साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) फरवरी-2014
चित्रांकन: इरा टाक,जयपुर |
नरेश मेहता जी |
नरेश मेहता भारतीय अस्मिता और सांस्कृतिक संपन्नता
के कवि हैं । हमारे दर्शन, धर्म, संस्कृति आदि ने आत्मबोध और चेतना की उर्ध्वता
के शिखरों को सदैव स्पर्श किया है । उनके काव्य की जमीन समसामयिक स्थितियों को
गहरा स्पर्श देती हुई शाश्वत् जीवनमूल्यों को तलाशने में प्रज्ञा-शिखर की
सदियों का प्रत्यय बन गई हैं, उसमें युग संदर्भों के अनुकूल जीवन सत्य की पकड़,
उर्ध्वगामी चेतना और अमानवीय हालातों से टकराने की ताकत है।इसी कारण उनके काव्य
में भारतीय सांस्कृतिक चेतना के विविध घटक यथारूप अभिव्यक्ति पाते हैं।
नरेश मेहता कर्म को सर्वाधिक महत्व देते हैं
क्योंकि कर्म मनुष्य के जीवन से बॅधा है।अगर मनुष्य अपने कर्म और वचनों पर
स्थिर रहता है तो उसे कोई भी ताकत विचलित नहीं कर सकती अंतत: व्यक्ति अपने लक्ष्य
को अवश्य ही प्राप्त कर सकता है। 'संशय की एक रात' में कवि कहता है -
किंतु
किंतु यह संभव है,
बंधु । यह असंभव है,
कर्म और वर्चस को,
छीन सके कोई भी
जब तक हम जीवित हैं । (पृ.17)
इसी प्रकार की अभिव्यक्ति 'पार्थिव भी पृथ्वी
भी' कविता में नरेश मेहता करते हैं-
इसलिए
अब कर्म के समय मेरे लिए,
यह धरती पृथ्वी है,
और पूजा के समय पार्थिक ।
कर्म के अनुसार ही मनुष्य की समृद्धि होती
है । कर्म के अनुरूप ही मनुष्य समाज में यश अर्जित करता है । इसी बात को नरेश
मेहता 'प्रसाद पर्व' में दशरथ की छाया को राम से मुखर करते हुए दर्शाया है-
पुत्र
मेरे । संशय या शंका नहीं
कर्म
ही उत्तर है
यश
जिसकी छाया है
उस
कर्म को करो ।
नरेश मेहता के काव्य की एक विशेषता
प्रकृति-चित्रण का वैविध्य भी है । विभिन्न प्राकृतिक स्वरूपों की रंगों की
अलौकिक छटाओं से मंडित उनकी कविताएं एक अपूर्व आनंदानुभूति देती हैं । जहाँ एक ओर
कवि में अपना सब कुछ विनम्र भाव से सौंप सबके दुख को अपना समझने का समर्पण भाव है
वहीं दूसरी ओर उसमें ईश्वर अथवा 'परात्पर बोध' के प्रति सजगता भी है । प्राकृतिक
दृश्यों में नरेश मेहता को महाभाव की प्रतीती होती है वह उसे सभी में अनुभूत होते
देखने का अभिलाषी है, तभी तो उन्हें कभी यह सृष्टि 'परम पुरुष के लीला भाव सी'
लगती है तो कभी 'विराट यज्ञ सी . . . .
