आलेख:असुविधाजनक कविताएँ / डॉ. रेणु व्यास

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 फरवरी-2014 

 
चित्रांकन:इरा टाक,जयपुर 

पाश ने कहा था -
‘‘सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना’’

जिसे पाश समाज के लिए ख़तरनाक कहते हैं, वह आज के सफल व्यक्ति के लिए सुरक्षित रूप से जीने का सबसे सुविधाजनक रास्ता है। सुविधाजनक है - सड़क के किनारे फेंकी गई मरनासन्न लड़की और घायल लड़के का अनदेखा कर आगे बढ़ जाना! सुविधाजनक है - कचरे के ढ़ेर से पॉलिथीन की पन्नियाँ बीनते बच्चे की ओर से आँखे फेर लेना! सुविधाजनक है - चाय की गिलास लाते-ले जाते ‘छोटू’ को पढ़ने का उपदेश देना! भीख मांगते किशोर को काम करके पसीने की कमाई खाने का उपदेश देना! और इन सबके साथ ही देश की राजनीति के गिरते स्तर पर चिंता जताना! और इन सबसे भी ज़्यादा सुविधाजनक है - सुविधा-शुल्क के ज़रिए अटका-लटका काम निकलवाना! ‘रक्तालोक-स्नात पुरुष’ क्यों किसी-किसी मुक्तिबोध के ही सीने में जगता है ? जब सारी साहित्यिक बिरादरी सुविधाजनक तरीक़े से ‘मृत्यु दल’ के प्रोसेशन की शोभा बढ़ा रही हो! 
युवा विचारक और सक्रीय टिप्पणीकार 

ब्लॉग
दख़ल प्रकाशन के कर्ताधर्ता 

आज के युग में एक नये किस्म का नियतिवाद छाता जा रहा है - भूमंडलीकरण! यह तो होना ही है! खुला बाज़ार, उपभोक्तावाद यह तो भूमंडलीकरण के साथ आना ही है! हमारे जल, जंगल और ज़मीन! जो बेहतर क़ीमत लगाए, उनके हाथों ये तो बिकने ही हैं! एक लाख रुपये की कार के लिए खेत का मोह छोड़ना होगा। धान तो राशन की दूकान पर दो-तीन रुपये किलो भी मिल सकता है! 27 मंज़िल के घरवालों के लिए, ईंट-गारे-कवेलू की झौंपड़ी वाले को अपना घर छोड़ना ही होगा! नहीं तो तोड़ने के लिए विकास के बुलडोज़र की मदद लेनी ही होगी! बाँध बनेंगे, तभी बिजली आएगी! कितने बेशर्म लोग हैं, घर टूटने का मुआवजा लेकर भी घर नहीं छोड़ते! विकास रोका नहीं जा सकता! इसकी इतनी क़ीमत तो चुकानी ही है! 

कुल मिलाकर एक आरोपित विकल्पहीनता की स्थिति में हम जी रहे हैं। कम से कम हमारे कथित उच्च मध्यम वर्ग के लिए तो यह नियतिवाद न केवल इच्छित अपरिहार्य है, बल्कि नए अवसरों को भी लेकर आया है- लाख दो लाख प्रति माह वेतन पाने का अवसर, वीक एंड में हिल स्टेशन और सालाना छुट्टियाँ सिंगापुर, दुबई और स्विट्जरलैंड में मनाने का अवसर! नौकरियाँ और निष्ठाएँ पैरहन की तरह बदलना आज मजबूरी नहीं, अपोर्च्युनिटी है! फिर भी वे अपोर्च्यूनिस्ट नहीं, ऑप्टिमिस्टिक हैं! धारा में बहते ऐसे सुविधापरक ज़माने में धारा का रुख मोड़ने की बात करना बेमानी ही नहीं, बेवकूफ़ी समझी जाती है, सभ्य शब्दों में कहें तो इसे ज़्यादा से ज़्यादा कवि का भोलापन कहा जा सकता है!  अशोक कुमार पांडेय की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ इसी सुविधाजनक चुप्पी का रहस्य खोलती है- 

