साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) फरवरी -2014
चित्रांकन:इरा टाक,जयपुर |
सत्ता बचाने का तरीका
जब लोग
राहत सामग्री लेकर
आपदाग्रस्त क्षेत्रों की ओर कूच कर रहे थे
फँसे लोगों को निकाल रहे थे
भूखे,प्यासे,बीमार लोगों की सेवा कर रहे थे
अपनी जान जोखिम में डाल
मृतकों को ढूंढ रहे थे
वे मंदिरों की ओर जा रहे थे
रामायण के पाठ पढ़ रहे थे
मृतात्मा की शांति के लिए
शांति पाठ और यज्ञ करवा रहे थे
जब लोग उजड़े घरों को बसाने में लगे थे
टूटे रास्तों,पुलों,सड़कों को बना रहे थे
वे टूटे मंदिर के पुनरुद्धार की
योजना बना रहे थे
जल्द से जल्द पूजा-अर्चना की तैयारी में लगे थे
पीड़ितों को भजन-कीर्तन की सलाह दे रहे थे
जब इंसान गहरे संकट में था
वे भगवान को बचाने में लगे थे
आपदाओं से निपटने का
उनका युगों पुराना तरीका अब भी पुराना नहीं पड़ा
किसी को भले न बचाया हो आपदा से
लेकिन उनकी सत्ता को
हमेशा बचा लिया इस तरीके ने।
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काँठी अखरोट
कठिन कविता की तरह होता है काँठी अखरोट
उसके भीतर भी छुपा होता है गूदा
कठोर छिलके के पीछे
यह और बात है कि गूदे से अधिक होता है छिलका
आसान नहीं होता है तोड़ना उसे
बट्टे या हथौड़े जैसा ही कुछ चाहिए
उसके भीतर प्रवेश करने के लिए
ठीक उसके बीच में पड़नी चाहिए चोट
पकड़ थोड़ी ठीली रह जाय तो
पता ही नहीं चलता
कि किस कोने में जा छुपा अखरोट
फिर ढूँढते रह जाओ
मेज-कुर्सी या चारपाई के नीचे
या फिर दरवाजे के पीछे
ढूँढ-ढूँढकर थक जाओगे जब
अचानक जूते के भीतर पाया जाएगा
मजबूत पकड़ के साथ
पड़ेगी जब सही चोट लगातार
तब कुछ-कुछ होंगे गूदे के दर्शन
आलपिन या किसी नुकीली चीज की जरूरत होगी
खोप-खोपकर निकालने के लिए उसे
एक टुकड़े का स्वाद खो जाए मुँह में
तब दूसरा टुकड़ा निकल पाएगा
एक माँ की तरह का धैर्य चाहिए
काँठी अखरोट से गूदा निकालने को
बावजूद इसके
कुछ न कुछ गूदा रह ही जाएगा छिलके के साथ चिपका
ऐेसे में दाँती अखरोट क्यों न पसंद आए भला
न बट्टा या हथौड़ा
न आलपिन जैसी कोई नुकीली चीज
दाँतों के बीच दबाया हल्का सा
कड़क के संगीत के साथ
पतले छिलके के भीतर से
दिल-दिमाग के आकार सा गूदा हाथ में
छिलका नहीं उलझता गूदे से
पूरा का पूरा
गप्प मुँह के भीतर
बहुत देर तक बना रहता मुँह में स्वाद उसका
मन है कि भरता ही नहीं
दाँती अखरोट की तरह क्यों नहीं हो सकती है कोई कविता।
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वे आ रहे हैं सपने बोने
वे जो तुम्हारी आँखों में
सपने बोने की बात कर रहे हैं
तुम समझ सकते हो
वे तुम्हारी आँखों को क्या समझ रहे हैं
वे जानते हैं अच्छी तरह
जैसा बोया जाएगा बीज
वैसी ही लहलहाएगी फसल
वे यह भी जानते हैं
सबसे फायदेमंद कौनसी फसल है उनके लिए
दरअसल वे
अपने सपनों के बीज
तुम्हारी आँखों में
उगाना चाहते हैं
अपने सपनों को तुम्हारे
जताना चाहते हैं
वे तुम्हारे खेत में
अपने बीज-उर्वरक-कीटनाशक डालकर
भरपूर फसल निचोड़ना चाहते हैं
उन्हें खेते की उर्वरता
और पर्यावरण की नहीं
अपनी उत्पादन की चिंता है
सावधान!