यह
कैसा है यज्ञ
यहाँ
यज्ञ भी यज्ञ को समर्पित है,
यज्ञो
यज्ञेन कल्पताम्
समय
एक
कालयज्ञ संपन्न कर रहा है,
जिसमें
श्रतु मात्र की छवि दी जा रही है,
पृथिवी
एक
वानस्पतिक यज्ञ संपन्न कर रही है ।
दिनारंभ होना नरेश मेहता के लिए एक फूल खिलने
जैसा है।सारे वन-उपवन धरती के काव्य- संकलन और सृष्टि एक उत्सव के समान कवि मन
को आकर्षित करते हैं और कवि यह कह उठता है-
जो
जहॉं भी है
समर्पित
है सत्य है
ये
फूल
और
यह धूप
लहलहाते
खेत
नदी
का कूल
क्या
प्रार्थनाऍं नहीं हैं
प्रकृति की सारी वनस्पतियाँ नरेश मेहता को
एक विशाल कौटुंबिकता का अनुभव कराती हैं । पृथ्वी उनके लिए जीवनमात्र की 'कवच
नारायणी' है । वे पूतभाव से अभिभूत हो कह उठते हैं-
धरती
को नहीं छुओ ।
यह श्रृवा की प्रतीती होती है,
देवदारूओं
की देह-यष्टि ।
क्या उपनिषदीय नहीं लगती
तुम्हें
नहीं लगता ।
कि इस भोजपत्र में
एक
वैदिकता है ।
काव्य में नरेश मेहता ने मनुष्य और प्रकृति
के बीच अटूट संबंध का चित्रण किया है और उनका कहना है कि प्रकृति ही मनुष्य का सब
कुछ है-
प्रकृति
से बड़ा ।
कोई व्यक्ति नहीं होता
कोई
शास्त्र नहीं होता, पार्थ ।
वर्तमान
समय में प्रकृति का निर्बाध दोहन हो रहा है । यहाँ प्रकृति का शोषण कभी उद्योगी
आवश्यकताओं के लिए होता है तो कभी व्यवसाय के लिए । नरेश मेहता 'एक प्रश्न'
कविता के माध्यम से प्रकृति के शोषण की ओर सभी का ध्यानार्कित करते हैं-
तुम,
मात्र एक चमकदार पत्थर के लिए
बनैले
पशु की भांति
पृथ्वी
को खूंद कर
जब
उसे पा जाते हैं,
तब
दूर-दूर तक भी तुम्हारी आंखों में,
क्षत-विक्षत
विदीर्ण
उस
धरिश्री के प्रति
कृतज्ञता
या आभार कुछ भी नहीं होता ।
इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि मनुष्यों
की भांति धरती को खूंद कर प्रकृति का नाश कर रहा है जिसे देखकर प्रकृति की हर वस्तु
भयाकुल दीखती है । इस दैवीय संपदा के साथ मनुष्य हमेशा शत्रुता की भावना रखता है
जबकि वे अपने ही गोत्र के परिजन हैं ।
नरेश मेहता की कविताऍं श्रमिक वर्ग के प्रति
सहानुभूति से सम्पृक्त हैं जो समाज के यथार्थ का प्रतिपादन करती हैं । वे मनुष्य
की प्राचीन परंपराओं एवं जीवन को आधुनिक संदर्भ से जोड़ते हैं तथा रूढि़वादी
परंपराओं को तोड़ने का आह्वान करते हैं । रूस में हुई क्रांति एवं समाजवाद की स्थापना
को नरेश मेहता मनुष्य की सफलता मानते हैं, उसकी मुक्तकंठ से सराहना करते हुए
श्रम को श्रेष्ठ मानते हैं -
यह
यौवन की भूमि सोवियत
यहॉं
मनुष की
उसके
श्रम की होती पूजा
पूँजी
और सम्राज्यवाद की तोड़ बेडियॉं
हाथों
में नवजीवन की उल्काऍं लेकर
मनुज
बडा है, कुतुब सरीखा
उसके
चलने पे लोहा है
कौन
रोक सकता है नव को चलने से
जिसके
संग-संग आदिकाल से इंद्र चल रहा है।
(मेरा समर्पित एकांत पृ.46)
नरेश
मेहता काव्य-जगत में साम्राज्यवाद और उपनिवेशी मनोवृत्ति के प्रति तीव्र
प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं । 'प्रार्थना पुरुष' काव्य में दो परिप्रेक्ष्यों
में साम्राज्यवादी उपनिवेशीकरण पर विचार किया है । एक भारतीय परिप्रेक्ष्य में
और दूसरा दक्षिण अफ्रीकी परिप्रेक्ष्य में । दक्षिण अफ्रीका में उपनिवेश की
शक्तियों ने वर्ण संकरता के आधार पर अपनी सत्ता-नीति को बनाया । वहॉं के काले सभी
प्रकार से दमित । शोषित थे । छुआछुत के कारण उन्हें तिरस्कृत किया गया । इसमें
गांधी जी को कष्ट सहने पडे और गांधी जी ने दमित, शोषितों को संगठित कर अपने
अधिकारों के प्रति सजग किया । इसी तथ्य को नरेश मेहता कविता में शब्द देते है-
'अफरीका
के देशा में ये
अमानुषी
काले कानून,
पग-पग
पर अपमान पुलिस का
खाना
मुश्किल दोनों जून ।
भारतीय संदर्भ में भी उपनिवेशवादियों ने उत्पाद
पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आक्रमण करवाया जिसकी काट गांधी जी ने स्थानीय उत्पादन
को बढाने और प्रयोग की वकालत के साथ ही इसी बात को नरेश मेहता कहते हैं-
पुरुषार्थ
तभी जागेगा जब
यह
देश हाथ से कर्म करे ।
उपनिवेशवादियों
की नीतियों का शिकार होकर हमें क्या दुष्परिणाम भोगने पड़े उसका चित्रण नरेश
मेहता ने मार्मिक ढंग से किया है-
किंतु आज तो शस्य श्यामला इस धरती पर
फसल जल रही है, मनुज मर रहा है
कलकत्ते के फुटपाथों पर
मनुज खून में लथपथ डूबा अपनी सारी संस्कृतियों
में
ऊबा ऊबा .......