‘‘वे चुप हैं
कि उन्हें मालूम हैं आवाज़ के ख़तरे
वे चुप हैं कि उन्हें मालूम हैं चुप्पी के हासिल
...................
चुप्पी ख़तरा हो तो हो
ज़िन्दा आदमी के लिए
तरक्कीराम के लिए तो मेहर है अल्लाह की’’

ऐसे समय में कविता करना - वह भी यथास्थिति से प्रतिरोध की, उसके परिवर्तन के लिए - अपने आप में एक असुविधाजनक स्थिति है। अशोक अपने कविता संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ में यही असुविधा अपने लिए चुनते हैं-

‘‘एक असुविधा थी कविता हमारे हिस्से’’
पाश की बात को आगे बढ़ाते हुए अशोक कहते हैं -
‘‘बहुत बुरे होंगे वे दिन
जब रात की शक्ल होगी बिलकुल देह जैसी
और उम्मीद की चेकबुक जैसी
विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन
खुशी घर का कोई नया सामान
और समझौते मजबूरी नहीं, बन जाएँगे आदत।

लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन 
जब आने लगेंगे इन दिनों के सपने!’’     (सबसे बुरे दिन)

ये बुरे दिन तो आ चुके! कम से कम देश-दुनिया के एक सुविधाभोगी हिस्से के लिए! ‘‘क्योंकि बनिया की भाषा तो सहमति की भाषा है’’ (धूमिल) - मगर दुनिया सिर्फ़ इतनी ही तो नहीं! इस 99 प्रतिशत बाकी दुनिया के ‘रोटी, कपड़ा, मकान, काम’ के सिर्फ़ सपने नहीं, अधिकार के संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध होना सिर्फ़ कविता का नहीं, लेखन का ही नहीं, इंसानियत का फर्ज़ है। 

‘‘जो बचेगा,
कैसे रचेगा ?’’ (श्रीकांत वर्मा)

राहत की बात है कि अशोक कुमार पांडेय की कविताएँ इन सवालों से पूरी ताक़त से जूझती हैं और यही प्रतिबद्धता इनकी ताक़त है। 

आधिपत्य, दमन और शोषण ‘सत्ता’ का स्वभाव है और हर प्रकार के दमन, शोषण का विरोध सच्ची कविता का। कविता का स्वाभाविक क्षेत्र सत्ता का प्रतिपक्ष है। सत्ता चाहे राजनीतिक हो, आर्थिक-सामाजिक वर्चस्व कायम करने वाली हो या फिर पितृ-सत्ता। धूमिल के शब्दों में -

‘‘कविता-
शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफनामा है।’’ 

अशोक कुमार पांडेय की कविता भी यही भूमिका निभाती है -

‘‘हर उस जगह थे हमारे स्वप्न
जहाँ वर्जित हमारा प्रवेश!’’ 

इनकी कविताओं में आज की शोषक यथास्थिति के ख़िलाफ़ आक्रोश है, मगर काग़ज़ी नहीं। इस उबलते आक्रोश में उनके हृदय की ऐंठन है, दिमाग की चटकती हुई नसें हैं और साथ ही एक गहरा दर्द है, सहानुभूति है और कुछ अपराधबोध भी; नहीं है तो - निराशा, ऊब और भावहीन तटस्थता। यह ‘लगभग अनामंत्रित’ परिवर्तन के लिए अनिच्छुक ही नहीं, उसे असंभव मानने वाले, यथास्थिति को स्वीकार करने वाले आज के स्वप्नहीन सुविधाजनक व्यावहारिक समय में राहत की बात है। बेहतर दुनिया के सपने को साकार करने के लिए प्राथमिक शर्त है - उस सपने में और उसकी अवश्यंभाविता में विश्वास रखना। यह विश्वास अशोक की कविताओं में नज़र आता है। 

‘‘समझौतों और समर्पण के इस अंधेरे समय में
जितना भी बचा है संघर्षों का उजाला
समेट कर भर लेना चाहता हूँ अपनी कविता में
और दे जाना चाहता हूँ तुम्हें उम्मीद की तरह
जिसकी शक्ल
मुझे बिलकुल तुम्हारी आँखों-सी लगती है!’’

