शोध:हबीब तनवीर के नाटक ‘आगरा बाज़ार’ की ‘लोकोन्मुखता’ / धर्मेन्द्र प्रताप सिंह

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 फरवरी-2014 


चित्रांकन:इरा टाक,जयपुर 
साहित्य और संस्कृति के संदर्भ में प्रायः लोक, आभिजात्य, जन एवं विशिष्ट शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। ये शब्द अपने आप में अलग-अलग अवधारणाओं को रेखांकित करते हैं।लोकशब्द की अनुगूंज अभिजात्यता के विपरीत एक भाव पैदा करती है। कोश मेंलोकके दो प्रकार के अर्थ विशेष रूप से प्रचलित हैं। पहला, इहलोक, परलोक अथवा त्रिलोक तथा दूसरा, जनसामान्य का। यह जनसामान्य शब्द हीलोकसे जुड़ता है। इसी अर्थ में इसका प्रयोग ऋग्वेद, उपनिषदों, गीता, आदिकालीन कवि विद्यापति और संतसाहित्य से लेकर आधुनिककाल तक में मिलता है। भारतेंदु का अधिकांश साहित्य इसीलोककी अभिव्यक्ति के निकट है। शुक्ल जी ने लोकविषयक कई लेख लिखे हैं। द्विवेदी जी पोथी और शास्त्र विहीन वर्ग को ही लोकमें शामिल करते हैं। प्रेमचंद तथा उनके बाद के साहित्यकारों ने इसीलोकको अपने साहित्य में स्थान दिया।

लोकसमाज का गतिशील अंग है, लोक साधारण जनसामान्य है जिसमें भूभाग पर फैले हुए समस्त प्रकार के मानव सम्मिलित हैं। यह शब्द वर्ग भेदरहित, व्यापक एवं परंपराओं की श्रेष्ठ राशि सहित अर्वाचीन सभ्यता संस्कृति के कल्याणमय विवेचन का द्योतक है। भारतीय समाज में नागरिक एवं ग्रामीण, दो भिन्न संस्कृतियां विद्यमान हैं। वही समाज का गतिशील अंग है।[1]लोकके अर्थ को और व्यापकता में देखें तो लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना और पाण्डित्य के अहंकार से शून्य है और जो परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।[2]

पश्चिम मेंलोकसंबंधी अवधारणानृतत्वशास्त्रसे ली गई है। अंग्रेजी में इसके लिए Folkशब्द है। 19वीं शताब्दी में आंग्लभाषी समाजों मेंलोकशब्द का प्रयोग विशेषरूप से असंस्कृत तथा मूढ़ समाज के लिए किया जाता था।लोकका अर्थ प्रमुखतः पिछड़े वर्गों की संस्कृति से लगाए जाने के साथ इसे आदिम जातियों से भी जोड़कर देखा जाने लगा। बाद मेंलोकशब्द का अर्थ विस्तार एवं अर्थ परिवर्तन हुआ और इसका अर्थ ग्रामीणजन या कृषक समुदाय के लोगों से लगाया जाने लगा। 1953 के आसपास इस शब्द की एक व्यवहारिक समीक्षाइनसाइक्लोपीडियाने की जिसमें इसका अर्थ मुख्यतः ग्रामीण जनसमुदाय, अशिक्षित और अपढ़ आदि के संदर्भ में किया गया।

समग्रतः लोक’ सभ्य संस्कृति का विपरीत विचार है। वह एक ऐसा जनसमूह है जो अभिजात्य संस्कार, सभ्यता और शिक्षा से रहित है तथा सुसंस्कृत लोगों की अपेक्षा अधिक सरल जीवन जीने का अभ्यासी है। उसमें कृत्रिमता नहीं होती है और वह आदिम संस्कृति के परंपरागत तत्वों को वहन करता है।लोककी यही ऊर्जा हबीब तनवीर की संपूर्ण नाट्यचेतना के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करती है और उन्हें अपने समकालीन अन्य भारतीय नाटककारों और रंगचिंतकों से अलग जमीन पर ला खड़ा करती है। हबीब ने भारतीय परंपरा की लोकशैली को सबसे पहले पहचाना और इसी को अपने रंगकर्म का आधार बनाया।

साहित्य की अन्य विधाओं मेंलोककी अभिव्यक्ति भले ही परिस्थितियों के कारणवश रही हो पर नाटकों के मूल में यह उसकी उद्भावना काल से ही है। परंपरा से मिले चार वेदों से भिन्न जब आचार्य भरतमुनि नेनाट्यशास्त्रकी स्थापना की तो उसके मूल में इसी व्यापक लोकोन्नमुखता का निर्वाह था तथा उसी लोक की पक्षधरता करना था जिसकी पहुंच चारों वेदों तक नहीं थी।नाट्यशास्त्र अपनी मूलस्थापना में लोकोन्नमुख है। स्पष्ट है कि संस्कृत परंपरा के समय से हीलोकनाटकों की विषयवस्तु बनते रहे हैं।

