साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) जनवरी -2013
चित्रांकन:निशा मिश्रा,दिल्ली |
नीरजः देखिए, ये पुरस्कार हिन्दी के प्रमुख साहित्यकारों-अज्ञेय, धर्मवीर भारती आदि को मिला है, मेरी इच्छा थी कि हम लोग जो हिन्दी कविता को लोकप्रिय बना रहे हैं, उनको भी मिले ऐसे लोगों को लगातार निगलेक्ट किया जा रहा था । इसके लिए हमें संघर्ष करना पड़ा । हमसे संस्तुति ली गई। इसकी क्या जरूरत थी? हिन्दी सेवा के लिए हमारे 72 वर्ष के संघर्ष को क्या लोग नहीं जानते हैं? फिर संस्तुति कराने की क्या जरूरत थी। बड़ी इच्छा थी इसलिए संघर्ष किया। इससे गरीब बच्चों की फीस भरी जाएगी। संस्तुति के बाद दिया गया, वह पुरस्कार कहाँ रहा। हमें पहला पुरस्कार उर्दू के अनीस सिद्दीकी ने विश्व उर्दू सम्मेलन में दिया था। आठ लोगों में, एक पुरस्कार मुझे दिया गया था । लोगों ने कहा कि हिन्दी वाले को पुरस्कार क्यों दिया? उन्होने कहा कि हिन्दी-उर्दू हम नही जानते। हमने तो ग़जल सुनी है। वहाँ सुनने पर पुरस्कार दिया गया था, संस्तुति के बाद नहीं। लेकिन यहाँ संस्तुति करवायी गई। जो व्यक्ति प्रसिद्ध हो उससे संस्तुति नहीं करानी चाहिए हमने देश-विदेश में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया है। हमें 5 लाख का लोभ नहीं था। हमने तो उसे गरीब बच्चों के लिए जमा करा दिया है। इसके ब्याज से उनकी फीस भरी जाएगी।
रविकांतः हिन्दी की मंचीय कविता के सुपरस्टार गोपालदास नीरज से मैं पूछना चाहता हूँ, कि मंचीय कविता और मुख्य धारा की कविता में क्या फर्क है? लोकप्रियता के लिहाज से मंचीय कविता बहुत श्रेष्ठ मानी जाती है। फिर भी आलोचक इसे उतना महत्व क्यों नही देते?
मशहूर गीतकार गोपालदास नीरज |
अँग्रेजी में कविता कही गई है, गायी नहीं गई है। हमारे यहाँ कविता गायी गई है। गेयता कविता की आत्मा होती है। समस्त सृष्टि लय में चलती है। शरीर में रक्त से लेकर धड़कन तक लय में चलते हैं। लय और ताल से कविता की उम्र, स्मरणीयता बढ़ जाती है। लय का तालमेल हमारे जीवन से होता है। हमारे अस्तित्व से है। आप अज्ञेय जी का तो नाम याद रखेंगे, लेकिन कविता याद नहीं होगी।
जो लोग हमें गाली देते रहे, लेकिन अपने घर में कविता हमारी गाते थे। ऐसे लोगो ने हम पर तरह-तरह के लांछन लगाये कि ये शराब पीते हैं वगैरह। तब हमने लिखा कि -
‘इतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में,
तुमको लग जायेगी सदियाँ हमें भुलाने में’।
हमको लोग श्रृगाँरी कवि कहते है। मैने दो-चार कविताएँ श्रृगाँर पर की हैं। लेकिन अधिकाँशतः मेरी कविताओं में दार्शनिकता है। मेरी कविता में आपको बुद्ध का दर्शन मिल जाएगा, वेदान्त मिल जाएगा, गीता का दर्शन मिल जाएगा।जैसे मैंने लिखा-
