शोध:‘निराला’ की कहानी साधना / अनिल कुमार यादव

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 फरवरी-2014 

चित्रांकन:इरा टाक,जयपुर 
निराला की कहानियाँ अपने आस-पास की जिन्दगी से जुड़ी हुई  हैं। वे ग्रामीण जीवन से अधिक संबद्ध थे, अतः उनकी अधिकतर कहानियों का विषय गाँव की जिन्दगी से निःसृत है। उनकी कहानियों में स्त्रियों, दलितों, जाति-प्रथा, विधवाओं किसानों आदि का चित्रण हुआ है। इससे उनके अनुभव-क्षेत्र के वैविध्य और विस्तार का पता चलता है। रामविलास शर्मा ने लिखा है, ‘‘समाज में ऊँच-नीच व भेदभाव, सदियों से चला आता रूढि़वाद, किसान-जमींदार का संघर्ष, किसानों का भय, उनका संगठन करने की कठिनाइयाँ-यह सब निराला ने सतर्क होकर देखा और चित्रित किया है।’’1 निराला सामाजिक सरोकारों के कथाकार हैं। उनकी कहानियों में नये सामाजिक यथार्थ का विभिन्न आयामों में प्रस्तुत किया गया है। अंर्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, दहेज, साम्प्रदायिकता, जातीयता को वे अपने कहानियों का विषय बनाते हैं। नारी -जीवन और उनकी समस्याओं के प्रति निराला अत्यंत संवेदनशील है। निराला अपनी कहानियों में सामाजिक रूढि़यों, जड़ मान्यताओं और गालित परम्पराओं पर सीधा प्रहार करते हैं। यद्यपि कलात्मक विकास की दृष्टि से निराला के कथा रचना काल को उपखण्डों में बाँटना बहुत संगत प्रतीत नहीं होता, फिर भी 1930 ई. को एक अस्पष्ट विभाजक रेखा के रूप में रखा जा सकता है। उन्होंने 1930 के बाद ही देवीऔर चतुरी चमारलिखी। इसके पूर्व की कहानियाँ अपने संदर्भों से गहरे रूप में जुड़ी रहने के बावजूद प्रभाव की दृष्टि से कमजोर हैं। बहुधा निराला का आदर्शवादी दृष्टिकोण, परम्परागत मूल्यों में उनकी आस्था और इच्छित विश्वास यहाँ तक कि उनका अन्धविश्वास पूर्ववर्ती कहानियो पर हावी रहे हैं।

निराला
निराला की 1930 ई. के बाद की कहानियाँ उनकी पूर्ववर्ती कहानियों से नितान्त भिन्न है। यद्यपि इनमें भी कुछ कमजोर कहानियाँ मिल जाती हैं पर इस काल की अधिकतर कहानियों का स्वर और तेवर पहले से बदला हुआ प्रतीत होता है। निराला ने इस दौर की कहानियों में न सिर्फ सच्चाई को उसके नग्नतम रूप में दिखाने का प्रयास किया है अपितु उसको बखूबी चित्रित भी किया है । इस अवधि की कहानियों में निराला का यथार्थवादी दृष्टिकोण है। यहाँ पर प्रेमचंद और प्रगतिशील आंदोलन का प्रभाव दिखाई देता है। निराला ने स्त्रियों के दुखी जीवन पर अनेक कहानियाँ लिखी हैं। भारतीय परिवार में घुटती हुई नारी का चित्रण निराला की कहानियों में है किन्तु, ये सब स्त्रियाँ युवतियाँ हैं जो छायावादी कविता का आलंबन बन जाती हैं और उनकी समस्याएँ चमत्कारी ढंग से सुलझ जाती हैं। पद्मा के चन्द्रमुख पर 16 वर्ष की शुभ चन्द्रिका का अम्लान खिल रही है। ज्योतिमयी भी अब सत्रह वर्षीया है। कमला सोलहवें साल की अधखिली खुली कलिका है। परी अब सत्रह साल की परी हो गई है। आभा सोलह साल वाली साक्षात् आया है। शास्त्रिणीजी अर्थात सुपर्णा भी षोड़शीकन्या है। ऐसी सुन्दरियों के अनुरूप ही नायक भी एम.ए. से कम नहीं है। राजेन्द्र बी.ए. करके इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर आता है। विजय अंग्रेजी में एम.ए. कर चुका है और रिसर्च स्कॉलर है। रमाशंकर अंग्रेजी के एम.ए. है।हिरनी की रीझने वाले राजकुमार इंग्लैंड से शिक्षा प्राप्त कर घर लौटे हैं। सुकुल एम.ए. पास करके परीक्षक है। श्याम लाल आई.सी.एस. है। निराला की खूबी यह है कि अपनी नायिकाओं के लिए जोड़ा बनाते हैं लेकिन देवीकहानी की पगली को सहायता करने वाला कोई नहीं है। न तो पगली की समस्या का कोई समाधन ही निराला निकालते हैं। निराला  अपनी कहानियों में स्त्रियों की समस्या का ही समाधन नहीं बल्कि पुरूषों की समस्या का भी समाधान करते हुए दिखाई देते हैं। ‘‘कई कहानियाँ निराला ने ऐसी लिखी जिनमें नारी के साथ पुरूष की समस्या का भी काल्पनिक समाधान प्रस्तुत किया गया है।’’2 सफलता कहानी का नरेन्द्र अपने अपमान का बदला ले लेता है। इसी तरह श्यामा’, ‘परिवर्तनआदि कहानियाँ हैं।