बीसवीं सदी के मध्यकाल में हबीब का अवतरण होता है. भारतेंदु के रंगचिंतन से ऊर्जा ग्रहण करते हुए वे एक ऐसे नाटककार और रंगचिंतक के रूप में हमारे सामने आते हैं जिन्होंने सच्चे अर्थों में भारतीय रंगदृष्टि को उसकी सार्थक पहचान दिलाने की कोशिश की। हबीब तनवीर, जिन्होंने भारतेंदु के नाटकों या उनके रंगचिंतन से सीधा प्रभाव ग्रहण किए बिना, लगभग उसी भावधारा को फिर से प्रवाहमान बनाया, जो भारतेंदु की रंगचिंता का प्रमुख कारक तत्व थी। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतेंदु के नाटकों का मुहावरा और हबीब तनवीर के नाटकों का मुहावरा पूरी तरह एक ही ज़मीन पर प्रतिष्ठित है और दोनों ही नाटककार अपने रंगसृजन में लोकतत्वों से ऊर्जा ग्रहण करतें हैं।[3] हबीब ने भारतीय संस्कृति के बहुआयामी पक्षों का सच्चा व स्पष्ट प्रतिबिंब लोकनाटकों में ही देखा और पाया। हबीब तनबीर ने भारतीय संस्कृति को समकालीनता से जोड़ते हुए लोकनाटकों को बीसवीं सदी में नई शक्ति और ऊर्जा प्रदान की है।[4]

आधुनिककाल में हिंदी रंगमंच के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर आजतक के नाटकों मेंलोकका सार्थक प्रयोग होता रहा है। भारतेंदु तथा प्रसाद के नाटकों मेंलोकतथालोकाख्यानजातीय गौरव और संस्कृति की अधारभूमि की निर्मिती के सहायक तत्व हैं। इन नाटककारों ने अपने नाटकों में मिथकीय एवं लोकआख्यानक प्रसंगों को कथ्य का आधार बनाकर सामयिक संदर्भों से जोड़ा। स्वातंत्र्योत्तर भारत में इन लोकआख्यानकों को अपने नाटकों का आधार बनाया परंतु उनमें से कई आधुनिक बनने के फेर में विकृति की सीमा तक पहुंच गए तो कुछ रोचक और सुंदर प्रयोग साबित हुए।

लोकप्रेमी रंगकर्मी हबीब इस संदर्भ में थोड़े अलग और अधिक जमीनी कहे जा सकते हैं। इन्होंने अपने नाटकों कीलोककी पृष्ठभूमि को प्रयोगधर्मिता के नाम पर विद्रूप नहीं होने दिया, बल्कि अधिक सार्थक एवं प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की और काफी हद तक सफल भी रहे। भारतीय नाट्यपरंपरा में लोक को प्रतिष्ठित करने के जिन उद्यमों की हम सराहना करते आए हैं, हबीब तनवीर का रंगकर्म आधुनिक नाट्य में उसका नेतृत्व करता रहा है।...‘लोकउनके यहां हाशिए का पर्याय नहीं है, वरन उस बहुलतावादी, बहुजन और अवाम का उद्घोष है जो इस देश का मेरूदंड है। इस कारण से तनवीर साहब का रंगकर्म केवल हिंदी का ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि रंगकर्म है जिसमें हमें भारतीय जन की आस्था भी दिखाई देती है तो आकांक्षा भी, संघर्ष भी दिखाई देता है तो सपना भी। हबीब तनवीर ने भारतीय रंगकर्म को देसी चेतना तथा संस्कारों के साथ-साथ जनता की बोली में भी विन्यस्त किया।[5]

वस्तुतः हबीब यह जानते थे कि भारतीय संस्कृति के केंद्र मेंलोकही है तथालोकके साथ जुड़कर ही सार्थक रंगमंच की तलाश पूरी हो सकेगी। इसीलिए अपनी बात को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए वह भारत के केंद्र में पहुंचते हैं, आज भी गांवों में भारत की नाट्यपरंपरा अपने आदिम वैभव और समर्थता के साथ ज़िदा है।[6] उनके पास एक गहरी लोकपरंपरा है और इस परंपरा का नैरंतर्य आधुनिक रंगमंच के लिए आवश्यक है।[7]

हबीब का मानना था, हमें अपनी जड़ों तक गहरे जाना होगा और अपने रंगमंच की निजी शैली विकसित करनी होगी जो हमारी विशेष समस्याओं को सही तरीके से प्रतिबिंबित कर सके।[8] इसी आधार पर उन्होनें अपने प्रायः सभी नाटकों के द्वारा साहित्य की स्थापित मान्यताओं को खारिज किया और नए मुहावरे गढ़ने के लिएलोकमें व्याप्त उस धड़कन से रूबरू हुए जिसे पाश्चात्य प्रेमियों की दुनिया ने हाशिए पर डाल दिए थे।आगरा बाज़ारऔर मिट्टी की गाड़ीसे  जिस नए मुहावरे की खोज में हबीब लगे उसको एक निश्चित आकार 1973 मेंगांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामादसे मिला। 1975 मेंचरनदास चोरके मंचन के साथ ही हबीब का रंगमुहावरा भारतीय रंगजगत में प्रतिष्ठित हो गया। यह मुहावरा संस्कृत, लोक और पाश्चात्य शैली का सफल मिश्रण था। चाहेआगरा बाज़ारहो यागांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामादहो याचरनदास चोरअथवाहिरमा की अमर कहानीहो; सभी में वे सामाजिक स्वीकृति या अस्वीकृति के निकष से परे अपने समय तथा लोक के मूल्यों की स्थापना के लिए निरंतर संघर्षशील रहे।[9]