आज मात्र शरणार्थी बन गए ।
नरेश मेहता ने अपने काव्य-जगत को मानवीयता
का रक्षक बनाया है । वे युद्ध को अनुचित ठहराते हैं क्योंकि युद्ध का उन्होंने
जो साक्षात्कार किया उसी संदर्भ की अभिव्यक्ति कविताओं में करते हैं । वे कहते
है युद्ध होता है, खत्म हो जाता है, खत्म होने के बाद नए राज्य को जन्म देता
है । परंतु युद्ध अपने पीछे कैसी भयानकता छोड़ जाता है उसका अनुमान लगाना संभव
नहीं है । युद्ध की दुष्परिणाम को नरेश मेहता ने 'महाप्रस्थान' कविता में
युधिष्ठिर, पार्थ के संवाद से स्पष्ट किया है -
प्रत्येक
युद्ध
जिसमें
एक एक राज्य जन्म लेता है
कितनी
स्त्रियों को विधवा
और
कितने बच्चों को अनाथ कर जाता है
और
वे जीवन संघर्ष में
दिशाहीन
खो जाने के लिए
बाध्य
हो जाते हैं ।
इसी प्रकार का आख्यान 'पिछले दिनों नंगे
पॉंवों' कविता में मिलता है । जहॉं राज्य प्राप्ति की लालसा में कौरवों और
पांडवों का युद्ध हुआ पर युद्ध की भीषणता का परिणाम सब कुछ नष्ट हो जाना और अपनो
की ही समाधि बना-
कैसा
था यह युद्ध
भीष्म,
द्रोण, कृप, अश्वत्थामा
दुर्योधन,
दु:शासन, कर्ण, जयद्रथ।......................................
सब
स्वाहा हो गए
युद्ध
के उदर ज्वाला में ।
नरेश
मेहता की मनुष्यत्व में असीम आस्था है तभी तो वे कहते हैं-
एक दिन मनुष्य सूर्य बनेगा
क्योंकि
वह आकाश में पृथ्वी का
और
पृथ्वी पर आकाश का प्रतिनिधि होना
मनुष्य
के इस देवत्व के माध्यम से ही ।
यह
संपूर्ण सृष्टि ईश्वरत्व प्राप्त करेगी ।
नरेश
मेहता मानव की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं-
राज्य
या न्याय
धर्म
या नैतिकता
इतिहास
या पुराण
ज्ञान
या दर्शन
इन
सबकी दृष्टियों का गंतव्यों का
अर्थ
और प्रयोजन
निष्कर्षत: हम पातें हैं कि नरेश मेहता ने अपने काव्य-साहित्य में विविध भाव बोधों का उदघाटन किया है तथा सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक दार्शनिक मूल्यों को आधुनिक युगानुरूप अभिव्यक्ति देकर कविता विधा को नवीनता दी है। नरेश मेहता नेअपनी कविताओं में सामाजिक विचारों का आधुनिकीकरण किया है तथा प्रकृति और सौंदर्य के चित्रणों के माध्यम से आधुनिक जीवन की विषमताओं, विवशताओं, अभिषत व्यक्तियों की दारुण यंत्रणाओं, आदि को यथार्थ अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। इस प्रकार नरेश मेहता ने काव्य संसार को विषय-वैविध्य और पौराणिक आख्यानों को वर्तमान संदर्भ की प्रासंगिकता की कसौटी पर कसकर स्तुत्य कार्य किया है।
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