निराला सामाजिक सरोकार के कथाकार हैं। उनकी कहानियों में नये सामाजिक यथार्थ को विभिन्न आयामों में प्रस्तुत किया गया है। वे अंर्तर्जातीय विवाह, विधवा-विवाह, दहेज, साम्प्रदायिकता, जातीयता को अपनी कहानियों का विषय बनाते हैं। विधवा-विवाह और दहेज की समस्या निराला के समय में उतनी ही विकट थी जितनी आज है। निराला ज्योतिर्मयीकहानी में इन समस्याओं को उजागर करते हैं। पुरूषों द्वारा निर्मित शास्त्रों ने स्त्रियों को बंदी और गुलाम बनाकर रख छोड़ा है। ज्योतिर्मयी कहानी का विजय कहता है, ‘‘पतिव्रता पत्नी तमाम तपस्या करने के पश्चात् परलोक में अपने पति से मिलती है।’’ इस पर कहानी की नायिका निरूत्तर करने वाला प्रश्न पूछती है, ‘‘अच्छा बतलाइए तो, यदि वही स्त्री इस तरह से स्वर्ग में अपने पूज्य पति-देवता की प्रतिक्षा करती हो, और पति देव क्रमशः दूसरी, तीसरी, चैथी पत्नियों को मार-मार कर प्रतीक्षार्थ स्वर्ग भेजते रहें, तो खुद मरकर किसके पास पहुँचेंगे?’’3 लेकिन इस कहानी में भी दहेज का वर्णन कर समस्या का हल कर देते हैं।

निराला की अधिकांश कहानियाँ सामाजिक ही हैं। ये भी दो प्रकार की हैं- समस्या प्रधान तथा व्यंग्य प्रधान। इन सामाजिक समस्याओं का क्षेत्र अति विस्तृत है। तत्कालीन सभी समस्याएँ ही इनकी कहानियों में प्रतिबिंबित हैं। पद्म और लिलीमें हिन्दू समाज में ही प्रचालित ऊँच-नीच की समस्या है। 'ज्योतिर्मयी' सफलतामें विधवा-विवाह की समस्या को लिया गया है, वेश्याओं की समस्या का चित्रण क्या देखामें है। उसमें उन परिस्थितियों का वर्णन है, जिससे एक असहाय हिन्दू अबला को वेश्या-जीवन अपनाना पड़ता है। कमला’ ‘सुकुल की बीवीतथा जानकीमें नारी-जाति की आर्थिक कठिनाइयों का वर्णन किया गया है। इन तीनों ही कहानियों में नारी की परतंत्रता तीव्र रूप में सम्मुख आई है। तीनों में नारी पति द्वारा निष्कासित है। कमला तथा सुकुल की बीवी की माँ को पति ने दुश्चरित्र होने का अभियोग लगाया, ‘जानकीकी नायिका का पति बदमाश है। जिससे उसे स्वयं आजीविका चलानी पड़ती है। स्वयं अपनी आजीविका चलाने वाली आत्म-निर्भर स्त्री के प्रति समाज के विचार कैसे हैं? यह भी इस कहानी से स्पष्ट है। स्वयं निराला का पत्नी-प्रेम भी इस कहानी से स्पष्ट है। बीस साल हो गये, उनकी पत्नी की मृत्यु को, फिर भी उसकी सी एक स्त्री को देखते ही निराला को लगा, ‘एक युग बदल गया।इस प्रकार हम देखते हैं कि निराला की अधिकांश कहानियाँ नायिका प्रधान हैं और बहुधा शीर्षक भी स्त्रियों के नाम पर हैं।