भारतेंदु और टैगोर ने प्रयोग की जिस परंपरा का सूत्रपात किया था समकालीन रंगमंच में हबीब ने उसे आगे बढ़ाया. लोक से शक्ति प्राप्त करके प्रयोग से शास्त्र तक की अविराम यात्रा की है। लोक के माध्यम से शास्त्र के सारभूत तत्वों को ग्रहण करने की जो भावभूमि हमें हबीब तनवीर के नाट्य प्रयोगों में मिलती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।[10] समग्रता में देखें तो, निर्विवाद है कि उन्होंने भारतीय समकालीन रंगकर्म को ऐसा नया मुहावरा दिया है, जो विशुद्ध रूप से देशज होते हुए भी सार्वदेशिक और सार्वजनीन है।[11] हबीब का यही रंगप्रयोग उन्हें स्वातंत्र्योत्तर रंगपरिदृश्य में महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाता है. यह बहुत ही महत्वपूर्ण समय है। प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण नाटककार, सभी महत्त्वपूर्ण रंगकर्मी, भारतीय रंगदृष्टि, भारतीय रंगपरंपरा, भारतीय लोकपरंपरा की ओर देख रहें हैं और उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण और सबसे पूरी सघनता, पूरे अपनेपन और पूरी धुन, रंगधुन के साथ काम कर रहा जो आदमी है, व्यक्ति है, वह है हबीब तनवीर।[12] वस्तुतः हबीब नेलोकको मेन स्ट्रीम में ला खड़ा किया और इस तरह से लोकजीवन की गरिमाओं को आत्मसात करने की जो परंपरा स्वातंत्र्योत्तर भारत में शुरू हुई उसके प्रतिनिधि नाटककार के रूप में स्थापित हुएहबीब तनवीरतथा उनका प्रतिनिधि नाटक हैआगरा बाज़ार

सन 1954 में हबीब ने जामिया मिलिया के कुछ अध्यापकों एवं छात्रों के साथ ओखला गांव के कुछ विद्यार्थियों को साथ लेकर नज़ीर अकबराबादी की कविताओं पर एक छोटा सा रूपक तैयार किया। यह रूपक लोगों को बहुत पसंद आया और धीरे-धीरे एक भरेपूरे नाटक की शक्ल अख्तियार करता गया। यह नाटक था आगरा बाज़ार

18वीं सदी के एक बिल्कुल ही अलग ऊर्दू शायर हैं नज़ीर। उनके समकालीन समाज की शायरी और शायराना अंदाज एक खास किस्म की नफ़ासत और नज़ाकत की मांग कर रहा था। जबकि उन्हें शायरी में नफ़ासत और नज़ाकत उस रूप में मंजूर नहीं थी जो तत्कालीन समाज की आन-बान और शान की कसौटी थी। नज़ीर सहजता, सरलता और स्पष्टता के शायर थे। उन्होंने साहित्य की स्थापित मान्यताओं को खारिज किया। उनकी नज़र में हाशिए पर पड़ी यह जिंदगी ही उनके वक्त की सबसे बड़ी सच्चाई थी। नतीजन उनके समय के अदीबों ने उनकी शायरी को कोई अहमियत नहीं दी और महज तुकबंदी कहकर टाल दिया। लेकिन इससे अलग उनकी शायरी उतनी ही तेजी से आम लोगों के बीच अपना जगह तलाश चुकी थी। हबीब ने नज़ीर के जीवन की इसी सच्चाई के आधार परआगरा बाज़ारकी रचना की। इस पृष्ठभूमि मेंआगरा बाज़ारकी लोकोन्मुखता को निम्न रूपों में देखा जा सकता है -

सन 1954 में हबीब द्वारा आगरा बाज़ारलिखे जाने से हिंदी रंगमंच एक नए मुहावरे की ओर प्रवृत्त हुआ जो न तो पूरी तरह से भारतीय शास्त्रीय नाट्यपरंपरा से निर्मित था और न ही पाश्चात्य परंपरा से।आगरा बाज़ारइस परंपरा की पहली कड़ी के रूप में हमारे सामने आता है। यह नाटक न केवल अपनी मूल स्थापना में जनतांत्रिक है, अपनी रंगचेतना में भी सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है। इसका कथानक सुदूर अंचल की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आर्थिक क्रियाकलापों पर आधारित है। हबीब साहब एक ऐसे ककड़ी बेचने वाले के इर्द-गिर्द पूरे नाटक का वातावरण रचते हैं जिसकी ककड़ी कोई नहीं खरीदता है। अनेक प्रयत्न के बाद वह नज़ीर की लिखी कविता का सहारा लेता है और अंततः उसके माध्यम से उसकी ककड़ियां बिकने लगती हैं। हबीब इस नाटक के केंद्र में आमआदमी को उसकी पूरी त्रासदी के साथ उपस्थित करते हैं।