बेहतर दुनिया का सपना साकार करने का सबसे आसान तो नहीं, मगर सबसे विश्वसनीय रास्ता बेहतर घर, बेहतर दफ़्तर और पारिवारिक रिश्तों को ज़्यादा मानवीय और न्यायपूर्ण बनाने के लिए संवेदनशीलता से होकर गुज़रता है। ‘लगभग अनामंत्रित’ में कई कविताएँ इसी संवेदनशीलता की बानगी पेश करती हैं और बेशक वे इस संग्रह की सबसे अच्छी रचनाओं में से हैं। ‘एक सैनिक की मौत’ कविता में कवि युद्धोन्मादी देशभक्ति के विपरीत, एक माँ का थका हुआ रुदन, पिता की अनदेखी उदासी, पत्नी की सूनी माँग और बच्चों की निरीह भूख को देखता है, जिसे कोई नहीं देखता! देखना ही नहीं चाहता! यह कविता यह सवाल भी खड़ा करती है कि क्यों यह ‘गौरवपूर्ण शहादत’, एक बेरोज़गार युवा की ज़िंदगी की मजबूरी है ? 

‘‘कि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी
और नौकरी ज़िंदगी की
इसीलिए 
भरती की भीड़ में दब जाना
महज हादसा है
और फंस जाना बारूदी सुरंगों में शहादत!
बचपन में कुत्तों के डर से 
रास्ते बदल लेने वाला मेरा दोस्त
आठ को मार कर मरा था
बारह दुश्मनों के बीच फँसे आदमी के पास
बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है ?’’

उस पर विडम्बना यह कि यह शहादत किसी युद्ध में नहीं, शांति की जय-जयकार करती युद्ध जैसी स्थिति में हुई थी! 

‘‘अजीब खेल है
कि वज़ीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और 
जंग तो जंग 
शांति भी लहू पीती है!’’

‘माँ की डिग्रियाँ कविता में कवि की संवेदनशील  दृष्टि, परिवार का सर्वमान्य सुविधाजनक सच कि ‘‘हमने तो रोका नहीं कभी/पर घर और बच्चे रहे इनकी पहली प्राथमिकता’’ (और बाकी सब सपनों का अंत भी) का एक दूसरा पहलू उजागर करती है - 

‘‘कि सिर्फ़ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी कीमत’’

माँ जैसी शक्लोसूरत वाली एक लड़की की तरह सोचने और महसूस करने के बावज़ूद कवि कोई उत्तर तो नहीं पाता, मग़र माकूल सवाल अपने आप से और पूरे समाज से करता है -

‘‘या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है
मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक
कि आँखों में जगह ही न बचे किसी अन्य दृश्य के लिए ?
पूछ तो नहीं सका कभी
पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद
इतना तो समझ सकता हूँ
कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे
दब जाने के लिए नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियाँ।’’ 

‘बाँस की डलिया’ को ‘प्लास्टिक की प्लेटों’ और ‘रस भूजा’ को ‘चाय नमकीन’ में बदलते समय में बुझे चूल्हे वाली, लापता होती जा रही - ‘जगन की अम्मा’ अपना कोई निजी नाम न रखते हुए भी कवि से आत्मीय रिश्ता बनाए हुए है। ‘जगन की अम्मा’ कविता एक बहुत ही आत्मीय याद के सहारे, उपभोक्तावादी ‘भयावह संभावनाएँ’ (या आशंकाएँ) हमारे सामने रखती है। 

‘‘मैं चाहता हूँ
इस तेज़ी से भागती समय की गाड़ी के लिए
कुछ मासूम से कस्बाई स्टेशन!’’

