परिचर्चा:'इक्कीसवीं सदी में कविता की दिशा'

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )               अप्रैल -2014 


चित्रांकन
वरिष्ठ कवि और चित्रकार विजेंद्र जी
 
हिन्दी कविता–शताब्दियों के मुहाने पर:नब्बे के दशक में हिन्दी में एक कविता खूब चर्चित हुई। कविता थी प्रेम पत्र जिसे बद्री नारायण ने लिखा था। संयोग देखिए कि उसी दौर में सुभाष घई की एक फिल्म का एक गीत भी खूब चर्चित हुआ था। गीत था इलू इलू।  यह गीत मनीषा कोईराला और विवेक मुशरान पर फिल्माया गया था। यह वही समय था जब नई आर्थिक नीतियाँ भारतीय व्यवस्था में दाखिल हो रही थीं । बाजार से लाइसेंस राज का खात्मा हो रहा था।

कवियों से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे कैलेण्डर के हिसाब से कविताएँ लिखते हैं। मसलन अगर मार्च का महीना चल रहा है तो मार्च वाली कविताएं, सितम्बर आ गया तो सितम्बर वाली कविताएं। क्या ऐसा भी है कि आज दिल्ली में एक मोमबत्ती जुलूस निकले तो कल दिल्ली का कवि मोमबत्ती जुलूस पर कविता लिख देगा । मैंने अपने तईं पता किया तो मालूम हुआ कि नहीं, ऐसा तो नहीं होता। होता तो कविताएं मौसम विभाग की सूचनाओं की तरह किसी फाइल में बंद पड़ी होतीं या फ़िर किसी अखबार की हेडलाइन बनकर रद्दी में तुल गई होतीं । कहना यह है कि तारीखों और घटनाओं का कविता के अंतःपुर में दाखिल होना एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। बीज ज़मीन पर गिरते ही उससे पौधा नहीं फूट पड़ता। दिन-महीने-साल-दशक कविता की मिट्टी में खाद-पानी की तरह गलते-खपते हुए अपनी छाप छोडते हैं। यह गर्भ-काल (gestation period) कितना लम्बा होगा यह कवि की चेतना की अपनी बनावट पर निर्भर करता है। इसका कोई तय फार्मूला विकसित नहीं किया जा सकता कि एक ऐतिहासिक आर्थिक-सामाजिक अथवा राजनैतिक संदर्भ को अमूमन कितने दिन के भीतर कविता की संरचना के भीतर प्रवेश कर जाना चाहिए। हालांकि ऐसी नादान कोशिशों के उदाहरण भी कम नहीं मिलते।

नील कमल 
कविता का युवा स्वर
पिछले दिनों एक जल्दबाज़ी भरी कोशिश कुछ कवियों संपादकों की ओर से की गई। उनका तर्क था कि नब्बे के दशक को  हिन्दी कविता में वैसे ही निर्णायक मान लिया जाए जैसे भूगोल के नक्शे पर मैकमोहन लाइन। आग्रह यह कि सोवियत संघ के विघटन और उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के बाद की हिन्दी कविता किसी अलग ही रंग में रंग चुकी है और इसे तर्कातीत मान लिया जाए। कुछ लोगों ने मान भी लिया । कलकत्ता के निकलने वाली पत्रिका वागर्थ ने तो दो-तीन अंक ही समर्पित कर डाला एक लॉन्ग नाइंटीज़ फ़ेनामेना के नाम । मैं नहीं जानता कि कवियों को एक खास काल-खण्ड में जन्म लेने या एक विशेष समय-काल में क़लम उठाने के कारण कई किस्म के अग्राधिकार सहज ही प्राप्त हो जाते हैं । पिछले बीस-एक साल की हिन्दी कविता की वे कौन सी उपलब्धियां हैं जिनके आधार पर एक खास बिन्दु पर रुक कर यह कहा जा सकता है कि हाँ यही है वह कविता जिसमें सोवियत संघ के विघटन का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है या कि उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण का आर्थिक-राजनैतिक आख्यान मौजूद है। यह कह पाना बहुत आसान तो नहीं होगा। सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक और राजनैतिक संदर्भों का कविता में प्रकटीकरण जिसमें लक्षित किया जा सकता है वह इकाई है मनुष्य । कवि को मनुष्य के बदलने में समय के बदलने को देखना होता है। जब कवि का स्टैथोस्कोप मनुष्य की छाती पर न रख कर कैलेण्डर के पन्नों पर रखा जाएगा तो दिक्कतें पैदा होंगी।