यह नाटक केवल एक कवि और उसकी कुछ कविताओं तक ही सीमित नहीं है। इसमें नज़ीर की जो कविताएं हबीब ने ली हैं वे सामान्य तौर पर नैतिक मूल्यों से ओत-प्रोत हैं और नाटक के केंद्र में आमआदमी की परिस्थिति का ही विवरण प्रस्तुत करती हैं। जीवन एक बाज़ार है जहां मनुष्य खरीदता-बेचता है। जब वक्त बुरा होता है तो निम्नवर्ग आपस में लड़ता-झगड़ता है। उच्चवर्ग में भी इसी प्रकार की व्यावसायिक बुद्धी दिखाई देती है। वेश्यालय में भी अपनी धाक जमाने के लिए खरीद-फरोख्त होती है और बेनज़ीर का ध्यान आकर्षित करने के लिए पुलिसवाला उसके सबसे सफल ग्राहक को खोमचे वालों के बीच झगड़ा कराने के आरोप में गिरफ्तार कर लेता है। लेकिन ऊंच या नीच, उदार या क्षुद्र, सभी आदमी ही हैं। इसलिए हबीब नाटक के अंत में सभी व्यक्तियों की समानता कोआदमीनामाके माध्यम से व्यक्त करते हैं -

दुनिया में बादशाह है सो वह भी आदमी
और मुफलिसो-गदा है सो है वह भी आदमी
काला भी आदमी है और उल्टा है ज्यूं तवा
गोरा भी आदमी है कि टुकडा-सा चांद का
बदशक्लो-बदनुमा है, सो है वह भी आदमी[13]

आगरा बाज़ारमें हबीब ने कहीं भी शास्त्र सम्मत नाट्यरूढियों का प्रयोग न करलोककी प्रतिष्ठा की ओर उन्मुख हुए हैं। इसमें न तो कोई पात्र नायक के रूप में उभरता है और न ही नायिका के। कथानक संगठन की कार्यावस्था, अर्थप्रकृति और संधि जैसी नियमावली नियमबद्धता ही अधिक है, रचनात्मक प्रयोग कम। पश्चिम की नाट्य-पद्धतियों को हबीब इस नाटक में स्वीकार नहीं करते हैं। वास्तव में संस्कृत और पश्चिम के नाटकों की नाट्यकला का परिचय तो हबीब कोआगरा बाज़ारकी रचना और प्रस्तुति के बाद हुआ। इस जमाने तक मैं न तो ब्रेख्त के ड्रामों से परिचित हो पाया था और न ही मैंने उस वक्त तक संस्कृत ड्रामों का अध्ययन किया था। नाटक की इन दोनों परंपराओं का परिचय मैंने 1955 में किया।[14] आगरा बाज़ारकी रचना तक हबीब की दृष्टि इस ओर थी कि किस तरह नाटक को अधिक से अधिक जनसामान्य से जोड़ा जाए क्योंकि जन से जुड़े बिना उन तक अपने नाटक को ले जाना असंभव ही था। इस प्रयास में उन्होंने अपनी रंगदृष्टि विकसित की जिसका परिणाम हैआगरा बाज़ार

हबीब साहब की कार्यप्रणाली में यह प्रश्न बार-बार उठता रहा है कि जैसे उनके नाटकों में न नाटक का लेखक मौजूद है और न निर्देशक। कथानक में लोक है और मंच पर अदाकार।[15]आगरा बाज़ारभी इसी फार्म का नाटक है जिसमें संपूर्ण जनसामान्य ही नायक बन जाता है। यह नाटक इसी जनसामान्य की विरोध गर्भित जीवन स्थितियों के माध्यम से अपनी नाट्यानुभूति को अर्जित करता है जिसके केंद्र में बाजार है और जहां विभिन्न चरित्र अपने समय की विरोधी रूढियों और रीति-रिवाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

एक तरफ पुस्तक विक्रेता और उसके मित्र जीवनी लेखक और कवि, जो रूढिवादी शिक्षित समाज के अंग हैं, महान कवि मीर और गालिब पर आपस में बातचीत करते हैं। उनमें से केवल कवि का मित्र उर्दू कविता के परंपरागत बंधनों की आलोचना करते हुए जीवन की विशेषताओं की प्रशंसा करता है जबकि दूसरे लोग नज़ीर को कवि मानने से ही इंकार कर देते हैं। दूसरी तरफ फेरी और खोमचे वाले को कठिन आर्थिक स्थितियों के बीच किसी तरह जीना पड़ता है। इसीलिए साहित्य में उनकी रूचि कम होती है। वे कविता को विक्रय में सहायक चीज की तरह देखते हैं। ककड़ी बेचने वाला पूरे नाटक में किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में रहता है जो ककड़ी की प्रशंसा में कविता लिख सके। नाटक के दूसरे हिस्से में नज़ीर के प्रशंसक पतंग विक्रेता की दुकान पर बैठते हैं। यहां दंभी पुस्तक विक्रेता का विकल्प उभरता है। बाजार के माध्यम से दो विरोधी वृत्ति वाले व्यक्तित्व को तनवीर साहब सामने लाते हैं। यानी वह समृद्ध लोकजीवन को उच्च संस्कृति के सामने ला खड़ा करते हैं जिससे स्पष्ट होता है कि किस प्रकार उच्च अभिजात्य वर्ग सिर्फ अपनी ही रूचियों में व्यस्त है जबकि आम या जनसामान्य अब भी न केवल अपनी संस्कृति को बचाए हुए है अपितु उसके रस में सराबोर भी है -