खेत मत होने देना अपनी आँखों को।
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मकान बनवाते हुए तीन कविताएं
1-मैं तुम पर विश्वास करना चाहता हूँ
सम्मान करता हूँ मैं तुम्हारे हुनर का
कद्रदान हूँ तुम्हारा
तुम्हारे उठते-गिरते भुजाओं की गति
हथौड़े-निखानी से निकलती लय
तुम्हारे माथे से कनपटियों की ओर
बहती हुई पसीने की बूँदें की चमक
उसकी महक
मुझे बाँध लेती हैं किसी आदिम लोकगीत-नृत्य सी
घंटों निहारते हुए भी ऊब नहीं होती कभी
एक संगीत बजने लगता है भीतर कहीं
मैं जानता हूँ दुनिया के सौंदर्य के पक्ष में
इनकी अहमियत
मुझे मालूम है तुम्हारे सहयोग के बिना
एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकती मेरी जिंदगी
मैं विश्वास करना चाहता हूँ तुम पर
तुम्हारा निर्दोष-हँसमुख चेहरा गारंटी की तरह लगता है
जो कहता है बिन कहे-
मुझे तुम पर विश्वास करना चाहिए
लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाता हूँ
तुम्हें अग्रिम देने से पहले
जेब में ही ठिठक जाते हैं मेरे हाथ
चेहरे-दर-चेहरे घूमने लगते हैं मेरी आँखों के सामने
कानों में गूँजने लगते हैं धोखा खाए लोगों की बातें
काई-कीचड़ जमी जमीन पर
फिसलते हुए देखे हैं मैंने बड़े-बड़े
मेरा एक मन कहता है कि
तुम नहीं फिसलोगे
मुझे भरोसा है तुम पर
पर काई जमी
कीचड़ सनी जमीन मुझे बहुत डराती है
जिसका बाप खाया हो भालू ने
उसका बेटा ठूँठ से भी डरता है
माफ करना
मैं तुम पर विश्वास करना चाहता हूँ
पर नहीं कर पाता हूँ।
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2-मकान मुझे बना रहा है
यह कहना गलत होगा कि
मैं मकान बनवा रहा हूँ
दरअसल सच यह है कि
मकान मुझे बना रहा है
अनुभवों की ईट-सरिया
अहसासों के मसाले
मुझे रोज फुट-दर-फुट ऊपर उठा रहे हैं
बाजार की हवा मुझे सुखा रही है
पूर्वजों के कष्टों का पानी सींच रहा है
मैं हर पिछले दिन से अगले दिन
अपने आप को अलग पा रहा हूँ
सिमेंट जैसी प्यास चाहिए मजबूती के लिए।
मकान सिखा रहा है मुझे
बातों की सरिया से भरोसे की जाल बनाना
ताकि डाल सकूँ
भरोसे के संकट से भरे इस समय में
मजबूत संबंधों का एक लैंटर ।
मकान बता रहा है मुझे
एक सही अनुपात का क्या महत्व होता है जीवन में
कितना मीठा ,कितना नमकीन
और कितना कसैला बोलना है काम निकालने के लिए
मकान खोल रहा है मेरे सामने
रेता-रोड़ी -बजरी-लकड़ी के धंधे में लगे लोगों के
ट्रकों केे काफिले में साल-दर-साल होती वृद्धि के रहस्य को
मकान समझा रहा है मुझे
सही-सही अंतर
मजदूर के पेशानी में छलक आए पसीने
और रोज सुबह मॉर्निग वॉक पर निकले
थुलथुल पेट वाले पड़ोसी के पसीने के बीच
मकान दिखा रहा है मुझे
सर्वहारा के बदलते चरित्र को
और उन स्रोतों को
जो सिखा रहे हैं जन-जन को
कामचोरी और चालाकी के गुर
मकान टोक रहा है मुझे
अपनी ही हाँकते रहोगे
या सुनोगे औरों की भी
रचनात्मकता कहानी-कविता में ही नहीं
और भी बहुत सारे क्षेत्र हैं
देखो -
तगार बनाने वालों से लेकर दीवाल चिनने वालों तक
सरिया मोड़ने-काटने वालों से जाल बिछाने वालों तक
लकड़ी चीरने वालों से लेकर खिड़की-दरवाजों के पल्लों में खराद गढ़ने वालों तक
प्लास्टर करने वालों से लेकर रंग-रोगन करने वालों तक
प्लंबर से लेकर बिजली फिटिंग करने वालों तक
मकान सामाजिकता का पाठ पढ़ा रहा है मुझे
कि कौन है जो काम नहीं आता
सोचते हो नहीं पड़ेगा कभी मतलब जिससे
मिलना पड़ सकता है किसी समय भी उससे
मैं कहाँ बनवा रहा हूँ मकान
मकान बना रहा है मुझे।
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3-गृह बनाने वाले नहीं करवाते गृह प्रवेश
गूँज रही हैं बहुत सारी आवाजें
आवाज़ें ही अवाजें
लेकिन अनुपस्थित हैं वे आवाजें
जिन्हें सुनने के अभ्यस्त हो चुके थे कान
पिछले आठ-दस महिनों से
जिनकी खुसरपुसर या टंकार
मोबाइल में बजते गीत
सुने जाते रहे भीतर-बाहर
मकान के एक-एक कोने में
पसीने की तरलता और गंध की तरह
फैली रहती थी जो कभी
उदासी और थकान के बावजूद मौजूद रहती थी
बिना नागा किए
आज कुछ खास आवाजों का ही वर्चस्व है
जो सुनाई देती रही हैं पहले भी
कुछ खास अवसरों पर
अपनी पवित्रता के दंभ से भरी हुई
छूना भी नहीं चाहती हैं जो पसीने भरी आवाजों को
गृह प्रवेश कराएंगी ये खास आवाजें
अनुपस्थित आवाजों का इतिहास
पवित्र आवाजों से भी पुराना है
उतना ही पुराना
जितना पहला औजार
जितना पहला पहिया
फिर भी
अब तक बदल नहीं पाई हैं ये अपना इतिहास।
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भाषा का सवाल
वे डराते हैं अपनी भाषा से हमें
भर देते हैं गहरे हीनताबोध से
सोख लेते हैं हमारा सारा आत्मविश्वास
बोलते हैं जब वे
हम उनकी भाव-भंगिमाओं से
कुछ-कुछ अंदाज लगाते हैं
चमत्कृत होते हैं हम उनकी विद्वता पर
एकटक उनकी ओर देखे
बस हाँ में सिर हिलाते हैं
कभी-कभी जब वे हमारी भाषा में भी बोलते हैं
पता ही नहीं चलता-
कहाँ-कहाँ से ढूँढ लाते है शब्द
उनकी सूट-बूट की तरह नफासती होते हैं जो।
वे अंगुली रख देते हैं जहाँ पर
हम दस्तख़त कर देते हैं वहाँ पर
लौट आते हैं अंधविश्वास से भरे अपने घर को
बार-बार छले जाने पर भी
हम शापित हैं अंधविश्वास करने को।
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दिल वालों की दिल्ली
एक लंबी सूची थी मेरे पास
कवि-कथाकार-संपादकों की
पढ़ता आ रहा था जिन्हें मुद्दतों से
कुछ के साथ कभी-कभार फोन पर बात भी हो जाती थी
दिल्ली आइए कभी
का आमंत्रण अक्सर मिल जाता था
बीमार पत्नी के इलाज को जाना हुआ अबके
नोट कर लिए मैंने सभी के पते और फोन नंबर
बहुत मन था मिलने का उनसे
तड़फ थी मिलन की गहरी
दिल्ली पहुँचकर सबसे पहले
एक बूढ़े कवि को फोन लगाया
चाँदनी चौक में खड़े होकर
बड़े ही मुश्किल से फोन लग पाया
शोर इतना कि पहले वह सुन नहीं पाए मेरी आवाज
आवाज गई तो पहचान नहीं पाए
फिर एक युवा कवि को फोन मिलाया
बताया उन्होंने -
मैं रूका हूँ जहाँ उसी सेक्टर के दूसरी ओर रहते हैं वह
और कहा-
ठीक है बहुत जल्दी मिलने आ रहा हूँ
मैं इंतजार में बैठा रहा उनके
पर मुलाकात नहीं हो पायी
लौटना था जिस रोज
एक नवोदित कवि से बात हुई फोन पर
लगभग पाँच किमी की दूरी पर था वह उस समय
पर बहुत व्यस्त था
मेरी मिलने की चाह चाह ही रह गई
सुना तो बहुत था लेकिन देख भी लिया
सचमुच दिल्ली बहुत बड़ी है
मेरे पहाड़ी शहर की तरह नहीं
कि फट से जाकर ले आएं किसी को साथ अपने
दिल्ली बहुत व्यस्त है
मेरे जनपद की तरह निठल्ली नहीं।
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खतड़वा संक्रांति
बच्चों-किशोरों का झुंड
उल्लास से भरा
इकट्ठा करने में जुटा है केड़-पात
मक्के के ठूँठ, सूखे झील-झंखाड़
ढूँढ-ढूँढकर लाए जा रहे हैं
गाँव भर से
सबसे ऊँची टिकड़ी में गाँव की
बनाया जा रहा है ढेर ।
घसियारिनें लगी हैं
घास के पूले के पूले काटने में
भर पेट खिलाना जो है आज के दिन
इतना कि
गाएँ उसी का बिछौना बनाकर सो जाएँ।
शाम होने को आई
लौट रही हैं घसियारिनें
घास का लूटा-सा पीठ में लादे
इसी घास से बनाए जाएंगे बुड़ि के पुतले
डाले जाएंगे -
गोशाला की छत पर
गोबर के खात पर
लौकी-कद्दू-ककड़ी-तोरई के बेलों पर
एक साथ ले जाई जाएंगी
टिकड़ी में बने ढेर में जलाने ।
अब सारी तैयारी पूरी हो चुकी है
जल उठी है मशालें
सिन्ने के ढाँक के साथ
बुड़ि का पुलता पकड़कर
भीतर से लेकर गोठ के ओने-कोने से
झाड़-पोछकर
बाहर भगाया जा रहा है बुड़ि को।
हाँक लगाकर -
‘भ्यार निकल बुड़ि ,भ्यार निकल ’।
दौड़ पड़े हैं सभी टिकड़ी की ओर
मशालें लहराते
समवेत स्वर में चीखते-चिल्लाते
सार गाँव गूँज उठा है
ऐसे में भला बुड़ि कहाँ छुपी रह सकती है
कितना सुदंर लग रहा है गाँव
अंधकार दुबक रहा है जान बचाकर ।
एक इशारा पाते ही
धू-धू जल उठा है केड़-पात का ढेर
झोंक दिए गए हैं उसमें सारे के सारे पुतले
फैल गईं हैं आसमान में असंख्य चिनगारियाँ
हर पहाड़ी ने
थाम ली हो जैसे एक-एक मशाल
और समवेत स्वर चक्र बन घूमने लगे हों घाटी में ।
पता नहीं कब से
हर साल
बुड़ि को खदेड़कर सुपुर्द-ए-खाक करते
आ रहे हैं ये लोग
पर बुड़ि है कि फिर-फिर लौट चले आती है।
( कर्क संक्रांति को कुमाऊँ के गाँवों में मनाया जाना वाला पशु त्योहार)
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सबसे अधिक
दुनिया में
सबसे अधिक सुन्दरता
सृजी है
असुंदर माने जाने वाले हाथों ने
सबसे अधिक प्रकाश
छुपा है
काले-मटमैले दिखने वालों के दिलांे में
सबसे अधिक कोमलता
बसी है
सबसे कठोर और खुरदुरी चमड़ी वालों में
सबसे अधिक ईमानदारी
बची हुई है अभी भी
असभ्य और जंगली कहे जाने वालों में।
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पानी
सबसे पतला
सबसे दुबला
सबसे अधिक भाग पर फैला हूँ
पहाड़ ,मैदान ,समुद्र........