मनुष्य के स्तर पर पिछले बीस-एक साल में जो अभूतपूर्व बदलाव आया वह यह कि हाशिये पर खड़े आदमी को और ज़्यादा हाशिये के भीतर ढकेला गया । अर्थशास्त्री इसे मार्जिनलाइजेशन ऑफ द मार्जिन्ल्स कहते और बताते हैं । इस व्यवस्था में धनिक पहले से कई गुना अधिक धनी होते चले गए । इस बदलती हुई व्यवस्था में विकास का अर्थ और संदर्भ ही बदलता चला गया । बहुत विस्तार में न भी जाएँ तो इतना ज़रूर जान लें कि मनुष्य के लगातार गहरे होते चले गए दुःखों के कारण बदलते गए , दुःख नहीं बदले। संघर्ष की आँच धधकने की बजाय मद्धम होती चली गई। लेकिन एक बात इस दौर में यह हुई कि जो दुनिया एक केंद्र के इर्द-गिर्द सिमटी थी वह अब फैल चुकी थी । उसका विकेन्द्रीकरण हो चुका था। कविता के दायरे में इन वर्षों में पहल, आलोचना या हंस में छपे बिना भी एक लेखक के लिए अपनी आवाज़ को असरदार तरीके से रखना संभव था। यह सही मायने में उदारीकरण की एक छाप थी । सोशल मीडिया, खासकर फ़ेसबुक और ब्लॉग ने संपादकों को निस्तेज करने का महत्वपूर्ण काम किया । कवियों की एक नई फ़ौज हिन्दी कविता के घर में प्रवेश कर चुकी है और मठाधीश विस्मय से उसे ताक रहे हैं । राष्ट्रीय संदर्भों में दलित राजनीति और क्षेत्रीयता के उभार से इन बातों को जोड़ कर देखा जा सकता है । यह मोनोपोली अर्थात एकाधिकार के विखंडन का दौर है।

जब हम शताब्दियों के मुहाने पर खड़े होकर समय को देखते हैं तो हमें इस बात का ख्याल रखना ही होगा कि इस दौर में वर्चस्ववादी राजनीति ने लोकतन्त्र के भीतर सामंतवाद को जिस तरह जगह दी है उसी तरह इसने विचार के ढाँचे में वर्णवाद को भी पनाह दी है। ऊपर-ऊपर उदार दिखने वाली यह व्यवस्था भीतर से उतनी ही क्रूर और हिंसक है। आप मेरी बात का यकीन न भी करें तो पिछले वर्षों में हिन्दी कविता में पनपे पद-पुरस्कार-पैसे के खेल को एक बार ज़रूर देख लें । समय को समझे बिना समय के साहित्य को समझना दुष्कर होता है । तथाकथित विकास ने कुछ टूल्स या उपकरण हमें ज़रूर मुहैया करावा दिये हैं लेकिन इन उपकरणों तक हमारी पहुँच उनके नियंत्रण से बाहर थी इसलिए हम तक पहुँच सकी। यह उदारता तो कतई नहीं थी। बाज़ार हमारे घरों के भीतर अपनी पैठ बना चुका है। उसकी नज़र में हम मनुष्य से पहले उपभोक्ता हैं। वह अपने मानवीय मुखौटे में हमसे अपने लिए मुनाफे का सौदा तलाश रहा है। इस खेल को समझना होगा।

समय कठिन है। नया है। कविता इस समय को कितना पकड़ पा रही है यह हमारी चिंता का विषय है। कई बार समय टुकड़ों में दर्ज़ होता है तो इसलिए कि समय की हमारी समझ उसके एक सिरे को पकड़ कर बनी होती है। बहुत कम ऐसी कविताएं हमारे पास हैं जिनमें समग्रता में समय को पढ़ा और समझा जा सकता है। सुख और संतोष की बात यह है कि हिन्दी कविता का स्वर आज केदार-बद्री-राजेश-मंगलेश तक सीमित नहीं है, उसके किसी गृह-कोण में सुरेश निशान्त, आत्मारंजन, कमलजीत चौधरी जैसी आवाज़ें भी अपना आलाप साध रही हैं। कविता को बड़ी उम्मीद के साथ, बहुत सावधानी से देखने की ज़रूरत है। उसे कैलेण्डर में नहीं आदमी की आंखों में पढ़े जाने की ज़रूरत है। 

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विजेंद्र जी 
वरिष्ठ चित्रकार और कवि

‘कविता का वर्तमान’ मेरे लिए कविता का समकाल ही है।  काल, सतत गतिशील पदार्थ का एक रूप ( Form) है। चाहे  कोई  काल हो वह गतिशील पदार्थ का रूप  ही रहेगा। अतः काल के रूप  को यदि समझना है तो उसमें निहित कथ्य को समझना जरूरी है। चाहे ‘वर्तमान‘ कहें या ’समकाल’ दोनों ही उनमें निहित कथ्य के रूप ही हैं । विषय की ध्वनि है कि हम आज की कविता में निहित वस्तु  के कथ्य, शिल्प और रूप को समझें। मसलन हम लोकतंत्र को अपनी जीवन पद्धति मानते हैं। जैसे काल गतिशील पदार्श का रूप है ठीक उसी तरह लोकतंत्र आज की व्यवस्था का एक राजनीतिक रूप ( Political Form) है। अगर लोकतंत्र को सही सही समझना है तो हम इसके कथ्य को बिना समझे उसे नहीं समझ सकते। दूसरी बात , किसी भी यथार्थ की दो बातें बहुत प्रमुख हैं। एक तो जो हमें ऊपर से दिखाई देता है। सौंदर्यशस्त्र की भाषा में जिसे हम छायाप्रतीति ( appearance) कहते हैं । दूसरा पहलू है जो प्रमुख होकर भी हमें कम दिखाई देता है। उसे हम सार तत्व ( essence ) कहते हैं। हमें शरीर तो दिखाई देता है। पर आत्मा दिखाई नहीं देती। शरीर को यदि बेहतर समझना है तो आत्मा को समझना जरूरी है। इन दोनों चीज़ों में वैपरीत्य होते हुए भी सह-अस्तित्व है। अर्थात् विरोधी तत्वों की एक रूपता हर समय बनी रहती है।  विपरीत तत्वों की एक रूपता का द्वंद्व ही समय को गति देता है


