साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
भारतीय साहित्य की समृद्धि में अनेक कवि, कथाकार, नाटककार, साहित्य-चिंतकों, साधु-संतों की महत्वपूर्ण भूमिका है । हिंदी साहित्य की कहानी तथा उपन्यास विधा में प्रेमचंद का नाम सबसे ऊपर है । प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में भारतीय समाज का यथार्थ चित्रण सरल एवं सहज भाषा में कर कथा साहित्य को नवीन सिद्धांत और नई दिशा से उर्जस्वित किया है । हिंदी साहित्य की चर्चा प्रेमचंद साहित्य के बिना अधूरी है । आज प्रेमचंद के साहित्य पर विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन अनुसंधान हो रहा है । इस अनुसंधान की दिशा में डॉ.कमल किशोर गोयनका का समर्पण उन्हें प्रेमचंद का आधिकारिक विद्वान घोषित करता है । डॉ. गोयनका जहाँ प्रेमचंद के साहित्य को खोजने की दिशा में काम कर प्रेमचंद की अनुलब्ध रचनाएं प्रकाश में लाए वहीं प्रेमचंद के साहित्य पर अनुसंधानात्मक कार्य से ख्याति भी प्राप्त की है । हाल ही में आपकी एक और अनुसंधान परक कृति 'प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन' नटराज प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इस अध्ययन में सभी कहानियों का कालक्रम के आधार पर विश्लेषण एवं विवेचन हुआ है । जहाँ प्रेमचंद की कहानियों के अध्ययन में पूर्व में विद्वानों ने 'मानसरोवर' के आठ खंडों में संकलित 203 कहानियों को आधार बनाया था वहीं गोयनका जी ने 298 कहानियों की रचना प्रक्रिया, उसकी मूल चेतना, उनके युग संदर्भ तथा लेखकीय अभिप्रेत की कहानी के पाठ के आधार पर समीक्षा की है । पुस्तक की भूमिका में डॉ. गोयनका ने स्पष्ट मंतव्य दिया है कि 'हिंदी का कोई आलोचक यह दावा नहीं कर सकता कि उसने प्रेमचंद की कहानियों पर जो लिखा है, वह उनकी संपूर्ण कहानियों के अध्ययन के बाद लिखा है ।' (पृ.6) साथ ही यह बात भी ध्यानयोग्य है कि पूर्व मैंने किसी साहित्यकार की रचनाओं का कालक्रमानुसार उत्कृष्ट विश्लेषण कहीं पढ़ा है अत: यह कृति अनुपम है और डॉ. गोयनका द्वारा संपादित तथा साहित्य अकादेमी दिल्ली से प्रकाशित 'प्रेमचंद :कहानी रचनावली' की अगली कड़ी के रूप में साहित्य जगत में प्रस्तुत की गई है । पुस्तक की सामग्री आठ अध्यायों में तीन परिशिष्ट के साथ 760 पृष्ठों में है ।
'प्रेमचंद
की कहानियों की कालक्रमानुसार सूची' विषयक दूसरे अध्याय में प्रेमचंद की सन्
1908 से 1936 तक कहानियों का समयानुसार विवरण दिया गया है । 'इस सूची में उर्दू और
हिंदी में प्रकाशित कहानियों को समान महत्व दिया गया है तथा कहानी का जो भाषा रूप
पहले प्रकाशित हुआ है उसे ही कहानी का प्रथम प्रकाशन काल स्वीकार किया है।'
(पृ.105) इस पुस्तक के पृष्ठ 108 से 194 तक प्रेमचंद की कहानियों का ऐतिहासिक
दस्तावेज प्रकाशन काल के अनुसार अनुसंधान परक तालिका में अनेक उपशीर्षकों के
अंतर्गत प्रस्तुत किया है । इस प्रकार का शोधात्मक विवरण इससे पहले साहित्य जगत
में अनुपलब्ध था । यह डॉ. गोयनका का स्तुत्य प्रयास है ।
'अपनी माटी'
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
समीक्षा:प्रेमचंद की
कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन /डॉ.दीपक पाण्डेय
चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा |
भारतीय साहित्य की समृद्धि में अनेक कवि, कथाकार, नाटककार, साहित्य-चिंतकों, साधु-संतों की महत्वपूर्ण भूमिका है । हिंदी साहित्य की कहानी तथा उपन्यास विधा में प्रेमचंद का नाम सबसे ऊपर है । प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में भारतीय समाज का यथार्थ चित्रण सरल एवं सहज भाषा में कर कथा साहित्य को नवीन सिद्धांत और नई दिशा से उर्जस्वित किया है । हिंदी साहित्य की चर्चा प्रेमचंद साहित्य के बिना अधूरी है । आज प्रेमचंद के साहित्य पर विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन अनुसंधान हो रहा है । इस अनुसंधान की दिशा में डॉ.कमल किशोर गोयनका का समर्पण उन्हें प्रेमचंद का आधिकारिक विद्वान घोषित करता है । डॉ. गोयनका जहाँ प्रेमचंद के साहित्य को खोजने की दिशा में काम कर प्रेमचंद की अनुलब्ध रचनाएं प्रकाश में लाए वहीं प्रेमचंद के साहित्य पर अनुसंधानात्मक कार्य से ख्याति भी प्राप्त की है । हाल ही में आपकी एक और अनुसंधान परक कृति 'प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन' नटराज प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इस अध्ययन में सभी कहानियों का कालक्रम के आधार पर विश्लेषण एवं विवेचन हुआ है । जहाँ प्रेमचंद की कहानियों के अध्ययन में पूर्व में विद्वानों ने 'मानसरोवर' के आठ खंडों में संकलित 203 कहानियों को आधार बनाया था वहीं गोयनका जी ने 298 कहानियों की रचना प्रक्रिया, उसकी मूल चेतना, उनके युग संदर्भ तथा लेखकीय अभिप्रेत की कहानी के पाठ के आधार पर समीक्षा की है । पुस्तक की भूमिका में डॉ. गोयनका ने स्पष्ट मंतव्य दिया है कि 'हिंदी का कोई आलोचक यह दावा नहीं कर सकता कि उसने प्रेमचंद की कहानियों पर जो लिखा है, वह उनकी संपूर्ण कहानियों के अध्ययन के बाद लिखा है ।' (पृ.6) साथ ही यह बात भी ध्यानयोग्य है कि पूर्व मैंने किसी साहित्यकार की रचनाओं का कालक्रमानुसार उत्कृष्ट विश्लेषण कहीं पढ़ा है अत: यह कृति अनुपम है और डॉ. गोयनका द्वारा संपादित तथा साहित्य अकादेमी दिल्ली से प्रकाशित 'प्रेमचंद :कहानी रचनावली' की अगली कड़ी के रूप में साहित्य जगत में प्रस्तुत की गई है । पुस्तक की सामग्री आठ अध्यायों में तीन परिशिष्ट के साथ 760 पृष्ठों में है ।
पहले
अध्याय प्रेमचंद : कहानीकार का इतिहास में लेखक ने हिंदी कहानी की विकास
परंपरा और उस परंपरा में प्रेमचंद के योगदान से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्यों का
उद्घाटन किया है । प्रेमचंद प्रारंभ में उर्दू में लिखते रहे और गणेशशंकर
विद्धार्थी, महावीर प्रसाद द्विवेदी, भारतेंदु, गांधी जी आदि विद्वानों के
हिंदी-भाषा आंदोलन से प्रभावित होकर हिंदी को ही समर्पित हो गए । प्रेमचंद के
उर्दू लेखक से हिंदी लेखक बनने के संबंध में रोचक जानकारी दी गई है । डॉ. गोयनका
ने इस अध्ययन में पहली हिंदी कहानी और पहली आधुनिक हिंदी कहानी के संदर्भ में
नूतन तथ्यों का उद्घाटन किया है । इस पुस्तक के पृष्ठ 53 से 54 में प्रेमचंद की
उपलब्ध 298 तथा अप्राप्त 3 अर्थात कुल 301 कहानियों के वर्षवार विवरण के साथ-साथ
प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार विवरण समाहित किया है ।
तीसरे
अध्याय में डॉ. गोयनका ने प्रेमचंद के कहानी दर्शन के अंतर्गत प्रेमचंद के
कथा साहित्य के विविध पक्षों की परख की है । प्रेमचंद ने कहानी को समाज के यथार्थ
से सहज, सरल एवं बोधगम्य भाषा में पाठकों तक पहुंचाने के प्रति कृत संकल्पित थे ।
प्रेमचंद की कहानियों का दर्शन सीमित क्षेत्र का दर्शन न होकर समग्र भारत राष्ट्र
का दर्शन था । 'प्रेमचंद ने कहानी के कथानक के प्लॉट को जीवन से जोड़ते हुए लिखा
है कि कहानियों के प्लॉट जीवन से लिए जाएं और जीवन की समस्याओं को हल करें । उन्होंने
