साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) मार्च -2014
चित्रांकन वरिष्ठ कवि और चित्रकार विजेंद्र जी |
“विभाजन से क्या मिला ?
साम्प्रदायिक राजनीति जिसे विभाजन के तले दब जाना चाहिए था,उसने सभी तीन
देशों-भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश में और भी अधिक खतरनाक रूप अख्तियार कर लिया
है|”(1) विभाजन और उससे जुडी
त्रासदी के संदर्भ में इतने सारे उद्धरण ,उदाहरण ,कहानियाँ और बिम्ब मानस में
उभरते –बिखरते रहते हैं कि उन सबको किसी तरतीब में बांधना मुश्किल होता है खैर
...|मलबे का मालिक के पुनर्पाठ पर बात करते समय हमें इस साधारण सी लगने वाली बात
का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि जो साहित्य कालजीवी होता है वही कालजयी होता है और बार
–बार दुहराए जाने से इसका महत्व कम नहीं हो जाता सामान्य रूप से कहानी के सन्दर्भ
में बात करते समय मोहन राकेश ने कहा है कि – “कहानी कि बात किसी भी कोण से उठायी जा सकती है –कहानी का शिल्प एक कोणहै ,भाषा
दूसरा,यथार्थ की अभिव्यक्ति तीसरा और सांकेतिकता
चौथा कोण और भी हैं और हर कोण से विचार कई भूमियों पर किया जा सकता है |परन्तु
किसी भी एक उपलब्धि से कहानी कहानी नहीं बनती –कहानी कि आतंरिक अन्विति का निर्माण
इन सभी उपलब्धियों के सामंजस्य से होता है “(2) मोहन राकेश के इस
कहानी के पुनर्पाठ के लिए इन संकेतों का सहारा ले सकते हैं.
कहानी कि पृष्ठभूमि में
१९४७ में भारत के राजनैतिक विभाजन के फलस्वरूप पैदा हुई मनःस्थिति है . ”देश के
विभाजन कि परिणति व्यापक रक्तपात में ही नहीं हुई बल्कि दो सम्प्रदायों के बीच दुराव
,संदेह ,त्रास ,डर ,घृणा आदि मानसिक अवधारणाओ में भी हुई “(3) इन समस्याओं का हल वस्तुतः आपसी सौहाद्र
और मूलभूत मानवीय संवेदनाओं पर आधारित है .मोहन राकेश कहानी का प्रारम्भ इसी संकेत
के साथ करते हैं | कहानी का घटनास्थल
अमृतसर है ,जहाँ लाहौर से मुस लमानों की
एक टोली हाकी मैच देखने आई थी वस्तुतः “हाकी का मैच देखने का तो बहाना ही था ,उन्हें ज्यादा चाव उन घरों और
बाजारों को फिर से देखने का था जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराये हो गए थे …..”अमृतसर को देखने कि
जितनी उत्सुकता लाहौर से आने वाली टोली को है उतनी ही उत्सुकता अमृतसर में अब बस
चुके पुराने लाहौर वालों को लाहौर के बारे में जानने कि थी |राजनीतिक सीमाओं और वतन कि मिट्टी के बीच के अंतर को
आसानी से समझा जा सकता है .वतन के प्रति उनके जो सवाल है उन सवालों में इतनी
आत्मीयता झलकती थी कि लगता था –“लाहौर एक शहर नहीं ,हजारों
लोगों का सगा सम्बन्धी है “
मोहन राकेश जी |
गनी मियाँ चिराग और उसकी
बीवी बच्चों को तो खो चुके थे पर एक बार मकान की सूरत देखकर
ही संतोष कर लेना चाहते थे |मकान के स्थान पर मलबे को देखकर उनके शरीर में जो
झुरझुरी हुई उसके लिए वो तैयार नहीं थे ,मनोरी की यह टिप्पणी की “तुम्हारा मकान
उन्ही दिनों जल गया था ,”वस्तुतः इस बात की ओर संकेत करती है की मकान ,मुहल्ले और
वहां के लोगों की भावनाओं के बारे में गनी मियाँ ने जो भी गलतफहमियाँ अभी पाल रखी
थी वे झूठी थीं और बहुत पहले ही नष्ट हो चुकी थीं ,मलबे को देखकर उनकी यह टिप्पणी
कि “यह बाकी रह गया है ?यह?” उनके भ्रम के टूटने का ही एहसास कराता है |गनी मियाँ
इतने संवेदनशील और भावुक हो उठते है की उनका इस घर की मिट्टी को भी छोड़कर जाने का
मन नहीं करता है |जब वह रक्खे से कहते हैं की तुम सब में तो भाइयों की सी मुहब्बत
थी ,फिर ऐसा कैसे हो गया ?इस प्रश्न पर राकेश की कहानी कला विशिष्ट हो उठी है
रक्खे की प्रतिक्रिया और आत्मग्लानि को राकेश ने इस प्रकार भिन्न अनुभवों के
माध्यम से व्यक्त किया है –“उसके होंठ गाढ़े लार से चिपक गए थे |उसे माथे पर किसी
चीज का दबाव महसूस हो रहा था और उसकी रीढ़ की हड्डी सहारा चाह रही थी”गनी के दो और
वाक्यों से कहानी क्लाइमेक्स पर पहुचती है एक में वह रक्खे से कहता है की रक्खे उसे
तेरा बहुत भरोसा था |कहता था की रक्खे के रहते मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता |मगर
जब जान पर बन आई तब रक्खे के रोके भी न रुकी
और दूसरा यह की “मैंने आकर तुम लोगों को देख लिया ,सो समझूंगा की चिराग को
देख लिया |अल्लाह तुम्हें सेहतमंद रखे “
इन वाक्यों ने और
गनी मियाँ की पवित्र भावनाओं ने रक्खे की आत्मग्लानि को चरम पर पहुँचा दिया |उसकी
रीढ़ की हड्डी में दर्द उठा ,कमर और जोड़ो पर दबाव महसूस हुआ ,साँस रुकने लगी ,जिस्म
पसीने से भीग गया और तलुओं में चुनचुनाहट होने लगी |उसके मुहँ से निकला “हे प्रभु
,तू ही है ,तू ही है ,तू ही है |”ऐसा लग रहा है जैसे वह अपने पापकर्म को धर्म की
आड़ में य अचेतन रूप में ही सही ,न्यायोचित ठहराने की कोशिश कर रहा था |इस पुरे
जुर्म से खुद को अलग रखने का झूठ खुद से
ही बोलने की कोशिश कर रहा था |गनी के विश्वास पर वह भीतर तक हिल उठता है उसकी
चेतना उसे झकझोरती है रक्खा कुत्ते से पराजय स्वीकार कर मलबे के पास
से हट जाता है अब उसका स्थान वह कुत्ता लेने वाला है |काफी देर भौंकने के बाद वह
कुत्ता गली में किसी को न पाकर मलबे पर
लौट आता है और कोने पर बैठकर गुर्राने लगता है –रक्खे की तरह |मनुष्यता के गिरते
जाने का यह विडंबनात्मक प्रतीक है इस पूरी कहानी में लेखक ने यथार्थ के चुनाव और
निर्वाह में सफलता प्राप्त की है –यथार्थ बिम्बों के माध्यम से |सैद्धांतिक रूप से
भी मोहन राकेश ने स्वीकार किया है कि “जहाँ कल्पनाश्रित बिम्बों का विधान कविता
में एक चमत्कार ला देता है वहाँ कहानी को वह कमजोर कर देता है |कहानीकार बिम्बों
के माध्यम से एक भाव या विचार को
सफलतापूर्वक तभी व्यक्त कर सकता है जब वे बिम्ब यथार्थ की रुपाकृतियों से भिन्न ण
हो –उनके संघटन में जीवन के यथार्थ को पहचाना जा सके “(4)
नई कहानी में
प्रतीकों को महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि इन्होने कहानी को सार्थक कलात्मकता और
सांकेतिकता प्रदान की है ,अन्तर्जगत के लक्ष्यहीन बहते यथार्थ को लक्ष्य और
बहिर्जगत की लक्ष्योंन्मुख दौडती वास्तविकता को गहराई दी है ‘मलबे का मालिक ‘इस
दृष्टि से भी महत्वपूर्ण कहानी है |मलबा विभाजन के दौरान फैले उन्माद और वहशीपन की
परिणति है | यह मलबा वस्तुतः सामाजिक संबंधो के टूटन और बिखराव का ही मलबा है |साथ
ही जले हुए किवाड़ की चौखट की लकड़ी का भुरभुराना ,सामाजिक सबंधों के विघटन के सूचक
है एक स्तर पर यह कहानी मूल्य भंग और निर्माण के बीच की कहानी भी है –कई इमारते तो
फिर खड़ी हो गई हैं ,मगर मलबे का ढेर अब भी
मौजूद है |इन प्रतीकों के माध्यम से विभाजन के दौरान फैले वैमनस्य ,त्रास और
अविश्वास के नीचे छिपी मानवीय संबंधो की जिस क्षीण धरा को अभिव्यक्त करने का
प्रयास किया गया है ‘वही इस कहानी की
विशेषता है इस विस्फोटक स्थिति का इतने सयंम से निरूपण इस कहानी के शिल्प की खूबी
है |मलबे की चौखट पर बैठा कौवा और रक्खे पहलवान की ओर मुहं कर भौकता कुत्ता इस
कहानी के सटीक संकेत है ,ये दोनों संकेत कथात्मक विवरणों के अंग बनकर आए हैं प्राथमिक
रूप से कहानी से जुड़ने के बावजूद यह कहानी सांप्रदायिकता ,उसके घात ,प्रतिघात
,राजनैतिक विडम्बना और उसके सामाजिक परिणामों के संधर्भ में व्यापक हो उठती है
|पहले स्तर पर यह कहानी केवल रक्खे पहलवान और गनी मियाँ की न होकर विभाजन की
विभीषिका से बचे उस मलबे की हो जाती है जो
हमारे सामने एक प्रश्न की तरह खड़ा है और जिसकी चौखट की सड़ी लकड़ी के रेशे झर रहें
है |इस स्तर पर मलबे का एक स्वतंत्र व्यक्तित्व उभरता है |
हमारे समाज में बड़ी
संख्या में व्यक्ति ,संगठन और समुदाय विशेष को केन्द्रित करने वाली विचारधाराएँ
,राजनैतिक दल मौजूद है जो इस मलबे पर न सिर्फ अधिकार जमाये बैठी है ,बल्कि इसका
भयानक उपयोग कर रहें हैं .गोरख पाण्डेय की
एक कविता है - “इस बार दंगे/बहुत व्यापक
,भयानक थे /आंसू और खून की बरसात हुई /अगले साल वोटों की /जबर्दस्त फसल /उगेगी |” चौरासी के सिख दंगे ,बाबरी मस्जिद –राम जन्मभूमि
के समय प्रारम्भ हुए दंगे ,गुजरात की त्रासदी और कंधमाल ये सब इस गंभीर स्थिती की
ओर संकेत करते हैं |जुबैदा किश्वर और सुल्ताना का किस्सा मलबे के साथ ही दफ़न नहीं
हो गया |यह वहशीपन हमारे समय में और मजबूत
हुआ है |अब तो रक्खे पहलवान की हड्डी में दर्द भी नहीं उठता |इतिहासकार
विपिनचंद्र के अनुसार –“सांप्रदायिकता
सबसे पहले एक विचारधारा है ,एक विश्वास
प्रणाली है जिसके जरिये समाज ,अर्थव्यवस्था और राजतंत्र को देखा जा सकता है
|” *(5)जाहिर है की यह विचारधारात्मक संघर्ष
राजनीति ,इतिहास ,साहित्य और सामाजिक आन्दोलन हर क्षेत्र में आवश्यक है .मलबे का
मालिक साहित्य के क्षेत्र में और इस रूप में मानवीय संवेदनाओं को स्पंदित करने
वाले क्षेत्र में इस व्यापक संघर्ष की की प्रतिध्वनि है |साथ ही साथ यह मनुष्यता
को बचाए रखने की पुरजोर कोशिश भी है ,इसी कोशिश के चलते यह कहानी कालजयी हो सकी है
|मलबे को सीखकर केवल गनी मियाँ ही निराश नहीं हुए है वास्तविकता तो यह है की और भी
मलबे हैं और भी लोग निराश हुए हैं |
रीता दुबे
शोधार्थी ,भारतीय भाषा केंद्र
शोधार्थी ,भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली 110067
ई-मेल:rita.jnu@gmail.com
सन्दर्भ ग्रन्थ
1-फैज अहमद फैज ;प्रतिनधि कविताएं –राजकमल पेपरबैक 2003
2-धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता –विपिनचंद्र
3-सांप्रदायिक राजनीति ;तथ्य एवं मिथक –रामपुनियानी अनुवाद –रामकिशन
गुप्ता –वाणी प्रकाशन २००५ पृष्ठ संख्या 83
4-कहानी ;नए सन्दर्भों की खोज- मोहन राकेश पृष्ठ संख्या 91
5- आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास –बच्चन सिंह ,लोकभारती
प्रकाशन पृष्ठ संख्या 363
6- नयी कहानी सन्दर्भ और प्रकृति पृष्ठ संख्या 93
7-सांप्रदायिक राजनीति तथ्य एवं मिथक पृष्ठ 247
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जवाब देंहटाएंमलबे का मालिक कहानी की मूल संवेदना
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