आज के लोकतंत्र का कथ्य पूँजी केंद्रित व्यवस्था है। अर्थात् हमारा समाज वर्ग विभाजित है। मौटे तौर पर एक वर्ग सम्पन्न है। उसके पास अकूत धन की शक्ति है। हमें दिखाई भले न दे पर शासन तंत्र को धनिक ही अपनी इच्छा आनुसार चलाते हैं। अकूत धन-सम्पत्ति का आधार है- दूसरे के श्रम से भारी मुनाफा कमा कर वस्तु सृजित करने वाले श्रमी के श्रम का शोषण। हमें उत्पादन, अकूत सम्पत्ति का कुछ समूहों के हाथों में केंद्रित हो जाना विकास के रूप में ( छायाप्रतीति )दिखाई देते है। पर मुनाफा कमा कर देने वाला श्रमिक - उसका अभावग्रस्त कठोर जीवन( सार तत्व ) दिखाई नहीं देता। जो सामान्य आँखों को दिखाई नहीं देता - या जो उसे देखना नहीं चाहती - उसे कवि अपनी संवेदनशील आँखें से देखता है। अपने हिये की आँखों ( inward eye ) से परखता है। उसे देखना परखना चाहिए। ऐसे वर्ग विभाजित तथा द्वंद्वमय समाज की केंद्रीय लय होती है वर्ग संघर्ष। सामाजिक अन्याय के प्रति जनाक्रोश।

लोकतंत्र का कथ्य लोक है। अर्थात् सामान्य - अतिसामान्य जन ( सर्वहारा ) की सत्ता तथा उसकी नीति निर्धारण में अर्थवान हिस्सेदारी। जो आज नहीं है। लोक के दो स्तर हैं। एक तो उसका सांस्कृतिक स्तर। दूसरा संघर्षपरक स्तर। अक्सर हमें उसका मनोरंजनकारी सांस्कृतिक स्तर( नाच, गान, उत्सव, वेशभूषा, अंधविश्वास  तो दिखता है। पर संघर्षधर्मी - विप्लवी - रूप नहीं दिखता। भारतीय ‘समकाल’ की जड़ें हमारे मुक्ति संग्राम से जुड़ी हैं। 1857 की क्रांति, फ्रांस की क्रांति से कम महत्वपूर्ण नहीं है। उस क्रांति के मूल में एक समतामूलक समाज की स्थापना का संकल्प(vision) तथा साम्राज्यवाद विरोध अंतर्निहित हैं। किन्ही कारणों से वेा संकल्प अभी तक पूरा नहीं हुआ। ‘समकाल’ के प्रत्येक कवि का महती दायित्व है कि उसे प्राप्त करने के लिए वह भारतीय संघर्षशील जनता से एकात्म होकर सघर्ष करे। उसके लिए जोखिम उठाए। लोक का उलट है भद्रलोक। इन दोनों में भी द्वंद्व है। संघर्ष है। प्रत्येक कवि को यह बताना पड़ता है कि उसका पक्ष क्या है ? जो चालाकी से तटस्थ रहने का स्वाँग करते हैं वे परोक्षतः सत्ता के साथ यथास्थिति का ही पोषण करते हैं। कवि की तटस्थता तथा निरपेक्षता का अर्थ है कि वह लोक विमुख है। शायद इसी संदर्भ में कवि की प्रतिबध्दता का प्रश्न खड़ा किया गया था।भारत का कोई भी बड़ा लेखक तटस्थ नहीं रहा। भक्त कवियों की भी उनके समयानुसार उनकी लोकोन्मुख प्रतिबध्दता स्पष्ट है।रीति कवि दरवार के लिए समर्पित थे। यही वजह है उनके साहित्य में संत कवियों जैसी न तो जीवन की व्यापकता है न गहराई। इससे  यह भी ध्वनित है कि लोक विमुख होकर कोई साहित्य महान नहीं हो सकता।

भारतीय आर्थिकी की रीढ़ यहाँ का संघर्षधर्मी किसान है। किसान की सृजनशक्ति ही भारत की आत्मा है। ध्यान रहेे लोक  के केंन्द्र में संघर्षधर्मी किसान, श्रमी, अभावग्रस्त जन है। अतः उसे गाँव ,शहर, जनपद या क्षेत्रों में विभाजित करके नहीं देखा जा सकता। वह आज एक वैश्विक शक्ति है। महान उपन्यासकार प्रेमचंद ने लोक के संघर्षधर्मी रूप को ही अपने सृजन के केन्द्र में रखा है। वह अपने समय के ‘समकाल’ को व्याख्यायित करते हैं। वह भारतीय  मुक्तिसंग्राम की अग्रगामी प्रक्रिया को गति भी देते हैं वह सर्वहारा के पक्षकार हैं। निराला भी यही करते हैं। महाकवि निराला ने भारतीय मुक्ति संग्राम के सार तत्व को अपनी कविता ‘बादल राग’ में व्यक्त किया है-

हँसते  हैं छोटे  पौधे  लघु भार

तुझे ( बादल को )  बुलाते
पिप्लव रव से छोटे ही शोभा पाते
अट्टालिका नहीं है रे
आतंक भवन