निराला की कहानियों में सामाजिक क्रांति और सामंतों के प्रति विरोध का भाव मिलता है। श्यामाकहानी में निराला एक ब्राह्मण लड़के और हरिजन लड़की का विवाह करवाते हैं। जिस समय यह कहानी लिखी गयी उस जमाने में ऐसा करना कुछ कम क्रांतिकारी न था। निराला के कथा साहित्य में भारत की गरीब जनता के सुख-दुख, अकांक्षाओं, स्वप्नों और उत्पीड़न भरे संसार का चित्रण है। निराला ने अपने रोमांटिक और यथार्थवादी दोनों तरह के कथा साहित्य में इस जनता की तरफदारी की है। निराला की अधिकांश कहानियाँ सामाजिक समस्या प्रधान हैं। छायावाद का कल्पना-प्रधान कवि कहानियों में यथार्थ की ठोस धरती पर उतर आया है। फिर निराला कवि हैं, स्वभावतः संवेदनशील हृदय पाया है, अतः वे सामाजिक समस्याओं की साधारण जनों से अधिक तीव्रतम रूप में अनुभव कर सके हैं। देवी’, ‘चतुरी-चमारआदि कहानियाँ इस का प्रमाण हैं। ये समाज के सभी पक्षों को छूती हैं, विशेषकर उन चीजों को जहाँ शोषण  और संघर्ष है। ये मार्मिकता और संवेदना के सारे मानव-विश्लेषण और अध्ययन में जितनी सफल हुई हैं, उतनी ही सफलता इन्हें इस सत्य की प्रतिष्ठा में मिली है कि मानव-जीवन अपनी समस्त सीमाओं और संघर्षों के रहते महान और सुन्दर है। निराला किसानों की समस्याओं से जुड़े हुए थे। कांग्रेस, जो उस समय देश की सबसे बड़ी पार्टी थी, ने कभी किसानों की समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि उसमें उच्च वर्ग का वर्चस्व था जिनका स्वार्थ किसानों के हितों से टकराता था। निराला ने 1920 में ही किसानों की भूमिका के महत्व को भाँप लिया था। उनकी कविताओं और कथा साहित्य में इसे बार-बार देखा जा सकता है। निराला मजदूर और समाज की निचली ईकाई के लोगों के पक्षधर थे। निराला ने अपनी कहानियों में मजदूरों और मामूली लोगों के शोषण-दोहन को यथार्थ के धरातल पर चित्रित किया है। जमींदारों की क्रूरता मजदूरों के प्रति हद पार कर गयी थी। ‘‘इसका कारण अवध में किसान आंदोलन की प्रगति, उससे निराला का गहरा संबंध है।’’4 सन् 36 से हिंदी साहित्य में जो प्रगतिशील आंदोलन चला, उसका प्रभाव भी निराला पर है। ऐसी कहानियों में ‘‘अक्सर पात्रों में प्रतिरोध की भावना मिलती है। जुल्म के सामने वे पात्र नतमस्तक नहीं होते। मजबूर होकर अगर जुल्म सहते भी हैं तो बाद में समय आने पर प्रतिकार के लिए तैयार भी रहते हैं। लेकिन गरीब किसान असंगठित हैं, एक दूसरे का साथ नहीं देते, यह स्थिति निराला को क्षुब्ध करती है।’’5 फिर भी निराला ने किसानों, गरीबों, मजदूरों, स्त्रियों की पक्षधरता लिया है।