ग्राहक - (तज़किरानवीस को किताबवाला समझ कर) साहब, मुंशी मिर्ज़ा मेहदी कानादिरनामाहोगा आपके यहां?
किताबवाला -नादिरनामातो है नहीं। अलबत्ता उसका तर्जुमा उर्दू में हुआ है - ‘तारिखे-नादिरी’- वह मौजूद है।
ग्राहक - औरकिस्सा लैला-मजनूं’?
किताबवाला -किस्सा लैला-मजनूं भी अमीर खुसरों का खत्म हो गया है मगर हैदरी साहब का उर्दू का तर्जुमा अभी-अभी आया है।
ग्राहक - ज़रा दिखाइए। (किताबवाला ग्राहक को लेकर अंदर जाता है...)
(देहातियों की एक टोली रंगीन कपड़े पहने, ‘बलदेव जी का मेलाशीर्षक नामक नज़्म गाती हुई बाएं रास्ते से आती है।...)
रंग है, रूप है, झमेला है
   ज़ोर बलदेव जी का मेला है[16]

इस नज़्म द्वारा हबीब यह संकेत करते हैं कि जनसामान्य के बीच धर्म की कोई संकीर्ण परिभाषा नहीं है अपितु उसके लिए तो धर्म सबको जोड़ता है, जिसकी विशाल परिधि में जब नज़ीर आते हैं तो वह बलदेव जी का मेला लिखते हैं और जनसामान्य के सभी धर्मों के लोग उसे गाते हैं।

हबीब नज़ीर की शायरी का उपयोग करलोकको उपस्थित करने के लिए स्पेस पैदा करते हैं। जैसे ही मौका मिलता है उनको, वह वहां लोकसंस्कृति या लोक विरासत का चित्र भर देते हैं। उनकी रंगचेतना की निर्मिती में उनके आसपास की वे लोक परंपराएं सहायक हैं, जिनमें भारतीय जीवन पूरी शिद्दत के साथ धड़कता है। लोकपर्व होली उनसे छूटता नहीं है -

होली गाने वाला-हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हो गुलरू रंग भरे...,
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की...,
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों, और हाथों में पिचकारी हो...[17]

आगरा बाज़ारनाटक का फार्म ही लोक का है, लोकनाटक के फार्म को और उसके असर को जानबूझ कर ठूंसा नहीं गया है फिर भी नाटक के डायलॉग से लोकनाटक की अदाकारी व कारीगरी के रंग फूटते हुए महसूस होते हैं।[18]

हबीब की गहरी लोकचेतना का ही यह प्रमाण है कि इस नाटक के माध्यम से वह अभिजात्य साहित्य के नाम पर साहित्य को संकुचित दायरे में कैद करने की साजिश करने वाले पर करारी चोट करते हैं। उन्होंने यह बात भी उठाई है कि किस प्रकार अभिजात्य साहित्य के नाम पर कवि आत्मकेंद्रित या स्वकेंद्रित थे और उन्हें ही अनेक प्रकार के सम्मान भी प्राप्त होते थे। जबकि नज़ीर जैसे लोककवि को हिकारत की दृष्टि से देखा जाता था। लेकिन जनसामान्य के इस कवि को इस प्रकार के नकारे जाने से कोई सरोकार नहीं था क्योंकि उनका वास्तविक सरोकार तो जनता की स्वीकृति से जुड़ा था क्योंकि कविता तो अंततः जनसामान्य के बीच में ही पनपती और जिंदा रहती है। नाटक में यह द्वंद्व किताबवाले और पतंगवाले की दुकान के माध्यम से प्रस्तुत होता है। हबीब ने बड़ी ही सूक्षमता से इस दृश्य की रचना नाटक में की है। एक ओर किताबवाले की दुकान पर मीर और गालिब जैसे शायरों की चर्चा होती है;

किताबावाला- आप भी गोयामीरसाहब के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं। सुना है, दिल्ली से लखनऊ के सफ़र मेंमीरसाहब एक लखनवी के साथ एक ही इक्के पर हमसफ़र थे और सारे रास्ते खामोश रहे कि कहीं ज़बान न बिगड जाए!