जीर्ण बाहु , है क्षीण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर
ऐ विप्लव के बीर
चूस लिया है उसका सार
हाड़ मास ही है आधार

समकाल को व्याख्यायित करते हुए निरला की बातें दृष्टव्य हैं। एक तो वे सामान्य जन ( लोक ) पर अधिक बल दे रहे हैं। दूसरे वे मुक्तिसंग्राम की प्रक्रिया को अग्रसर करने के लिए चिंतित दिखते हैं। तीसरे, ऊँची अट्टालिकाओं के रूप में जो  वैभव हमें दिखाई देता है वह मनुष्य विरोधी धन का आतंक है।उनकी एक पंक्ति से यह बात और स्पष्ट हो जाएगी -खुला भेद  विजयी   कहाए  हुए   है, लहू  दूसरों  का  पिए  जा  रहे हैं 

भारतीय श्रमशील कृषक की जिस दशा का वर्णन उन्होंने किया है वैसी स्थिति आज भी है । लाखों किसानों ने आत्महत्या कर आज के लोकतंत्र पर प्रश्न खड़ किया है !‘कविता के वर्तमान’ को व्याख्यायित करने के लिए आज भी ये  बातें जरूरी हैं । कई बार हमें लोक दबा-कुचला, शोषित-उत्पीड़ित तथा पस्त हिम्मत दिखता है । उसमें निहित जनशक्ति दिखाई नहीं देती। पर वह अदम्य शक्ति उसमें सदा अंतर्भूत है। नागार्जुन की पंक्तियों से यह बात स्पष्ट होगी-खड़ी  होगई  चाँप  कर  कंकालों   की   हूक , बाल  न  बाँका  कर  सकी  शासन की  बन्दूक

कविता के वर्तमान को समझने के लिए यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एक अनिवार्य शर्त है। दूसरे, हिंदी की वर्तमान या समकालीन कविता की यही मुख्य धारा भी है। जब भी हम ‘समकाल’ या ‘वर्तमान’को कविता में बताएँ तो लोक  में निहित इस अपार जनशक्ति को व्यक्त करना न भूलें। यह लोक की वह अदम्य अजेय शक्ति है जिसे कोई भी सत्ता बहुत समय तक दबा के नहीं रख सकती। शोषक सत्ता इससे भय खाती है। कोई भी बुनियादी परिवर्तन इसके बिना सम्भव नहीं है। इस जनशक्ति का एहसास हमें नागार्जुन, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल तथा त्रिलोचन में  होता है। कुमारेंन्द्र तथा कुमार विकल भी इस जनशक्ति का एहसास कराते हैं। मैं स्वयं अपनी कविता में लोक की इस अदम्य शक्ति का पक्षधर रहा हूँ। अपनी प्रदीर्घ लम्बी कविता ‘ जनशक्ति’ ( जनशक्ति , कविता संग्रह,सम्पादित , डा. कमलाप्रसाद ) में इसकी अभिव्यक्ति  हुई है। कविता के समकाल की यही मुख्य धारा है। ‘औपनिवेशिक आधुनिकता’ के प्रभाव के कारण आगे चलकर यह लोकधर्मी परम्परा किंचित कमजोर हुई है। 

मेरी पीढ़ी के अन्य कवि चंद्रकान्त देवताले, भगवतरावत, ऋतुराज, मलय, विष्णुचंद्र शर्मा आदि में संघर्षशील लोकधर्मी परम्परा का विकास कुछ क्षीण बल हुआ लगता  है। किसानों और श्रमिकों के संघर्ष धर्मी चित्र गायब हुए है। इसके बाद की पीढ़ी के  कवि हैं ज्ञानेन्द्रपति ,राजेश जोशी तथा अरुण कमल। वर्तमान में कुछ युवा कवि लोकधर्मी परंपरा को अग्रसर किये लगते हैं। इनमें प्रमुख है एकांत श्रीवास्तव ,सुशील कुमार , केशव तिवारी, रमेश प्रजापति, प्रियंकर पालीवाल, महेशचन्द्र पुनेठा , सुरेश सेन निशांत , संतोश कुमार चतंर्वेदी , विजय सिंह, अरुणाभ सौरभ, भरतप्रसाद, आत्मा रंजन, रेखा चमोली आदि। एक अन्य बिल्कुल अनजान प्रतिभाशील कवयित्री का उदय हाने को है। नाम है शहनाज इमरानी। उनका पहला कविता संग्रह , ‘ कच्चे रास्तों से ’ शीघ्र प्रकाश्य है। शहनाज़ अत्यन्त मौलिक, साहसी तथा लोकधर्मी कवयित्री है। उनकी कविता पढ़के मुझे अमरीकी कवयित्री एमिली डिकिन्सन की याद आती है। फर्क है इतना कि एमिली डिकिन्सन हर समय स्वर्ग और ईश्वर की बात करती हैं। पर शहनाज़ भयानक वर्तमान का सामना करने को तैयार है। उससे मुठभेड़ करती हैं। इसके अलावा  अन्य  बहुत सारे कवि लोकधर्मी अच्छी कविताएँ अपने अपने जनपदों में लिख रहे हैं । पर कविता को और अधिक ऊँचाइयों तक ले जाने के लिए इन सबको  कठिन संघर्ष करना है। दूसरे, कविता में गहन चिंतन देने के लिए व्यापक तैयारी भी करनी होगी। उन्हें अपने तथा विश्व के महान क्लैसिक्स से गहरा सम्परक रखना बहुत जरूरी है। 
                           
