का आत्महत्या कर लेना, दलालों द्वारा बहलाकर मासूम किशोरियों को देह-व्यापार में धकेलना, शादी का झांसा देकर स्त्री का शोषण, स्त्री के स्टीरियोटाईप रूपों को बनाए रखने की कोशिशों आदि से जुड़ी ख़बरें, छेड़छाड़ एवं भ्रूण-हत्या, आदि की ख़बरें थीं.

उपर्युक्त आंकड़ों का वस्तु-स्थिति के समक्ष विश्लेषण मीडिया की भूमिका पर संदेह खड़े करता है. मीडिया अध्ययन केंद्र के एक अनुसंधान में यह तथ्य सामने आये हैं कि मीडिया में स्त्री विषयों से सम्बंधित ख़बरों का प्रतिशत केवल ३ प्रतिशत है और उसमें भी मुख्यतः हत्या, उत्पीड़न और बलात्कार पर केंद्रित ख़बरें ही हैं. महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के प्रति समुचित जन-जागरूकता का अभाव है और समाज तथा परिवारों में स्त्रियों का उत्पीड़न इतना अधिक है कि वह बहुधा देखने वाले की दृष्टि में स्वाभाविक लगने लगता है, इस तरह अपराध करने वाले व्यक्ति को यह अंदाजा ही नहीं होता कि वह जो कृत्य कर रहा है वो किसी अपराध की श्रेणी में आता है. दूसरे अधिकांश महिलाएं अपने ऊपर हुए उत्पीड़न की शिकायत नहीं करतीं. कई बार पुलिस शिकायत दर्ज करने से इनकार कर देती है और दर्ज शिकायतों पर कार्रवाई की प्रकिया या तो धीमी होती है या नगण्य. इस सब के बाद मीडिया उन्हीं ख़बरों को प्राथमिकता देता है जिसमें मसाला हो, अधिकतर क्राइम रिपोर्टिंग पुलिस फ़ाइल पर आधारित होती है, या खबर तब दी जाती है जब कोई बड़ा नेता उसमें रूचि ले और इन सब के बाद जो खबर आती है बजाय उस खबर के पीछे के सत्य के वैधानिक निहितार्थ पर जोर देने के, उसके इतिवृत में अधिक रूचि ली जाती है. गृह-मंत्री ने लोकसभा में बताया कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों, जिनकी शिकायत दर्ज कराई गई है, की संख्या वर्ष-2008 से लेकर अब तक छः लाख से अधिक है. इससे हम उन अपराधों की संख्यां की कल्पना कर सकते हैं जिनकी शिकायत दर्ज नहीं कराई गई है.

स्त्री की मातहत स्थिति :एक सत्री दुहरे-तिहरे दबावों से एक साथ गुजरने के लिए अभिशप्त है. कानून और समाज के नीति-नियम एक जगह उसे बांधते हैं तो उसकासेल्फउसे आतंरिक गहराइयों में मुक्त होने से रोकता है. पति एवं पिता की संपत्ति के उत्तराधिकार से परोक्षतः वंचित स्त्री को गहनों के प्रेम में उलझा हुआ घोषित किया जाता है. इसकी जडें काफी गहरी हैं. ब्रिटिश शासन में स्त्रीधन के दयाभाग सिद्धांत की जो अनिवार्य एवं संकुचित व्यवस्था हुई, उसने औरत के अधिकारों को अपूरणीय क्षति पहुंचायी, उससे संपत्ति का अधिकार संकुचित कर दिया गया. “As the pluralistic communities became characterized as ‘Hindu’, the women’s right to property ownership became curtailed….the Bengal school followed the Dayabhaga principle of strict construction of stridhana. Gradually, this notion of a constrained and limited stridhana became the accepted principle of Hindu law for the whole of British India (with a few concessions granted to the Bombay Presidency.)”i

यद्यपि भारतीय संविधान उसे संपत्ति का अधिकार (Right to Property) देता है परन्तु उससे अपेक्षा यही की जाती है कि इस अधिकार का वह अपने हित में उपयोग न करे, उसे उदारतापूर्वक त्याग दे. अंग्रेजी उपन्यासों में स्ट्रीम ऑफ कांशसनेस शैली की प्रणेता वर्जीनिया वुल्फ ने इसीलिए कहा कि एक स्त्री लिख सके इसके लिए आवश्यक है कि उसके पास एक कमरा हो और वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो. एग्नेस फ्लेविया ने अपनी पुस्तकLaw and Gender Inequalityमें पितृसत्तात्मक समाज में पाररवाररक विधियों की उत्पति की पड़ताल करते हुए कहती हैं कि जाति, वर्ग एवं वंश-गत शुचिताओं का एक कठोर यौन नियंत्रण द्वारा अनुरक्षण किया जाता है. दंडात्मक निवारक उपायों तथा आर्थिक अधिकारों के निषेध, वह साधन हैं जिसके माध्यम से यह नियंत्रण स्थापित किया जाता है -

“While examining the evolution of family laws situated within a patriarchal social structure, discrimination against women is a foregone conclusion. Caste, class and clan purities are maintained through a strict sexual control. Punitive deterrent measures and denial of economic rights are the means through which this control is exercised.” ii

सकारात्मक विकास

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद एवं संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत का चुनाव इसकी बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक स्थिति को रेखांकित करता है. यद्यपि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने वर्ष-2012 के अपने रिपोर्ट में कहा है कि –“The government maintained its focus on economic growth, at times at the cost of protecting and promoting human rights within the country and abroad.” iii

सुधा तिवारी
कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधार्थी
सम्प्रति 
अनुवादक (C&AG)
नई दिल्ली
फिर भी आज महिलाएं सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं इसका प्रमाण है कि महिला साक्षरता दर में वृद्धि सभी क्षेत्रों अर्थात कुल (11.79 अंक), ग्रामीण (12.62 अंक) तथा शहरी (7.06अंक) क्षेत्रों में पुरुष साक्षरता दर की तुलना में उल्लेखनीय रूप से उच्चतर है. महिला साक्षरता दर में केरल (92.92) का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रथम स्थान है जब कि मिजोरम (98.1) शहरी क्षेत्रों में पहले स्थान पर है. iv आधुनिक स्त्री अस्मिता के विकास के परिप्रेक्ष्य में हम स्त्री समानता के बेहतर अवसरों और उसके मानव-अधिकारों को मान्यता देने वाले एक बेहतर समाज-व्यवस्था की कामना कर सकते हैं जहाँ इतनी सशक्त स्त्रियों का उद्भव हो जो मैत्रेयी की तरह पुन्सवादी समाज से तल्ख़ सवाल कर सकें. अमर्त्य सेन की चर्चित पुस्तकThe Argumentative Indianमें उल्लिखित वृहदारण्यक उपनिषद् के मानवीय जीवन की समस्याओं और दुर्दशा के सन्दर्भ में मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य संवाद की कुछ पंक्तियों के साथ अपना वक्तव्य समाप्त करना चाहूँगी-

Maitreyi wonders whether it could be the case that if “the whole earth, full of wealth” were to belong just to her, she could achieve immortality through it. ‘No’ responds Yajnavalkya, ‘like the life of rich people will be your life. But there is no hope of immortality by wealth.’ Maitreyi remarks: ‘What should I do with that by which I do not become immortal?’ 

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