साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati ) मार्च-2014
फिर से खंज़र और खूंरेजी का मौसम आ रहा !
एक यहाँ फुसला रहा है एक वहां भड़का रहा !!
रंजिशों की बात लम्बी अब चलेगी हर पहर !
अब सियासी कशमकश का दौर फिर से छा रहा !!
हर शख्स वो जिससे थीं रखी हमने उम्मीदें तमाम !
अपनी नालायक जुबा से हमको ही धमका रहा !!
आज फिर निकली है बातें त्याग और बलिदान की !
जो खुद ना समझा कुछ कभी वो मुल्क को समझा रहा !!
उन सारे उस्तादों के मुह पर लाल फीता बांधकर !
वो एक बचकाना गवैया अपना हुनर मनवा रहा !!
ये मुल्क जो हर एक के सपनों की खातिर था बना !
क्यों चंद लोगों की ही ये जागीर बनता जा रहा !!
------------------------------------------------------------
दो
न तुम कुछ बोल पाते हो न मैं कुछ बोल पाता हूँ !
बड़ी बेबूझ है हालत जो ये हमने बनाई है !!
मुखातिब तुझ से ना तेरा खुदा ना मुझसे मेरा राम !
न जाने किस की बातों ने शुरू फिर की लड़ाई है !!
हमेशा से हमारे ज़हन में एक ज़हर है घोले !
बड़ी ज़ालिम सी मय है जो सियासत ने पिलाई है !!
भटक के जो 'सदा' आइ है चलकर दूर सेहरा से !
उसे आजाद मत छोडो कि वो एक मौत लाई है !!
जो खुद अपना घरौंदा रोशनी के नाम पर फूंके !
उसी बेनूर की आवाज कल किस जोर आयी है !!
न माज़ी साफ़ जिसका और ना कोई जिन्दगी बाकी !
हवस है वो जो अपने हाथ में तलवार लाई है !!
अजी किन दोज़खों के डर से सबको डराते हो !
क़यामत जिसको हो तुम ढूंढते वो तुम्ही से आयी है !!
जहां भी डर के सायों ने नशे में पाँव है रक्खा !
वहीं से खो गयी रौनक लुटी सारी खुदाई है !!
ना देखा आज तक मुड़के कभी अपनी खुदाई को !
बड़ा एहमक है वो भी जिसने ये दुनिया बनाई है !!
कई सदियों से वो काबिज़ है सब आज़ाद रूहों पर !
बड़ा ज़ालिम खुदा है और बड़ी ज़ालिम खुदाई है !!
समझकर रास्ता जिसपे अभी सब दौड़ निकले है !
कहीं मंजिल नहीं उसकी वो एक अंधी सी खाई है !!
कुछ कविताएँ
हव्वा का गुनाह
------------------
वो पहला गुनाह
एक नासूर की तरह आज भी रिस रहा है
हव्वा की उस छाती से
जिससे अदम की कौम ने
जीवन और प्रेम का पहला घूँट लिया था
हव्वा जिसने पहली बार
जन्नत के बियाबान में भटकते अदम को
अपनेपन का आइना दिखाया
उसके अकेलेपन के बंजर में
प्रेम का बीज डाला
और इल्म की रोशनी के लिए
खुदा तक से बगावत की
शायद प्रेम के खुमार में
वो सोच ना पायी थी
कि जिस खुदा ने खुद ही ज्ञान का निषेध किया है
उसका जना अदम भी
इस ज्ञान से आत्मघात ही करेगा
और इसका जिम्मा अपनी नालायकी पर नहीं
बल्कि हव्वा पर मढ़ेगा
सदियाँ गुजर गयीं हैं
उस नामालूम सी जन्नत से निकले हुए
लेकिन अदम के जेहन में आज तक यह गूँज रहा है
कि ये औरत ही है जिसने प्रेम की मिठास
और इल्म की रोशनी पहली बार पैदा की थी
और अपने बांझपन पर कुढ़ता हुआ अदम
इसे कभी बर्दाश्त नहीं कर पाया है
उसके जेहन की ये आवाज़
अब उसे सोने नहीं देती
और वो हव्वा से अपनी जहालत का बदला लिए जा रहा है
हर मुल्क में, हर सदी में,हर कौम में ...