मेरे विचार से जिस कविता में उपर्युक्त बातें व्यक्त होती हों वही कविता के ‘समकाल’ अथवा ‘कविता के वर्तमान’ को बता सकती हैं। समकालीनता तथा आधुनिकता के भी यही आधार हैं। बिना इन्हे व्यक्त किए न तो कवि समकालीन हो सकता है न आधुनिक। समकालीनता, वर्तमानता  तथा आधुनिकता तिथि - काल से नहीं बल्कि हमारी विश्वदृष्टि से व्याख्यायित होती है। अतः एक ही समय में रचने वाले सभी कवि न तो समकालीन हो पाते हैं न आधुनिक। वे तत्कालीन भर बने रहते हैं। जबकि हमारे समय से पहले के अनेक कवि हमसे जुड़कर समकालीन से लगते हैं। जो सही अर्थ में समकालीन होता है वह अपने समय का अतिक्रम कर भविष्य का भी कवि बनता है। 

जैसा मैंने कहा जब तक कवि अपने समय और समाज की छायाप्रतीतियों के साथ उसके सार तत्व को व्यक्त नहीं करता तब तक वह न तो समकालीन है न आधुनिक। समकालीन कवि में अपने समय का केन्द्रीय वर्गसंघर्ष  तथा जनशक्ति का एहसास कराने की क्षमता होना जरूरी है। लोकतंत्र में  ‘समग्र लोक’ को अपना नायक बनाए बिना हम न तो समकालीन हैं। न आधुनिक। आज लोक विमुख जो आधुनिकता है वह ‘ औपनिवेशिक आधुनिकता’ है। उसने  हमें अपनी जड़ों, जातीयता तथा जमीन से काट कर  अकेला ,निस्सहाय तथा कुंठित बनाया है। वह भारतीय आधुनिकता नहीं है।  भारतीय आधुनिकता का प्रस्थान बिन्दु हमारा मुक्ति संग्राम है। उस में समतामूलक समाज की स्थापना तथा साम्राज्यवाद का प्रतिरोध प्रारम्भ से प्रमुखतः निहित  है। इस लोकधर्मी परम्पर को विकसित तथा व्यापक बनाना आज के कवि का महता दायित्व है। जो कवि समाज और समय निरपेक्ष होकर यथास्थिति का पोषण करते हैं अथवा जो निर्विवेक विगतगामी हैं वे सच्चे अर्थ में समकालीन अथवा आधुनिक  नहीं हो सकते। हिन्दी के प्रख्यात समीक्षक प्रो.  रेवतीरमण की अत्यन्त महत्वपूण्र पुस्तक , कविता में समकाल ’ की भूमिका में ‘सर्वहारा संस्कृति’ के सृजन का प्रमुख प्रस्ताव कर हमारा ध्यान उधर मोड़ा है। डा. जीवन सिंह , डा. आनंद प्रकाश तथा डा. रमाकांत शर्मा ने लोकधर्मी समीक्षा को नए आयाम दिए है। आज के कवियों को उन से प्रेरणा लेनी चाहिए ।

दूसरी प्रमुख बात है अपने प्रदीर्घ और समृध्द अतीत को तर्क और विवेक से समझने की। कोई भी वर्तमान, समकाल या आधुनिकता बिना अपनी परम्परा को गहराई से  असत्मसात किए नहीं समझे जा सकते। इस संदर्भ में ध्यान यह भी रहे कि कोई भी समय या काल प्रकृति शून्य नहीं होता। प्रकृति मनुष्य के लिए ऐसा सर्वोच्च वरदान है जिसके बिना हम एक क्षण भी जीने की कल्पना नहीं कर सकते। उसका सान्निध्य जीने के लिएं जितना अनिवार्य है उतना ही कविता में व्यक्त होने के लिए भी। वह मात्र उद्दीपन का ही कारक नहीं है। बल्कि एक  ऐसा मनुष्य स्वायत्त विराट आलम्बन ( चरित्र ) है जो हर प्रकार से हमारे जीवन को प्रभावित करता है । दूसरे, हर कवि का दायित्व है उसके अंध विदोहन और क्रूर विनाश का प्रतिरोध करे । हमारी पवित्र नदियाँ गटर नालियाँ बन चुकी है। वनों, पर्वतो, झीलों को बेहिसाब नष्ट किया जा रहा है । पूँजी केंद्रित व्यवस्था ने हमें मनुष्य और प्रकृति के प्रति अन्तःकरण शून्य बना कर  हमारी सौंदर्य संवेदना को ही नष्ट कर दिया है। मनुष्य और प्रकृति के बीच एक जैविक खाई (metabolic rift ) पैदा हुआ है । प्रकृति हमारे जीवन्त परिवेश का अनिवार्य हिस्सा है। हम उसके विनष्ट किए जाने का कविता में प्रतिरोध करें। दूसरे , हम उसे अपनी कविता में संरक्षित भी करें।

इन सब बातों पर विचार करते हुए मुझे कविता का वर्तमान बहुत उत्साह वर्धक नहीं लगता। आज के अधिकांश युवा कवि फेंसबुक के आदी होते जा रहे हैं। जितना समय वे फेसबुक में ज़ाया करते हैं उतना यदि अपने तथा विदेशी महान क्लैसिक्स, साहित्येतर ज्ञान तथा प्रकृति के अनुशीलन में लगाएँ तो उनकी कविता को नई ऊर्जा प्राप्त होगी ।