‘हम तेरी चाह में ये यार वहाँ तक पहुँचे, होश ये भी न जहाँ कि कहाँ तक पहुँचे, सदियों-सदियों तक न पहुँचेगी दुनिया सारी, एक ही घूँट में मस्ताने जहाँ पहुँचे’।
इसे लोग शराबी समझेगें, मैने सिर्फ एक प्रेम का घूँट पिया था।
‘वो न ज्ञानी, न वो ध्यानी, न विराहमिन, न शेख,
वे कोई और थे जो तेरे मकाँ तक पहुँचे’।
मैने राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर लिखा, नेहरू जी ने जब शान्ति की पहल की थी तो मैने संभावित तीसरे विश्वयुद्ध पर लिखा। पाकिस्तान पर लिखा। पुर्तगाल पर लिखा। मैने गॉड पार्टिकल पर लिखा है। हमने अपनी सुविधा के लिए ईश्वर की रचना की है। हमारी रचना ईश्वर ने नही की है। प्रकृति और पुरूष का ही खेल है संसार में। रोटी और सेक्स मनुष्य के दो प्रधान तत्व है। इन्ही दो तत्वों से सारे संसार की रचना हुई है।-
‘कहते थे खुदा वो दिमागों का खलल है,
जैसे कि नही होकर भी सहराओं में जल है।’
रविकांतः मंचीय कविता पाठ्यक्रम में क्यों नहीं है? इसके क्या कारण देखते हैं आप?
नीरजः वास्तव में, आज जो मंच पर कविता की जा रही है कविता के नाम पर, मंचीय कवि मजाक कर रहे हैं। पहले मंचीय कविता पर विद्वान लोग कमेन्ट करते थे। आज मंचीय कविता पर कोई कमेन्ट नही करता सिर्फ तालियाँ मिलती है। आज मंचीय कविता बहुत नीचे स्तर पर पहुँच गयी है। दूसरा यह है कि मंचीय कविता है बहुत सरल भाषा में । आलोचक समझते है कि जो कविता कठिन भाषा में होगी, वही साहित्यिक होगी। दरअसल भाव के साथ भाषा बदल जाती है। मैने आदिपुरूष पर कविता लिखी तो उसकी भाषा अत्यन्त कठिन है।एक और उदाहरण देता हूँ।
‘माखन चोरी कर तूने कर तो दिया कम बोझ ग्वालिन का,
लेकिन मेरे श्याम बता तब रीती गागर का क्या होगा?’
मैने ‘रीती’ लिखा ‘खाली’ नही। मतलब भाव के कारण भाषा बनती है।
रविकांतः फिल्मी गीतों का आपका सफर कैसा रहा और बम्बई छोड़ने के क्या कारण थे?
नीरजः पहले बता दूँ कि मै गया नही, मुझे बुलाया गया और बहुत लोकप्रिय होकर आया । 1967 में मैं, छुट्टी लेकर गया। 69 में, मै वापस आ गया। 28 जनवरी 1970 को मैने नौकरी छोड़ दी। तभी मुझे फिल्म फेयर अवार्ड मिल गया। भजन पर आज तक किसी को नही मिला, मुझे मिला।
‘काल का पहिया घूमे भईया, काल टरे इंसान टरे,
लेकर चले बारात किसी की, जब कोई सामान चले’।
दो बार फिर मुझे नॉमिनेशन मिला लेकिन वहाँ राजनीति चलती है। इसको मिल गया है, किसी और को दे दो। जब मेरी फिल्म ‘शर्मीली’ सिल्वर जुबली कर रही थी, शंकर-जयकिशन की डेथ हो गयी । एस॰ डी॰ बर्मन के साथ मेरे गीत हिट हुए थे उन्होने काम बन्द कर दिया। अब मैं यहाँ हूँ। मंगलायतन विश्वविद्यालय का चांसलर हूँ। केन्द्रीय उच्च शिक्षा विभाग में मै मेम्बर हूँ।
रविकांतः बहुत-बहुत धन्यवाद, बाबूजी।
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