कवि की कविता की गाड़ी का एक मासूम स्टेशन है - ‘मत करना विश्वास’। पति पत्नी के आत्मीय रिश्ते में पत्नी को दाल में नमक जितना मासूम सा अविश्वास करने की सलाह अपने आप में अनोखी है। न सिर्फ अनोखी, बल्कि बराबरी के रिश्ते की बुनियाद भी।

‘‘लेकिन फिर भी पूछती रहना गाहे ब गाहे
किसका फोन था कि मुस्कुरा रहे थे इस कदर ?
पलटती रहना यूँ ही कभी-कभार मेरी पासबुक
करती रहना दाल में नमक जितना अविश्वास’’ 

दर-असल बराबरी के लिए संघर्ष जितना मुश्किल घर से बाहर है, उससे कहीं अधिक मुश्किल घर के भीतर है, क्योंकि इसकी शुरुआत ख़ुद से करनी होती है। कवि इस चुनौती को स्वीकार करता है-

‘‘तुम्हें प्रेम करते हुए अहर्निश
ख़ुद से शुरू करना चाहता हूँ
संघर्षों का सिलसिला
और जीत लेना चाहता हूँ
ख़ुद को तुम्हारे लिए।’’  

‘तुम्हारी दुनिया में इस तरह’ कविता में कवि इसी का भाव-विस्तार करता है-

‘‘सिंदूर बनकर
तुम्हारे सिर पर 
सवार नहीं होना चाहता हूँ
न डँस लेना चाहता हूँ
तुम्हारे कदमों की उड़ान को
..............
बस आँखों से बीजना चाहता हूँ विश्वास
और दाखिल हो जाना चाहता हूँ
खामोशी से तुम्हारी दुनिया में’’

‘पता नहीं कितनी बची हो तुम मेरे भीतर’ भी इसी तरह की कविता है, जिसमें कवि आधी दुनिया की संवेदना को वही होकर महसूस करना चाहता है। इस दुनिया की विपरीत दुनिया की भी झलक है - कविता ‘वे इसे सुख कहते हैं’ में। कवि की कुछ प्यारी कविताएँ अपनी बेटी (या सिर्फ़ बेटी) के नाम हैं। बेटी के जन्म पर दादी माँ की उदासी का बगैर किसी नारेबाजी के निवारण करती यह कविता देखिए-

‘‘माँ दुखी है
कि मुझ पर रुक जाएगा खनदानी शजरा
.............................
उदास हैं दादी, चाची, बुआ, मौसी.....
कहीं नहीं जिनका नाम उस शजरे में
जैसे फस्लों का होता है नाम
पेड़ों का, मकानों का......
और धरती का कोई नाम नहीं होता......’’

‘काम पर कांता’ घड़ी की सुइयों के साथ भागती कामकाजी गृहिणी की दिनचर्या को दर्ज करती है। ‘किस्सा उस कमबख़्त औरत का’ दिवंगत सहकर्मी की हतभागी विधवा के सजने-सँवरने, हँसने-बोलने या यों कहें - जिंदा इंसान की तरह रहने पर दफ़्तरी माहौल में आई कुंठा हमारे समाज की ही संकीर्ण सोच का नमूना है। ‘चाय, अब्दुल और मोबाइल’ भी मध्यमवर्गीय विसंगतियों को दर्शाती एक और कविता है। 

‘अकीका’ कविता मात्र एक रस्म का अर्थ जानने के लिए डिक्शनरी देखना नहीं है। यह एक ही देश के दो समुदायों के बीच आ गए अपरिचय को रेखांकित करती है, जिसके बिना सांप्रदायिकता को गलतफहमियाँ फैला कर पैर टिकाने की जगह नहीं मिल पाती।