मुझे प्रसन्नता है कि ‘अपनी माटी' यह परिचर्चा करके अत्यन्त सार्थक पहल कर रही हैं । ‘अपनी माटी’ की ध्वनि है कि हम मध्यवर्गीय सीमाओं को तोड़ अपनी धरती के विशाल क्षेत्र को भी कविता में लाएँ। ‘औपनिवेशिक आधुनिकता’ से मुक्त हों। अपनी धरती , अपने लोग तथा अपनी जड़ों को पहचानें।  अधिकांश वर्तमान कविता मध्यवर्गीय जीवन की व्याख्या तक ही सीमित रह गई है। वर्तमान कविता में श्रमशील कर्मठ किसान, श्रमिक, लकड़हारे, बुनकर तथा कठोर जीवन जीने वालेां की ममार्मिक छबियाँ लगभग गायब हैं । यानि समग्र्र लोकधर्मिता का पक्ष दुर्बल होता जा रहा है। यह एक चिंता  का विषय है। यह उस ‘औपनिवेशिक आधुनिकता’ का असर है जिसका जिक्र मैं पहले कर चुका हूँ। हमने अपने मुक्तिसंग्राम की स्मृतियों को धूमिल किया है। हमारे सरोकार-हमारी चिंताएँ-बहुत निजी और वैक्तिक होती जा रही हैं।  कविता में शब्द कौतुक तथा चमत्कार की प्रवृत्ति बढ़ी है। कोई बड़ा समीक्षक भी ऐसा नही जो अपने विराट व्यक्तित्व से सही दिशा की ओर प्रेरित कर इस प्रवृत्ति को मोड़ सके। जिन्हे हमने शिखर समझा था वे अवसरवादिता के कगार पर बैठ कर ढह चुके हैं। ज्योतिस्तम्भ बुझ गए हैं। 

मुझे अफसोस है आज  कवि-आचरण के सवाल गौण हैं। कवि कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं है। न तो वह कोई चुनौती दे पा रहा है। न चुनौती स्वीकारता है। कविता के लिए जो अटूट और गहरा समर्पण चाहिए वह नहीं दिखता। कविता एक बड़ी साधना की अपेक्षा करती हेै। बड़े त्याग चाहती है। वह एक ऐसा जीवन यज्ञ है जिसमें हर साँस की आहुति देनी पड़ती है। जबकि हमारा कवि छोटी छोटी लालसाओं को समझैाते करता दिखता है। दिल्ली में लगी पुरस्कार प्रदर्शनी की ओर ही उसकी दृष्टि अधिक है। जो पुरस्कार दिला सकते हैं उनकी गलत बातों को भी सही बताकर हम अपनी आत्मा को कमज़ोर करते हैं। यह एक ऐसा कुचक्र है जो हमारे कवि को रीढ़हीन बनाता है। कविता जैसे एक व्यवसाय हो। विश्वविद्यालय में कार्यरत अधिकांश हिंदी कवि अपनी पदोन्नति के लिये चिंतित दिखते हैं। पदोन्नति और पुरस्कार हमें समझौतों को विवश करते हैं। यही कारण है कविता में सामाजिक अन्याय, उग्र होते साम्राज्यवाद तथा क्रूर होती पूँजी-व्यवस्था के प्रति न तो दिशा सूचक शक्तिशाली विद्रोह है। न तीखा प्रतिरोध। लगता है सब कुछ सामान्य है। यही वजह है कविता जनसमुदाय से दूर होती जा रही है। उसकी व्यापक अपील दिनों दिन घट रही है। उसका प्रभाव क्षीण बल है। आचार्य मम्मट ने कविता के अनेक प्रयोजनों में से एक प्रयोजन,  ‘शिवेतर क्षतये’ अर्थात् अमंगल तथा जन विरोधी प्रवृत्ति के विनाश की बात कही है। इस दृष्टि से समाज को सुन्दर बनाने के लिए कविता एक अस्त्र का काम  कर सकती है। आज उसकी बहुत जरूरत है।मैं उस सामान्य स्थिति की बात कह रहा हूँ जिससे ‘कविता के वर्तमान’ या  ‘कविता के समकाल’ का एक व्यापक परिदृश्य उभरता है। अपवाद स्वरूप कुछ विरल कवि है जो अपना दायित्व गंभीरता से निभा पारहे हैं। उन्हें हाशिए पर धकियाने की मुहिम तेज़ है।आज साहित्य में एक बार फिर बहुत बड़े  ‘बुनियादी पुनर्जागारण’ की जरूरत महसूस हो रही है ।
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सुमन केशरी जी
वरिष्ठ कवयित्री
आइंस्टाइन ने  सापेक्षता के सिद्धांत के संदर्भ में कहा था कि प्रकाश की रेखा पर बैठ कर यात्रा करते हुए यह जगत दिखने में कैसा लगेगा’? इससे तेज गति की कल्पना संभव नहीं! इक्कीसवीं शताब्दी के बारे में सोचते हुए लगता है कि मानव सभ्यता प्रकाश की गति से ही आगे बढ़ रही है- सबकुछ उलट-पलट करती हुई सी!हर चीज को देखने का नजरिया बदल रहा है- वस्तु से लेकर भावबोध तक का। अब लगता है कुछ भी दूर नहीं-  हाथ बढ़ाते ही कुछ भी मिल जाने की संभावना इतनी बढ़ गई है कि मैया मैं तो चंद खिलौना लैहों- अब पकड़ की हद में है- पानी में छाया रूप में नहीं बल्कि उस चंद्रमा पर चलना- उसे रौंदना तक अब संभावना की हद में है और यहीं से शुरू होती है इक्कीसवीं सदी में लेखन की चुनौतियाँ भी और खतरे भी।