सृजन की देवी के लिए
-----------------------------
जिस भी क्षण
तुमने सृजन की देवी होना चुना
और स्वीकार किया
एक सर्जक भूमि होना
उसी क्षण तुमने निमंत्रण दे डाला
उन निर्दयी हलों और नपुंसक बैलों को
जो तुम्हारी तरह जन्म के पुरस्कार से नहीं
बल्कि मृत्यु के भय से हांके जाते है
तुम्हारा मौन समर्पण
जो अगले अंकुरण की अभीप्सा में
अपना आँचल खोल देता है
जिस पर पिछले अंकुरों की लाशों से पुष्ट हुए बैल
और अगले अंकुरों के लोभ से चमकती आँखें
अपना पसीना बहाती है
उस पसीने की चमक
सब को नज़र आती है
उसे मिलती रही है प्रशंसाए और पुरस्कार
लेकिन तुम्हारी छाती के वे घाव
जिनमें नए जीवन की कोपलें सदा से पलती रही है
बिना कोई प्रशंसा या पुरस्कार पाए
अनदेखे ही रह जाते हैं
शायद वे नपुंसक
तुम्हें सिर्फ घाव ही दे सकते हैं
तुम्हारा आँचल सृजन के लिए तैयार हो या ना हो
उनके निष्ठुर हल और लोभी आँखें
तुम्हे ढूंढ ही निकालती है
तुम साजिशों के आकाश में उठा ली गयी दामिनी हो
या किसी की हवस का खिलौना बन गयी गुड़िया हो
तुम कहीं भी हो कोई भी हो
तुम्हारे सृजन की कला का
इन नपुंसक बैलों के समाज में
कहीं कोई मूल्य नहीं ...
लोकतंत्र और गुंडे
----------------------
कुछेक साल पहले
बड़ा मुश्किल हुआ करता था
किसी नए शहर में बसते हुए
उन लक्ष्मण रेखाओं को जानना
जिनके भीतर या बाहर रहकर
सुरक्षित जिया जाता है
बड़ा मुश्किल होता था उन लोगों को ढूँढना
जो किसी संकट से बचा सकते हैं
और उन लोगों को भी-
जो स्वयं शहर के संकट हैं
*
वो पुराने और आदिम दिन थे -
जब हमारा लोकतंत्र बचकाना था
तब नेता और गुंडे बेईमान हुआ करते थे
उनकी कथनी और करनी भिन्न होती थी
लेकिन अब का समय और है
अब वे ज्यादा 'ईमानदार' हो चले हैं
उनकी कथनी और करनी का अंतर लगभग मिट गया है
पहले वे जैसा करते थे,
वैसा कह ना पाते थे
लेकिन अब वो जैसा करते हैं
वैसा कहने भी लगे हैं
पहले वे छुपकर करते थे
अब करके भी छुपते नहीं
*
ये सौभाग्य के चिन्ह हैं
जो बताते हैं कि लोकतंत्र विकसित हुआ है
हांलाकि 'लोक' से ज्यादा
'तंत्र' ही अधिक विकसित हुआ है
लोक की 'सहन करने' की क्षमता बढ़ी है
और तंत्र की 'सहन करवाने' की
*
इस लोक और तंत्र के विकास ने
हमारी बड़ी मदद की है
कम से कम अब अजनबी शहर में पहुँच कर
गुंडों को ढूँढना नहीं होता
उनके दैदीप्यमान मुखड़े खुद ही लटक रहे होते हैं
उनकी वीरगाथाओं सहित हर गली हर चौराहे पर
एक ज़ाहिर सूचना की भाँति
ताकि शहर में घुसते हुए आप तय कर सकें
कि किनसे बचकर जीना है
और शहर से बाहर निकलते हुए
आप उन्हें धन्यवाद दे सकें
कि आप जैसे आये थे
वैसे ही जा पा रहे हैं
संजय जोठे
स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और शोधार्थी
टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोसियल साइंस,
मुम्बई (महाराष्ट्र)
ई-मेल sanjayjothe@gmail.com
|
एक टिप्पणी भेजें