निजी अनुभवों से सिंचित भाव-प्रधान इन कविताओं के अलावा इस संग्रह में कुछ दूसरी तरह की कविताएँ भी हैं, जिन में कवि की वैचारिकता प्रबल है। हालांकि ये कविताएँ भी हृदय से निकली गहरी सहानुभूति से भीगी हुई हैं। ‘अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार’ एक लंबी कविता है, जो दर-असल आदिवासी कहे जाने वाले लोगों की उनके निवास-स्थान से ही नहीं, उनके जल, जंगल और ज़मीन से ही नहीं, जीने के अपने अधिकार से बेदख़ल किए जाने और विकास के नाटक का नेपथ्य उद्घाटित करती सत्यकथा है-

‘‘जब वे कहते विकास
हमारी धरती के सीने पर कुछ और फफोले उग आते’’

किंतु यह कविता इसके खिलाफ़ उनके प्रतिरोध को रेखांकित भी करती है, जो अंततः शोषण के खात्मे के सामूहिक स्वप्न को जिंदा रखती है। अशोक न सिर्फ सोचते हैं, बल्कि सोचे हुए को करना भी अपना कर्तव्य मानते हैं।

‘‘अच्छे आदमी 
हमेशा सोचते हैं अच्छी बातें
यहाँ तक कि
दुनिया को बदल देने के बारे मे
सिर्फ़ सोचते हैं’’

‘जो नहीं किया हमने’ सत्तर के दशक के कॉमरेड के जीवन की विडम्बना को दर्शाती है, जहाँ ‘‘दुनिया बदलने से पहले ही बदल गया सब कुछ’’ और ‘‘अब तो बस कविता ही रह गई है अंतिम अवलंब’’। अशोक जो ख़ुद एक कवि हैं, कविता को कर्म का विकल्प नहीं मानते -

‘‘जानते तो आप भी हैं कि कुछ करना
विकल्प नहीं होता सब कुछ करने का
और न ही हमेशा कुछ न करने से बेहतर’’ 

लेकिन फिर भी कविता उनके लिए लड़ाई का एक आवश्यक अस्त्र है ‘‘लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खामोश.........लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़ कर ही अभी तक’’। उनकी नज़र बहुत साफ़ है क्योंकि उन्हें यह पता है कि उन्हें किसके विरुद्ध लड़ना है और किसके लिए। दुनिया को अनधिकृत रूप से नियंत्रित करती स्वार्थी, शोषक शक्तियों को ‘वैश्विक गाँव के पंच परमेश्वर’ कविता में भी कवि अपने निशाने पर रखता है।

‘गुजरात 2007’ कविता में एक ‘शांत’ प्रदेश की यह सच्चाई बयान हुई है कि दंगे या विकास, दोनों विनाश के लिए बराबरी के ख़तरनाक हथियार हो सकते हैं-

‘‘अब नहीं होंगे यहाँ दंगे
विकास के फ्लाईओवर तले
चुपचाप कुचल दी जाएगी एक बस्ती’’

‘बुधिया’ कविता चर्चित बाल मैराथन धावक के बहाने अभावों में जीते, देश के भविष्य कहे जाने वाले उस मासूम बचपन का दर्द बयान करती है, जिसे बचपन भी नसीब नहीं है -

‘‘यह दूसरी दुनिया है जनाब
यहाँ नहीं होती सुविधा
अठारह सालों तक
नाबालिग बने रहने की’’ 

यही अभाव, जिसकी भूख मेहनत से नहीं मिट पाती जब अपने जीने के हक़ के लिए हाथ पसारता है तो फिर एक विडंबनापूर्ण स्थिति दिखाई देती है-

‘‘लजाईं उनकी आँखें और इतना लजाईं
कि ढीठ हो गईं’’ 