यह समय इतनी विकट जटिलताओं से भरा हुआ है कि उसे समझने और पकड़ने के लिए बाइनरी जैसे सरलीकरणों का उपयोग किया जा रहा है। यह बात समाज के लगभग हर क्षेत्र में दिखाई पड़ रही है और यही कारण है कि लोगों में दूसरे की सोच के प्रति गहरी असहिष्णुता और चिढ़ निरंतर बढ़ रही है। मेरी दृष्टि में  साहित्य  इन्ही स्थितियों के समग्र अनुशीलन का प्रयास है। वह मानव मन को जटिलताओं को समझने की राह दिखाता है और उससे जूझने का हौसला देता है।भावबोध के स्तर पर साहित्य मनुष्य की मूलभूत मनुष्यता को बचाए रखने का लगभग एकमात्र उपाय है क्योंकि शब्द अंततः निराशा के अंधकार में संवाद के माध्यम से आशा के प्रकाशबिंदु रचते हैं।
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डॉ.राजेन्द्र सिंघवी 
युवा समीक्षक 
साहित्य की सबसे महीन विधा कविताहै। कविता का जन्म मनुष्य के जन्म के साथ माना जाता है, इसी कारण कविता को मनुष्यता की मातृभाषा कहा गया है । कविता की आलोचना मनुष्यता के घेरे में ही संभव है, किंतु उसकी मौलिकता समय के साथ निरूपित होती है । बीसवीं सदी का अंतिम दशक और इक्कीसवीं सदी का प्रथम दशक सामयिक यथार्थ की दृष्टि से नितान्त भिन्न है । वर्तमान समय भूमंडलीकरण का है, जिसके साथ साम्राज्यवादी शक्तियों का मानवीय जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश हो गया है । ऐसी स्थिति में इस समय की कविता का यथार्थ स्पष्ट होना आवश्यक है ।

विस्मयकारी यथार्थ को प्रभावित करने वाले जो कारक पहले दशक में उपस्थित होते हैं, वे हैं- वैश्वीकरण, मुक्त बाजारवाद, विकृत उपभोक्तावाद, राजनीतिक अधिनायकवाद, मूल्यों का विघटन, संस्कृतियों का संघर्ष, पूंजीवाद का प्रभुत्व एवं भ्रष्ट आचरण आदि । ये कारक तो वैश्विक हैं, किंतु भारत का आम आदमी इनकी फाँस में आ गया है । दूसरी ओर भारतीय सांस्कृतिक आदर्शों का पतन, जातीय व धार्मिक उन्माद, साहित्य जगत में वैचारिक अतिवाद के साथ वामपंथी-दक्षिणपंथी खेमे में बँटकर कवि कर्म के उद्देश्यों से भटकाव का साक्षी भी यह दशक है । सुखद पहलू यह है कि इस बीच स्त्री व दलित को कविता के केन्द्र में रखा गया है, जो वैचारिक स्तर पर संघर्ष करते हुए अपना मुकाम तय करते हैं ।  

 पहले दशक की उल्लेखनीय कृतियों में ज्ञानेन्द्रपति की गंगातट‘, ‘संशयात्मा’, विष्णु खरे की काल और अवधि के दरमियान’, अशोक वाजपेयी की इबारत से गिरी मात्राएँ’, संजय पंकज रचित यवनिका उठने तक’, अनूप सेठी कृत जगत में मेला’, श्रीप्रकाश शुक्ल की जहाँ सब शहर नहीं होता’, वीरेन डंगवाल की दुष्चक्र में स्रष्टा’, कुमार अंबुज कृत अतिक्रमण’, हेमंत कुकरेती रचित नया बस्ता’, यतीन्द्र मिश्र लिखित ड्योढ़ी पर आलाप’, कुमार वीरेन्द्र की विलाप नहीं’, राजेश जोशी रचित चाँद की वर्तनी’, मदन कश्यप कृत कुरूजआदि महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें विवेचित यथार्थ का चित्रण मिलता है ।