तज़किरानवीस - साहब, यही रवायतें तो हैं कि आगे चलकर शायद ज़बान और शेरो-अदब को ज़िदा रखेंगी वरना बर्बादी में कसर कौन-सी बाकी रह गई है! दिल्ली और आगरा में इन दिनों जिस किस्म की ज़बान लोग बोलते हैं, मैं तो कान बंद कर लेता हूं। सुना है कलाम-पाक का रेख्ता में तर्जुमा आ गया है।[19] तो दूसरी ओर;
“तज़किरानवीस - ‘जी हां! भई, अजीब ज़हीन लडका है यह असदुल्लाह भी! इस कम उम्र में फ़ारसी में शेर कहता है और वल्लाह खुद मेरी समझ में नहीं आते।[20]

वल्लाह खुद मेरी समझ में नहीं आते के द्वारा नाटककार ने तीखा व्यंग्य स्वंय को उच्च साहित्यिक कवि समझने वालों की समझ पर किया हैं और दिखाया है कि समझ में आने वाले जनकवि नज़ीर के बारे में ये क्या सोचते हैं -

किताबवाला - खूब याद आया! मियांनज़ीरके एक शागिर्द हाल ही में मेरे पास आए, उनकी एक नज़्म लेकर कि क्या मैं उसे अपने रसूख से शाया करवा सकता हूं। अब भला बताइए, कौन पढेगा मियांनज़ीरका कलाम?[21]

नाटक में पतंगवाले की दुकान पुस्तक विक्रेता के विकल्प के रूप में सामने आता है जहां नज़ीर के चाहने वाले बैठते हैं और उनका कलाम सुनते हैं। हबीब यह प्रश्न करते हैं कि क्या साहित्य पर एक वर्गविशेष का ही अधिकार होना चाहिए या वह जनसामान्य के लिए भी है? निश्चित रूप से उनका जोर दूसरे विकल्प पर है। नज़ीर के माध्यम से उन्होंने इसमें यही दिखाने की कोशिश की है कि जनसामान्य की अभिरूचियों से कटकर साहित्यिक कर्म सार्थक रूप में संभव नहीं है।

ककड़ीवाले के माध्यम से हबीब यह संकेत भी देते हैं कि एक बेहतर कवि को समाज के हर वर्ग का ख्याल रखना चाहिए। अभिजात्य रूचि संपन्न एक नए शायर से अपनी ककड़ी पर शेर लिखवाने के लिए ककड़ीवाला बार-बार आग्रह करता है तो -

तज़किरानवीस - मैं ऐसे-वैसों से बात करके अपनी ज़बान खराब करना नहीं चाहता।[22]

इस वाकये से हबीब स्पष्ट करते है कि साहित्यकारों का एक ऐसा वर्ग भी है जो निम्न वर्ग के लोगों से कोई मतलब नहीं रखना चाहता है। जबकि नज़ीर एक ऐसे कवि हैं जो जन में ही रचे बसे हैं। पहले वर्ग के कवियों ने सिर्फ पोथियां पढ़ी हैं जबकि नज़ीर के लिए -
सब किताबों के खुल गए मानी
जब से देखी नज़ीर दिल की किताब[23]

हबीब नज़ीर की शायरी के माध्यम से न केवल अपने समय की समस्याओं को उठाते हैं बल्कि अपनी नई रंगदृष्टि के लिए नया आयाम भी रचते हैं। वे एक सोद्देश्य, प्रगतिशील, जनतांत्रिक एवं सामाजिक सरोकार वाले नाटककार के रूप में स्थापित होते हैं जिनका मुख्य उद्देश्य कोरा मनोरंजन न होकर अपने समय की समस्याओं से समाज को अवगत कराना और जूझना है। यह नाटक न केवल आने वाले खतरों से आगाह करता है बल्कि अपनी संस्कृति और भाषा को बचाने के लिए सावधान भी करता है। आज के साहित्यकारों का यही लोकधर्म भी है।

गीत-संगीत और नृत्य ‘लोक’ का वह भीतरी तत्व है जो उसे निरंतर उर्जा प्रदान करता रहता है। हबीब भी इस सच्चाई से वाकिफ थे और इसलिए आगरा बाज़ार में उन्होंने इनका सार्थक और मनोरंजनकारी प्रयोग किया है। होली के गीत हों या रामू के घर लड़का पैदा होने पर गायी जाने वाली नज़ीर की नज़्म -
माखन, मलाई, दूध, जो पाया सो खा लिया
कुछ खाया, कुछ खराब किया, कुछ गिरा दिया
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन[24]

आगरा बाज़ार की लोकोन्मुखता का प्रमुख आधार उसकी भाषा भी है। इसमें प्रयुक्त संवादों की भाषा सपाट न होकर पात्रों के सामाजिक स्तर को व्यक्त करने का माध्यम भी बनती है। बज़ार के बीच में आम आदमियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा, ठेठ आंचलिक भाषा है। लेकिन उसकी रवानगी, उसकी सबसे बड़ी ख़सूसियत है। किताबों की दुकान पर अदीबों और शायरों की ज़ुबान का अंदाज़ निहायत अदब और कायदे की नफ़ासत लिए हुए है। पतंग की दुकान या बाई जी के कोठे पर बोली जाने वाली ज़ुबान का मुहावरा उस वक्त के शौकीनों और अय्याशीपरस्त लोगों का मुहावरा है।[25] उस समय के समूचे माहौल को बिना किसी विकृति के उपस्थित करना वास्तव में एक बड़ी चुनौती थी जिसे हबीब स्वीकार करते हैं, आगरा बाज़ार में मैंने दिल्ली की उर्दू बड़ी मेहनत से हासिल करके लिखी।[26]

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब नई चेतना वाले नाटक लिखे जाने लगे तो उसमेंलोककी प्रतिष्ठा व्यापक रूप से हुई। इस दृष्टि सेआगरा बाज़ारएक प्रतिनिधि नाटक है जिसके केंद्र में आमआदमी को प्रतिष्ठित किया गया है। इस नाटक के माध्यम से नाटककार यह भी संकेत करता है कि इसी जन या आम-आदमी को भविष्य के निर्माण में अपनी महती भूमिका निभानी है -

हमजोली - ज़माने को ज़रूरत दरअसल मुजाहिद की नहीं मौलाना, बल्कि इंसान की है। इंसान कहीं नज़र नहीं आता।
शायर - (खड़े होकर)तो हम लोग क्या जानवर हैं?(सब हँस देते हैं। शायर बैठ जाता है)
हमजोली - दर्सो-तदरीस का यह नया सिलसिला जो शुरू हो रहा है, मेरा यकीन है कि इंसान भी यहीं से पैदा होंगे।...[27]

नो थीम, नो प्लाटयाकथानक विहीननाटक कहकर कुछ समीक्षकों ने ‘आगरा बाज़ार’ को नाटक मानने से इंकार कर दिया था। वस्तुतः उस समय के अधिकांश समीक्षक पाश्चात्य नाट्य अवधारणाओं के अतिरिक्त और कुछ स्वीकार करने को तैयार नहीं थे क्योंकि उनकी समीक्षा संबंधी मानदंड यथार्थवादी पद्धति पर ही आश्रित थे। लेकिन इसके उलट कुछ चिंतकों ने इस नाटक में उन तत्वों को अंकुरित होते हुए देखा जो हमारी नाट्यपरंपरा की सबसे बड़ी विशिष्टता थी जो आधुनिक काल में पूरी तरह हाशिए पर चली गई थी।[28]


धर्मेन्द्र प्रताप सिंह
मूलतः उत्तर प्रदेश के 
बस्ती जिले के निवासी हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय के 
हिंदू कॉलेज से हिंदी विषय में 
स्नातक और परास्नातक के बाद 
वर्त्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के
हिंदी विभाग से
दिल्ली हिंदी रंगमंच की 
अवधारण और विकास की समस्याएं 
विषय पर शोधरत हैं.साथ ही पर 
यु.टी..’ (युनिवर्सिटी टीचिंग असिस्टेंट
के रूप में कार्यरत।
समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में 
लेखन के साथ ब्लॉग लेखन में रूचि।
स्पष्ट है कि आगरा बाज़ार अपनी मूलचेतना में लोकोन्मुख नाटक होने के साथ-साथ एक आधुनिक नाटक भी है जिसमें एक ओर आज़ादी के बाद की बाज़ारी संस्कृति पर प्रकाश डाला गया है तो दूसरी ओर इससे उत्पन्न खतरों से लड़ने वाले वर्ग की शक्ति का भी चित्रण किया गया है। आगरा बाज़ार की यही सामाजिकता पूरे नाटक को लोकोन्मुख बनाती है, आगरा बाज़ार में लोकतत्वों से भरपूर एक शैली को खोज लिया गया है। इस दृष्टि से आगरा बाज़ार को हिंदी रंगमंच की पहली लोकप्रस्तुति होने का श्रेय दिया जाना चाहिए। हबीब तनवीर ने यहां किसी प्रदेश विशेष की लोकशैली का इस्तेमाल नहीं किया था, बल्कि कथ्य की सामाजिकता से वह शैली अपने आप ही उभर कर सामने आ गई। ककड़ी, पतंग, चूहा, बंदर, वैश्या, छैला, इन विविध विषयों पर लिखी गई नज़्मों ने स्वंय ही नाटक को लोकभूमि से जोड़ दिया।[29] एक और महत्वपूर्ण बात, अनूठे रंगकर्मी हबीब तनवीर के समस्त नाटकों की मूल धुरी मनुष्य है। आम आदमी के सुख-दुख, आस्था-विश्वास और अनंत संघर्ष की जैसी सहज, सरल, आत्मीय और विश्वसनीय अभिव्यक्ति आपके नाटकों में हुई है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।[30]

निष्कर्षतः लोकऔरअभिजात्यके द्वंद्व मेंलोककी पक्षधरता का नाटक हैआगरा बाज़ार। इसमें हबीब न केवललोकको उसके संपूर्ण परिवेश में चित्रित कर, धर्म, संस्कृति, क्षेत्रवाद, भाषाई खतरों से अवगत करा कर अपने युग के लोकधर्म का सफल निर्वहन करतें हैं बल्कि इसमें लोकधर्म को जीवन रूप में भी प्रस्तुत करते हैं। शुरू से आखिर तक यह नाटक अपनी मूलचेतना में लोकोन्मुख नाटक है।



ग्रंथ सूची
आधार ग्रंथ
·       तनवीर, हबीब - आगरा बाज़ार, वाणी प्रकाशन, पेपर बैक, 2004
सहायक ग्रंथ
  • ·       भार्गव, भारतरत्न - रंग हबीब, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, 2006
  • ·       अग्रवाल, प्रतिभा (सं.) - हबीब तनवीर : एक रंग व्यक्तित्व, नाट्य शोध संस्थान, कलकत्ता
  • ·       ओझा, डॉ दशरथ – हिंदी नाटक : उद्भव और विकास, राजपाल एंड संस, 1962
  • ·       सिंह, बच्चन - आधुनिक हिंदी आलोचना के बीज शब्द, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1997
  • ·       नारायण, वीरेंद्र – रंगकर्म, आलेख प्रकाशन, 1979
  • ·       गार्गी, बलवंत – रंगमंच, राजकमल प्रकाशन, 1968
  • ·       आनंद, महेश - रंग दस्तावेज (भाग 1 एवं 2), राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, 2007
  • ·       जैन, नेमीचंद्र - रंग दर्शन, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2008
  • ·       परमार, डॉ. श्याम - भारतीय लोक साहित्य
  •          तनेजा, जयदेव - आधुनिक भारतीय रंगपरिदृश्य

कोश
  • ·       वर्मा, धीरेंद्र (सं.) – हिंदी साहित्य कोश (भाग 1), ज्ञानमंडल लिमिटेड, 2000
  •          इनसाइक्लोपीडिया

सहायक पत्र-पत्रिकाएं
·       प्रसाद, प्रो. कमला (सं.) – कलावार्ता, अंक – 103, वर्ष – 21 (हबीब तनवीर पर केंद्रित)
·       नुक्कड़जनम संवाद, अंक 23-26, अप्रैल 2004 – मार्च 2005 (हबीब तनवीर विशेषांक)
·       तिवारी, कपिल (सं.) - हबीब तनवीर : प्रसंग स्मारिका (मध्यप्रदेश आदिवासी लोककला परिषद द्वारा      आयोजित)
·       रंग प्रसंगराष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, अंक – 08, 24, 28, 33, 35
·       जनसत्तारविवारी, हिंदी दैनिक समाचार पत्र (07 दिसंबर, 2008)
·       वाजपेयी, रश्मि (सं.) - नटरंग, नटरंग प्रतिष्ठान, नई दिल्ली.
अन्य
·       Wikipedia – World wide website of information.
·       A Hand Book – Habib Tanvir (1923-2009), National School of Drama, ITF – 2010.




[1] परमार, डॉ. श्याम, भारतीय लोक साहित्य, पृष्ठ 10
[2] वर्मा, धीरेंद्र, हिंदी साहित्य कोश (भाग 1), पृष्ठ 591

[3] भार्गव, भारत रत्न, रंग हबीब, पृष्ठ 16
[4] प्रसाद, प्रो. कमला (सं.), कलावार्ता (अंक 103), पृष्ठ 01
[5] जोशी, ज्योतिष, रंग प्रसंग (अक्टूबर-दिसंबर 2006), पृष्ठ 124
[6] तनवीर, हबीब, नटरंग (अंक 46), पृष्ठ 23
[7] पणिक्कर, के.एन., रंग प्रसंग (अंक 08), पृष्ठ 23
[8] भार्गव, भारत रत्न, रंग हबीब, पृष्ठ 166
[9] वही, पृष्ठ 62
[10] वही, पृष्ठ 177
[11] वही, पृष्ठ 217
[12] त्रिपाठी, आशीष, कलावार्ता (अंक 103), पृष्ठ 215
[13] तनवीर, हबीब, आगरा बाज़ार, पृष्ठ 108
[14] वही, पृष्ठ 14
[15] प्रसाद, प्रो. कमला (सं.), कलावार्ता (अंक 103), पृष्ठ  02
[16] तनवीर, हबीब, आगरा बाज़ार, पृष्ठ 66 & 67
[17] वही, पृष्ठ 96
[18] नियाजी, इकबाल, कलावार्ता (अंक 103), पृष्ठ  122 & 123
[19] तनवीर, हबीब, आगरा बाज़ार, पृष्ठ 63
[20] वही, पृष्ठ 65
[21] वही, पृष्ठ 70
[22] वही, पृष्ठ 63
[23] वही, पृष्ठ 100
[24] वही, पृष्ठ 73
[25] भार्गव, भारत रत्न, रंग हबीब, पृष्ठ 99 & 100
[26] तनवीर, हबीब, कलावार्ता (अंक 103), पृष्ठ 55
[27] तनवीर, हबीब, आगरा बाज़ार, पृष्ठ 64
[28] वही, पृष्ठ 97
[29] भार्गव, भारत रत्न, रंग हबीब, पृष्ठ 101
[30] तनेजा, जयदेव, आधुनिक भारतीय रंग परिदृश्य, पृष्ठ 25

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