कौनसी जगह है ऐसी जहाँ व्याप्ति नहीं मेरी
तुम्हारी प्यास में
तुम्हारी भूख में
तुम्हारे सौंदर्य में
तुम्हारे जन्म से लेकर मृत्यु तक
कहाँ नहीं हूँ मैं
जैसे रखा तुमने वैसे रहा मैं
अपने रूप-रंग-गंध की
नहीं की कभी कोई परवाह
जहाँ से मिला रास्ता उसे अपना रास्ता समझ लिया
कभी कोई ना नुकुर नहीं की
बावजूद इसके तुम
नहीं समझ पाए स्वभाव मेरा
रोककर खड़े हो गए मेरा आगे बढ़ने का रास्ता
करने लगे सीनाजोरी
आखिर कब तक सहन होता
बंधन आखिर कोई कब तक सहता
जाना ही था मुझको अवरोधों को तोड़कर आगे
मैंने तो उसी रास्ते को चुना जहाँ से मुझे जाना था
अपनी मंजिल की ओर
तुमने उसको प्रलय कह डाला।
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बीस वर्ष बाद
वैवाहिक जीवन के बीस वर्ष
ठीक-ठाक काट चुकी
दो बच्चों की माँ
अपने बीते दिनों का हिसाब-किताब
करती है
बहुत कुढ़ती है अपने बीते दिनों पर
बेचैन दिखती है आये हुए हासिल से
पता नहीं आप कैसे देखते हैं
इस बेचैनी को
पर मुझे बहुत अच्छा लगा
उसे इस तरह बेचैन देखकर
काश ! यह बेचैनी
संक्रमित हो पाती दुनिया भर की स्त्रियों तक
बीस वर्ष गुजर जाने से पहले ही।
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कलावादी
जिस वक्त में
कुचले जा रहे हैं फूल
मसली जा रहीं हैं कलियाँ
उजाड़े जा रहे वन-कानन
वे विमर्श कर रहें हैं
फूलों के रंग-रूप पर।
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पहली कोशिश
मैं न लिख पाऊँ एक अच्छी कविता
दुनिया एक इंच इधर से उधर नहीं होगी
गर मैं न जी पाऊँ कविता
दुनिया में अंधेरा कुछ और बढ़ जाएगा
इसलिए मेरी पहली कोशिश है
कि मरने न पाए मेरे भीतर की कविता।
महेश चंद्र पुनेठा
युवा कवि
शिव कॉलोनी
पियाना वार्ड
पो. डिग्री कॉलेज
जिला-पिथौरागढ़ 262501
मो09411707470
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जब लोग उजड़े घरों को बसाने में लगे थे
जवाब देंहटाएंटूटे रास्तों,पुलों,सड़कों को बना रहे थे
वे टूटे मंदिर के पुनरुद्धार की
योजना बना रहे थे
जल्द से जल्द पूजा-अर्चना की तैयारी में लगे थे
पीड़ितों को भजन-कीर्तन की सलाह दे रहे थे
जब इंसान गहरे संकट में था
वे भगवान को बचाने में लगे थे
बहुत अच्छी कविताएँ ... बधाई !!
जवाब देंहटाएंकविताओं में अपनी धरती , अपना सोच , अपना रंग और अपने लोगों के साथ वह समय भी है ,जो हमारी स्थितियों के सच को बयान करता है।मेरी शुभ कामनाएं कि यह कविता और आगे जाए। अपनी माटी ---पत्रिका और कवि दोनों को बधाई
जवाब देंहटाएंइन कविताओं में एक अलग ताजगी है, एक अलग सच्चाई है और एक अलग संवेदना है | एक ऐसा जीवन है, जो कविता के साथ एकदम से गुथा हुआ है | दिल से सलाम करने की ईच्छा होती है | स्वीकार कीजये महेश भाई | और हाँ ...अपनी माटी का भी आभार |
जवाब देंहटाएंअखरोठ वाली कविता में गज़ब की प्रतीक योजना ली है.आँखों में सपने वाली कविता एक सीध में चलती है एकदम उद्देश्य केंद्रित है.कविता बेहतर होने की तरफ बढ़ती हुयी है.किसी एक जगह इसमें एकाध स्ट्रोक आना चाहिए था.खैर यह सब एक पाठकीय प्रतिक्रिया समझें.मकान सीरीज की पहली कविता ने भाव के स्तर पर मुझे बाँध कर रख दिया था.मकान सीरीज की दूसरी कविता में नए प्रतीक बहुत फब रहे हैं.कविता के लिए एकदम मुफीद शब्दावली.कवितायेँ बहुत अच्छी है.
जवाब देंहटाएंजिनकी दिलचस्पी अच्छी कविता में है,
जवाब देंहटाएंउन्हें महेश पुनेठा की इन कविताओं को जरूर पढ़ना चाहिए।
क्या खूब कहा,
जवाब देंहटाएं'खतड्वा संक्रांति' और 'बीस वर्ष बाद' शीर्षक कविताएँ सुन्दर लगीं ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कवितायें
जवाब देंहटाएंसड़क तू अब आ रही हैं गाँव में Mahesh chandra punetha ji मुझे यह कविता मिला सकती है क्या अगर किसी के पास है मुझे भेजने का कष्ट kare Raghunandanjoshi6@Gmail.com
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