दलितों और शोषितों के प्रति निराला के हृदय में आत्मीयता और सहानुभूति का भाव है। सामंती अत्याचारों के प्रति निराला असहिष्णु थे। उनकी क्रूरता और अत्याचार का बार-बार अपनी कहानियों में चित्रण करते हैं। राजा साहब को ठेंगा दिखाया कहानी में सामंती क्रूरता की हद है। व्यक्ति की असहायता के माध्यम से निराला ने सामंती क्रूरता को उजागर किया है। दलितों से संबंधित अनेक कहानियाँ निराला ने लिखी हैं। चतुरी चमारकहानी का चतुरी जमींदारों और ऊँचे वर्णों की गिरफ्त में है। वह बारम्बार उनसे उबरने की चेष्टा करता है, लेकिन उबर नहीं पाता। निराला का मानना है कि चमार दबेंगे, ब्राह्मण दबाएंगे। दबा है दोनों की जड़े मार दी जाएं पर यह सहज साध नहीं। यहाँ पर निराला समतामूलक समाज की परिकल्पना करते हैं। इस कहानी में जमींदार को किसानों के विरूद्ध डिग्री मिल जाती है। लेकिन चतुरी थक-हार कर बैठता नहीं, ऊपर की कचहरी में जाता है। लेखक उसका सहयोग करता है। दूसरे किसान चतुरी का साथ नहीं देते। निराला इस बात से क्षुब्ध होते हैं। यहाँ पर आकर निराला समस्या का समाधान नहीं करते बल्कि संघर्ष की राह में कहानी को ले जाते हैं। समाधान का विश्वास देवी और चतुरी चमार कहानियों से उठ जाता है। ‘‘देवी, चतुरी चमार, में कहानी का पुराना ढाँचा टूट गया है। कथानक लेकर चलने वाली, समस्या का समाधान, नायक-नायिका के विवाह से समाप्त होने वाली कहानियाँ ये नहीं हैं। इनमें परिवेश, पात्र ज्यों के त्यों उठाकर कथा में रख दिए गए हैं, मंच पर लाते समय उनका मेकअप नहीं किया गया। पात्रों को अक्सर प्रमुख पात्र निराला स्वयं हैं।’’

धार्मिक रूढि़वादी तथा कर्मकांडियों पर निराला ने तीखे व्यंग्य किये हैं। चतुरी चमारऔर कुल्ली भाटदोनों दलित विमर्श की कहानियाँ हैं। न कि कथा रिपोर्ताज व जीवन चरित्र ही। निराला चतुरी के शोषण के मूल में उसकी दलित नियति को रेखांकित करते हैं, जबकि रामविलास शर्मा उसकी दलित नियति को किसान कारीगर व श्रमिक जनता के रूप में सामान्यीकृत करते हैं।’’

निराला की कहानियों में अनेक विधाओं का मिश्रण है। संस्मरण, रिपोर्ताज, जीवन चरित, निबंध आदि विधाओं से अलग नहीं किया जा सकता। लेकिन दलित जीवन की समस्याओं पर आधारित कहानियों में रिपोर्ताज या जीवन चरित्र कहकर कहानी को हल्का करना होगा। निराला ने ब्राह्मणवाद का जो क्रिटिक प्रस्तुत किया है उसको रामविलास शर्मा दबाने का काम करते हैं या व्याख्या नहीं करते। वर्णश्रमी ब्राह्मणवाद की आलोचना का ही परिणाम था निराला को ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूतकी नियति झेलनी पड़ी। ‘‘निराला के कथा-साहित्य को लेकर रामविलास शर्मा की आलोचना की एक बड़ी सीमा यह है कि वे जिन तत्वों को निराला के चिन्तन की विशेषता बताते हैं, उन्हें ही वे निराला की कथा-कृतियों के विश्लेषण के लिए लागू नहीं करते। निराला निम्न जातियों की जिस सामाजिक क्रांति को अनिवार्य मानते थे, उसे रामविलास शर्मा राष्ट्रवादी विमर्श में समाहित करते हैं।’’8

यह ठीक है कि उनके समय के कहानीकार उनसे आगे हैं लेकिन जिन महत्वपूर्ण संदर्भो को निराला ने उठाया है वह कमतर नहीं हैं।चतुरी चमारहो या 'देवी' ये सभी रचनाएँ अपनी अन्तिम परिणति में उस कुलीन सामंती समाज का क्रिटिक हैं, जो दलितों की पराधीनता की जमीन तैयार करता है। देवीकहानी में निराला को दलितों के प्रति सहानुभूति और अपनी असमर्थता का बोध होता है। यहाँ आकर निराला आत्मालोचन करते हैं। उन्हें अपना लेखन निष्प्रयोजन और अप्रासंगिक लगने लगता है। इस कहानी में निराला अपना ही नहीं बल्कि अपने समकालीन लेखन की निरर्थकता की घोषणा करते हैं। ‘‘निराला का आत्मालोचन अर्थपूर्ण है। वे पुनरूत्थानवादियों, भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों और दलालों, दोहरी नैतिकता वालों पर तीखे प्रहार करते हैं। वे विचार, सौंदर्यभिरूचि और दृष्टि के स्तर पर बदलने का संकेत देते हैं। कल्पना-शीलता, दार्शनिकता कलात्मकता, संवेदनशीलता की दृष्टि से किसी से न्यून तो नहीं ही थे, कई अर्थों में आगे बढ़कर थे।’’9