स्वीकारा है कि मैं अपने प्लॉट जीवन से लेता हूँ।(पृ.205) प्रेमचंद ने कथा
साहित्य में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का सिद्धांत दिया और इस यथार्थवाद को नग्नता
एवं वीभत्सता से दूर रखते हुए भारत की पुरातन आदर्शवादी चेतना से मंडित किया है।
गोयनका जी ने अपने वैचारिक तथ्यों से सप्रमाण सिद्ध किया है कि प्रेमचंद ने कहानी-शास्त्र
में कथा तत्व एवं कथा की संरचना,घटना के स्थान पर चरित्रों की महत्ता,प्रत्यक्ष
अनुभव, मनोविज्ञान,कथा-पात्र-परिवेश का सम्मिलन आदर्शोन्मुख
यथार्थवाद,उपयोगितावाद एवं मंगल कामना, सत्यं-शिवं-सुंदर के नए प्रतिमान, पीडि़त-दमित
शोषित की पक्षधरता,आध्यात्मिक सामंजस्य और बोधगम्य भाषा आदि को स्थान देकर ऐसे
कहानी दर्शन का निर्माण किया, जो पराधीन भारत का ही नहीं स्वाधीन भारत की हिंदी
कहानी का भी बहुचर्चित,लोकप्रिय और सर्वस्वीकृत सिद्धांत बना दिया।(पृ.223) यह
अध्याय प्रेमचंद के सफल एवं सार्वभौम चिंतन के सभी पक्षों का उद्घाटन करता है ।
चौथा
अध्याय प्रेमचंद की 1908 से 1910 तक प्रकाशित कहानियों के विश्लेषण, मूल्यांकन
पर आधारित है । इस कालावधि में प्रेमचंद के 'सोजेवतन' कहानी संग्रह में संकलित 5
कहानियों तथा अन्य प्रकाशित 6 कहानियों के भाव-वैविध्य का सामाजिक, राजनैतिक,
राजनीतिक, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में सम-सामयिक विवरणात्मक मूल्यांकन किया गया
है । यह समय जहाँ हिंदी कहानी का प्रारंभिक काल है वहीं इस काल में प्रेमचंद की
उर्दू व हिंदी कहानियों में सामाजिक चेतना के साथ प्रखर राष्ट्रीय चेतना, देश
भक्ति और सांस्कृतिक उत्थान का भाव प्रमुखता से अभिव्यक्त होता है, लेखक ने स्पष्ट
किया है किस प्रकार नवाबराय के 'सोजेवतन' का प्रकाशन, सरकार द्वारा कृति को जब्त
करना और इसके परिणाम स्वरूप मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव पर नवाबराय को
प्रेमचंद का उदय होना हिंदी साहित्य के लिए अभूतपूर्व घटना साबित हुई ।
द्ववितीय
दशक (1911-1920) की कहानियों का अध्ययन नामक पॉंचवा अध्याय प्रेमचंद की इस
कालावधि में प्रकाशित 80 कहानियों का लेखा जोखा प्रस्तुत करता है । इन अस्सी
कहानियों में 67 उर्दू तथा 13 हिंदी की कहानियाँ थी। इस कालावधि में प्रकाशित 'सप्त
सरोज' कहानी संग्रह ने प्रेमचंद को हिंदी जगत में प्रतिष्ठा प्रदान की । नमक का
दारोगा, बूढ़ी काकी, परीक्षा, सौत, पंच परमेश्वर, विमाता, बलिदान आदि अनेक
प्रसिद्ध कहानियाँ इस समयावधि में प्रकाशित होकर हिंदी समाज में चर्चा का विषय
बनीं । डॉ. गोयनका ने इस समयावधि में प्रकाशित सभी कहानियों की भावाभिव्यक्ति के
मानदंडों की रूपरेखा दी है साथ ही सिद्ध किया है उनकी प्रेमचंद साहित्य की खोज की
प्रवृत्ति के कारण कुछ कहानियाँ प्रकाश में आ सकी हैं । इस कालखंड में प्रकाशित
कहानियों का विषय वैविध्य भारतीय सामाजिक संरचना का ताना-बाना राष्ट्रीय चेतना
से संपृक्त प्रेमचंद के व्यापक होते कहानी संसार का है ।
तृतीय
दशक (1921-1930) की कहानियों का अध्ययन नामक छठवें अध्याय में प्रेमचंद के
परिपक्व साहित्यकार की छाप है । इस कालावधि में प्रेमचंद का अधिकांश कथा-साहित्य
प्रकाशित हुआ । इस दशक में 136 कहानियाँ प्रकाशित हुईं। लेखक ने सभी कहानियों के
विषय वैविध्य का मार्मिक विश्लेषण कर उनका समसामयिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य
में गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है यह अध्ययन लेखक की गांभीर्य विश्लेषण दक्षता
का प्रमाण है । इस कालावधि में प्रेमचंद को समकलीन अनेक प्रसिद्ध कहानीकारों का भी
सानिध्य प्राप्त हुआ । मूठ, हार की जीत, शतरंज के खिलाडी, सवा सेर गेहूँ, हिंसा
परमोधर्म, बडे बाबू, पूस की रात आदि अद्भुत एवं बेजोड कहानियों का प्रकाशन हुआ ।
इस अध्याय के विवेचन में डॉ. गोयनका ने पाया है कि 'प्रेमचंद इस दशक में
यथार्थवादी हो गए और उनकी कहानियों का बीज तत्व देश-प्रेम ही था । इस बीज को
अंकुरित एवं जीवन देने में देश के नवजागरण आंदोलन, स्वराज्य, स्व संस्कृति, स्वभाषा
की चेतना, पराधीनता एवं अन्यायी सामाजिक व्यवस्था से मुक्ति, भारतीय आत्मबोध
तथा आधुनिकता को भारतीयता के अनुकूल विचारों की उथल-पुथल का महत्वपूर्ण योगदान है
। यह बीज वृक्ष में विकसित होता है और इसका मजबूत तथा स्वराज्य प्राप्ति का
प्रतीक बनता है । इस दशक की कहानियाँ पाठकों के मन में देश-प्रेम, संस्कृति-प्रेम
और भारत के आत्म बिंब को उत्पन्न करके स्वाधीनता संग्राम में एक योद्धा की तरह
उतरने के लिए जागृत और तत्पर करती है ।' (पृ. 557) डॉ. गोयनका ने इस दशक की
कहानियों की प्रवृत्तियों के यात्रा-क्रम का जो विवेचन किया है वह सुगठित, रोचक और
कहानियों के भाव बोध को बारीकी से समझने का अवसर देता है ।
चतुर्थ
दशक (1931-1936) की कहानियों का अध्ययन नामक सातवें अध्याय में लेखक ने 75
कहानियों के रचनाक्रम की वर्षवार संख्या और कहानियों के प्रतिपादय का विस्तृत
विश्लेषण किया है । इस काल की कहानियों में भी पूर्व की कहानियों में प्रतिपादित
स्वाधीनता संगाम, अहिंसक आंदोलन, राष्ट्रभाव, गांधीवादी दृष्टिकोण, सामाजिक
राजनैतिक उथल'-पुथल, ग्राम्य जीवन आदि का चित्रण यथार्थ ढंग से हुआ है । कहानियों
में चित्रित ग्रामीण परिवेश का उद्घाटन इस बात का प्रमाण है कि गाँव में सब कुछ
नारकीय तथा त्रासद न होकर वहां मनुष्यता, साहचर्य एवं पारिवारिकता के उच्चतम
प्रसंगों की सृष्टि के साथ जीवन में सामंजस्य एकता तथा उच्च जीवन मूल्यों की
अभिव्यक्ति हुई है । इस काल की कहानियों के विवेचन से स्पष्ट होता है कि
प्रेमचंद ने जिस उर्जा एवं विषय वैविध्य के साथ विषय का प्रतिपादन प्रारंभ करते
हैं उसका निर्वहन अंत तक करते चलते हैं ।
अंतिम
अध्याय उपसंहार के अंतर्गत डॉ. गोयनका ने प्रेमचंद के काल के राजनैतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक, आर्थिक सभी पहलुओं के अंतर्गत प्रेमचंद के कहानी साहित्य का मूल्यांकन
किया है ।
समग्रत:
कहा जा सकता है कि डॉ. गोयनका ने 'प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन
पुस्तक में प्रेमचंद की रचना दृष्टि सज्रनात्मकता तथा एक-एक कहानी के मर्म का
उद्घाटन किया है तथा प्रेमचंद साहित्य के संबंध में अनेक भ्रामक एवं एकांगी
आलोचनाओं को निराधार साबित कर प्रेमचंद को संपूर्ण भारतीय दर्शन में भारतीय संस्कृति,
भारतीय आत्मा, भारतीय अस्मिता एवं भारतीयता का जीवन दर्शन बुनियाद के रूप में
विद्यमान है । इस प्रकार यह पुस्तक कहानी सम्राट प्रेमचंद की कहानियों के कालक्रम
और कहानियों के प्रतिपाद्य को समसामयिक संदर्भ में देखने की नवीन दृष्टि देती है ।
यह पुस्तक प्रेमचंद साहित्य के अध्येताओं आलोचकों को नई उर्जा प्रदान करने की
दिशा में सार्थक होगी । वृहदाकार 760 पृष्ठों की पुस्तक रु; 230/- में उपलब्धता
हिंदी पाठक वर्ग को आकर्षित कर सहज रूप से अध्ययन में सहायक सिद्ध होगी ।
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