यह संक्रमणकालीन वेला है, जहाँ पुराने सामाजिक मूल्य विघटित हो रहे हैं और नये मूल्यों को स्वीकृति नहीं मिल पा रही है । कवि समाजशास्त्री बनकर अपने रास्ते बना रहा है, जो व्यवस्था को चुनौती देता है, राजनीतिक पथ को भी वैचारिक आधार प्रदान करता है और अनुकूल व्यवस्था को निर्मित होने तक चुप नहीं बैठता । दशक के उत्तरार्द्ध में आते-आते कवि व्यवस्थागत विद्रूपताओं के प्रति मात्र आक्रोश व्यक्त कर चुप नहीं रहता, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए मुखर हो जाता है । सोशल मीडिया के माध्यम से वह एक्टीविस्टकी भूमिका में दिखाई देता है जो जीवन की विषमताओं को मानवता के केन्द्र में खींचकर चर्चा करता है और लेखनी में इतना पैनापन आ गया है कि राजनीतिक व्यवस्थाएँ भी कविता के संकेतों से प्रभावित होने लग गई है ।
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अशोक कुमार पाण्डेय
कवि,लेखक,अनुवादक
और अब प्रकाशक
कविता का वर्तमान या फिर वर्तमान की कविता? या सवाल यह कि वर्तमान में लिखी जा रही कविता अपने समय को कितना अभिव्यक्त कर पा रही है और कितना प्रभावित. मेरे लिए तो यही सवाल ज़रूरी है.असल में किसी भी काल की कविता कोई मोनोलिथ नहीं होती. हर काल में अलग अलग धाराओं और प्रवृतियों की कवितायेँ लिखी जाती रही हैं, और लिखी जाती रहेंगी. हाँ उनके बीच से एक तरह का स्वर महत्त्वपूर्ण या प्रभावी बन कर उभरता है. यही उस काल का प्रतिनिधि स्वर बन जाता है.

हिंदी कविता के साथ यह तो रहा ही कम से कम कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान और उसके बाद भी जिस तरह की कविता मुख्यधारा में स्थापित हुई उसे मोटा मोटी हम जनपक्षधर धारा कह सकते हैं. इसका एक हिस्सा वामपंथ से प्रभावित कवियों का रहा तो साथ ही साथ लोहियावाद सहित अन्य विचारों से प्रभावित कवि रहे जो साम्प्रदायिकता तथा आम जन के दुखो कष्टों के खिलाफ़ और सत्ता के दमन के प्रतिकार में खड़े हुए. यह हमारी गौरवशाली परम्परा है जो एकरंगी नहीं है.


आज की कविता के बारे में सीधे सीधे कुछ कह पाना आसान नहीं है. नब्बे के दशक में लागू हुईं आर्थिक नीतियों का सामाजिक राजनीतिक प्रभाव साहित्य तक आना ही था. सोवियत संघ के पतन ने भी माहौल को गहरे प्रभावित किया. एक तरह की अफरातफरी स्पष्ट दिखाई देती है. लेखक संगठन दिन ब दिन अप्रासंगिक होते गए. इन सब का प्रभाव कविता के कथ्य और शिल्प पर पड़ना ही था. एक तरफ तो इस दौर में शिल्प के अनेक प्रयोग देखे गए तो दूसरी तरफ कथ्य धुंधलाया भी और आवाज़ क्षीण भी हुई. लेकिन इसके साथ यह भी हुआ कि  कविता के क्षेत्रफल का विस्तार हुआ. यह सवर्ण हिन्दू पुरुषों के एकाधिकार से बाहर निकल महिलाओं, आदिवासियों और दलितों तक पहुँचा और इन नयी आवाजों ने कविता के शिल्प को तोड़ा है तो कथ्य को बदला भी है. इस तरह जो नई तस्वीर बन रही है मैं तो उसे बेहद उम्मीद से देखता हूँ, हालाँकि इस पर विस्तार से और गहनता से तो कुछ वक़्त बाद ही देखा जा सकेगा.
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9 टिप्पणियाँ

  1. कविता के अस्तित्व,सरोकारों और सार्थकता के प्रश्नों को उठाती एक सार्थक और महत्वपूर्ण परिचर्चा...

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  2. विमलेश जी आपकी बात से पूरी सहमती बनाते हुए हमारे दोस्तों से यही गुजारिश कि यदा-कदा अपनी माटी के बहाने समकालीन सवालों पर इस तरह की परिचर्चा होनी चाहिए ताकि हम निष्कर्ष तक नहीं भी पहुंचे मगर फिर भी मुकम्मल चर्चा तो हो ही सकती है.

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  3. बिलकुल सही कहा आपने बंधुवर ! आज कविता का रूप ही बादल गया है जिस पर पुराने कवि काफी चितित होते है आज के समय मे अपनी बात भी नहीं रख पाते और उतना सम्मान भी नहीं पाते जिसके वे वाकई मे हकदार है । अच्छी शुरुआत की आपने । बहुत बधाई आपको ।

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  4. अत्यंत आवश्यक और पठनीय परिचर्चा !

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  5. समकाल को व्याख्यायित करते हुए ‘अपनी माटी' यह परिचर्चा करके अत्यन्त सार्थक पहल कर रही हैं .हर चीज को देखने का नजरिया बदल रहा है- महत्वपूर्ण परिचर्चा है .बहुत बधाई आपको ।बहुत-बहुत धन्यवाद विजेंद्र जी आभारी हूँ।

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  6. जीवन्त परिचर्चा और सार्थक टिप्पणियाँ।

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  7. 'कविता' के रचे जाने जितना ही ज़रूरी है उस पर चर्चा होना...! बधाई...!

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  8. कविता मन के भावों को प्रकट करती है। वह छंद में भी हो सकती है या फिर अधुनिकता के भावोंं में भी । जो दिल में समा जाए वो अच्छी कविता जो नहीं वो अकविता ऐसा क्यों। आखिर कविता मानदण्ड क्या हो इस पर भी परिचर्चा होनी चाहिए।
    किशोर कुमार जैन गुवाहाटी असम 09864063790

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