निराला ने कविता की तरह कहानियों में भी व्यंग्य का प्रयोग किये है। यह व्यंग्य धार्मिक पाखण्ड, रूढि़वादी समाज तथा कर्मकांडियों पर किये गये हैं। उन पर चोट करने में वे कभी और कहीं नहीं चूकते हैं। उनके व्यंग्य में गहरी चुभन है। कहानियों में स्थान-स्थान पर समाज पर व्यंग्य की बौछार की गई है। प्रेमिकापरिचय तो सम्पूर्णतः व्यंग्य मात्र ही है। देवी, श्रीमती गजानन्द शात्रिणी आदि करीब-करीब सभी कहानियों में इस व्यंग्य-विनोद के छींटे हैं। ‘‘निराला के हास्य-व्यंग्य और चुहल का अपना तेवर है। वे हँसते-हँसते चुहल की चिकोटी से ही किसी को दुखती रग पर उंगली रख देते हैं। व्यंग्य की चुभन में करूणा का अहसास रहता है। उनके हास्य व्यंग्य की अंर्तधारा करूणा की है।’’10 निराला की कहानियों में काव्योचित भावुकता तथा परिहासत्मक व्यंग्य की बहुलता रही है, क्योंकि निराला कवि पहले तथा कहानीकार बाद में है। निराला जैसा व्यंग्य अन्य समकालीन कहानीकारों के यहाँ नहीं दिखाई देती है।

निराला की कहानियों का शिल्प पक्ष कमजोर है। समकालीन कहानीकारों में जो तकनीक है उसके सामने निराला की कहानियाँ नहीं ठहरती। लेकिन संवेदना के धरातल पर निराला प्रेमचंद के नजदीक हैं। प्रेमचंद की कहानी यात्रा में भी 1936 के बाद बदलाव आता है, निराला के यहाँ भी 1936 ई. में प्रकाशित कहानियों में यथार्थ का चित्रण मिलता है। प्रेमचंद और निराला दोनों का रूझान जीवन के चारों ओर फैले यथार्थ में था वहीं प्रसाद रूमानी स्वभाव के रचनाकार थे। प्रसाद की तरह निराला के कहानियों में भी काव्यात्मक चित्रण हुआ है। भाषा के लिहाज से निराला की कहानी जयशंकर प्रसाद से सरल और सरस है लेकिन वह भाषा नहीं है जो प्रेमचंद की है। प्रेमचंद अपने समय के ही नहीं हिन्दी कहानी के महान रचनाकार है, इसलिए उनके बरक्स निराला की तुलना नहीं की जा सकती है। फिर भी निराला की संवेदना अन्य समकालीन कहानीकारों से कमतर नहीं है। ‘‘कहानी के क्षेत्र में निराला का योगदान उल्लेखनीय है। प्रेमचंद के समानान्तर निराला हिन्दी कहानी में जीवन-यथार्थ को नया आयाम देते हैं। इन्होंने हिन्दी कहानी के नई दिशा और दृष्टि दी।’’11 

प्रेमचंद की तरह निराला का भी गाँधी से मोहभंग होता है। गांधी के प्रति कुल्ली भाट के क्रोध को निराला व्यक्त करते हैं, ‘‘आपको बनियों ने भगवान बनाया है, क्योंकि ब्राह्मणों और ठाकुरों में भगवान हुए हैं, बनियों में नहीं। जिस तरह बनियों ने आपको भगवान बनाया, उसी तरह आप बनियाँ भगवान हैं’’12 निराला ने अपने बाद की कहानियों में स्वाभाविक वार्तालाप के उदाहरण दिये हैं। लेकिन छायावादी कहानियों में जिनका-आरम्भ बहुधा 16 साल की अधखुली जुही की कलीसे होता है- ऐसा मालूम होता है कि पात्रों के मुख से स्वयं लेखक बात कर रहा है। यहाँ एक बात जो छूट गयी, निराला ने व्यंग्य के माध्यम से एक नई परम्परा का शुरूआत किया है। निराला की कहानियों में भाषा के अनेक रूप हैं। ग्रामगंधी, मुहावरेदार, व्यंग्यशाकिंत भाषा के साथ पाण्डित्यपूर्ण भाषा का प्रयोग भी हुआ है। निराला देशज और तत्सम युक्त भाषा के सहमेल से एक नयी कथा-भाषा सिरजते हैं और उसका सार्थक उपयोग करते हैं।

निराला की अधिकांश कहानियाँ संस्मरणात्मक हैं। अनेक कहानियों में स्मृति-चित्र भाव हैं। उन कहानियों से स्वयं निराला का व्यक्तिगत जीवन और उनकी अनुभूतियाँ प्रत्यक्ष हो उठती हैं। अपने आस-पास के पात्रों में से ही किसी को लक्ष्य करके कहानियाँ लिख डाली गयी हैं। इन प्रकार की कहानियों में स्वभावतः व्यक्ति तत्व की प्रधानता है। एक कवि की कहानियाँ होते हुए भी इन कहानियों में जीवन का नया यथार्थ अपनी शक्ति और सम्भार के साथ अभिव्यक्त हुआ है। निराला मुख्यतः कवि हैं। कविजन स्वभावतः काव्यमय भाषा का प्रयोग करते हैं। यह विशेषता निराला में अत्यधिक है। कवित्व का तत्व, रंग चित्र भी एकाध स्थान पर अत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है। ग्राम-जीवन का चित्रण अत्यन्त सुन्दर और स्वाभाविक है। यहाँ स्वयं निराला पर ग्राम निवास का अनुभव सजीवन हो उठा है। सभी कहानियाँ निराला की ऐतिहासिक अर्थात वर्णनात्मक शैली में हैं। कलापक्ष इसमें गौण है, भाव पक्ष ही प्रधान  है। इनकी कहानियों में रोमांस और यथार्थ का अपूर्व मिश्रण है। निराला में अंतर्विरोध भी है लेकिन समय के साथ उनकी कहानियों में यथार्थ की धार अधिक पैनी होती जाती है। ‘‘निराला के कथा साहित्य में दो परस्पर-विरोधी प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। एक प्रवृत्ति काल्पनिक इच्छापूर्ति के सपने रचने की है, दूसरी वास्तविक जीवन-संघर्ष को चिन्हित करने की।’’13 निराला ने अपनी कहानी में अनेक ऐसे मानवीय संवेदनाओं को कई स्थानों पर ऊँचाइयाँ प्रदान की हैं और मानव को मानव ही बने रहने दिया हैं- देवता नहीं। निराला ने छोटी कहानियों के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया है। कला को समझा दिया है।

निराला की कहानियों पर जितना ध्यान आलोचकों का जाना चाहिए था उतना नहीं गया है। निराला की कहानियों पर किसी भी महत्वपूर्ण आलोचक का ध्यान आकृष्ट करने वाली कोई समीक्षा देखने में नहीं आयी। सभी समीक्षको ने उनके कवि रूप की ही आलोचना की है, कथा तथा अन्य विधाएं उपेक्षित रही हैं। जो थोड़ी बहुत चर्चा हुई है वह ठीक से नहीं की गई है, रामविलास शर्मा भी ठीक से आलोचना 'साहित्य साधना' में नही करते। जो लोग निराला को दलित विरोधी और दूसरे तरफ प्रगतिशील सिद्ध करने में लगे हुए हैं, ऐसे लोगों को निराला की कहानियों को भी बाचने की जरूरत है। निराला और उनके साहित्य को समझने के लिए, उनकी कहानियों से गुजरना पड़ेगा ही। इन कहानियों के पढे़, देखे बिना न हम निराला को और न ही उनके साहित्य को समझ सकते हैं।

सन्दर्भ सूची
1.      रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना-2
       राजकमल, प्रकाशन, दिल्ली-1990, पृ.473
2.     वही
3.     नंद किशोर नवल, निराला रचनावली, खण्ड-4
       राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-1997, पृ.306
4.     रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना-2,
       राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-1990, पृ.470
5.     राजकुमार सैनी, साहित्य स्रष्टा निराला, परिषद पत्रिका, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना
       जुलाई-1990, पृ.93
6.     रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना-2,
       राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-1990, पृ.470
7.     रामविलास शर्मा की बरसी पर, आलोचना पत्रिका,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, अप्रैल-जून-01, अंक-5, पृ.45
8.     वहीं
9.     वहीं
10.    डॉ. चन्द्रशेखर कर्ण, निराला अंक,
       परिषद पत्रिका, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना
       जुलाई-1990, पृ.159
11.     वही, पृ.161
12.     नंद किशोर नवल, निराला रचनावली, खण्ड-4
       राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-1997, पृ.917
13.     वही, पृ.461 


 अनिल कुमार यादव 
पीएच.डी. (हिन्दी)
 दिल्ली विश्वविद्यालयदिल्ली
मो. 8826627689
anilciljnu@gmail.com
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