हिरोशिमा की परमाणविक त्रासदी पर रची कविता ‘आग’ में वर्णनात्मकता ज़्यादा है, आत्मीय संवेदना कम। हजारों मील दूर, धुर पूरब के देश की अनदेखी, किताबों में पढ़ी त्रासदी का वर्णन किताबी हो जाना अस्वाभाविक भी नहीं है। ‘ये किन हाथों में पत्थर हैं ?’ कविता में पहली पंक्ति ‘‘ये कौन से हाथ हैं पत्थरों में लिथड़े ?’’ की व्यंजना समझ पाने में मैं असफल रही। ‘लिथड़ना’ शब्द को हमेशा तरल या अर्द्धठोस के साथ जोड़कर देखने की आदत जो पड़ गई है।  

इसके विपरीत ‘तुम्हें कैसे याद करूँ भगत सिंह’ कविता में भगत सिंह का इंकलाबी ख्वाब, जो कवि का भी ख्वाब है, से कवि का भावात्मक जुड़ाव साफ़ महसूस होता है, जिसे वह अगली पीढ़ी को सौंपना चाहता है -
डॉ.रेणु व्यास
हिन्दी में नेट चित्तौड़ शहर 
की युवा प्रतिभा
इतिहासविद ,विचारवान लेखिका,
गांधी दर्शन से जुड़ाव रखने
 वाली रचनाकार हैं.
वे पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही 
रेडियो पर प्रसारित होती रहीं हैं,
उन्होंने अपना शोध 'दिनकर' के 
कृतित्व को लेकर पूरा किया है.

29,नीलकंठ,सैंथी,
छतरीवाली खान के पास
चित्तौडगढ,राजस्थान 
renuvyas00@gmail.com
‘‘तुम्हें कैसे याद करूँ भगत सिंह
जबकि जानता हूँ
कि तुम्हें याद करना
अपनी आत्मा को केंचुलों से निकाल लाना है
कौन-सा ख्वाब दूँ
मैं अपनी बच्ची की आँखों में
कौन-सी मिट्टी लाकर रख दूँ उसके सिरहाने
जलियाँवाला बाग फैलते-फैलते
.....हिन्दुस्तान बन गया है!’’

‘यह हमारा ही खून है’ भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की ही अनश्वर क्रांतिधर्मिता को देश-दुनिया के हर कोने में ही नहीं, वंचित मग़र संघर्षधर्मी हर दिल में जीवित रखने की आकांक्षा रखती है - 
‘‘हर बार कत्ल हुआ हमारा ही कोई स्वप्न.....
हर बार धरती पर गिरा रक्त हमारा ही था
हम ही थे रक्तबीज की तरह
उगते हुए धरती से हर बार!’’

अवतार सिंह पाश, धूमिल, कुमार विकल को समर्पित यह कविता-संग्रह साहित्य-जगत् में ‘अनामंत्रित’ नहीं है, यह गुंजाइश कवि ने खु़द ‘लगभग’ विशेषण लगा कर छोड़ दी है।

(सूचनार्थ आपको बता दें कि इस आलेख का कुछ अंश दिल्ली के एक साप्ताहिक में पुस्तक समीक्षा के रूप में प्रकाशित हो चुका है-सम्पादक )

Print Friendly and PDF

3 टिप्पणियाँ

  1. ashoke jee badi phursat me rahte ho......itna bada lekh likhne me jo time aapne lagaya ...wo time kisi or kam me lagate jeesse kisi ka bhala ho...kisi garib ki samasya ka samadhan ho....kisi musibat me pade insan ki musibat ka hal ho...yaha -waha bade-bade lekh likhne se aap aapne aap ko highlight karne me lage he..........kya hua is lekh se.....koi tippani aai kya ....aai bhi to Dr.rajendra ki....wo bhi सुन्दर समीक्षा।///// Are kahe ki sundarta he Dr. sahab isme...shayad aap bhi marij nahi milne se phursat me ho.....meri tarah

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अरविन्द जी आप कहना क्या चाहते हैं ?

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने